मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 4
‘बिब्बो मैं बच्चे की चाहत में इतनी पगलाई हुई थी कि इनके जाने के बाद थोड़ी देर में ही तैयार हो गई। पहले सोचा कि पड़ोसन को साथ ले लूं लेकिन फिर सोचा नहीं इससे हमारी पर्सनल बातें मुहल्ले भर में फैल जाएंगी। चर्चा का विषय बन जाएंगी। यह सोच मैं अकेली ही चली गई बलरामपुर हॉस्पिटल की गाइनीकोलॉजिस्ट से चेकअप कराने। लेकिन वहां पता चला वह तो दो हफ़्ते के लिए देश से कहीं बाहर गई हैं। मुझे बड़ी निराशा हुई, गुस्सा भी आई कि यह डॉक्टर्स इतनी लंबी छुट्टी पर क्यों चली जाती हैं। दुखी मन से लौट रही थी कि शुरुआत ही गलत हुई। फिर अचानक रास्ते में एक क्लीनिक की याद आई। जिसके बोर्ड पर एक लाइन विशेष रूप से लिखी थी। ‘निसंतान दंपति अवश्य मिलें।’ आते-जाते बोर्ड को मैं काफी दिन से देख रही थी। आस-पास उस क्लीनिक के डॉक्टर यू0के0 पांडे का बड़ा नाम था। उसकी याद आते ही मैं सोचते-सोचते उसकी क्लिीनिक पहुंच गई। क़दम जैसे बरबस ही खिंचते चले गए थे उस ओर।’
‘बोर्ड पर लिखी उन बातों पर तुम्हें एकदम से इतना यकीन हो गया था।’
‘हां ... अनुभवहीनता, उतावलापन, सही-गलत की पहचान करने की क्षमता ही गड़बड़ा देती है। मेरे साथ भी यही हुआ। बिब्बो मुझे पूरा यकीन हो गया था कि मेरे मां बनने का मेरा इंतजार अब खत्म होने वाला है। मगर मेरा दुर्भाग्य चिपका रहा मेरे साथ। डॉक्टर ने न जाने कितने प्रश्न कर डाले। उसने सारी व्यक्तिगत बातें पूछ डालीं। पहले किसी अन्य के सामने जिन बातों को मैं सुनने से भी घबराती थी उस समय मुझ पर न जाने कैसा जुनून छाया था कि वह जो भी पूछता मैं खुल कर बेहिचक जवाब देती गई।
फिर उसने पेट को अजीब तरह से दबा-दबा कर देखा, वो मुझे कुछ अटपटा सा लगा था। किसी जेंट्स डॉक्टर से इस तरह मैं पहली बार चेकअप करा रही थी, मैं अब भी यह सोच कर आश्चर्य करती हूं कि उस दिन मेरी शर्म कहां चली गई थी कि जो चेकअप एक लेडी डॉक्टर से करवानी चाहिए थी वह मैंने बेहिचक एक जेंट्स डॉक्टर से करा ली। उसने जो कुछ बताया जो दवाएं दीं उससे मैं बहुत आश्वस्त हो गई थी।
शाम को इन्हें बताया सब कुछ मगर चेकअप के तरीके को छुपाते हुए। इन्होंने सारी बातें ऐसे सुनीं मानो उन्हें सुनना कोई विवशता हो। मगर फिर भी मेरे उत्साह में कमी न आई। मेरे उत्साह का अंदाजा इसी बात से लगा सकती हो कि शादी के बाद वह रात ऐसी रात थी जिस दिन मैंने इनसे संबंध के लिए खुद पहल की। इनका मूड नहीं था फिर भी सारे जतन कर तैयार किया। बहुत खुश थी कि जल्दी ही मां बन एक राजदुलारा गोद में खिलाऊंगी।
मगर इंतजार की घड़िया थीं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। डॉक्टर पहले महीने में एक बार बुलाता था फिर वह हफ़्ते में एक बार बुलाने लगा। फिर जल्दी ही हफ़्ते में दो बार बुलाने लगा। हर हफ़्ते फीस लेता था। हर बार कुछ न कुछ ऐसा बताता था कि मेरी आशाएं बढ़ जातीं। तीन महीने में भी जब कुछ परिणाम न दिखा तो मैंने डॉक्टर से कहा,
‘डॉक्टर साहब क्या दवाओं का कोई असर नहीं हो रहा है। और कब तक चलेंगी।’ डॉक्टर को लगा कि मेरा धैर्य चुक रहा है। उसने तपाक से कहा,
"आप ये कैसे कह सकती हैं कि कोई असर नहीं हो रहा है। डॉक्टर मैं हूं, मैं जानता हूं कि असर कितना हो रहा है।"
फिर उसने बड़ी गंभीर मुद्रा में मेरा चेकअप किया। सच कहूं तो मैं उसके आगे अपने को बेबस पाती थी। उसके यहां मरीजों की लगने वाली भीड़ ख़ास तौर से निसंतान महिलाओं की भीड़ ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला था। उस दिन उसने मेरा नंबर आने पर कहा,
"अगर आपको ऐतराज न हो तो मैं आपको आखिर में देख लूं। क्योंकि भीड़ ज़्यादा है मैं आपको जल्दबाजी में नहीं देखना चाहता।" उसकी बात से इम्प्रेस होकर मैं आखिर में चेकअप कराने के लिए सहमत हो गई। मेरा नंबर आने पर उसने कई ऐसी बातें पूछीं कि उन्हें बताने में पहली बार मैंने संकोच महसूस किया। जैसे कि "यह सहवास के लिए कितना वक़्त लेते हैं। आप पूरी तरह डिस्चार्ज हो जाती हैं। हफ़्ते में कितनी बार संबंध बनाते हैं।" और तमाम प्रश्नों के बाद जब अंग की जांच के लिए कपड़ा हटाने को कहा तो मैं सहम गई। क्लिीनिक में मैं ही आखिरी पेसेंट थी।
मगर राजदुलारे की चाहत ने मेरी हिम्मत टूटने न दी। मैं चेकअप के लिए तैयार हो गई। उसने मेरे निचले कपड़े को जितना मैंने हटाया था उसे और ज़्यादा हटा दिया। अब उससे छिपाने के लिए मेरे पास कुछ बचा न था। पति के बाद अब मैं पहली बार एक गैर-मर्द के सामने अपनी लाज निर्वस्त्र किए पड़ी थी। पहली बार कोई गैर-मर्द मेरे स्त्री अंग को देख रहा था। उसे छू रहा था। और वह पहला मौका भी था जब मेरी आँखें किसी डॉक्टर से चेकअप कराते समय बुरी तरह बरस पड़ी थीं। मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह वाकई चेकअप कर रहा था या मेरे शरीर से खेल रहा था। उसकी जांच का तरीका ऐसा था जैसे कि मुझे उत्तेजित कर मेरा उपभोग करने की कोशिश में हो। अंततः मैं कसमसा उठी, उसे लगा कि मेरा धैर्य टूट रहा है तो वह हट गया। मैंने भी बिजली की गति से कपड़े पहने। आ कर बैठ गई कुर्सी पर। वह सिंक में हाथ धोकर आया। चेहरे पर तनाव लिए सामने बैठ गया। मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से देखा तो बड़ी गंभीर मुद्रा बना कर बोला,
"अं ...मुझे लगता है आपके फेलोपियन ट्यूब में कुछ प्रॉब्लम है। एज फ़ैक्टर भी एक कारण हो सकता है। मगर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है, ट्रीटमेंट थोड़ा लंबा चल सकता है। ..... आप एक काम करें, मैं जो दवाएं अभी दे रहा हूं उन्हें दो हफ़्ते खाएं। उसके बाद जब आइएगा तो अपने हसबैंड को भी लेते आइएगा। संभव है उनके साथ भी कोई प्रॉब्लम हो।"
‘हे भगवान तुम इतना कुछ अकेले ही झेलती रही ? मुझे बताती तो मैं चली आती।’
‘तुम अपना घर छोड़ कर कहां आ पाती। यह संभव ही नहीं था। फिर उस समय मेरे दिमाग में ऐसा कुछ आया ही नहीं। उस दिन भी मैं दवा लेकर घर चली आई। और बिस्तर पर घंटों पड़ी रोती रही कि एक संतान के लिए मैं क्या-क्या कर रही हूं। मेरे ही साथ सब कुछ क्यों हो रहा है? मेरी ही किस्मत ऐसी क्यों है? आखिर कौन से जन्म की सजा ईश्वर मुझे दे रहा है? पड़ी आंसू बहाती रही, सोचती रही, उस शाम को मैंने इस बारे में इनसे कोई बात नहीं की। दो दिन बाद संडे को छुट्टी में इनसे कहा कि आपको भी चलना है इस बार। तो यह एकदम फट पड़े। कहा,
"मैंने कहा था न कि तुमको जो करना है करो मुझे इसमें शामिल मत करना। फिर मुझे चलने के लिए क्यों कह रही हो।"
मैं एकदम चुप हो गई। मैं जिस बात के लिए डर रही थी वही हुआ। खैर दो हफ़्ते दवा खाने के बाद मैं फिर गई डॉक्टर को बताया सब और यह भी कि हसबैंड नहीं आ सकते तो उसने घूरते हुए कहा,
"जब आपके हसबैंड ही नहीं चाहते तो आप मां कैसे बन सकती हैं। उनका इस तरह से इंकार करना यही साबित करता है कि उनमें ही बड़ी कमी है जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।"
उसने फिर तरह-तरह के प्रश्न किए कि, "आप संतुष्ट होती हैं कि नहीं। सीमेन पर्याप्त मात्रा में होता है कि नहीं।" फिर चेकअप का वही तरीका। मैंने उस दिन यह भी महसूस किया कि ठीक से चेकअप करने का बहाना कर वह जानबूझ कर मुझे आखिर तक रोके रहता है। और हर बार उसका तरीका कुछ ज़्यादा ही बोल्ड होता जा रहा है। उस दिन भी चेकअप के नाम पर उसने जो कुछ किया उससे मैं शर्म से गड़ी जा रही थी। जब क्लिीनिक से बाहर निकली तो लगा जैसे दुनिया के सामने मैं चोरी करते पकड़ी गई हूँ । मारे शर्म के पसीने-पसीने हो रही थी। मैं इतना परेशान हो गई कि रास्ते में ही यह तय कर लिया कि बच्चा हो या न हो अब इस डॉक्टर के पास कभी नहीं आऊंगी। खीज मेरी इतनी बढ़ गई कि मैंने दो दिन बाद सारी दवाएं भी फेंक दीं। अब मेरा ज़्यादा व़क्त बच्चे के बारे में सोचते और आंसू बहाते बीतता। ऐसे ही कब दो साल और बीत गए पता ही नहीं चला।
इसी बीच इनका ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया। मगर लखनऊ से इनको न जाने कौन सा लगाव हो गया था कि जोड़-तोड़ करके फिर लौट आए लखनऊ। इसके बाद फिर कभी लखनऊ न छोड़ा। लखनऊ में ही इस ब्रांच से उस ब्रांच में जाते रहे मगर लखनऊ नहीं छोड़ा। शादी के छः साल बाद ही इन्होंनें यह मकान खरीद लिया था। इस बीच बड़े-बडे़ लोगों से इनका संपर्क बढ़ता गया। छुट्टी के दिनों में लोगों का आना-जाना इतना बढ़ गया कि लगता जैसे यह कोई राजनेता हों। आने वालों में कई मंत्री, विधायक, सांसद भी होते थे। व्यस्तता कुछ ऐसी थी कि पानी पीने को भी फुरसत नहीं। मैं बरसों-बरस यह नहीं समझ पाई कि वह अपने को व्यस्त रख कर बच्चे की बात सोचना ही नहीं चाहते थे या बच्चे इन्हें पसंद ही नहीं थे।
जिस तेजी से समय निकल रहा था उसी तेजी से मेरी व्याकुलता भी बढ़ती जा रही थी। इसी बीच मैं बलरामपुर हॉस्पिटल की उस प्रसिद्ध लेडी डॉक्टर से लेकर अन्य जिन डॉक्टरों से इलाज करा चुकी थी उनमें कुछ होम्योपैथी और आयुर्वेदिक वैद्य भी शामिल थे। मगर परिणाम शुन्य निकल रहा था। हज़ारों रुपए मैं फूंक चुकी थी। कोई बात अगर मेरे पक्ष में थी तो बस यह कि शादी के बाद से ही यह करीब आधी सैलरी मुझे दे देते थे और उसके बारे में मुझ से कभी कुछ नहीं पूछते थे कि मैं कहां खर्च कर रही हूं। इस बीच बाबा, ओझा, तांत्रिक, मौलवियों आदि सभी के पास मैं जाती रही। सबने तरह-तरह की बातें बताईं। तरह-तरह के जोग-जतन, काम बताए, पूजा-पाठ, व्रत बताए, मैं अंध-भक्त की तरह सब करती रही। और परिणाम सिवाए हाथ मलने के और कुछ नहीं मिलता था। हां तरह-तरह के अनुभव ज़रूर हो रहे थे। जहां कुछ बाबा वगैरह केवल पैसे वसूलने की जुगत में रहते थे वहीं कुछ पैसा और साथ ही शरीर लूटने की कोशिश में भी रहते थे। पहले इन सबके प्रति मेरे मन में जो सम्मान होता था इन अनुभवों के साथ सब खत्म हो गया। सब मुझे ठग, बदमाश, कामुक-पिशाच नजर आने लगे।
‘मगर दीदी इन सब के बारे में तुम्हें पता कैसे चलता था।’
‘बिब्बो ज़रूरत पड़ने पर आदमी रास्ता भी ढूढ़ लेता है। डॉक्टर पांडे के यहां तो मैं अकेली ही जाती रही। मगर उसकी हरकतों से परेशान होकर अंततः मैंने चौहान जी की बीवी के सामने अपनी बात रखी। फिर उन्होंने भी अपने स्तर पर प्रयास शुरू किए। कुछ के बारे में अखबारों, पत्रिकाओं में उनके विज्ञापन से पता चला तो कुछ चौहान जी की बीवी से। बच्चे भले नहीं हुए लेकिन चौहान परिवार ने हमारी जो मदद की उसको मैं कभी भूल न पाऊंगी। उनको जहां भी कुछ पता चलता न सिर्फ़ मुझे बतातीं बल्कि साथ जातीं, पूरा वक़्त देतीं और किसी से कुछ बताती भी न थीं। और न ही कभी अहसान जतलाने की कोशिश की। एक बाबा को तो उन्होंने मेरे लिए ही अपनी जान खतरे में डाल कर उसे इसी घर में जूतों-चप्पलों से मारा और इस ढंग से भगाया कि किसी को पता भी नहीं चला।'
‘ऐसा क्या हो गया था कि बाबा को मारना पड़ा ?’
‘पूछो मत, वह ऐसा काला दिन था जिसे याद कर मैं आज भी कांप उठती हूं। उस कमीने ने मुझे लूट ही लिया था, मेरी इज़्ज़त को तार-तार करने में सफल हो जाता यदि जिया कुछ पल को भी देर करतीं । हुआ ऐसा कि उस बाबा की चर्चा बहुत थी, उसके यहां भीड़ बहुत लगती थी। चौहान जी की बीवी को पता चला तो वह हमें भी लेकर गईं। उसका ताम-झाम देख कर मैं भी बहुत प्रभावित हुई। बिना कुछ बताए ही उसने बता दिया कि मैं क्यों आई हूं तो मैं उसकी एकदम मुरीद हो गई। फिर उसके यहां आए दिन आना-जाना शुरू हो गया। तरह-तरह की पूजा-पाठ,व्रत करने लगी। जब आठ-नौ महीने बीत गए तो मैं अधीर होकर एकदम एक दिन उससे कह बैठी,
‘बाबा कब होगी ईश्वर की कृपा, आप जैसा कह रहे हैं मैं बराबर वैसा ही करती आ रही हूं मगर अब-तक निराशा ही हाथ लग रही है।’ उन्हें सब बंगाली बाबा कहते थे। मेरी बात सुन कर वह बड़ी देर तक आंख बंद किए ऊपर की तरफ ऐसे मुंह किए रहे जैसे सीधे ईश्वर से बात कर रहे हों । फिर आंखें खोल कर कहा लगता है तेरे घर में कोई बुरी आत्मा है जो भटक रही है। उसे शांत करना पड़ेगा। फिर उसने तरह-तरह की सामग्री बताई जिसे लाना मेरे लिए संभव नहीं था। फिर सबकी तरह मैंने भी कहा,
’बाबा जी आप ही मंगवा दीजिए मैं पैसा दे दूंगी । फिर उसने कुल सामान के लिए दस हज़ार रुपए बताए जिसे सुन कर मैं घबरा गई। मगर कुछ कह न सकी। और क्योंकि इतने पैसे लेकर नहीं गई थी इसलिए उनसे मोहलत लेकर चली आई कि दो-तीन दिन में लेकर आती हूं। मेरी बात सुन कर बंगाली बाबा बड़ा खुश हुआ। बड़े असमंजस में मैंने दो-तीन दिन गुजार दिए। फैसला नहीं कर पा रही थी कि क्या करूं। दस हज़ार रुपए उस समय मायने रखते थे। मेरे लिए इतना पैसा देना मुश्किल काम था। फिर घर पर सारा अनुष्ठान होना था। मगर इन सारे असमंजस पर आखिर बच्चे की चाहत फिर भारी पड़ी। चार दिन बाद मैं किसी तरह हिम्मत करके दस हज़ार रुपए दे आई। यह सारे रुपए घर के खर्चों में कटौती कर-कर के मैंने काफी दिनों में जमा किए थे। मैं इनसे पैसा नहीं मांगना चाहती थी क्योंकि मुझे पूरा यकीन था कि यह बाबा के नाम से ही भड़क जाएंगे।
ज़िया, हां मैंने यह तो बताया ही नहीं कि चौहान जी को मैं भाई-साहब और उनकी मिसेज को ज़िया कहती थी। तो ज़िया से कह कर मैंने बाबा से पूजा का वह दिन निश्चित किया जिस दिन यह शहर से बाहर थे। तय समय पर बाबा अपना सारा ताम-झाम लेकर आया। इस तीन मंजिले मकान में आसानी से किराएदार रखे जा सकते थे। मगर इन्होंने कभी नहीं रखा। जिसके चलते सब खाली ही रहता था। पूजा-पाठ के बारे में किसी को खबर नहीं हो इसलिए ज़िया ने पूजा सबसे ऊपर एकदम भीतर वाले कमरे में रखी।
‘लेकिन दीदी तुम्हें यह सब करते डर नहीं लगा। बंगाली तांत्रिकों के बारे में मैंने सुना है कि जादू-टोना करने में बड़े माहिर होते हैं।’
‘बिब्बो डर तो बहुत लग रहा था। लेकिन मैंने कहा न कि बच्चे के लिए पागल हो रही थी। मैं इतनी जुनूनी हो गई थी कि किसी भी हद तक जाने को तैयार थी। आज जब सोचती हूं, याद करती हूं कि मैं कैसे यह सब कर गुजरती थी, कहां से मुझ में इतनी हिम्मत आ जाती थी तो मैं दंग रह जाती हूं, यकीन नहीं होता कि मैं यह सब कर गुजरी। यह मेरी अतिशय हिम्मत या यह कहो कि जुनून ही तो था कि एक तांत्रिक को घर तक ले आई।’
‘तो उस तांत्रिक ने बताया कुछ।’
‘बताया क्या ..... आते ही उसने जो करामात दिखाई उससे हम और ज़िया दोनो दंग रह गए। पसीने से तर-बतर थर-थर कांप रहे थे हम। ऊपर कमरे में आते ही पता नहीं कौन-कौन सा मंत्र बकने लगा। फिर हवा में ऐसे हाथ झटक कर मुट्ठी बांध ली कि जैसे कुछ पकड़ लिया हो मुट्ठी में और जो कुछ उसने पकड़ा है वह छूटने की बहुत कोशिश कर रहा है। अचानक वह बोला,
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