Vaishya Vritant - 11 in Hindi Love Stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | वैश्या वृतांत - 11

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वैश्या वृतांत - 11

चलो बहना सब्जी लायें

यशवन्त कोठारी

‘आज क्या सब्जी बनाऊं ? यदि आप पति हैं तो यह वाक्य हजारों बार सुना होगा और यदि आप पत्नी हैं तो यह प्रश्न हजारों बार पूछ़ा होगा। यदि दोनो ही नहीं हैं तो आपकी सूचनार्थ सादर निवेदन है कि दाम्पत्य जीवन के महाभारत हेतु ये सूत्र वाक्य है। जो दाम्पत्य जीवन के रहस्यों से परिचित हैं , वे जानते हैं कि सब्जी क्या बनाउं से शुरू हो कर यह महाभारत कहां तक जाता है। खुदा का शुक्र है कि विज्ञान की प्रगति के कारण सब्जी लाने का कार्य आजकल साप्ताहिक रूप से होता है। फ्रिज में इकट्ठी सब्जी जाकर भर दी जाती है और यथा आवश्यकता प्रयुक्त कर ली जाती है। सारी गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। जो लोग पहले सायंकाल बाजार से घर जाते समय ताजा सब्जी ले जाते थे, उनहे यह ब्रह्म वाक्य (आज क्या सब्जी बनाऊं) नहीं सुनना पड़ता था क्योंकि जो ताजा सब्जी लेकर पति देव घर पहुंचते थे उसे ही पत्नी जी बनाकर परोस देती थी लेकिन अब फ्रिज में कई सब्जियां पड़ी हैं । सुबह से अबोला चल रहा है और इस मौन को तोड़ने हेतु पत्नी जी शाश्वत सवाल हवा में उछाल देती हैं।

‘‘आज क्या सब्जी बनाऊं’’?

इस शाश्वत सवाल का शाश्वत जवाब है।

‘‘ जो तुम चाहो।’’ बस अब इस वाक्य का अर्थ है कि महाभारत शुरू होना ही चाहता है। मैं इस महाभारत से बचने के प्रयास करता हूं। और इसी बचाव की प्रक्रिया में उन्हें सब्जी मण्डी की सैर कराने ले जाता हूं। अब कुल मिलाकर सीन ये हैं भाई साहब कि मैं अपने दुपहिया वाहन पर बैठा हूं, पीछे वे बैठी हैं, कुछ थैले, झोले, टोकरियां आगे लटक रही हैं और हम दोनों सब्जी मण्डी की ओर अग्रसर हो रहे हैं। प्रति रविवार हम यह काम आनन्द से करते हैं ताकि पूरा सप्ताह ‘सब्जी क्या बनाऊं ’ के महाभारत से बच सकें।

सब्जी मण्डी के आस-पास माहौल काफी रोचक तथा उत्साहवर्धक दिखाई देता है। कुछ समझदार पति अपनी-अपनी पत्नियों को मण्डी के अन्दर भेज देते हैं और बाहर खड़े-खड़े अन्य महिलाओं के सब्जी लाने-ले जाने की प्रक्रिया का गंभीरता से अध्ययन करते हैं। कुछ बुद्धिजीवी किस्म के पति एक अखबार खरीद लाते हैं और वाहन पर बैठ कर पारायण करते हैं। कुछ पति अपनी पत्नी के साथ सब्जी मण्डी के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। भाव-ताव में पत्नी का निर्णय ही अंतिम और सच साबित होता है।

कई बार मैं देखता हूं कि महिलाएं सब्जी मंडी में ही अपनी सहेलियों, रिश्तेंदारों से गप्प मारने लग जाती हैं। उन्हें सब्जी से ज्यादा चिन्ता साड़ी की डिजाइन, जूड़े के आकार तथा लिपस्टिक की रहती है।

कुछ महिलाएं सब्जी के साथ-साथ धनियां, मिर्ची की मुफ्त मांग पर अड़ जाती हैं। कुछ महिलाएं सब्जी लाने का राष्ट्रीय कार्यक्रम युद्ध स्तर पर तय करती हैं। जबकि कुछ महिलाएं मोहल्ले से ही झुण्ड बनाकर सब्जी लाने जाती हैं। कुछ महिलाएं सब्जी मण्डी के साथ-साथ फल, नमकीन भी खरीद लेती हैं। कुल मिलाकर शॉपिंग का असली आनन्द देखना हो तो सब्जी मण्डी चले जाइये। इधर जब से प्याज आलू के भाव चढ़े हैं, सब्जी लाना एक मुश्किल काम हो गया है। साप्ताहिक सब्जी लाने वाली पाठिकाएं जानती होंगी कि इस बार बजट गड़बड़ा गया है और ताजा और मौसम के प्रतिकूल सब्जी खरीदना मुश्किल काम हो गया है। कभी-कभी सब्जी मण्डी में बड़ा आनन्द आता है। एक महिला से सब्जी वाली ने पूछा- ‘‘बहन जी आप एम.ए. हैं क्या ?’’ महिला बड़ी खुश हुई और कहने लगी-

‘‘तुम्हें कैसे पता लगा ?’’

‘‘ बहिन जी आप टमाटर पर कद्दू रख रही हैं इसी से मैं समझ गयी।’’

एक अन्य अवसर था, पति ने कुछ सब्जियां छांटी, तुलवाई, मगर पत्नी ने आकर सभी सब्जियां को नाकारा साबित कर दिया। बेचारे पति महोदय अपना-सा मुंह लेकर रह गये। वैसे सच पूछो तो पति का उपयोग केवल थैले, झोले या टोकरियां उठाने में ही होता है। बाकी का सब काम महिलाएं ही सम्पन्न करती हैं।

सब्जी मण्डी का मैंने बड़ी बारीकी से अध्ययन किया है। मैंने पाया है कि सब्जी लेने आने वाली महिलाएं अधिकतर प्रौढ़ वय की होती हैं। घर में बहू, पोते हैं अब करें तो क्या करें। चलो दर्शन भी कर लेंगे और सब्जी भी ले लेंगे। मगर सास की लाई सब्जी बहू को पसन्द नहीं आती है। जेठानी की सब्जी को देवरानी रिजेक्ट कर देती है और ननद भाभी की सब्जी को ही नहीं सब्जी बनाने की विधि को ही आउट आफ डेट घोषित कर देती है।

सब्जी खरीदना, एक कला है। जो हर एक के बस की बात नहीं है। मैं इस कला में अनाड़ी हूं अतः सब्जी मण्डी के बाहर ही खड़ा रहता हूं। कभी-कभी एक अखबार भी खरीद लेता हूं। साप्ताहिक सब्जी खरीद कार्यक्रम सम्पन्न करने में मेरा योगदान वहीं है, जो घड़े के निर्माण में गधे का होता है।

महंगे प्याज और सस्ती कार की चर्चा भी सब्जी मण्डी में अक्सर सुनाई पड़ती है। ये टमाटर कैसे दिये। अरे तुम्हारा लॉकेट तो बहुत चमक रहा है, कब खरीदा। सुनो, तुम्हारी उसके क्या हाल हैं आजकल। तुम तो दिखाई ही नहीं हो। हमारा क्या है भाई हम तो एक खूटे से बंधे हैं। तुम ठहरी आजाद पंछी । तुम बताओ दफ्तर में कैसी कट रही है? ये सब बातचीत के टुकड़े मण्डी के अन्दर सुनाई पड़ते हैं।

साड़ियों की डिजाइन की भी चर्चा चलती रहती है।

‘‘ये साड़ी कब खरीदी ?’’

‘‘वो दिल्ली गये थे तो लाये थे।’’

‘‘अच्छा और ये सोने की चैन कब ली ?’’

कहां प्याज और कहां सोना और कार मगर सब्जी मण्डी में सब चलता है। जो पति मण्डी के बाहर रह जाते हैं, वे पत्नी के अन्दर जाने के बाद दूसरे रास्ते से मण्छी का एक चक्कर जरूर लगाते हैं पत्नी के आने से पहले यथा स्थान स्थापित हो जाते हैं। सामान्यतया प्रौढ़ वय के ये पति बाहर ही खड़े-खड़े अपने परिचितों से घर, बाहर, दफ्तर, भावों की चर्चा करते हैं। चुनाव का मौसम हो तो राजनीति का जो विश्लेषण सब्जी मण्डी में प्राप्त होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। नेताओं की तरह सस्ते खरबूजे ले लो। सरकार बन गई तो माल नहीं मिलेगा। मेरी एक स्थाई सब्जी वाली कहती है- ‘रात को फोन आ गया, अब सब्जी महंगी मिलेगी।’

सब्जी के इस प्रबंध में मोहल्लें तक आने वाले सब्जी वालों , ठेले वालों तथा मालियों का वर्णन भी आवश्यक है। ये गरीब अपनी दो जून की रोटी के लिए गली-गली सब्जी बेचते हैं और जो बची रहती है उसे ही रात को बनाकर अपना पेट भरते हैं।

इधर एक शोध लेख मेरे दृष्टि-पथ से गुजरा है जो महिलाओं की पत्रिका में छपा है- ‘सब्जी कैसे खरीदें ?’ सब्जी खरीदने में सावधानी रखें। सब्जी के लिए थैला बनायें। अलग-अलग सब्जी के लिए अलग-अलग थैला ले जाये आदि आदि।

सब्जी एक शाश्वत आवश्यकता है। रोटी के साथ साग या सब्जी या भाजी नहीं हो तो जीवन की कल्पना भी मुश्किल है ,लेकिन पत्नी फिर पूछ रही है-क्या सब्जी बनाऊं ?’

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यशवन्त कोठारी

86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर

जयपुर 302002 फोन 9414461207