श्रीमद्भगवतगीता के हर अध्याय को यदि गम्भीरता से पढ़ें तो पायेंगे कि यह जीवात्मा और परमात्मा के बीच संवाद है । अर्जुन मर्त्यलोक में रह रही समस्त जीवात्माओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और भगवान श्री कृष्ण परमात्मा का साक्षात रूप हैं । जीवात्मा की हर भटकन का समाधान कृष्ण दे रहे हैं । दैहिक आवरण में बद्ध आत्मा भी उसी तरह स्वतंत्र है जैसे श्री कृष्ण ,किन्तु कर्म बंधन में रहकर उसे अनिवार्यतः कुछ कर्मो का निमित्त बनना पड़ता है ।
इस यात्रा में विवध घटनाओं का सामना करते हुए जब वह प्रबल जिज्ञासु हो जाता है ,तब उसका समाधान सद्गुरु करता है और ज्योंहि वह जान लेता है कि वह रंगमंच का एक पात्र है, त्योंही वह संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है ।
वह जब यह जान लेता है कि वह केवल निमित्त मात्र है, तब वह पाप पुण्य के बंधन से मुक्त हो जाता है । सवाल ये है कि वो ऐसा क्यों करे,वह क्यो इन सब को जानने की चेष्ठा करे ,क्यो न वह अन्य जीवों की तरह प्रकृति के अधीन यंत्र की तरह कर्म करता हुआ अपनी यात्रा खत्म करे? तो गीता कहती है कि,नही,,,,
उसे जो मनुष्य है,मननशील है, वह सही और गलत को समझने के लिए सवाल करता है उसे अपनी यात्रा का मकसद जानने का हक है । वो सवाल कर सकता है ,वह पाप पुण्य को समझना चाहता है ,अक्सर हमने देखा है कि जो किसी के लिए पाप है वह किसी के लिए पुण्य होता है । किसी को यदि कुछ गलत लग रहा है तो वही किसी के लिए एकदम सही हो जाती है ,,
,उदाहरणार्थ ,,,यदि किसी को फांसी की सजा दी जा रही हो तो जल्लाद जो मारेगा वो एक दृष्टि में तो हत्यारा होगा पर नही,,,, वह निर्लिप्त भाव से अपना कर्तव्य यदि ईमानदारी से कर रहा है, तो यही कर्म उसके लिए पुण्यदायी है,,भगवान अर्जुन को यही समझाना चाह रहे हैं, कि तू मत देख की तेरे विरुद्ध कौन खड़ा है ,तू सिर्फ यह देख की धर्म,न्याय और नीति के विरुद्ध जो हैं उन्हें किस तरह परास्त करना है ,और इसमें किसी की जान जा रही हो,किसी को मारना हो तो यह भी जायज है,,बस तुझे अपना भाव निर्लिप्त रखना होगा और यही साधना है ।
इस संसार मे कांटे से कांटा निकाला जा सकता है । सरल शब्दों में कहें तो यह कि कभी कभी सही मंजिल पाने के लिए गलत रास्ते पर चलना होता है।
हिंसा तो पाप है पर अन्याय,अत्याचार और अधर्म का साथ देने वालों के लिए युद्ध करना गलत नही ओर इस कर्मपथ पर चलना मुक्ति का द्वार है ,,,,,किन्तु कर्मपथ पर चलने की प्रेरणा देने वाले कृष्ण यह भी कहते हैं कि यदि तू थक गया है ,तुझसे और आगे नही चला जाता और यदि तू कर्मयोग की साधना करने में असमर्थ है तो सब त्याग कर मेरी शरण मे आ जा ,,,,मामेकं शरणम
व्रज ,,,भक्ति का भाव समर्पण का है जो कुछ है सब तेरा है तू ही पालनहार है तू ही तारणहार,,,,और जब यह भाव पूरी तरह समा जाय तब गोसांई तुलसीदास जी गाते हैं ,,,,सियाराम मैं सब जग जानी,,, करहुं प्रणाम जोरी जुग पानी,,,,
तू ही तू ही ओर बस तू ही व्याप्त है सब ओर,,,