हिमाद्रि(13)
पंडित शिवपूजन ने अपनी आयु के कई साल तंत्र विद्या सीखने में लगाए थे। भूत प्रेत को वश में करने के लिए उनका नाम दूर दूर तक फैला था। वह 87 साल के थे। किंतु अभी भी बिना सहारे के तन कर चलते थे।
मुखिया जी के घर के दालान में पंडित शिवपूजन तख्त पर पालथी मार कर बैठे थे। गांव के कई लोग सामने बिछी दरी पर हाथ जोड़े बैठे थे। मुखिया जी ने उन्हें हिमाद्रि की सारी कहानी बता दी थी। वह उसी पर विचार कर रहे थे। सब इस प्रतीक्षा में थे कि वह कुछ बोलें। कुछ देर बाद पंडित शिवपूजन बोले।
"हिमाद्रि कोई साधारण प्रेत नहीं है। वह किसी एक स्थान पर बंधा हुआ नहीं है। सारे गांव में भटकता फिरता है। इसलिए हमें कुछ विशेष उपाय करने पड़ेंगे।"
मुखिया जी ने सबकी तरफ से कहा।
"बताइए महाराज..... क्या करना होगा ?"
"पहली बात औरतें जब तक बहुत आवश्यक ना हो घर से ना निकलें। किंतु नित्य कर्म आदि के लिए तो निकलना ही पड़ेगा। अतः हर उम्र की स्त्री के गले में मेरे द्वारा दी गई अभिमंत्रित माला होनी चाहिए। जो हर समय उन्हें पहने रहना होगा। हर घर के बाहर घोड़े की नाल लगानी होगी। आलते से घर की गृहणी के हाथ के छाप दरवाज़े के दोनों ओर लगाने होंगे। इतना सब होने के बाद ही मैं मुख्य विधि आरंभ करूँगा।"
पंडित शिवपूजन के कहे के अनुसार गांव की हर स्त्री ने गले में अभिमंत्रित माला धारण की। हर घर पर घोड़े की नाल लगाई गई। गृहणियों ने आलते से अपने हाथ के निशान दरवाज़े पर बना दिए। औरतें नित्य कर्म के लिए ही घर से बाहर निकलती थीं। वह भी दल बना कर।
पंडित शिवपूजन ने गांव के उत्तरी छोर पर मैदान में तांत्रिक क्रिया की व्यवस्था कराई। मैदान के चारों तरफ बांस गाड़ कर रस्सी से घेराबंदी की गई। मैदान के बीच में हवन कुंड बनाया गया। बहुत सारी सामग्री एकत्र की गई। सब दो दिन बाद आने वाली अमावस की राह देख रहे थे।
गांव में सभी बस इसी बात की चर्चा कर रहे थे कि पंडित शिवपूजन किस प्रकार हिमाद्रि को वश में करेंगे। औरतें सबसे अधिक आतुर थीं। क्योंकी वही हिमाद्रि की सताई हुई थीं। वह सभी ईश्वर से पंडित शिवपूजन की सफलता की कामना कर रही थीं।
अमावस की रात पंडित शिवपूजन सूर्यास्त के बाद ही उत्तरी मैदान में चले गए। उनके साथ वही चार लोग थे जिन्हें उन्होंने चुना था। बाकी सबको निर्देश थे कि वह घर पर ही रहें। घर में भजन कीर्तन तथा धर्मग्रंथों के पाठ के अलावा कोई काम ना हो। किसी भी कीमत पर घर का दरवाज़ा ना खोलें।
पंडित शिवपूजन ध्यान लगा कर बैठ गए। साथ के लोग भी आँखें बंद किए ईश्वर का ध्यान करने लगे। करीब एक घंटे तक वह ध्यान में बैठे रहे। उसके बाद उन्होंने हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित की। मंत्रोच्चार के साथ विधि आरंभ हुई। पंडित शिवपूजन मंत्र पढ़ते हुए अग्नि में कई प्रकार की आहुतियां डाल रहे थे। बहुत देर तक अग्नि में आहुतियां डालने का सिलसिला चलता रहा।
पंडित शिवपूजन धानुक नामक एक दूसरे प्रेत का आवाहन कर रहे थे। इस प्रेत को पंडित शिवपूजन ने अपने वश में कर रखा था। जब कभी उन्हें मदद की ज़रूरत होती थी तो वह धानुक को सहायता के लिए बुला लेते थे। उन्हें लग रहा था कि हिमाद्रि को बांधने में उन्हें धानुक की मदद चाहिए होगी।
हवन कुंड की अग्नि से अचानक एक प्रकाश पुंज निकला। पंडित शिवपूजन के सामने हवा में स्थिर हो गया।
"क्या आज्ञा है स्वामी। मुझे किस काम के लिए बुलाया।"
पंडित शिवपूजन ने उसे हिमाद्रि की कथा सुनाई।
"वह एक व्यभिचारी प्रेत है। जब जीवित था तब कई महिलाओं के साथ उसने दुराचार किया था। मृत्यु के बाद प्रेत बन कर भी वह औरतों की इज्ज़त से खेल रहा है। तुम उसे बांधने में मेरी सहायता करो।"
"मैं अपनी पूरी शक्ति लगा दूँगा। किंतु एक विनती है स्वामी।"
"कहो....क्या चाहते हो ?"
"मैं अब इस प्रेत योनि से मुक्त होना चाहता हूँ। क्या आप मेरी मुक्ति में सहायक होंगे।"
पंडित शिवपूजन मुस्कुरा कर बोले।
"ठीक है यदि तुम हिमाद्रि को बांधने में मेरी सहायता कर सके तो मैं तुम्हें प्रेत योनि से मुक्त करा दूँगा।"
धानुक पंडित शिवपूजन का कार्य करने के लिए चला गया।
तीन सौ साल पहले की बात थी। धानुक एक प्रसिद्ध मल्ल था। उसका नाम दूर दूर तक फैला था। कई रियासतों से उसे मल्ल युद्ध के लिए बुलाया जाता था। यही उसके धनोपार्जन का ज़रिया था। उसके नाम पर कोई भी मल्ल युद्ध ना हारने का कीर्तिमान था। अतः कुछ लोग उससे जलते थे।
उसकी पत्नी नौ माह की गर्भवती थी। बस कुछ ही दिनों में उसकी संतान को जन्म देने वाली थी। किंतु उसी समय उसके पास मल्ल युद्ध का न्यौता आया। आने वाली संतान के लिए कुछ धन कमाने के लिए वह मल्ल युद्ध के लिए चला गया।
हर बार की भांति इस बार भी सफलता उसे ही मिली। उसे बहुत सा धन भी मिला। जब वह लौट रहा था तो उसे अपनी पत्नी का संदेश मिला कि वह एक पुत्री का पिता बन गया है। वह बहुत खुश हुआ। अपनी बेटी को देखने की इच्छा उसे जल्दी घर पहुँचने के लिए प्रेरित कर रही थी। वह बेटी के सुंदर रूप की कल्पना करता हुआ घर की तरफ चल दिया।
बलवंत कई बार धानुक से मल्ल में हार चुका था। वह मन ही मन उससे जलता था। कई बार कोशिश करके भी वह सीधे मल्ल में उसे हरा नहीं पा रहा था। इसलिए उसने दूसरी तरह से उससे बदला लेने की ठानी थी। वह राह में कुछ लोगों के साथ घात लगाए बैठा था। दूर से उसे धानुक आता दिखाई पड़ा। वह बहुत प्रसन्न लग रहा था।
जैसे ही धानुक पास आया बलवंत व उसके साथियों ने उस पर धावा बोल दिया। धानुक पर अचानक ही हमला हुआ था। जिसके कारण वह संभल नहीं पाया। फिर भी उसने प्रतिरोध का भरसक प्रयास किया। किंतु कई लोग एक साथ उस पर हथियारों से वार कर रहे थे। अतः वह निढाल होकर गिर पड़ा। बलवंत ने तलवार उसके पेट में घुसा दी। उसे वैसे ही छोड़ कर बलवंत और उसके साथी चले गए।
धानुक कुछ देर तक पड़ा तड़पता रहा। उसकी आँखों में उसकी नवजात बेटी का काल्पनिक चेहरा घूम रहा था। अपने खयालों में वह उसे सीने से चिपकाए हुए था। अचानक ही उसके मन में बलवंत व उसके साथियों के लिए नफरत का भाव पैदा हो गया। जिन लोगों ने उसे उसकी बच्ची को सीने से लगाने का भी अवसर नहीं दिया उनका खात्मा कर देने की इच्छा उसके ह्रदय में बलवती हो उठी। वह क्रोध में सुलग उठा।
जिस समय धानुक के प्राण शरीर छोड़ रहे थे उसके मन में अपने हत्यारों से बदला लेने की उत्कट इच्छा थी। अपनी बेटी को ना देख पाने का मलाल था। अतः प्राण त्यागने के बाद वह प्रेत बन गया।
सबसे पहले वह अपने घर पहुँचा। उसकी पत्नी उसकी मौत से बेखबर सोई हुई थी। पास ही पालने में उसकी बच्ची पड़ी थी। उसने बच्ची को जी भर कर निहारा। वह फूल की पंखुड़ी जैसी नाज़ुक और सुंदर थी। उसने उसे अपनी गोद में उठाना चाहा। उसके स्पर्श से बच्ची जाग कर रोने लगी। बच्ची का रोना सुन कर उसकी पत्नी भी जाग गई। बाहर सोई हुई दासी आवाज़ सुन कर भीतर आ गई। उसने बच्ची को उठा कर उसकी माँ को दे दिया। वह बच्ची को गोद में लेकर चुप कराने लगी। वह उस नन्हीं बच्ची से बात कर रही थी।
"चुप हो जा मेरी गुड़िया। तेरे बाबा को तेरे पैदा होने की सूचना भेज दी है। वह बस आते ही होंगे। अपनी गुड़िया के लिए ढेर खिलौने लाएंगे।"
अपनी पत्नी की बातें सुन कर धानुक तड़प उठा। वह फौरन वहाँ से निकल कर बलवंत के घर की ओर चल दिया। बलवंत व उसके साथी अपनी जीत की खुशी में बैठे शराब पी रहे थे। ठहाके लगा कर हंस रहे थे। धानुक उन्हें इस तरह जश्न मनाते देख क्रोध में जल उठा। उसने ललकारा।
"कमीनों मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था जो तुमने मुझे छल से मार दिया। मुझे मेरी बेटी तक से नहीं मिलने दिया। अब तुममें से कोई नहीं बचेगा।"
सब डर के मारे कांप रहे थे। उन्हें केवल धानुक की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी। वह दिख नहीं रहा था। धानुक ने पास रखी तलवार उठाई। उस पर लगा उसका खून अभी पूरी तरह नहीं सूखा था। उसी तलवार से उसने सबको गाजर मूली की तरह काट दिया।
अपने हत्यारों से बदला लेने के बाद वह कोई तीन सौ साल प्रेत बन कर भटकता रहा। करीब बीस साल पहले एक तांत्रिक क्रिया के दौरान धानुक पंडित शिवपूजन के बंधन में आ गया। उन्होंने उसे अपनी सहायता के लिए गुलाम बना लिया। वह पहले भी कई मौकों पर उनकी मदद की थी। पर अब वह प्रेत योनि से मुक्त होना चाहता था। आज उसने अपने मन की बात पंडित शिवपूजन से कर दी थी।
धानुक किसी भी कीमत पर हिमाद्रि को हराना चाहता था। इसलिए नहीं कि हिमाद्रि के बंधक बनने से उसकी मुक्ति की राह आसान हो जाएगी। बल्कि इसलिए क्योंकी धानुक ने सदैव औरतों का सम्मान किया था। जबकी हिमाद्रि स्त्रियों को केवल भोग की वस्तु मानता था।
हिमाद्रि को उसके किए का दंड दिलाने के लिए धानुक पूर्णतया तैयार था।