नारद के बताए अनुसार पनकी ने रेडियो को रेवती दादा के आगे रख दिया और बटन दिखाकर कहा– “दादा आप चालू करो।”
दादा ने कहा– “संझा की चौपाल तभी जमती है जब झमरूआ का गाना और तुम्हारी सदबातें हों। इस रेडियो की क्या जरूरत थी? क्या तुम्हें उन पुस्तकों पर भरोसा नहीं रहा जो तुम पढ़ते हो या फिर झमरूआ का गाना तुम्हें बुरा लगने लगा।”
पनकी ने कहा– “नहीं दादा, ऐसा कुछ नहीं है। पुस्तकें तो हम पढ़ना नहीं छोड़ सकते। बस ये चुनाव की भागादौड़ी में नहीं पढ़ पा रहे। सोचा कि तारतम्य न टूटे इसलिए रेडियो ले आए। वैसे भी देश-विदेश की जानकारी मिलती रहेगी तो गाँव की प्रगति होती रहेगी।”
नारद ने कहा– “कल को पनकी जी प्रधान बन गए तो वैसे ही गाँव के विकास के लिए इधर–उधर भागते रहेंगे। तब ये रेडियो ही तो सहारा होगा।”
रेवती दादा ने उस बटन पर हाथ रख दिया जिससे ‘गाँव की प्रगति’ होती। एक पल को गाँववालों को देखा, फिर पनकी को और उसी तेजी से बटन को ऑन किया जिस तेजी से झटके का मुर्गा काटा जाता है। रेडियो पर विविध भारती सेट था। बटन दबाते ही गाना बजने लगा– ‘बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है...’
गाना बजते ही रेडियो के सबसे बड़े मुरीद जुगल के कंधे नृत्य करने लगे थे। यद्यपि वो गाना नृत्य के अनुकूल नहीं था पर चूँकि जुगल ने रेडियो में सर्वाधिक रुचि दिखाई थी। इसलिए नैतिकता के आधार पर वो नाचने लगा था। कुछ अन्य ग्रामीणों के भी कंधे नृत्य करने लगे थे।
महानपुरवासियों को केवल झमरूआ का गाना सुनने की ही आदत थी। झमरूआ के लोकगीत के शब्दों से सभी का गहन परिचय था। इस गाने में आए ‘बहार’ शब्द को तो ‘फूल बरसाओ’ से सहसंबंधित कर लिया था। परंतु ‘महबूब’ शब्द ने सभी के चेहरे पर प्रश्नभाव ला दिए थे। जीवनदास से रहा न गया तो उसने पूछा– “ये ‘महबूब’ क्या होता है पनकी भैया?”
महबूब शब्द बिल्कुल भी गाँव की संस्कृति से मेल नहीं खाता था। पनकी चूँकि साहित्यिक व्यक्ति था इसलिए महबूब शब्द से परिचित था। पर इसका अर्थ कुछ ऐसा था कि सबके सामने बताने में पनकी शर्माने लगा।
रेवती दादा ने कहा– “बताओ न पनकी, काठ बनकर क्यों खड़े हो?”
पनकी ने कहा– “दादा इसका अर्थ कुछ वैसा होता है।”
रेवती दादा ने कहा– “कैसा?”
पनकी ने शर्माते हुए कहा– “कुछ प्रेमालाप का होता है।...कोई लड़का जब किसी लड़की से प्रेम करता है तो उसे प्रेमिका या महबूब कहता है।”
प्रेम, प्रेमिका जैसे शब्दों के आने से सबके मन में गुदगुदी-सी होने लगी। युवक इधर–उधर देखने लगे। गाँव के श्रेष्ठ बेशर्म टम्मन ने दोनों हथेलियों से चोंच बनाई और चोंचों को आपस में चुंबन कराते हुए कहा– “तो ‘महबूब’ मतलब प्यार की बातें जिससे हों, वही न?”
पनकी ने झेंपते हुए कहा– “हाँ।”
प्रेम की बातों पर झेंप जाना आम भारतीय संस्कृति है जिसका विकराल रूप गाँव में दिखता है। महानपुर में इसका अतिविकराल रूप देखकर नारद को हँसी आने लगी। पर जीवनदास की जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई थी, उसने पूछा– “अच्छा पनकी, अगर आदमी औरत को ‘महबूब’ कहेगा तो औरत क्या कहेगी?”
पनकी ने कहा– “वो भी ‘महबूब’ कह सकती है।”
जीवनदास ने आश्चर्य से पूछा– “दोनों एक–दूसरे को ‘महबूब’ ही कहेंगे?”
पुष्टि के लिए पनकी ने हाँ में सिर हिलाया। जीवनदास ने कहा– “तब तो ये शहरी गाने बड़े भ्रम में डाल दिया करेंगे।”
नारद ने कहा– “भ्रम में पड़ेंगे तभी तो ज्ञान में वृद्धि होगी। पनकी जी इसीलिए तो रेडियो लाए हैं। अब देखिए पनकी जी पुस्तकें अकेले में पढ़ते हैं। तो उसका ज्ञान भी उन्हीं के पास रह जाता है। हालाँकि यहाँ चौपाल में वो बताते हैं पर इसे तो इतना ही समझो कि बाल्टी भर पानी पीने के बाद गिलास भर मूतना।”
‘महानपुर के नेता’ एक बहुत ही महान गाँव की कहानी है। इतने महान गाँव की कि यहाँ महानता की केवल बातें ही नहीं की जातीं अपितु उन्हें व्यवहार में भी उतारा जाता है। 300 बरस पहले महान बाबा ने महानपुर बसाया तो सबसे कहा कि यहाँ न कोई जाति होगी न ही धर्म। सब महानता का व्यवहार करेंगे और सबके नाम के आगे बस महान लगेगा। इस बात को महानपुरियों ने गाँठ बाँध लिया और ये गाँठ तब तक कसकर बँधी रही जब तक महानपुर में चुनाव की चिड़िया नहीं आयी। लेकिन जब चुनाव की चिड़िया ने चहकना आरम्भ किया तो महानता के मायने बदलते गये। एक जोड़ी बूढ़ी आँखों के आगे एक शहरी ने महानता को ही हथियार बनाकर महानता का गला घोंटने का हर सम्भव प्रयास किया। महानता के बोझ तले दबे महानियों के मूल स्वभाव की कुरेदन से बने नये चित्रों की रंगकारी ही है ‘महानपुर के नेता’।
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