जैसे ही श्रीकान्त अंकल जी ने अपने बेटे रोहन के साथ अपने उस किराए के मकान में पैर रखा, जहॉं वो अपने परिवार के साथ रहते थे। तो घर के दरवाज़े ठीक सामने श्रीकान्त अंकल जी की मॉं चारपाई पर बैठी हुई थीं। और उनका छोटा लड़का सोहन जिसकी उम्र क़रीब ग्याराह या फिर बारह वर्ष होगी, अपनी दादी माँ के पीछे खड़े होकर उनके बालों में सरसों के तेल से चम्पी कर रहा था। ऊपर छत वाला पंखा हल्की-सी आवाज़ करते हुए धीरे-धीरे घूम रहा था। जो शायद काफ़ी पुराना हो चुका था। जहॉं दादी चारपाई पर बैठकर सोहन से अपने बालों में चम्पी करा रही थीं। वहीं उनके सीधे वाले हाथ की तरफ़ एक छोटी-सी खिड़की थी, जिस पर लाल रंग के कपड़े का पर्दा बनाकर लटकाया हुआ था। उस पर्दे से आधी खिड़की खुली हुई थी, और खिड़की का आधा हिस्सा उस पर्दे से ढका हुआ था। उस आधी खुली हुई खिड़की में से आ रही ठंड़ी हवा का आनंद श्रीकान्त अंकल जी की मॉं और उनका छोटा बेटा सोहन ले रहा था।श्रीकान्त अंकल जी घर के बाहर दरवाज़े पर खड़े होकर अपने बेटे को अपनी माँ की सेवा करते देख रहे थे। और मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे। श्रीकान्त अंकल जी खुद अपने आप से अपने दिल-दिमाग़ और अपनी आत्मा से कह रहे थे कि ' चलो पूरे संसार कहीं तो इंसानियत बची है। अब चाहे वो मेरे ही घर में क्यों ना हो।'
वो ऐसा इसलिए सोच रहे थे कि जब वो पार्क से आते समय रास्ते में गिर गये थे तो, किसी ने उनकी मदद् न की। जबकि थे वो सब भी इंसान ही, जो उन्हें वहॉं बेहोश पड़ा देख रहे थे। परन्तू इंसानियत नाम की चीज़ उनमें किसी में भी नही थी।'
श्रीकान्त अंकल जी यही सब सोचते-सोचते घर में अन्दर की ओर आने लगे। लेकिन सोच में डूबे रहने के कारण उनका पैर दरवाज़े की चौख़ट में टकरा गया। वो चौख़ट से पैर टकराने के कारण गिरने ही वाले थे कि अचानक उन्हें उनके बड़े बेटा ने पकड़ लिया। जो बिलकुल उनके पीछे ही खड़ा था। श्रीकान्त अंकल जी के गिरने की आवाज़ ने उनकी मॉं जो अपने बालों में चम्पी करवा रही थीं। और उनके बेटे सोहन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उन दोनो ने जैसे ही श्रीकान्त अंकल जी को देखा तो वो एक दम चोंक-भोंक से हो गये। श्रीकान्त अंकल जी के सिर पर से ख़ून की लकीर कान के पास से निकलती हुई गर्दन के पीछे एक बड़ा सा आकार बना रही थी। और उस एक बड़े आकार में से कई छोटी-छोटी ख़ून की लकीरे बह रही थीं। कुछ तो शर्ट के अन्दर की ओर जा रही थी, और कुछ शर्ट के ऊपर से लाल लाइन बनाते नीचे की ओर गिर रही थीं। और वो सभी लाइने एवं लकीरे वो थी , जो कुछ घण्टों पहले निकल कर सूख चुकी थी। उनके कपड़ों पर भी मिटटी लगी हुई थी।
श्रीकान्त अंकल जी की हालत देखते ही उनका छोटा बेटा सोहन जो अपनी दादी मॉं के बालों में चम्पी कर रहा था। दौडता हुआ अपने पिता जी के पास आ गया। और दूसरी तरफ़ से उन्हें पकड़ लिया। क्योंकि एक तरफ़ से श्रीकान्त अंकल जी को उनके बड़े बेटा रोहन ने पहले से पकड़ रखा था। रोहन और सोहन उन्हें घर के अन्दर लाने लगे। तभी श्रीकान्त अंकल जी की मॉं ने उनकी पत्नि को आवाज़ लगाई, जो कि रसोई-घर में खाना पका रही थीं। दादी की आवाज़ में वो भाव थे जो किसी को भी जल्दी आने पर विवश कर देते।
श्रीकान्त अंकल जी माँ तो बूढी थी , तो उनसे तो इतनी जल्दी उठा नही गया। लेकिन उन्होंने अपनी बहु को बहुत ज़ोर से आवाज लगाई। और उनकी बहु भी यानि की श्रीकान्त अंकल जी की धर्म-पत्नि बहुत तेज़ी से रसोई से बाहर की ओर दौडीं।
पहले तो उनकी नज़र अपनी सासू-मॉं पर पडी, और फिर नज़र घूमते-घूमते अपने पति पर पड़ी। जिन्हें उनके दोनों बेटे बडे ही आहिस्ते-आहिस्ते घर के अन्दर ला रहे थे।
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मंजीत सिंह गौहर