खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग - 1
गहरी नींद में थीं वे, लगा कहीं दूर कोई गाना बज रहा है, पर जैसे जैसे नींद हलकी होती गयी, गाने का स्वर पास आता प्रतीत हुआ, पूरी तरह आँख खुलने के बाद उन्हें अहसास हुआ ये आवाज तो मेज पर पड़े मोबाईल से आ रही है. ओह! इस मुए रमेसर ने लगता है फिर से गाना बदल दिया, इसीलिए नहीं पहचान पायीं. खुद तो घोड़े बेचकर बरामदे में सो रहा है, अब बिटिया नाराज़ होगी, फोन नहीं उठाया. संभाल कर पलंग से नीचे कदम रखा, आहिस्ता आहिस्ता कदम रखते जब तक मेज तक पहुँचती, मोबाईल थक कर चुप हो चुका था. लालटेन की बत्ती तेज की, गाँव में बिजली तो बस भरे उजाले में ही आया करती है. घुप्प अँधेरा देख वो भी डर कर भाग जाती है. चश्मा लगाया और मोबाईल लेकर संभल कर पलंग पर बैठ गयीं.
देखभाल कर कॉल का बटन दबाया, कितनी माथा पच्ची करके बिटिया ने सिखाया था. पर ये क्या, यहाँ तो अंग्रेजी में कुछ गिटपिट बोल रही है. मतलब वे समझती हैं, यानि की बैलेंस नहीं है अब, ये भी रमेसर की ही कारगुजारी है, कल फिर उसकी खबर लेंगी... अभी तो बस, बिटिया के कॉल का इंतज़ार कर सकती हैं, आज जरूर दफ्तर में देर हो गयी होगी, तभी इतनी देर से फोन किया है वरना उसे भी पता है, नौ बजे ही गाँव में आधी रात हो जाती है.
आंगन की तरफ खुलते दरवाजे से आँगन में छिटकी ठंढी चांदनी नज़र आई... और एक गहरा उसांस लिया, क्या ठंढी चांदनी और क्या गरम दुपहरिया, वैसा ही सन्नाटा, पसरा होता घर में... बस यह तय करना मुश्किल कि उनके मन का सन्नाटा बड़ा है या उनके घर का.. कभी कितना गुलज़ार हुआ करता था. चौदह बरस की थीं, जब ब्याह कर आई थीं. पति कॉलेज में पढ़ रहे थे. सास ससुर, ननदों से भरा-पूरा घर, पति की दादी भी जिंदा थीं, तब. दिनभर घर में मेला सा लगा रहता. बाहर बड़ी बड़ी चटाइयों पर अनाज सुखाए जाते. आँगन में पिसाई कुटाई चलती रहती. कभी कोई बड़ा सा टोकरा सर पर लिए आता तो कभी कोई पके केले का घौद लिए. बाहर के बरामदे से ही वे लोग जोर से खांसते कि अगर नई बहुरिया यानि 'वे' आँगन में हों तो अंदर चली जाएँ. जल्दी से वे उठ कर भागतीं तो पैरों की पायल जोर की छनक उठती और लोग समझ जाते अब रास्ता खाली है.
काम तो उन्हें कुछ होता नहीं. बस सज धज कर पूरे घर में डोला करतीं. कभी एक ननद हाथों में मेहंदी लगाती तो कभी दूसरी पैरों में महावर. नई नवेली भाभी को गुड़िया सी सजा कर रखतीं.
दादी सास बहुत कड़क मिजाज थीं. ससुर जी की रोबदार आवाज बाहर गूंजती रहती पर एक बार दादी सास जोर की आवाज़ लगातीं, "कितना बोला करे है, गला ना दुखे है तेरा?" और वे चुप हो जाते. पर दादी सास उन्हें बहुत प्यार करतीं. अपने सारे काम उन से ही करवातीं और काम भी क्या, पूजा के बर्तन धो दे, उनके राधा श्याम के कपड़े सिल दे. और जब वे राधा-श्याम के कपड़े सिल उसपर गोटे सितारे भी टांक देतीं तो दादी सास निहाल हो जातीं. जब तब उसे पास बिठा लेतीं, "एक भजन सुना" उन्होंने मीठा गला, पाया था. जब वे अपने मीठे स्वर में गातीं, "मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो ना कोई" तो उनके पति भी सबकी आँख बचाते पिछले दरवाजे पर आ खड़े होते. उनकी नज़रें मिलतीं और स्वर में थोड़ी मिठास और घुल जाती.
शादी के बाद भी उनकी प्रेमलीला आँखों में ही चलती. इतने बड़े घर में वे बातें करने को भी छुप कर मिला करते. कभी अटारी पर तो कभी लोहे लक्कड़ से भरे पिछवाड़े के गलियारे में. रात के सन्नाटे में तो उनकी आवाज़ ही नहीं निकलती. उनके कमरे से लगा ही दादी सास का कमरा था. दादी सास पूरी रात खांसती रहतीं, राम जाने कभी सोती भी या नहीं. पर दिन में मिलने के हज़ार तरीके और जगह ढूंढ लिए थे, उन दोनों ने. वे एक ख़ास अंदाज़ में चूड़ियाँ खनकातीं और किताबों से घिरे पति, शायद इंतज़ार में ही होते, झट किताबें बंद कर निकल आते.
दो साल बाद जब वे माँ बनीं, तब पति कॉलेज में ही थे. पूरा घर उनके आगे बिछा जाता. घर के मामलों में रूचि ना लेने वाले, ससुर जी भी खाना खाते वक़्त, पूछ ही लेते, "बहू की तबियत कैसी है? डॉक्टर के यहाँ जाना हो तो बता देना, गाड़ी का इंतज़ाम कर दूंगा. " दोनों ननदें रोज नए नए नामों को लेकर झगडा किया करतीं. मितभाषी पति के चेहरे पर भी धूपखिली मुस्कान सजी होती. उन्हें भी विशिष्ट होने का अहसास होता.
जब ममता गोद में आई तो थोड़ा डर गयीं, शायद सबको बेटे की चाह हो पर इतने दिनों बाद घर में गूंजी एक नन्ही किलकारी ने सबका मन मोह लिया.. और, नन्ही ममता सबकी आँखों का तारा बन गयी. एक बेटी को इतना प्यार मिलता देख ही शायद भगवान ने दो साल बाद भी इक बिटिया ही भेज दी. इस बार सबने खुल कर तो कुछ नहीं कहा, पर सबके चेहरे की मायूसी ही दिल का हाल बयाँ कर गयी. वैसे भी तोतली जुबान में बोलती और डगमग पैरों से चलती ममता ही सबकी दुलारी थी. स्मिता की देखरेख का भार उन पर ही था और लगता सही अर्थों में अब वे माँ बनी हैं.
पति की पढ़ाई पूरी हो गयी थी और उन्होंने घरवालों से छुपकर रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन पत्र दिया था. सिर्फ उन्हें ही बताया था और सुन कर वे भी थोड़ी घबरा गयी थीं. पूरी ज़िन्दगी गाँव में गुजारी. कैसे शहर में रह पाएंगी? वहाँ तो सुना था लाली, पाउडर लगाए औरतें सर उघाड़े घूमा करती हैं. उनके तो सर से पल्ला भी नहीं सरका कभी. एक बार पति ने शहर से लाकर फेस पाउडर का एक डब्बा दिया था, जिसे कभी कभी वे घरवालों के डर से सोते वक़्त लगातीं. बाद में जब बेटियों को बताया था तो कैसे लोट पोट हो हंसी थीं वे. याद करके उनके मुख पर भी मुस्कान तिर आई. शहर के नाम से एक अनजाना भय तो था, पर नई जगह देखने की ख़ुशी भी थी, कहीं.
पर नौकरी के कागज़ ने वो हंगामा किया घर में कि आज भी, याद करके डर जाती हैं. ससुर जी एकदम आपे से बाहर हो गए, " नौकरी करेगा??.. इतने बड़े जमीन जायदाद का मालिक नौकरी करेगा??. शौक था पढने का पढ़ा दिया, कॉलेज में. अब नौकरी भी करेगा? क्यूँ देख रेख करूँ फिर मैं इस जायदाद की??.. जाकर काशी ना बस जाऊं?" पति ने ससुर जी के सामने कभी ऊँची आवाज़ में बात नहीं की. उनके सामने पड़ते भी कम. आने जाने के लिए भी पूरब वाला बरामदा इस्तेमाल करते. सामने से नहीं आते कभी. सर झुकाए खड़े रहे.
फिर खाना खाते वक़्त ससुर जी थोड़ा पिघले. "ठीक है दस बजे, बुशर्ट पैंट पहिन कर घर से निकलने का ही शौक है तो स्कूल की नौकरी कर लो, जब शौक पूरा हो जाए तो खेती बाड़ी संभाल लेना. " उन दिनों नया नया हाई स्कूल खुला था गाँव में और बी. ए. पास करके उनके पति शिक्षक बन गए. पर गाँव में रहकर भी ठाठ शहरों वाले. अब वे भी नई बहुरिया नहीं रह गयीं थीं. दिन भर दोनों बच्चियों की देखभाल में लगी होतीं. पति के नखरे ही इतने थे. बच्चियां बिलकुल साफ़ सुथरी शहरी अंदाज़ में पलनी चाहिए. उनके लिए चाहे बस एक पाउडर ही लाया हो. पर बेटियों के लिए सुन्दर फ्रॉक, रिबन, हेयर बैंड, लाल गुलाबी चप्पलें, सब शहर से लाते. पूरे गाँव में उनकी बेटियाँ अलग से पहचानी जातीं.
शहर में रहकर पढने पर उनका खान पान भी बदल गया था. पू रा गाँव शाम को चना चबेना, भूंजा वगैरह खाया करता. पर उनके पति को हलवा, पकौड़े चाहिए होते. चाय तो हर आधे घंटे पर. यह सब उन्हें ही बनाना पड़ता, रसोई में काम करने वाली काकी के बस का नहीं था यह सब. अब महावर और मेहन्दी क्या, चूड़ियाँ बदले भी दिन गुजर जाते. कमजोर भी हो गयी थीं और उसी में दो साल के अंतर पर दो बेटों की माँ भी बन गयीं. पूरा घर खुशियों में डूब गया. तीन दिन तक तो हलवाई लगे रहे. पूरे गाँव को न्योता था. दोनों बेटे भी पांच बरस की उम्र तक नहीं जानते थे कि गोदी के अलावा कोई और भी जगह होती है बैठने की. सास ससुर के दुलारे थे दोनों पर पति की जान बेटियों में ही बसती थी
धीरे धीरे उन पर जिम्मेवारियों का बोझ बढ़ने लगा. दोनों ननदों का ब्याह हो गया. दादी सास भी लम्बी बीमारी के बाद गुजर गयीं. बेटे भी अब स्कूल जाने लगे और उनके गिरधर गोपाल को लगा थोड़ी देर को भी उनके घर का आँगन सूना क्यूँ रहें और फिर से दो लक्ष्मी उनकी गोद में डाल दी. सबसे छोटी बेटी के तो नाम रखने का भी उत्साह किसी में नहीं था. कभी मीरा के भजन वे बड़े शौक से गाती थीं, उन्होंने प्यार से उसका नाम रख दिया, मीरा.
(क्रमशः )