Refuse in Hindi Classic Stories by Mukteshwar Prasad Singh books and stories PDF | इन्कार

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इन्कार

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​आज राजा देवकीनन्दन एण्ड डायमंड जुबली महाविद्यालय ,मुंगेर के कैम्पस में नयी चहल-पहल थी। ऐसी चहल पहल प्रायः प्रतिवर्ष देखी जाती है जब इन्टरमीडिएट कक्षाओं का सत्रारम्भ होता है और पढ़ाई शुरु होती है।
​मैट्रिक पास छात्र महाविद्यालय में नामांकन कराते हैं और स्कूली पढाई से आगे काॅलेज लाइफ में प्रवेश करते हैं। छात्रों में मैट्रिक परीक्षा देने के साथ ही काॅलेज पहुँचने की ललक बढ़ जाती है। काॅलेज के नये परिवेश को अनुभव करने की जिज्ञासा तीव्र हो जाती है।कुछ संशय भी बना रहता है, कैसा होगा काॅलेज का रुटिन अनुशासन ,पहनावा-ओढ़ावा, चाल-ढाल आदि आदि। किस कदर प्रथम दिन ’लेक्चर थिएटर’ में बैठेंगे, प्राध्यापक पढ़ाएंगे, क्या पूछताछ करेंगे जैसे दर्जनों सवाल मन में ऊथल पुथल मचा रहे थे। आज इन्टरमीडिएट की प्रथम कक्षा सुबह आठ बजे शुरु होने वाली थी। नव नामांकित सभी छात्रों में उत्युकता थी। सभी बेसब्री से कक्षा शुरु होने का इंतजार कर रहे थे। इंतजार की अवधि में कई छात्र अपनी जान-पहचान वाले छात्रों से टोलियों में खड़े अथवा बैंच पर बैठ बातें कर रहे थे। परन्तु मनीष नाम का छात्र चुपचाप अकेले में एक साइकस के पौधे के निकट खड़ा था और ’सायकस’ की पत्तियों को गौर से निहार रहा था। शायद इस तरह का पादप वह पहली बार देखा था। मनीष का जाना-पहचाना एक भी छात्र यहाँ नहीं था।कक्षा शुरु होने की घंटी बजते ही निर्धारित कमरा संख्या -"एल॰टी॰ -1’’ की ओर तेजी से चल पड़े। जिसने ’’एल॰टी॰-1’’ कमरा नहीं देखा था वे भी अन्य छात्रों के संग आगे-पीछे वहाँ पहुँच गये।
​नए आये छात्र स्कूलों से निकले थे सो भाग दौड़ कर बेंच पर बैठ डेस्क परकापियां रखने लगे। कोलाहल होने लगी कमरे में। मनीष विज्ञान का छात्र था। वह एल॰टी॰-1 में घुसा, परन्तु छात्रों की भगदड़ से अलग दीवार से सटा तब तक खड़ा रहा जब तक सभी बैठ नहीं गये। उसे सबसे आगे की एक बेंच जो शिक्षक की टेबिल के सामने था, खाली दिखाई पड़ी। वह उसी पर जा कर बैठा। उसे अकेला देख शशांक नाम का एक दूसरा छात्र भी बगल में आकर बैठ गया।
​ प्राध्यापक के कमरा में प्रवेश करते ही कोलाहल अचानक शान्त हो गया। सभी लड़कों की नजर प्राध्यापक पर टिक गयी। प्राध्यापक महोदय उपस्थिति पंजी का पन्ना पलटने लगे। कुछ पन्ने पलटने के बाद पंजी पर डस्टर रखकर छात्रों की ओर मुखातिब हुए-प्यारे छात्रों ! तुम्हारी और मेरी आज इस काॅलेज में पहली भेंट है। यह दिन तुम्हारी जिन्दगी की सुखद यादों भरा दिन होगा। तुम सब अलग-अलग शहरों और गांवों से यहाँ पढ़ने आये हो। तुममें कुछ अमीर कुछ गरीब होंगे। विभिन्न जातियों एवं धर्मों के होगे। आज से तुम सब एक समान हो, कोई भेद नहीं होना चाहिए, सभी भाई हो, दोस्त हो। दिल में इस प्रेम भाईचारे की भावना को रखोगे तब पढ़कर बड़ा इंसान बनोगे। महाविद्यालय का नाम रौशन होगा। हम शिक्षकों का मान बढ़ेगा। ग्रुप बाज़ी ,लड़ाई झगड़ों से बचने की कोशिश करना।अच्छा ये बताओ ,तुम सब यहाँ क्लास में बैठे हो, किसलिए ? पढ़ने और सीखने के लिए, अपने को रोजगार के अनुकूल ढ़ालने के लिए ताकि देश,समाज और स्वंय का विकास हो। यहाँ तुम्हारी वैचारिक और व्यावहारिक सोच में वृद्धि होगी। महाविद्यालय का अनुशासन, कक्षा चलने की रुटीन स्कूलों से भिन्न होगा। यहाँ कभी, कक्षा सात बजे सुबह शुरु होगी तो कभी दस बजे से। एक ही कमरे में विभिन्न वर्गों के छात्र बारी-बारी से पढ़ाये जाते हैं। जब ’’लीजर घंटी’’ होगी तो कमरे से बाहर रहना पड़ेगा। उस समय ’’काॅमन रुम’’ में जाकर खेल सकते हो, पुस्तकालय में पढ़ सकते हो। काॅलेज के नियम और अनुशासन मानने पर तुम्हारा भविष्य उज्जवल बनेगा। उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण होने के लिए कठिन परिश्रम और लगन से पढ़ाई करने होगी। तुम लोग को ऐसे अमिट निशान काॅलेज के इतिहास में छोड जाना कि काॅलेज से निकल जाने के बाद भी याद किये जाओ।
​शहर के वातावरण में अजीब तासीर है। अक्सर यहाँ की हवा और चकाचौंध में छात्र अपना कर्त्तव्य भूल जाते हैं। माँ-बाप से दूर रहकर उनके द्वारा भेजे गये रुपयों को मौज मस्ती में उड़ा देते हैं। जरुरी किताबें काॅपियां नही खरीदते, बुरी आदतों का शिकार बनकर कक्षा में ’फेल’ होकर निकलते हैं। इसलिए महाविद्यालय जीवन में संयम जरुरी हैं। तुम्हें कक्षा में कभी भी ,कुछ भी समझने में कोई परेशानी हो तो किसी भी प्राध्यापक से बेझिझक मिलकर समाधान पूछ सकते हो।
​प्राध्यापक ने आगे कहा - प्रिय छात्रों , मैंने लम्बा चैड़ा लेक्चर दे दिया। अब एक जरुरी बात सुनो। मैं चाहता हूँ कि आज पहला दिन आपस में परिचय हो जाय। मैं बारी-बारी से रोल नम्बर पुकारुँगा और तुमलोग संक्षिप्त परिचय दोगे।
​रौल नम्बर -वन ,प्राध्यापक ने पुकारा। मनीष खड़ा हो गया। वह चुप था। कुछ बोल नहीं पा रहा था। शिक्षक ने हिम्मत दी - बोलो, बोलो, शर्माओ नहीं।
​मनीष ने बताया - मैं मनीष हूँ। मैं बेगूसराय ज़िला के जेएल हाई स्कूल ,साहेबपुर कमाल से छात्रवृत्ति लेकर मैट्रिक उत्तीर्ण हुआ हूँ।
​रोल नम्बर -टू -प्राध्यापक ने पुकारा। मनीष की बगल में बैठा शशांक खड़ा हुआ। मैं शशांक हूँ मैं मुंगेर जिला के तारापुर हाई स्कूल से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक उत्तीर्ण हुआ हूँ।
​इसी तरह प्राध्यापक के नाम पुकारने पर बारी-बारी से छात्रों ने अपना परिचय दिया। पहला दिन और पहली घंटी परिचय क्लास के रूप में पूरी हुई।
​प्राध्यापक ने उपस्थिति पंजी, डस्टर एवं चौक को उठाया और धन्यवाद देकर कमरे से निकलने के लिए कदम बढ़ाया ।तभी मनीष ने झटसे खड़ा होकर टोका - सर ,हमलोग आपका परिचय नहीं जान सके।
​’’वैरी गुड’’। मैंने जानबूझ कर अपने बारे में कुछ नहीं बताया। मैं जानना चाहता था कि मुझसे कोई मेरा परिचय पूछता है कि नहीं। वाकई तुम इंटेलीजेंट हो मैं महेश्वर नाथ हूँ। हिन्दी का विभागाध्यक्ष। सप्ताह में दो दिन इसी घंटी में तुमलोगों को पढ़ाऊंगा। तुमसब बैठे रहो ,अगली घंटी का क्लास लेने प्रोफ़ेसर एस०बी०सिंह आते ही होंगे।
​ प्रो॰ महेश्वर नाथ के निकलते ही कक्षा में शोरगुल होने लगा।
​शशांक थोडा खिसक कर मनीष से सट गया पूछने लगा-मनीष ,लगता है तुम भी मेरी तरह अकेला हो ।तेरा कोई जान पहचान वाला साथी नहीं है।
मनीष कुछ क्षण शशांककी ओर देखता रहा। फिर तपाक से हाथ बढ़ाया और बोला - जान पहचान का है ना।आज से हम दोनों दोस्त।
​शशांक ने भी दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया और कहा -हम दोस्त ही नहीं, भाई बनकर रहेंगे। दोनों अचानक काफी खुश थे। घंटाभर पहले एक दूसरे से अनजान ,अब जाना पहचाना साथी बन गये।शशांक ने कहा - चलो मनीष इस दोस्ती की खुशी में दो प्याली चाय हो जाए आज।
​’’देखो यार मैं चाय नहीं पीता’’-मनीष ने बताया।
लो सुनो, अब काॅलेज के छात्र हो भई ,कुछ-कुछ तो बदलना ही पड़ेगा। चलो दोस्त आदत नहीं है तो क्या हुआ। समझ लो मुझे आदत है। और दोस्ती के लिए आज मेरी बात माननी ही पड़ेगी।
​ कक्षा समाप्ति के बाद मनीष और शशांक ने काॅलेज कैंटिन में समोसा खाया और चाय पी। फिर कैंटिन से बाहर निकले। डेरा (भाड़े का कमरा)जाने से पहले, दोनों एक दूसरे को अपने डेरा का पता और पहुँचने का रास्ता बताया।
​ धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती अत्यन्त गहरी हो गयी। काॅलेज के पहले टर्मिनल एक्जाम में दोनों ने सभी छात्रों से आगे निकल सर्वाधिक अंक लाकर बाजी मार ली। किसी विषय में मनीष ज्यादा अंक पाया तो किसी में शशांक ने। दोनों के कुल प्राप्तांक में मात्र दो नम्बर का ही अन्तर था।
​ दोनों की दोस्ती और कुषाग्र बुद्धि पर क्लास रूम में सभी चर्चाएं करते। अब शिंक्षक गण भी दोनों के प्रति काफी स्नेह जताने लगे।
​ शशांक के घर से बराबर कुछ न कुछ खाने पीने का सामान आता रहता। शशांक मनीष को खिलाये बगैर कुछ नहीं खाता। शशांक को हर महीने पढ़ाई ,खाने नाश्ते ,पाकेट ख़र्च और रूम भाड़े के लिए जरुरत से ज्यादा रूपये अभिभावक से मिलते थे। शशांक मनीष को जब तक साथ रहता एक रुपये भी खर्च करने नहीं देता।
इस आदत से ऊबकर मनीष ने कह दिया - शायद तुम्हारी और मेरी दोस्ती निभ नहीं सकेगी। एक तरफा खर्च देखकर मुझे शर्म आती है। मेरी गरीबी मुझे धिक्कारती है।
​ नहीं दोस्त, ऐसी बात तुम अपनी जुबान पर भूल से भी मत लाना। मैं तुझे भाई समझता हूँ। मेरे दिल में आज तक यह भावना नहीं पनपी कि तुम ग़ैर हो।मेरे घरवाले भी मेरी तुम्हारी दोस्ती पर शान करते हैं। जब वे नहीं रोकते, बल्कि कुछ ज्यादा रुपये इसीलिए देते कि तुम्हें कोई अभाव नहीं खटके।इसतरह शशांक और मनीष की दोस्ती मिशाल बन गयी कालेज में।
​ कुछ दिनों बाद दुर्गापूजा के अवसर पर डी॰पी॰ भेकेशन होने वाला था। शशांक ने मनीष को अपने घर चलने की जिद ठान दी।
​ मनीष ने कहा - दोस्त इस बार तो माफ करो। काॅलेज में आने के बाद पहली बार मुझे भी घर जाने का मौका मिला है। अगली बार जो भी छुट्टी होगी। तुम्हारे घर अवश्य ही जाऊँगा। इसबार गांव में कई लोगों से मिलकर यहाँ के बारे में,अपनी दोस्ती के बारे में बताऊँगा।
दुर्गापूजा छुट्टी होने पर दोनों दोस्त अपने-अपने घर चले गये।
​ आज मनीष को गांव आये दस दिन बीत गये। वह एक दिन भी किताब का पन्ना नहीं पलटा।स्कूली दोस्तों से मिलने-जुलने में व बतियाने में ही उसका समय बीत गया।
​आज फिर वह सुबह ही दूसरे टोला में रहने वाले मोहन चाचा से मिलने चल पड़ा।
माँ ने टोका - मनीष ये तुम्हारी क्या आदत बन गयी है। जब से आये हो सुबह से शाम तक दूसरे के संग ही तुम्हारा समय बीत रहा है। धीरे-धीरे छुट्टी भी खत्म होने को है।कभी मेरे पास भी तो बैठो बेटा।
​ माँ - मैं तो तेरा बेटा हूँ।गाँव घर के बड़े लोगों से, दोस्तों से नहीं मिलूंगा ना तो सब घमण्डी कहेंगे। जो मुझे प्यार स्नेह देते हैं उनसे तो मिलना जरुरी है ना माँ।
तुमसे जीतना मुश्किल है।जाओ पर समय पर खाने आ जाना।
​ ठीक है माँ - मनीष बोलता हुआ निकल गया।
मोहन चाचा अपने बंगला में खटिया पर बैठे थे।
मनीष ने उनके निकट जाकर पांव छुआ।
​मोहन चाचा ने उसकी पीठ थपथपाते हुए बगल में बिठा लिया और पूछा - पढ़ाई कैसी चल रही है बेटा।
​ सब ठीक ठाक चाचा। काॅलेज में अव्वल आ रहा हूँ। दूसरे स्थान पर मेरा ही दोस्त शशांक है।
​ बस बेटा ध्यान से पढ़ना। तुम्हारे ऊपर ही सबका अपमान टिका है।ससुरा ,गांव में तो कई हैं पढ़ने वाले पर सब नाकाबिल हैं। गांव में तो ये हाल है कि मां-बाप अपने बेटों को स्कूल भेजने के बजाए खेतों में काम करने भेजते हैं। सरकार क्या करेगी। जब तक हमलोग अपने में परिवर्तन नहीं लाएंगे। कोई फर्क आने वाला नहीं।
​ चाचा, आप सब गांव में है। बड़े बुजुर्ग को इस ओर गंभीरता से सोचना होगा। मनीष ने जवाब दिया कि अचानक याद आते ही - चाचा प्रेमा कैसी है ? उसके बारे में पूछना ही भूल गया। घर में है कि नही ?
अरे बेटा ,तुम्हारे नहीं आने पर दो दिनों से उलाहना दे रही है। तुम्हारे गांव आने के बारे में उसे मालूम है। वह बोल रही थी - मनीष भैया दस दिनों से गांव में है। एक दिन भी यहां मिलने नहीं आये।
अच्छा मैं उससे माफी मांग लूँगा मिलकर ।चाचा, उसकी शादी का कहीं रिश्ता देखा कि नहीं।
​ बेटा, लड़का तो ढूंढ रहा हूँ ।कई के दरवाजे को खटखटाया हूँ। पर सभी तिलक की अनाप-षनाप मांग करते हैं। अपनी औकात ही कितनी है। क्या करुं ,समझ में नहीं आता। बिना दहेज की शादी के लिए ऐसा लड़का मिलता है जिसके संग प्रेमा का गुजारा ही नहीं होगा।रे मनीष तुम्हारे काॅलेज में तो बहुत लड़का होगा। किसी जान पहचान वाले को शादी के लिए मनाओ न। नयी सोच वाला लड़का प्रेमा की शिक्षा व सुन्दरता पर अवश्य रिझ जाएगा। ऐसा हो तो खबर देना।
​ मनीष की आँख के सामने अचानक शशांक का चेहरा घूम गया। चाचा मेरा एक ही जिगरी दोस्त है शशांक,वह मेरी बात मानता है। हमें विश्वास है प्रेमा की शादी के लिए उसे तैयार कर लूंगा। प्रेमा से जोड़ी भी खूब जमेगी। धनी भी है और दिल का साफ भी।
​ धनी है, तब भला हम जैसे गरीब के घर शादी करेगा ? मोहन चाचा ने प्रश्न किया।
​ ये आप क्या कह रहे हैं ? मेरा दोस्त वैसा नहीं है। अमीरी का अभिमान रहता तो मुझसे क्यों दोस्ती करता। मैं वादा करता हूँ कि प्रेमा की शादी शशांक के संग अवश्य होगी। अच्छा चाचा ,अब इजाजत दीजिए। मैं आपको शीघ्र खबर दूँगा। फिर प्रणाम कर चल पड़ा।
पर प्रेमा ने जाते देखा तो जोर से आवाज दी-वाह शहरी बाबू ,मुझसे मिले बिना चल दिये।ऐसा ही भाई होना चाहिए।
प्रेमा की आवाज पर मनीष अकवका गया ।बातचीत में वह मिलना भूल गया था। इसलिए दौड़ते हुए प्रेमा के निकट जाकर कान पकड़ कर माफी माँगी।
प्रेमा के हाथ में मकई का भुट्टा था ,प्रेमा ने उसी के लिए पकाया था।
भुट्टा झट हाथ से ले लिया। और खाते हुए कुछ देर खड़ा खड़ा ही काॅलेज लाइफ के बारे में बात की। फिर मिलने का वादा देकर अपने घर की ओर चला आया।
​ डी॰पी॰ भेकेशन समाप्त होने के बाद मनीष मुंगेर आ गया। उसी दिन मनीष शशांक से मिलने उसके भाड़े का आवास (डेरा) पर गया। कमरा में ताला लटका था। शशांक घर से नही लौटा था।
​ तीन दिनों बाद शशांक घर से लौटा। वह भी सबसे पहले मनीष से ही मिलने आया।
​ दोनों दोस्त मिलकर खुशी से झूम उठे। मनीष ने कहा - तीन दिनों तक तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं एक ’चैप्टर’ भी नही पढ़ सका। मन ही नहीं लग रहा था।
छुट्टी समाप्त होने के दो दिन पहले बुखार आ गया था। मां आने नहीं दी। जब पूर्ण स्वस्थ हुआ तो तीन दिन लेट हो गया हूँ। छुट्टी में बिताये दिनों की बातें होती रही। तभी मनीष ने शशांक से प्रेमा की शादी की बात छेड़ दी। मनीष ने शशांक से कहा - तुम मेरी एक बात मान लो तो बड़ा उपकार होगा।
​ कहो न क्या बात है जिसके लिए पहेलियां बुझा रहे हो।
"दोस्त, मेरे गांव में मेरी एक मुंह बोली बहन है, प्रेमा। काफी सुन्दर है। मेरे साथ ही पढ़ती थी। मैट्रिक द्वितीय श्रेणी से पास किया है। घर पर ही सिलाई कटाई सीख रही है।गांव में लड़कियों को कालेज में पढ़ाने की सोचते नहीं। ना ही काॅलेज ही निकट है जो आगे पढ़ सके। प्रेमा के पिता मुझे काफी स्नेह देते हैं ।वे उसकी शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं। परन्तु तिलक दहेज की ऊँची मांग के सामने टिक नहीं पाते। मैंने बिना तेरी सहमति के उन्हें यह वचन दे दिया कि तुमसे प्रेमा की शादी कराऊँगा। अब तुम बोलो क्या मेरा दिया वचन निभाओगे।’’ मनीष ने दिल की बातें बता दी।
​ शशांक एकदम मौन था। उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। उसने कहा - दोस्त, शायद तेरा यह वचन ,मैं नहीं निभा पाऊँगा। मेरे परिवार में शादी ब्याह घर के मुखिया की इच्छा पर निर्भर करता है। मैं शादी के लिए ’हाँ’ भी कर दूँ तो वे नहीं मानेंगे। इसलिए मैं मजबूर हूँ।
​ अगर तुम शादी कर लोगे तो तुम्हारे पिताजी को थोड़ी देर गुस्सा रहेगा। पर मुझे विश्वास है प्रेमा को देखकर वे माफ कर देंगे।
​ मैं स्वेच्छा से शादी कर लूँ। अपने बाप का तिरस्कार करुँ। अभी मैं कितना पढ़ लिख लिया हूँ कि अपने पांव पर खड़ा होकर प्रेमा को खिला सकूँगा। मैं असमर्थ हूँ दोस्त। तुमने इतना भारी फैसला क्यों कर लिया ?शशांक ने मनीष को झिझोर कर कहा।
​ मनीष ने दीर्घ उच्छ्स्वास छोड़ते हुए कहा - तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते।
​ दोस्त तुम मेरा इम्तहान नहीं लो। ये मेरे वश की बात नहीं है। मैं शादी करने के लिए स्वतंत्र नहीं हूँ।
​ मनीष ने तुनक कर कहा - अच्छा भाई। मैं अपनी बात वापस लेता हूँ। मुझसे गलती हो गयी।
​देखो दोस्त, तुम बुरा मान गये हो पर ,हर फैसला हरेक के वश में नही रहता है। अभी हमारी तुम्हारी उम्र ही क्या है कि शादी के बारे में फैसला ले लें। बेवजह तुम दिल पर बोझ डाल रहे हो।
​ मनीष चुप था। थोड़ी देर बाद शशांक उसे समझा बुझाकर लौट गया।
​ शशांक आज यह सोचकर आया था कि मनीष को दूसरी अन्य बातों में ध्यान बंटाकर खुश कर लूँगा ताकी कल वाली बातें भूल जाए।
लेकिन मनीष आज काॅलेज आया ही नहीं था। शशांक बोझिल मन लिए कक्षा समाप्ति के बाद अपने डेरा लौट आया।
​दूसरे दिन भी मनीष का कुछ पता नहीं था।
​एक घंटी क्लास समाप्त होने पर शशांक अपने को रोक नहीं पाया। वह सशंकित था, कहीं मनीष बीमार तो नहीं हो गया। शशांक मनीष से मिलने उसके डेरा की ओर चल पड़ा। डेरा के निकट पहुँचा। मकान के उस कमरे की किवाड़ बंद थी जिसमें मनीष रहता था।
​शशांक ने किवाड़ी खटखटाया। पर कोई आवाज नहीं आयी। शशांक ने रोनी आवाज में पुकारा - दोस्त मुझे माफ कर दो। तुम्हारे दिल पर मेरी इन्कार ने इतनी चोट पहुँचायी है तो गुस्सा शान्त करो, मैं तुम्हारा निर्णय स्वीकार करता हूँ ।तुम्हारी खातिर मैं सबकुछ त्याग दूँगा। मैं प्रेमा से शादी करुँगा। अब तो दरवाजा खोलो।
​ पर अन्दर चुप्पी थी। कोई आवाज नहीं आयी। जब कोई जवाब नहीं मिला तब किवाड़ी के सुराख से आंख सटा कर अन्दर झांका। अन्दर की स्थिति देखकर शशांक पर जैसे वज्रपात हो गया। वह रोने बिलखने लगा। किसी प्रकार बगल के कमरों में रहने वाले तीन-चार लोगों को बुलाकर दरवाजा की किवाड़ी तोड़ अन्दर घुसा।
​ मनीष गले में रस्सी बांध छत से लटका था।
सबों ने रस्सी ढीली कर मनीष के शव को खोलकर बेड पर लिटाया।
​ शशांक की नजर टेबिल पर रखी चिठ्ठी पर पड़ी। उसने चिठ्ठी उठायी। उसके एक-एक शब्द को पढ़ने लगा।
प्रिय मित्र शशांक ,
​​ अन्तिम स्नेहाभिन्नन्दन
​मैं जानता था कि ढूँढते हुए मेरे रूम पर आओगे और मेरी लिखी चिट्ठी ज़रूर तुमको मिल जाएगी।
दोस्त मैंने जो कुछ किया। उसके लिए माफी चाहता हूँ। मैं इस कुकृत्य पर शर्मिंदा हूँ। परन्तु मैं बाध्य था। तुम्हारी मेरी दोस्ती इतनी गहरी और सच्ची थी कि बिना तुमसे सलाह मशविरा किए ही प्रेमा की शादी तुमसे कराने का वचन मोहन चाचा को दे दिया। जब तुमने इन्कार की और अपने मां-बाप के अधिकार और उनके निर्णय का वास्ता दिया तो मुझे लगा ,कहीं न कहीं तुम सही हो। हमारा सामाजिक संस्कार और सम्मान अभी भी मरा नही कि कोई संतान स्वतः निर्णय लेकर शादी कर ले।अच्छे बुरे के लिए बड़े बुजुर्गों से सलाह लेना आवश्यक है। दूसरी ओर अब मेरे सामने मेरे झूठा और बड़बोला होने का ठप्पा लगने वाला था। मैंने मोहन चाचा को जो कुछ कहा- वह पूरा नहीं होना था। इसी कश्मकश में मेरे सामने एक ही रास्ता था। उसी रास्ता पर मैं आगे निकल गया। मेरा विश्वास टूटा था और टूटे विश्वास के साथ मैं कैसे जी पाता।मैं तुमसे अलग होकर कालेज की पढाई नहीं कर पाता।अब तुम्हारी जिम्मेदारी कुछ बढ़ गयी। काॅलेज की जो आशाएं हम दोनों पर थी, अब उसे सिर्फ तुम्हें पूरा करना है।
​ अगर पुनर्जन्म होता है तो मैं पुनः दोस्त बनूंगा ।तुम्हारे प्रति मेरा दिल बिल्कुल साफ है। मेरे बाद तुम किसी ग्रन्थि का शिकार मत बनना। कोई गलत कदम नही उठाना ,ये वादा लूंगा। हो सके तो मेरे गांव जाने का वादा निभाना।
अच्छा दोस्त अलविदा। अगले जन्म में फिर मिलेंगे।
तुम्हारा बिछड़ा दोस्त मनीष।
पत्र समाप्त होते ही शशांक दहाड़ मारकर रोने लगा। सिर का बाल हाथों से नोंचने लगा। वह अपने को पूर्णरुपेण दोषी मान लिया। शषबड़बड़ाने लगा - अगर मैं जानता कि मेरे इन्कार का परिणाम इतना भयानक होगा दोस्त तो मैं तुम्हारी बात कभी नही ठुकराता। हे भगवान। मनीष को क्या सूझा कि उसने आत्म हत्या कर ली। मैं ही उसकी मौत का जिम्मेवार हूँ।
​कानूनी लिखा पढ़ी के बाद मनीष की मौत को पुलिस ने आत्म हत्या करार दिया। उधर काॅलेज में एक मेधावी छात्र के निधन पर मातम छा गया।
एक दिन शशांक मनीष के मां-बाप के समक्ष अपराधी बना पहुँचा। वह दोनों के पांव पर गिरकर रोने लगा।
​ मनीष के मां-बाप भी बिलखने लगे। उसने मनीष को उठाकर सीने से लगाया और कहा - कारण जो भी हो ,भाग्य के लिखे को टालना असंभव है। बेटा ,मनीष तो अब इस दुनियां में नहीं है। लेकिन वह तुम्हें दोस्त से भी ज्यादा, सगा भाई समझता था। उसकी वह याद भूलना नहीं।
​ मैं अब इस गांव से लौटकर नही जाऊँगा चाचा। मैं प्रेमा से भी शादी करुँगा। उसकी हर अधूरी इच्छा पूरी करुँगा।
​शशांक मोहन जी से मिला। उसने अपने को मनीष का गुनहगार ठहराया। इसलिए गुनाह की सज़ा भी मिलनी चाहिए मुझे।उसने मोहन से कहा - मैं प्रेमा से शादी करुँगा। आप तैयारी कीजिए।
​ प्रेमा सामने आ गयी। उसने शशांक को सपाट लहजे में जवाब दिया - मैं आपसे शादी नहीं करुँगी। एक दूसरे पर जान देने वाली दोस्ती जब अमीरी की आंधी में हिल गयी तो मेरी क्या औकात ।आपके घर मेरी क्या इज्जत होगी। अपमान,तिरस्कार व उलाहना के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। भावना में लिया गया फैसला हमेशा बुरा परिणाम देता है।
​ मोहन चाचा प्रेमा को समझाइये ।मनीष ने तो मुझे सजा दे दी है। अब ये क्यों तिरस्कृत कर रही है। मनीष जिस कारण साथ छोड़ गया ,क्या आप चाहेंगे कि जीवन भर मैं सजावार बना सिसकता रहूँ।
​ मोहन ने प्रेमा को समझाया - बेटी , शशांक ठीक कह रहा है। बीते पलों को दुहराने से घाव हरा ही होगा।उस घाव को खत्म करने के लिए तुम्हें मनीष के दोस्त की बात माननी चाहिए।
​ नहीं, कभी नहीं , मैं शादी नहीं करुँगी। शशांक प्रेमा का हाथ पकड़ सिसकने लगा। इस बीच मनीष के मां-बाप भी आ गये। वे लोग भी प्रेमा को शादी कर लेने की राय दी।
​ मनीष के पिता रामेश्वर ने कहा - बेटी मेरा एक बेटा चला गया। परन्तु दूसरा बेटा शशांक अभी जीवित है। यह तुम्हारा ख्याल रखेगा।
​ प्रेमा ने जवाब दिया - चाचा जब आप कह रहे हैं, तब मैं इनकार नहीं कर सकती।
​शशांक प्रेमा की शादी हो गयी। शशांक के दिल पर पड़ा अपराध बोध का बोझ उतर गया।शशांक मनीष के घर जाकर उसकी तस्वीर पर फूल चढ़ाया और बोला दोस्त मुझे माफ़ करना।मैं तुम्हारा निर्णय स्वीकार कर लिया।

मुक्तेश्वर प्र॰ सिंह