Das Darvaje - 8 in Hindi Moral Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | दस दरवाज़े - 8

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दस दरवाज़े - 8

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर - आठ)

***

तीसरा दरवाज़ा (कड़ी -2)

ऐनिया : मैं तेरी साहिबा

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

***

ऐनिया के साथ मेरी निकटता दिन-ब-दिन बढ़ने लगती है। हम बहुत-सी रातें एक साथ ही गुज़ारते हैं। वह आकर मेरे घर की सफाई कर जाती है। मेरे कपड़े धोकर प्रैस करके अल्मारी में टांग जाती है। मुझे उसका सरूर-सा रहने लगता है जिसे मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया। जगीरो के साथ पाँच साल रहने से जो पत्नी-सुख मुझे मिला है, अब कुछ कुछ ऐनिया में से मिलने लगता है। हाँ, इस सुख का रूप कुछ भिन्न है। इस रिश्ते में न कोई मेरा-तेरा है, न ही कोई दावा है, फिर भी बहुत कुछ है।

एक दिन ऐनिया मेरे घर आई हुई है कि अचानक मेरी बहन आ जाती है। मेरी समझ में नहीं आता कि अब मैं क्या करूँ। मैं कहता हूँ -

“यह मेरे दोस्त डेनियल की बहन ऐनिया है। मेरे पास किसी काम से आई है।“

मेरी बहन मेरी तरफ खीझभरी निगाह फेंकती है। अगले दिन ही मेरे बहनोई का फोन आ जाता है। आदत के अनुसार शाम को ही फोन करता है। इस वक्त उसने अधिया खींच रखा होता है। कहता है -

“मान लिया कि तू तरक्की कर गया, काली से गोरी पर आ गया, पर कोई ढंग की गोरी तलाश कर यार! यह क्या हुई एक बच्चे की माँ!“

ऐसी बातें मेरा सीना तो बेंधती हैं, पर मैं परवाह नहीं करता।

एक दिन मेरी भाभी कहने लगती है -

“यह अच्छी बातें नहीं। खानदान की बेइज्ज़ती होती है इनसे। इस तरह मारा मारा फिरने की बजाय तू विवाह क्यों नहीं करवा लेता।“

भाभी के पास बैठता हुआ भाई कहता है -

“तू विवाह करवाने की बात करती है, अगर किसी को पता चला कि लड़के ने गोरी रखी हुई है तो इसको लड़की कौन देगा? मुझे तो लगता है, इसे कुछ कहने का फायदा ही नहीं अब।“

मैं भाई की बात पर जवाब नहीं देता, पर सोचने लगता हूँ कि भाई की बात है तो सही। अगर बात इंडिया पहुँच गई तो मेरे लिए कठिन हो जाएगा। मैं फैसला करता हूँ कि ऐनिया के साथ संबंध कम कर दूँगा और धीरे-धीरे छोड़ ही दूँगा। ये विचार कुछ देर के लिए ही मेरे मन पर तारी रहते हैं। मुझे ऐनिया की याद आने लगती है। मुझे लगता है कि अब मैं उसको छोड़ नहीं सकता।

मेरा दोस्त इंडिया से विवाह करवाकर पत्नी ले आता है। वह मुझे अपने घर पार्टी पर बुलाता है। मैं ऐनिया को अपने संग लेकर जाता हूँ। ऐनिया को मेकअप करने की आदत नहीं है, पर उस दिन मैं उसको कहकर विशेष तौर पर तैयार करवाता हूँ। वेअन को हम उसकी सहेली सू के पास छोड़ जाते हैं। मोहन लाल ऐनिया को देखकर कहने लगता है -

“सायरा बानो, निरी सायरा बानो!... इतनी सुन्दर बीवी कैसे ले आया ओए तू?“

ऐनिया उसकी बात समझ जाती है और शरमाने लगती है।

मेरे काम पर भी जब कोई पार्टी होती है तो मैं ऐनिया को साथ ले जाता हूँ। अब वह हर समय हल्का-सा मेकअप करके रखती है और छातियों पर तीखी ब्रॉ पहनती है। वह वाकई बहुत सुन्दर लगती है। मेरे भाई को पता चलता है कि ऐनिया मेरे साथ अक्सर घूमती-फिरती है तो वह कहता है -

“यह तू बहुत बड़ी गलती कर रहा है। मुझे नहीं लगता कि तू अब उसको छोड़ सकेगा। एकाध बच्चा हो गया तो तू रह गया फिर गोरी के लायक ही।“

“भाजी, मैं बहुत अकेला था, मैं क्या करता... यह औरत बहुत अच्छी है।“

“फिर इंडिया में बैठे जो तेरे बूढ़ा-बूढ़ी तेरे विवाह का सपना देख रहे हैं और तेरे होने वाले बच्चों का, उसका क्या होगा?“

“भाजी, प्रॉमिज़, मैं उनका सपना भी पूरा करूँगा। मेरा तलाक हो लेने दो, मैं इंडिया चला जाऊँगा। ऐनिया मुझे नहीं रोकेगी।“

“वह क्या रोकेगी, तू खुद ही इश्क-पेचे की डोर की तरह उसके साथ उलझता जा रहा है।“

बात सच लगती है, पर मुझे एक बात की खुशी है कि भाजी ने ऐनिया को लेकर उतना शोर नहीं मचाया जितना नसोरा के समय मचाया था। भाभी भी कईबार ऐनिया का जिक्र मजाक में ही करती है।

मुझे पढ़ने की अभिरुचि होने के कारण मैं हर समय कोई न कोई किताब अपने पास रखता हूँ। एक दिन मेरे पास पंजाबी की एक किताब होती है। ऐनिया किताब को उलट-पुलटकर पूछती है -

“यह कौन-सी भाषा है?“

“पंजाबी।“

“तू पढ़ लेता है यह?“

“मेरी तो माँ-बोली है यह भाषा।“

“सच!... मुझे याद ही नहीं था कि तू तो इंडियन है।“

कहते हुए वह हँसने लगती है। फिर पूछती है -

“तुझे मैंने कभी इंडियन म्युजिक सुनते तो देखा नहीं, क्यों पसंद नहीं?“

“पसंद है, बहुत पसंद है।“

“पर तेरी कार में तो हमेशा समाचार ही चलते रहते हैं।“

“म्युजिक भी मैं कभी-कभी सुन लेता हूँ, पर मुझे इंग्लिश म्युजिक भी बहुत अच्छा लगता है।“

“इंग्लिश म्युजिक का तो कोई मुकाबला ही नहीं।“

“म्युजिक की एक ही भाषा होती है, यह इन्सान के मन को एक तरह से ही खींचता है।“

“तेरी यह बात तो ठीक है। याद है, हमने फिल्म देखी थी - विटनस। उसका म्युजिक कितना पॉवरफुल था। न कोई शब्द और न कोई बोल...सिर्फ़ कुछ साज ही थे।“

मैं उसके मित्रों से मिलता रहता हूँ। हम उनकी पार्टियों पर भी जाते हैं। उसकी मित्रता में गोरे लोग ही हैं। वे लोग मुझे ऐनिया के साथ देखकर एकबार तो हैरान रह जाते हैं, पर फिर संभलकर विशेष प्रकार से मुस्कराने लगते हैं। कभी कभी मुझे महसूस होता है कि वे मुझे लेकर ऐनिया से मजाक भी करते होंगे।

एक दिन हम ग्रैंड यूनियन कैनाल के किनारे किनारे घूम रहे हैं। अचानक दूसरी तरफ से दो लड़कियाँ आती हुई दिखाई देती हैं। दोनों ही भारतीय हैं। उन्होंने ऊँची-सी निक्करें पहन रखी हैं। उनकी गोल, सुडौल और देसी रंग की टांगें देखकर मेरे मन में लहर-सी दौड़ जाती है। काफी समय तक गोरा रंग देखते रहने के बाद अपने रंग पर मोह कुछ अधिक ही आने लगता है। ऐनिया कुछ कुछ समझते हुए प्रश्न करती है -

“तुझे ये साड़ी वालियाँ बहुत अच्छी लगती हैं?“

वह हर भारतीय स्त्री को ‘साड़ी वाली’ ही कहा करती है। मैं उत्तर देता हूँ -

“नहीं, ऐसी बात नहीं। हाँ, साड़ी वाली की इतनी सुन्दर टांगे कम ही देखने को मिलती हैं।“

“मैंने भी देखी हैं ये, ज़रा मोटी थीं। औरत की टांगे सिर्फ़ इस साइज़ की होनी चाहिएँ।“ कहते हुए वह अपनी स्कर्ट ऊपर उठाकर दिखाने लगती है। मैं कहता हूँ -

“ऐनिया, तेरा तो कोई सानी नहीं।“

मेरी इस बात पर वह खुश हो जाती है।

एक दिन ऐनिया मेरे घर रसोई में कुछ बना रही है। भाजी का फोन आता है। पूछता है -

“क्या हो रहा है?“

“कुछ खास नहीं। बताओ।“

“मैं काम पर हूँ और तेरी भाभी ज़रा बाहर गई हुई है। अगर तू घंटे भर के लिए बच्चों के पास चला जाए तो...।“

“मैं अभी चला जाता हूँ।“

मैं ऐनिया को अपने संग ही ले जाता हूँ, यह सोचकर कि वहीं से इसको इसके घर छोड़ दूँगा। हम घंटाभर भाजी के घर उनके बच्चों के पास ठहरते हैं। भाभी लौट आती है तो हम वहाँ से चल पड़ते हैं। इसी बात पर हंगामा खड़ा हो जाता है। भाजी गुस्से में कहता है -

“तूने यह गन्द मेरे घर में क्यों डाला? तू इसको यहाँ क्यों लेकर आया?“

मैं माफ़ी मांगकर छुटकारा पाता हूँ।

एक दिन काम से लौटते हुए मैं ऐनिया के घर जा पहुँचता हूँ। वह मुझे देखते ही घबराई-सी कहने लगती है -

“ओ मॉय गॉड! तीन दिन ऊपर हो गए, लगता है, मैं प्रैगनेंट हूँ।“

“पर इतना घबराई हुई क्यों है?“

“यह कोई छोटी बात है?... मैं पै्रगनेंट नहीं होना चाहती। मैं कोई रिस्क नहीं ले सकती।“

“क्यों, क्या बात हो गई?“

“मैं तेरे बच्चे की माँ नहीं बन सकती। यह तो बहुत बुरी बात होगी। तेरा बच्चा तेरे रंग का होगा और गोरे लोग उसको बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे। तुझे पता है कि यह दुनिया कितनी नस्लवादी है! तेरे साथ दोस्ती रखकर ही बहुत कुछ सुनना पड़ता है, अगर यह बच्चा हो गया तो सोच, लोग क्या कुछ कहेंगे।“

“क्या कहेंगे लोग!... बच्चा तेरा-मेरा है या लोगों का?“

“बच्चे का जीना कठिन हो जाएगा... ये वेअन ही इसको पीट पीटकर मार देगा! जॉय, तू दुनिया के सच को समझ।“

वह बोलती जा रही है। मैं उसके कंधे पकड़कर शांत करवाते हुए कहता हूँ -

“क्यों चिन्ता किए जा रही है। अगर बच्चा नहीं चाहिए तो इससे छुटकारा पाने के पचास तरीके हैं।“

“नहीं नहीं, मैं गर्भपात नहीं करवा सकती। तू जानता है कि मैं धार्मिक स्त्री हूँ।“

मैं सोचने लगता हूँ कि मेरी नस्ल, मेरा रंग हार रहा है। मैं कहता हूँ -

“ऐनिया, तू फिक्र न कर। मैं बच्चे को गोरों में छोड़ूँगा ही नहीं, मैं खुद पाल लूँगा।“

“तू कैसे पाल लेगा! तुझे तो अपनी शर्ट भी प्रैस करनी नहीं आती। फिर, बच्चे तो माँ ही पाला करती है।“

अगली सुबह वह गुसल से लौटकर बहुत खुश है। कहती है -

“थैंक गॉड, सब ठीक हो गया। मेरी तो जान ही मुट्ठी में आ गई थी। मैं तो वैसे ही मर जाती।“

मैं उदास होने लगता हूँ। ऐनिया मेरे रंग को लेकर यदि इतना ही भयभीत है तो मेरा उसके साथ रहने का क्या अर्थ? पर उसी वक्त मैं सोचने लगता हूँ कि मेरे घर में भी एक गोरी के साथ रहने के कारण मुसीबत खड़ी हुई पड़ी है। ऐसी सोचें मुझे बेचैन करने लगती हैं।

कभी-कभी मैं अपने भविष्य को लेकर सोचने लगता हूँ कि मेरा क्या होगा? क्या मैं दुबारा आम-सी पारिवारिक ज़िन्दगी जी सकूँगा? क्या पहले की तरह मेरे दोस्त होंगे? रिश्तेदार मेरे घर आने में गर्व महसूस करेंगे या फिर यूँ ही चलताऊ-सी ज़िन्दगी ही जीता रहूँगा? कभी-कभी मेरे मन में विचार आने लगता है कि क्यों न ऐनिया के साथ ही विवाह करवा लूँ और एक टिकाऊ-सा जीवन बिताऊँ। ऐनिया एक अच्छी औरत है। एक बच्चा ही तो है। यह बड़ा होकर अपनी राह हो जाएगा। वैसे वेअन की ओर देखकर मेरे मन में भी अपने बच्चे को लेकर इच्छा ज़ोर मारने लगती है। एक दिन मैं उससे पूछता हूँ -

“ऐनिया, क्यों न हम विवाह कर लें।“

“विवाह तो करवा लें पर मुझे तेरा बच्चा नहीं चाहिए। कारण तू जानता ही है।“

“विवाह का मतलब तो बच्चे लेना भी है।“

“ज़रूरी नहीं... जॉय, दुनिया बहुत बदल चुकी है।“

“हो सकता है, पर परिवार के अर्थ अभी भी वही हैं - पत्नी, बच्चे और घर।“ मैं कहता हूँ।

मैं एक-दो बार और ऐनिया से इस विषय पर बात करता हूँ। वह संग रहने के लिए तो राजी है, विवाह करवाने को भी तैयार हो जाती है, पर बच्चे उसको किसी भी हालत में स्वीकार नहीं। इस बारे में सोचते हुए मेरे मन में रंज-सा होने लगता है। मेरे मन में एक तरेड़-सी भी उभरने लगती है। मेरा दिल चाहने लगता है कि छोड़ दूँ इसे और कोई दूसरी राह लूँ। मैं सोचता तो बहुत कुछ हूँ, पर उसको कुछ नहीं कहता। फिर, कुछ अरसे बाद ऊषा मेरे जीवन में पिछले दरवाजे़ से दाखि़ल होती है। मेरा कुछ कुछ ध्यान उसकी ओर बंटने लग पड़ता है।

इन्हीं दिनों मेरी नौकरी छूट जाती है। काम से बहुत सारे लोग मुआवज़े के कुछ पैसे देकर निकाले जा रहे हैं। मेरा नाम भी आ जाता है। मुझे चिन्ता होने लगती है कि दुबारा कोई नौकरी खोजनी पड़ेगी। मेरा भाई कहता है -

“नौकरी से तो अच्छा है, कोई दुकान देख ले। दुकान लेगा तो बंध जाएगा और इन औरतों से भी पीछा छूट जाएगा। जब उन्हें टाइम ही नहीं दे सकेगा तो वे खुद ही तुझे छोड़ जाएँगी।“

“भाजी, यह ऐनिया ऐसी औरत नहीं है।“

“तू कैसी बातें करता है यार! मेरा सारी उम्र का तजु़र्बा है। ये गोरियाँ तो पैसे खाने वाली मशीनें होती हैं। तूने पैसे खिलाना बंद किया नहीं कि इन्होंने दूसरा आदमी पकड़ा नहीं।“

“हम सभी गोरी स्त्रियों को लेकर ऐसी बात नहीं कह सकते।“

मैं पूरे यकीन से ऐनिया का पक्ष लेने लगता हूँ।

“चल, थोड़ा और ठहर ले। सब तेरे सामने ही आ जाएगा। वह कहा करते हैं न कि नाई, बाल कितने बड़े हैं, नाई कहता - जजमान, ज़रा ठहर, तेरे सामने ही आ जाएँगे।“

यह कहकर वह हँसता है, पर मैं उसके साथ बिल्कुल सहमत नहीं हूँ। उसके साथ बहस करने का कोई लाभ भी नहीं है।

(जारी…)