Das Darvaje - 1 in Hindi Moral Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | दस दरवाज़े - 1

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दस दरवाज़े - 1

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर - एक)

***

पहला दरवाज़ा (कड़ी -1)

रेणुका देवी : मैं तुझसे मुखातिब हूँ

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

***

घंटाभर चलकर बस रुकती है। मैं और राणा हैरान-से होकर उतरते हैं कि यह भला कौन-सी जगह हुई। बिल्कुल अनजान-सी। सोचते हैं कि कंडक्टर ने हमें सही जगह ही उतारा होगा। वह जानता था कि हमें बालमपुर जाना है। एक तरफ नहर बह रही थी और दूसरी तरह बारीक-सा कच्चा रास्ता, जिस पर सिर्फ़ एक वाहन ही निकल सकता था। यहाँ न किसी बस के रुकने के लिए अड्डा है, न ही कोई आदमी है और न आदमी का निशान। बियाबान की धूप। सब कुछ यूँ स्थिर, रूका हुआ मानो कभी हवा चली ही न हो। इतनी गरमी और ऊपर से हमारे पहने हुए वकीलों वाले काले कोट और नंगे सिर। नज़दीक कोई दरख़्त भी नहीं कि उसके नीचे खड़े हो सकें। मैं कहता हूँ -

“यह कहाँ आ गए यार!“

“तुझे ही आशिकी करने का चाव चढ़ा था।“

“तूने ही तो राजेश को हाँ की थी, मैं नहीं चाहता था ऐसी जगह पर आना।“

“तू अपनी मैडम को खुश कर रहा था।“

“राणा यार, चल इसका कोई हल खोजें। अगर साला कोई स्कूटर या मोटर साइकिल पास होता तो बात ही क्या थी।“

“डूबी तभी जब साँस न आया! हम गरीबी में से वकील बने हैं। मोटर साइकिल लेने की हिम्मत होती तो क्या बात थी।“

राणा ठंडी साँस भरता हुआ कहता है। हम दोनों एक-दूसरे के सामने पेट नंगा कर लिया करते हैं। हम दोनों की पृष्ठभूमि एक-सी है। वकालत चलानी तो अमीरों के चोचले हैं। मोटर साइकिल नीचे हो, दफ़्तर हो, लायब्रेरी हो, पर हमारे लिए ये सब सपने ही हैं। मैं कहता हूँ -

“चल भई राणा, अब पैदल ही चल पड़, कहीं किनारे लगें। सबसे पहले तो किसी राही से पूछें कि क्या बालमपुर को यही राह जाता है।“

राणा एक साइकिल वाले को रोककर पूछता है। वह कहता है कि उसको कुछ नहीं पता। दूसरे को रोकता है तो वह जवाब देता है कि यह राह तो बल्लों को जाता है। परंतु हमें बल्लों नहीं बालमपुर जाना है। हमें लगता है कि कंडक्टर हमें गलत जगह पर उतार गया है। हम वापस लौटने की तैयारी करने लगते हैं। कुछ देर बाद एक साइकिल उस कच्चे रास्ते की ओर मुड़ता है। हम उससे पूछते हैं तो वह बिना रुके कहता है कि यह राह बालमपुर ही जाता है। बालमपुर को बल्लों भी कहते हैं। हम उस कच्चे रास्ते पर चलने लग पड़ते हैं। सफ़र लम्बा प्रतीत होता है इसलिए हम ज़रा तेज़ कदमों से चलते हैं। हमारे कपड़े धूल-मिट्टी से गन्दे होने लगते हैं। बीसेक मिनट चलते रहते हैं। आसपास न कोई बंदा दिखता है और न ही कोई गाँव नाम की चीज़। राणा कहता है -

“अब तक तो यार किसी न किसी गाँव का निशान-साहिब ही दिखने लग पड़ता या कोई खजूर-खजार।“

“ये सारे राजपूतों के गाँव हैं, शायद गुरुद्वारा कोई न हो।“

कुछ देर चलने के पश्चात एक तरफ खेतों में कुछ लोग काम करते दिखाई पड़ जाते हैं। हम उनकी ओर चल पड़ते हैं, पर वे लोग हमें देख पता नहीं क्या समझकर भाग खड़े होते हैं। हम मुड़कर फिर कच्चे रास्ते पर आ जाते हैं। सामने से एक साइकिल वाला आता हुआ मिल जाता है। वह बताता है कि बालमपुर अभी तीन किलोमीटर और आगे है। राणा कहता है -

“चलो वकील साहिब, लौट चलें।“

“नहीं यार, रेणुका माइंड करेगी।“

“उसके माइंड करने की फिक्र तो तुझे थी, पर मुझे तूने यूँ ही फंसा लिया।“

“तू भी तो उसके साथ सटकर बैठा करता है। और फिर, मेरे बाद तेरी ही बारी आएगी।“ मैं उसके कंधे में कंधा मारते हुए कहता हूँ।

वह हौसला पकड़कर तेज़ तेज़ चलने लगता है। धूप सीधी हमारे सिरों में घुसती जा रही है। हमें प्यास लगी हुई है, पर आसपास न कोई कुआँ है, न कोई ट्यूबवैल। न कोई नलका है और न ही अन्य कुछ। अब तो भूख भी लग रही है। राणा कहता है -

“कहीं गुरुद्वारा होता तो लंगर ही छक लेते।“

“अगर किसी गुरू को पता होता कि एक दिन तू इधर से गुज़रेगा तो शायद कुछ हो गया होता।“

“यार सोच, कोई दिमाग लड़ा। भूख और प्यास से बुरा हाल है। ऊपर से साला बालमपुर पता नहीं कहाँ है!“

“सच यार, कितनी ही धूपें सिर पर झेलीं, पर आज जैसा दिन पहले कभी नहीं देखा।“

“अब तो लगता है, यहीं कहीं गिर पड़ेंगे।“

“साला कोई दरख़्त भी हो जिसके नीचे दो मिनट रुक सकें।“

हम कदमों को घसीटते-से चलने लगते हैं। अचानक पीछे से धूल उड़ती दिखाई देती है। धूल से बचने के लिए हम एक तरफ होकर खड़े हो जाते हैं। राणा कहता है -

“इन्हें हाथ देकर रोकें?“

“छोड़ परे, अनजान लोग, अनजान इलाका।“ मैं कहता हूँ।

तब तक जीप हमारे बराबर आ रुकती है। उसमें बड़ी-बड़ी मूंछों वाला एक आदमी बड़ी-सी पगड़ी बांधे बैठा है। वह पूछता है -

“किसके जाना है?“

“हमें चैधरी ऊधम सिंह के।“

“आओ बैठो।“

अंधा क्या चाहे, दो आँखें! हम दौड़कर जीप में जा चढ़ते हैं। वह आदमी फिर कहता है -

“हमारा गाँव सड़क से काफी हटकर है। सरकार इस सड़क को जानबूझकर पक्का नहीं कर रही। न ही कोई बस वगैरह लगा रही है।“

“जी, हम देख रहे हैं... वैसे सरकार शोर मचा रही है कि हर गाँव की लिंक रोड पक्की कर दी गई है।“

“यह सब लिफाफेबाजी है। ख़ैर, तुम कचेहरी के आदमी लगते हो।“

“जी, हम वकील हैं और चौधरी ऊधम सिंह के घर में हो रही किसी रस्म में शामिल होने जा रहे हैं। हमें मालूम ही नहीं था कि अपनी कन्वेंश के बगै़र पहुँचना कठिन होगा।“

“कोई बात नहीं वकील साहब, हो जाता है ऐसा कभी-कभी। मेरा नाम देवा सिंह है। मैं ऊधम सिंह का छोटा भाई हूँ। हम जेठ की तेइस तारीख़ को हर साल अपने पुरखों की बरसी मनाते हैं।“

“बड़ी खुशी हुई जी आपसे मिलकर। आपका लिफ्ट देने के लिए भी शुक्रिया। नहीं तो मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते हमारा बुरा हाल हो जाता।“

“हमें पता होता तो हम किसी आदमी को तुम्हारे लिए अड्डे पर भेज देते। यह तो मैं संयोग से शहर से लौट रहा था।“ देवा सिंह बताता है।

मैं राणा की ओर देखता हूँ, उसका प्यास से बुरा हाल है। है तो मेरा भी, पर मैं सब्र करने की कोशिश में हूँ। अब सामने गाँव दिखने लगता है। कुछ आस बंधती है। देवा सिंह मुझसे पूछता है -

“कहाँ के रहने वाले हो?“

“मेरा गाँव आगे फगवाड़े के नज़दीक पड़ता है और यह राणा साहिब तो राहों से हैं।“

“तुम तो मुझे पंडित लगते हो?“ वह मुझसे पूछता है।

मैं बताता हूँ, “नहीं, मैं जाट परिवार से हूँ।“

“जाट सिक्ख?“

“जी।“

“फिर तुम्हारी पगड़ी कहाँ गई वकील साहब?“

“चौधरी साहब, मैं ज्यादा धार्मिक नहीं हूँ।“ मैं कहता हूँ। मुझे पता है कि अब वह अपने संस्कारों के बारे में बातें करेगा। कई लोग ऐसा करते हैं। वह कहता है -

“पगड़ी तो हमारी भारतीयता की निशानी है जी, पर आजकल सब कुछ बदल रहा है। अब हमारा राजेश ही न तो मूंछें रखता है और न पगड़ी बांधता है। नई पीढ़ी बहुत सारी बातों को नहीं समझ रही।“ कहते हुए वह हँसता है।

राजेश यानी रेणुका का पति। दरअसल, हम इस घर में राजेश के दोस्त बनकर आ रहे हैं न कि रेणुका के। मैं कहता हूँ-

“राजेश जी तो अपने संस्कारों को बहुत मानते हैं। मैंने कई बार उनके साथ बातें की हैं।“

“हाँ, है तो सही, अब उसका विवाह भी हमने राजस्थान में किया है, अपनी दूर की रिश्तेदारी में... वह चाहता था कि पंजाब में ही विवाह करवाए, पर हमारी मर्जी को उसने सिर माथे माना।“

रेणुका राजस्थान की रहने वाली है, पर उसका पति डेरीऑन सून, बिहार में रहता है। वहीं अब सारा परिवार बस गया है। कुछ पलों में हम बड़ी-सी हवेली का दरवाज़ा पार करते हैं। एक तरफ ड्यौढ़ी है जिसमें बहुत सारे मर्द इकट्ठा हैं। देवा सिंह हमें चौधरी ऊधम सिंह से मिलवाता है। ऊधम सिंह हमें मिलकर बहुत खुश होता है। हम दोनों को विशेष जगह पर बिठाया जाता है। पीने के लिए शर्बत मिलता है। हमारे अन्दर कुछ ठंडक पड़ती है। फिर भोजन के लिए पूछा जाता है तो मैं कह देता हूँ कि हम खाकर आए हैं। राणा खीझकर मेरी ओर देखता है। राजेश आकर हमसे मिलता है। उनकी रस्म प्रारंभ होती है। करीब दो घंटे कीर्तन-सा चलता है। पंडित श्लोक या मंत्र पढ़ रहे हैं। शर्बत एक एक बार और वितरित किया जाता है। औरतें एक तरफ परदे-से में बैठी हैं। उनमें ही कहीं होगी - रेणुका। मुझे रेणुका ने बता रखा है कि राजपूत औरतें पर्दे में रहती हैं इसलिए इस अवसर पर वह हमें नहीं मिल सकेगी। खाने के लिए कुछ आता है, पर यह पूरा खाना नहीं है। एक एक समोसा और एक एक मिठाई की टुकड़ी।

हम करीब तीन बजे चौधरी ऊधम सिंह से विदायगी लेकर चल पड़ते हैं। वह पूछता है -

“तुम्हारा बस अड्डे तक जाने का प्रबंध कर दें या कुछ है?“

“आप फिक्र न करो जी, हमारे पास इंतज़ाम है। आप अपना काम देखें।“

मैं कह देता हूँ जबकि पता है कि भवसागर जितना रास्ता दुबारा पार करना पड़ेगा। राजेश हमें छोड़ने दरवाजे़ तक आता है। वह अपने स्वभाव के मुताबिक अधिक बात नहीं कर रहा। मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ कि शायद रेणुका कहीं दिखाई दे जाए, पर वह पता नहीं औरतों की भीड़ के किस कोने में होगी।

हम वापस उसी कच्चे रास्ते पर पड़ जाते हैं। राणा मेरे से बहुत खफ़ा है। एक तो रोटी से मैंने ना कर दी और दूसरे उन्हें कह दिया कि हम खुद ही चले जाएँगे। अब चार-पाँच किलोमीटर का रास्ता हमारे सामने पड़ा हम पर हँस रहा है। मैं राणा से मजाक में कहता हूँ -

“यहीं कहीं गाँव में से देसी शराब मिल जाएगी। बोतल पकड़ते हैं और एक-एक पैग पियेंगे तो न थकावट रहेगी, न भूख लगेगी और न ही धूप महसूस होगी।“

राणा मेरे मजाक को अनसुना कर चलता जाता है। तीन बजे भी धूप ज़ोरों पर है। मैं सोच रहा हूँ कि इस वक्त रेणुका देवी पता नहीं क्या कर रही होगी। कम से कम पंखे की हवा में तो बैठी ही होगी।

(जारी…)