Donation and Dakshina in Temples in Hindi Spiritual Stories by r k lal books and stories PDF | मंदिर में दान - दक्षिणा

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मंदिर में दान - दक्षिणा

मंदिर में दान - दक्षिणा
आर 0 के0 लाल


तेज बारिश हो रही थी,गांव के चौपाल में कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे कि इस बार सावन में बाबा के धाम चला जाए और आस- पास के मंदिरों के भी दर्शन कर लिए जाएं। मातादीन ने कहा - "मैंने पूरे साल थोड़ा थोड़ा करके कुछ पैसा जमा किया है। सोचता हूं इस बार पांच सौ एक रुपए का दान मंदिर में कर दूं। हो सकता है भगवान मेरी भी सुन लें और मै अपनी बिटिया ' लाजो ' के हाथ पीले कर दूं।" रामभरोसे भी बोले - "मैंने भी मन्नत मानी थी कि मेरी गाय बछिया देगी तो एकावन रूपये भगवान को चढ़ाऊंगा। बछिया ही हुई है। पर अभी मेरे हाथ काफी तंग है इसलिए मैं तो जा नहीं पाऊंगा। तुम लोग ही मेरी तरफ से भगवान को अर्पित कर देना।" शिवनाथ ने भी बताया कि वह अपनी कमाई का कुछ न कुछ हिस्सा हर महीने निकालता है और अपनी पत्नी के पास जमा करता है। उसे भी वह पैसा किसी मंदिर पर नेक काम के लिए देना है। वे बताते हैं कि अक्सर तो गुरुजी ही गांव आकर ले जाते हैं। मगर इस बार वे नहीं आए। इसलिए मैं ही वहां जाने की सोच रहा हूं। गुरु जी अवश्य हमारी वैतरणी पार करने के लिए भगवान को इस धनराशि को अर्पित कर देंगे।"
प्राइमरी स्कूल के मास्टर नागेश्वर भी वहां मौजूद थे उन्होंने सबके विपरीत कहा - "भाई देखो मेरा तो इन सब बातों में कोई विश्वास नहीं है। क्या भगवान घूंस लेकर काम करते हैं? वे तो सबके पालनहार हैं केवल श्रद्धा के भूखे हैं। दूसरी बात यह है कि जब से राम रहीम और आसाराम बापू जैसे बाबाओं की कहानियां उजागर हुई हैं, मुझे समझ नहीं आता कि लोग मंदिरों में इतना पैसा क्यों चढ़ाते हैं कि उनके पास अकूत धन हो जाता है, जो गरीब जनता की गाढ़ी कमाई होती है, फिर तथाकथित गलत मठाधीश हमारे पैसे से खूब अय्याशी और गलत गलत काम करते हैं।"
उन्होंने आश्चर्य वाली बात भी बताई कि अपने देश में बहुत से ऐसे मंदिर हैं जहां किसी प्रकार का चढ़ावा की मनाही है। उदाहरण के लिए उत्तराखंड में देहरादून मसूरी मार्ग पर स्थित श्री प्रकाश ईश्वर महादेव मंदिर में पैसे चढ़ाने की मनाही है। दान देने के लिए इस भव्य मंदिर में कोई व्यवस्था नहीं है। पुजारी जी कहते हैं कि जब ईश्वर हमें देता है तो हम उसे कैसे कुछ दे सकते हैं। यहां प्रसाद के रूप में कढ़ी चावल खीर एवं चाय मुफ्त में दी जाती है।"
बरसात थोड़ी थम गई थी इसलिए और लोग भी चौपाल में आ गए । उसमें रमादत्त भी थे जो किसी बड़े शहर में नौकरी करते हैं और छुट्टी में घर आए हैं। उनका अनुभव है कि आजकल मंदिर का धंधा सबसे अच्छा है । एक छोटा सा मंदिर बनवा लो और फिर कुछ ही दिनों में आप मालामाल हो जाएंगे। न कोई टैक्स और न कोई पूछने वाला। भगवान के नाम पर लोग अपनी काली कमाई का गुप्त दान भी करते हैं। कई लोग तो सोचते हैं कि हमने भगवान को इतना चढावा चढाया है, भगवान हम से प्रसन्न हो जाएगा। मगर उस चढावे का क्या अर्थ जिस चढावे में श्रद्धा न होकर हमारा घमंड दिखता हो।" उन्होंने सबसे पूछा इंसान भगवान से हाथ जोड़ कर मांगता है फिर वह मंदिरों में दक्षिणा देता है और कहता है मेरी बेटे की नौकरी लगवा दो, मेरा मकान बनवा दो, परीक्षा में पास करा दो तो एक किलो लड्डू दूंगा, फलां आदमी मेरा दुश्मन है उसका सर्वनाश कर दो तो सोने का मुकुट लगाऊंगा। मुझे तो लगता है कि इंसान भगवान के नाम पर पैसा देकर एल 0 आई 0 सी 0 की तरह कल की बीमारी, गरीबी या कोई भी संकट में रक्षा करने हेतु अथवा सुनहरे भविष्य के लिए निवेश करता है?" क्या दक्षिणा चढ़ाने से सभी समस्याएं हल हो जाती है? कुछ तो भय की वजह से चढ़ावा चढाते हैं कि कहीं अनिष्ट ना हो जाए और कुछ पाने की लालच की वजह से। पंडित, पुजारी या ज्योतिषी इसी का फ़ायदा उठाते हैं।
मातादीन ने कहा - "भैया जी! ये बड़ी बड़ी बातें तो हम नहीं जानते। यह तो गुरु जी जाने, पर बरसों से यही रिवाज चला आ रहा है , इससे जरूर हमारा भला होता होगा।"
रमादत्त ने बीच में ही बात काटी कि यदि दक्षिणा चढ़ाने से ही भला हो जाता तो कोई भी बेऔलाद न रहता, हर कोई बिना पढ़े ही पास हो जाता, कभी कोई बीमार नहीं पड़ता मगर ऐसा नहीं है।
लोगों ने गांव की टीचर मनीषा की राय भी जाननी चाही तो उन्होंने ने सबको समझाने की कोशिश की कि कोई धर्म स्थल या मंदिर बनाने का उद्देश्य लोगों को सामाजिक व्यवस्था के अनुसार जीवन व्यतीत करने की कला सिखाना होता है । हमारा विश्वास है कि सब कुछ ईश्वर देता है। किसी के पास कम तो किसी के पास ज्यादा। सभी की बुनियादी जरूरतें पूरा करने के लिए हमें मिल- बांट कर रहने की जरूरत होती है। आपके पास जो भी धन, वस्तु, बुद्धि, विद्या है उसे किसी अन्य की आवश्यकता पर, चाहे वह मांगे या न मांगे, उसे देना परम मानवता है। ईश्वर भी बिना मांगें हमें देता है और हमसे चाहता है कि हम भी दूसरों को दें। कुछ स्वेच्छा से देते हैं, कुछ सेवा, श्रम एवं सामग्री के बदले और कुछ टैक्स अथवा भय वश देते हैं।" चौपाल में पानी पिलाने वाले ने अपनी बात जोड़ी कि इन्सान भय के कारण ही अनिष्ट से बचने के लिए भगवान के नाम से चढ़वा चढ़ाता है | लोगों को लगता है कि ईश्वर को दक्षिणा चढाने से उनके गलत काम, अनैतिक काम भी सही हो जाएंगे।"
"मनीषा, सही कहा तुमने। अधिक से अधिक संचय करने की लालसा हमें अपना कुछ देने से रोकती है। यदि पुण्य कमाने की अवधारणा नहीं होती तो हम शायद किसी को कभी कुछ भी नहीं देते।" रामदत्त ने पूंछा कि इसके लिए मंदिर में देने की क्या आवश्कता है?
मनीषा ने उत्तर दिया कि पड़ोसियों, दोस्तों या रिश्तेदारों की जरूरतों को तो हम जान सकते हैं पर दूरस्थ लोगों की तंगियों को नहीं जानते । साथ ही हममें देने का अहंकार न आए और हमारी सेवा गुप्त रहे, दान के साथ त्याग और संयम की भावना बनी रहे इसीलिए ही हमने धर्म गुरुओं की शरण ली। इतिहास में है कि मंदिर बनाने का चलन तीसरी - चौथी शताब्दी में शुरू हुआ जो उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति करते थे। धीरे धीरे इसमें वैभव प्रदर्शन, धर्म की ठेकेदारी तथा अन्य विकृतियां आ गईं। आज तो लगता है कि भगवान इन गंदगियों के कारण मन्दिर के अन्दर जाना भी पसंद नहीं करते।"
वहां बैठे एक बुजुर्ग ने बताया कि सभी जगह ऐसा नहीं है। बहुत से मंदिर आज दान के पैसे से बहुत सराहनीय कार्य कर रहे हैं। तीर्थ स्थानों के विकास से लेकर मुफ्त भोजन, ठहरने, चिकत्सा, स्थानीय लोगों की सहायता आदि बड़े पैमाने पर दान के पैसे से किया जाता है। बहुत से मंदिरों के अपने ट्रस्ट है और अनेकों बड़े मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण भी है। इससे अब आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है। आप निश्चिंत होकर के दान कर सकते हैं। आप को जानकर खुशी होगी कि बंबई के सिद्धिविनायक मंदिर ट्रस्ट आत्महत्या कर चुके किसानों के बच्चों की मदद कर रहा है। वह सिद्धिविनायक स्कॉलरशिप स्कीम भी चलाता है। शिरडी स्थित साईं बाबा के मंदिर की दैनिक आय 60 लाख रुपये से ऊपर है। शिरडी साईं बाबा संस्थान अस्पताल, शिक्षा, और अन्य सामाजिक कार्यों में अपनी आय का पचास फीसदी तक खर्च करता है। आंध्रप्रदेश स्थित तिरुपति बालाजी का सालाना बजट ढाई हजार करोड़ रूपये का है। यह कर्मचारियों के वेतन और भक्तों की सुविधाओं के अलावा चिकित्सा सेवा, शिक्षा और कमजोर तबके की मदद में कमाई का एक हिस्सा खर्च किया जाता है। माता वैष्णो देवी, गुरुवायूर स्थित श्री कृष्ण मंदिर और सबरीमाला स्थित भगवान अयप्पा मंदिर भी अपने स्तर पर धर्मार्थ कार्यों में आमदनी का एक हिस्सा खर्च करते हैं। देश के अनेकों मंदिरों में चढ़ावे से होने वाले निःशुल्क भण्डारों में लाखों गरीबों का पेट भरता है, लड़कियों की शादियाँ होती हैं ,बच्चों की पढ़ाई होती है, मरीजों का इलाज होता है ?
किसी मंदिर में दान इसलिए दिया जाता है ताकि आने वाले यात्रियों की व्यवस्था हो सके, लोगों को शिक्षित किया जा सके कोई आपदा से रक्षा एवम् असमर्थ की मदद की का सके। किसी व्यक्ति विशेष को मंदिर में दान नहीं दिया जाता फिर भी कुछ जगह कथित अधर्मी अपनी निजी संपत्ति मानकर अय्याशी करते हैं। ऐसे लोग कुपात्र हैं जिन्हें सभी धर्मो में दान देने की मनाही है। इसलिए समाज एवम् सरकार को यह कदम उठाना चाहिए कि मंदिरों में दान का सदुपयोग हो और लोग कुपात्र को दान न दें। यदि आपका धन गलत कार्यो के लिए लगाया जाता है, तो भी वह अपात्र को दान देना हो जाता है। अतः इस विषय में पूरी तहकीकात कर लेना चाहिए।
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