Adrashya Humsafar - 21 in Hindi Moral Stories by Vinay Panwar books and stories PDF | अदृश्य हमसफ़र - 21

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अदृश्य हमसफ़र - 21

अदृश्य हमसफ़र…

भाग 21

अनुराग से नजरें मिलते ही ममता झेंप सी गयी और नजरें झुका ली। कमरे में बस दोनो की सांसों की सुरताल की ता ता थैया गूंज रही थी। एक सहज सुकून भरी शांति चारों तरफ व्याप्त थी।

कमरें की औरा बेहद सकारात्मकता लिए हुए थी शायद देविका के सब्र, निष्ठा, विश्वास और पूजा पाठ का असर था। ममता अनुराग के मन की बात उसकी जुबान से सुनने की जुगत सोच रही थी और अनुराग अचानक से ममता के व्यवहार में आये बदलाव के विषय में सोचते जा रहे थे। ममता अपने दिल पर बोझ ले रही थी तो अनुराग के दिमाग में विस्फोटक भरा हुआ था। उस पर भी दोनो को ही न वक़्त की परवाह थी और न ही किसी और बात की। अब तो बस इंतजार था तो दबी भावनाओं के लावे को ज्वालामुखी में तब्दील होने का।

आखिर में ममता ने ही खामोशी को भंग करने की ठानी और अपनी झुकी नजरें उठाई।

ममता-" अनुराग जानते हो, बड़ौदा से वापस आने के बाद मनोहर जी 15 दिन बिस्तर पर रहे । तब तो मैंने कुछ नही पूछा लेकिन जिस दिन ऑफिस जाने के लिए तैयार हुए तो मुनीर भाई के विषय में पूछा कि आपने कभी जिक्र नही किया? जानते हो, मनोहर जी ने साफ मना कर दिया कि वह किसी मुनीर भाई को नहो जानते। मैंने उन्हें सारा किस्सा विस्तार से सुनाया लेकिन उनका जवाब वही था।

मैँ भी विचलित थी कि आखिर कौन थे और हमारी इतनी मदद क्यों कि? उन्होंने जो पैसे खर्च किये, मेरे लाख कहने के बावजूद वह नही लिए। ममता के चेहरे पर गहन आश्चर्य के भाव व्याप्त थे।

अनुराग-" उस वक़्त जिस तरह से दंगे भड़के हुए थे तो सहज ही किसी पर विश्वास नही कर सकता था। मेरे सहकर्मी जो मुनीर के भाई हैं उनके साथ मेरा तालमेल बहुत अच्छा था तो मुनीर पर भरोसा किया जा सकता था और वह भरोसे पर खरे भी उतरे। खुल कर सामने आने का तो कभी सोचा ही नही न ही चाहा मैंने। । तुम्हारी सारी खुशियाँ मनोहर जी के संग बंधी हुई रहती थी तो उनकी हिफाजत का ख्याल तो करना ही था मुझे। "

कहते कहते अनुराग मुस्कुरा दिए।

एक पल को रुककर गहरी सांस ली और फिर से शुरू हो गए।

अनुराग-" एक बात और बताऊँ तुम्हे?"

ममता-"हाँ... बताइये न। "

अनुराग-" तुम्हारे लिए एक दवाई भेजी थी मैने। "

ममता-" (कुछ याद करते हुए) अरे हाँ, ... पहुंची थी वैध जी की देसी दवाइयाँ, दो बार पहुंची थी 20 दिन के अंतराल पर। "

अनुराग-" ह्म्म्म उन्ही दवाओं की बात कर रहा हूँ। बडी माँ से पता चला मुझे कि तुम्हारे सिर में बहुत तेज दर्द उठता है जो बाद में आंखों पर उतर आता है । तभी बनवा कर लाया था। 200 किलोमीटर दूर जाकर। घर में झूठ बोलकर गया था सभी से। "

ममता-" आश्चर्य से आंखे बड़ी करती हुई बोली...किसी को भी नही पता। "

अनुराग-" ऊँहूँ...किसी को भी नही। मेरे सहकर्मी को बहुत फायदा हुआ था उन वैद्यजी की दवा से, सुना था बड़ा जस है उनके हाथों में। तभी तो गया था और देखो जीत विश्वास की ही हुई। तुम्हारा दर्द जड़ से ठीक हुआ।

ममता-" मानने वाली बात है। दर्द तो जड़ से खत्म हुआ। मुझे तो दवा मीनू ने भेजी थी। तो इसके पीछे तुम्हारा हाथ था। "

अनुराग-" पूरा पूरा जी। "

ममता-" अगर मैँ न खाती तो?"

अनुराग-" अपने नाम से भेजता तो पक्का नही खाती तुम, यकीन से कह रहा हूँ। माँ और बाबा में से किसी से जिक्र नही किया था मैंने तो बचा कौन? मीनू हमेशा इस प्रकरण में मेरी बहुत बड़ी मददगार रही। बहुत कहती थी मुझे कि ममता को बता तो दो कम से कम, लेकिन मेरा मन ही नही माना कभी। "

ममता-" ये बात तो है। " कहते कहते थोड़ी भावुक हो उठी। "उस वक़्त तो मैंने कसम खा ली थी कि तुम्हारा नाम भी न जुबान पर लाना है और न ही किसी और से सुनना है। मीनू ने कोशिश की थी तुम्हारा जिक्र करने की लेकिन मैं सुनती ही नही थी। एक दिन तो कह दिया था मीनू से कि तुम्हारा जिक्र करेगी तो मैं उससे बात ही नही करूँगी। "

गला फिर से भर आया। नजरें भीग गयी। उठी और पलंग की बगल में रखे जग से पानी का गिलास भरकर पहले अनुराग को दिया और फिर खुद पीया। अनुराग भी प्यास तो महसूस कर रहे थे लेकिन ममता से पानी मांगने में हिचक रहे थे। आंखों ही आंखों में शुक्रिया अदा करने की रस्म भी पूरी हुई।

ममता सोचने लगी थी कि एक वह है जिसने कितना सताया था अनुराग को और एक अनुराग है हर पल एक हमसफ़र और हमसाये की तरह साथ रहे बिना किसी की नजरों में आये और एक के बाद एक उसकी राह के कांटे चुनते रहे। इससे पहले की विचारों के भंवर में और फंसती अनुराग ने टोका-" ए मुंन्नी"

ममता-" जी, कहिये। "

अनुराग-" वैसे मेरी बीमारी का सबसे बड़ा फायदा मुझे अब नजर आया है। " कहते कहते स्वभाव के विपरीत अनुराग शरारती अंदाज में मुस्कुरा दिए

ममता-" वह क्या भला?"

अनुराग-" समझो खुद ही। "

ममता-" काहे दिमाग लगाऊं, खुद ही बता दो न। "

अनुराग-" एक जंगली शेरनी को भीगी बिल्ली बना दिया है देखो। कभी सोचा भी नही था कि तुम इतनी तस्सली से और प्यार से मेरी बात सुनोगी या मैं कुछ खुल कर कह भी पाऊंगा तुम्हे। "

ममता बच्चों की तरह ठुनक तो पड़ी लेकिन मन ही मन खुश थी कि चलो धीरे धीरे ही सही अनुराग के मन की गांठे खुलने तो लगी।

"क्या अनुराग, आप भी न बस हद हो। "- इतना ही कहा उसने।

अनुराग-" मुंन्नी सुन, तुम्हें माँ की चिट्ठी भी तो मिली होगी एक। "

ममता की आंखे आश्चर्य से फैल गयी और मुंह पूरा का पूरा खुल गया। तुरन्त उंगली अनुराग की तरफ उठी और बोल पड़ी-" क्या वह भी?"

अनुराग यकायक बड़ी तेज ठहाका लगाकर हंस पड़े और बोले-" जी, हांजी...वह भी मैंने ही भेजी थी। "
ममता-" उस वक़्त मुझे सच में बहुत जरूरत थी किसी के साथ की और सलाह की। माँ की चिट्ठी ने वह कमी पूरी की। पता है घर छोड़ने वाली थी मैं। मनोहर जी से बहुत भयंकर वाली लड़ाई हुई थी। कितने प्यार से सारी बातें लिखी हुई थी कि एक एक परत खुलती चली गयी। मेरी सारी उलझनें भी खत्म हुई और सारा गुस्सा भी खत्म हो गया था। "

तभी ममता के मन में आशंका ने जन्म लिया और पूछ बैठी-" लेकिन आपको पता कैसे चला? मैंने तो झगड़ें के विषय में किसी को कुछ नही बताया था। "

अनुराग-" बाबा के पास मनोहर जी ने फोन किया था। बाबा मुझे मुम्बई भेजने पर आमादा थे कि जाओ और उस पागल लड़की को समझा कर आओ। दूसरी तरफ मैं तुम्हारे सामने नही आना चाहता था। बड़े भैया या सूरज के कहने या समझाने से तो तुम मानने वाली बिल्कुल भी नही थी। माँ ने साफ मना कर दिया मुम्बई जाने से, तो और क्या करता। मुझे यही रास्ता सुझा। "

ममता-" लो, मुझे तो आज तक नही पता कि मनोहर जी ने फोन करके हमारे झगड़े की बात बताई थी। हाँ, एक बात से मुझे शक तो हुआ था कि माँ ने मुझे चिट्ठी भेजी? फोन भी तो कर सकती थी। बस बेख्याली में उनसे पूछना भूल गयी क्योकिं उस वक़्त दोनो बच्चे छोटे थे और इन्ही से घिरी रहती थी। उफ्फ, तुमने तो कमाल कर दिया अनुराग। कैसे कैसे काम करते हो। उस चिट्ठी की भाषा से मुझे कतई अंदाज नही हुआ कि ये माँ की कही हुई बातें नही हैं। हायो रब्बा। "- कहते ही ममता ने अपने दोनो हाथ दोनो गालों पर लगा लिए और मुंह गोलाकार अवस्था में खुला रह गया।

अनुराग-" ऐसे क्या मुंह फाडे बैठी हो, तुम डाल डाल तो हम पात पात। तुम्हारी हर बीमारी का इलाज है मेरे पास। भले ही शारीरिक हो या मानसिक। "

"हाय रे"- कहते कहते ममता ने तकिया उठाया और जोर से अनुराग के चेहरे पर दे मारा।

"अरे, अरे क्या कर रही हो, अरे ओ पगलौट"- अनुराग खुद को बचाने की जुगत में लग गए।

अनुराग शिद्दत से महसूस कर रहे थे कि ममता के अन्तस् में मुंन्नी अभी भी जीवित है और खुल कर खेलती है। उम्र और तजुर्बा भले ही इंसान के स्वभाव में परिवर्तन लाने में कामयाब हो जाये लेकिन वह क्षणिक होता है इंसान अपने मूल स्वभाव को नही बदल पाता। दादी बन चुकी ममता अभी अपनी मूल प्रकृति के वश में थी जिसके चलते अनुराग की तकिए सर धुनाई करने में जुटी हुई थी।

ममता ने दे दनादन चार पांच बार तकिए घुमा घुमाकर अनुराग को मारे। उनसे बचने की जद में उन्होंने जो थोड़ी भी मेहनत की उसकी वजह से हांफने लगे थे। ऊपर नीचे होती सांसों की बिगड़ी सुरताल ममता की समझ मे भी तुरन्त ही आ ही गयी। अगले ही पल तकिया नीचे रखकर अनुराग को सम्भाला और पानी पिलाने लगी।

शिकायत भरे लहजें में कहने लगी-" क्या अनुराग, अब बता रहे हो जब कुछ सजा भी नही दे सकती। "

अनुराग मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। वही निश्छल मुस्कान, मासूमियत और गम्भीरता से लबरेज, जिस पर वक़्त और हालात अपनी छाप नही छोड़ पाये थे। जानलेवा बीमारी के चलते चेहरे की कांति भले ही क्षीण हो चुकी थी लेकिन मुस्कान की जीवंतता जस की तस थी। अनुराग की मोहक मुस्कान में खोई हुई ममता अतीत के सागर में गोते लगाने पहुंच गई थी। उसे खुद पर गुस्सा भी आ रहा था कि कैसी कैसी बेवकूफियां करती रहती थी। कैसी जिद थी उसकी कि खुद को मुंन्नी कहने से भी सभी को मना कर दिया था। जिस मुंन्नी नाम से उसे हद दर्जे की चिढ़ मचती थी आज वही नाम उसे बहुत प्यारा लग रहा था।

क्रमशः

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