वो कोयल की तरह कूहकती थी, पर मैना की तरह प्यारी थी।
वो सरसों के खेतों में उड़ती तितली सरीखी थी। वो बरगद के पेड़ों तले मिलने वाले सुकून थी। वो एक लड़की थी, जो 11th में पढ़ती थी। वो छोटे से शहर के छोटे से गांव में रहती थी, पर मुंबई जैसे सपनों की नगरी देख चुकी थी।
उसे जब देव ने पहली दफे देखा था, तो सुर्ख गुलाब की मानिंद होठों की लाली ने उसे आकर्षित किया था। वो लाल रंग की रेशमी फ्रॉकनुमा कपड़े पहनी थी। होठों पर प्यारी सी मुस्कान थी। बालों में मेंहदी का रंग उसके सुर्ख गुलाबी गालों पर पड़कर इंद्रधनुषी छटा बिखेर रही थी। वो अपनी सहेलियों के संग हंसती-खिलखिलाती बातें कर रही थी और बीच में उसके होठों पर जोर से उन्मुक्त हंसी आ जाती थी। तब उसकी आंखें शर्म से इधर उधर देखती थी, कि कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया।
वो रेखा थी। दिल्ली शहर के रोहिणी सेक्टर 17 की रहने वाली। वहीं, रानी लक्ष्मी बाई इंटर कॉलेज में पढ़ती थी। पढ़ाई में अव्वल तो नहीं कहेंगे, पर औसत से थोड़े ज्यादा थी। वो फुंहफट तो थी, पर बेहद प्यारी थी। जो एक बार देख ले, वो शायद ही उसे कभी भुला सके। कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ भी। उसे देखा, तो देखता रह गया।
इंटर कॉलेज में दो ब्लॉक्स थे, नॉर्थ और सॉउथ। नॉर्थ ब्लॉक लड़कियों के लिए था, सॉउथ ब्लॉक लड़कों के लिए।
रेखा नॉर्थ ब्लॉक की होकर भी सॉउथ ब्लॉक में घूमती रहती थी।
हर लड़की की जुबान पर, हर लड़के के दिलों पर वो राज करती थी। पर किसी को घास नहीं डालती थी।
हां, वो रेखा शर्मा ही थी, जिसे देव प्रसाद ने पहली दफा देखा तो सब कुछ भूलकर बस देखता ही रह गया। इससे पहले तमाम जिंदगियां जी चुका था वो। फिर भी उसकी तरफ आकर्षित हुआ।
रेखा की जिंदगी थोड़ी अव्यवस्थित थी, पर इतनी भी नहीं, कि वो संवर नहीं सकती थी।
पर वास्तव में रेखा से मिलने के बाद देव की जिंदगी वाकई बदल गई थी।
देव 11th में था वो कभी कभी ही इंटर कॉलेज जाता था।
पढ़ाई के मामले में फ्रंट वेंचर था, पर था तो औसत ही।
हां, ज्योति से मिलने के बाद साइड वेंचर हो गया था।
उसे रोज देखना शगल बन गई थी। सुबह कॉलेज में वो उसे न देखे तो बेचैनी होती थी। इसी फिराक में, कि उसकी एक झलक मिल जाए। कई बार उसके घर के सामने से रॉउंड भी मार दिया करता था। सिर्फ उससे बात करने के लिए देव ने अपने गांव की कई लड़कियों से दोस्ती की। ताकि उनके बहानें वो उसे भी देख सके और बात कर सके।
कई लड़कियों की दोस्ती रंग लाई। उससे बात करने का मौका मिला। एक दिन यूं ही कॉलेज के गेट पर दिख गई।
मैन कहा-"हाय!"
वो रुकी, स्माइल दी और नॉर्थ ब्लॉक की तरफ चली गई। कुछ नहीं कहा। पर पहली बार उसकी आंखों से आंखे मिलाने का अजब ही नशा चढ़ गया था। वो अब मुझे परेशान करने लगी थी। सच कहूं, तो पहला अहसास था। जो सबसे अलग था। जो सबसे जुदा था। अब वो मेरे लिए बेहद खास थी। पर दूसरी तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं था। मैं बस उसे देखता था। उसकी बातों को सुनता था। उसकी शरारतों में जीता था। उसे घर जाते हुए तब तक देखता था, जबतक वो आंखों से ओझल नहीं हो जाती थी।
धीरे धीरे उसने मेरी हरकतों को अपनी पारखी नजरो से भांप लिया था। हमेशा की तरह मैं तय वक़्त पर नार्थ ब्लॉक के पास खड़े हो कर इंतजार कर रहा था। काफी देर तक इंतज़ार करने के बावजूद जब वो नहीं दिखी तो मेरा दिल अब बहुत मायूस हो चला था। लगभग एक घंटे के इंतज़ार करने के बाद मैंने निश्चय किया कि अब मुझे वहां से चलना चाहिए।
मैं जैसे ही अपनी जगह से पलटा कि अचानक किसी ने मेरे दोनो आंखों को अपने कोमल कोमल हाथों से बंद कर दिया और एक खूबसूरत आवाज मेरी कानों से जा टकराई-
"तुम यहाँ पिछले एक घण्टे से किसका इंतज़ार कर रहे हो?"
इस आवाज के साथ एक मधुर खुश्बू का एहसास किया जो कि कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी।
मुझे यह तो एहसास हो चुका था कि यह आवाज किसी खूबसूरत लड़की की ही थी। मैं हड़बड़ा कर बोला-
"तुम कौन हो और तुम्हें इस से क्या मतलब?"
"देखो मुझे बस नाम बता दो मैं कुछ नहीं करूंगी?"
"नहीं मुझे छोड़ो, मैं अब बस जा ही रहा हूँ इधर से।"
"जब तक तुम नाम नहीं बताते मैं तुम्हारी आँखों को ऐसे ही बन्द रखे रहूंगी।"
यह कहते हुए उस खूबसूरत लड़की ने मुझ पर अपनी पकड़ और तेज कर ली। अब मैं उसके जिस्म की मादकता और शरीर के स्पर्श को बेहद करीब से महसूस कर सकता था। मानो जैसे मेरी सांसे रुकने वाली हो। मैं कुछ भी कहने की हालत में नहीं था कि तभी अगले पल उसकी आवाज आई-
"बताते हो या शाम तक ऐसे ही रहने का इरादा है।"
"बताता हूं...बताता हूँ मैं रेखा शर्मा का इन्तजार...।"
यह कहते ही मैंने झटके दे कर अपनी आंखों से उस लड़की का हाथ हटा लेता हूँ। अगले पल सामने का दृश्य देख कर मैं चौंक जाता हूँ। मेरे सामने रेखा खड़ी थी। जिस लड़की ने मेरी आँखों को बंद कर के पीछे से जकड़ा हुआ था वो और कोई नहीं रेखा ही थी।
मैंने अपने दांतों के बीच जीभ को दबोचा और फटाफट वहां से रफ्फूचक्कर हो गया। जाते वक्त मैंने पीछे से रेखा की हँसने की आवाज सुनी थी। ।
उसके उस कोमल स्पर्श को मैं चाह कर भी अपने दिलोदिमाग से नहीं निकाल पा रहा था। ये वो दौर शुरू हो चुका था, जब मैं शायरी और गजलों की तरफ जा रहा था। प्रेम गीत प्यारे लगने लगे थे। प्रेम कहानियां अच्छी लगने लगी थीं। जबकि इससे पहले मैं प्यार के नाम से ही भिनक उठता था। पर वो ऐसा दौर था, जिसमें मैं बदलने लगा था।
अगले कुछ दिनों से मैं रेखा से नजरें चुराने लगा था। मुझे क्लासरूम, लाइब्रेरी या कहीं भी दिखती तो मैं अपने रास्ते बदल देता था। रेखा को अब एहसास हो चला था कि उस दिन का मजाक मेरे ऊपर हावी हो रहा है जिसकी वजह से मैं उसके सामने आने से भी झिझक रहा था।
एक दिन मैं स्कूल के कैंटीन में बैठा समोसे खा रहा था कि अचनाक मैंने वहां वो खुश्बू महसूस की जो उस दिन रेखा के करीब होने से मैंने महसूस किया था। मैं घबरा गया। मैं जैसे ही उठ कर जाने को हुआ तो देखा कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला-
"चुप चाप यहीं बैठ जा। मुझे तुझसे बात करनी है।"
मैंने अपनी नजर उठा कर देखा तो वो कोई और नहीं रेखा शर्मा ही थी। मेरी धड़कने अब तेज हो चली थी मानो जैसे किसी से रेस कर रही हों।
"देख सबसे पहली बात की मुझे देखकर घबराने वाली बात नहीं है। मैं क्या भूत हूँ जो तू मुझे देखते ही अपना रुख बदल देता है।"
"न...नही वो तो मैं...मैं...!"
"किसी बकरी के बच्चे की तरह क्या मैं...मैं...लगा रखी है तूने?"
"जी मैं कह रहा था कि....!"
"चुप एकदम तू क्या कहेगा तू चुप चाप सुन और मैं जो कहने वाली हूँ केवल वो सुन।"
"जी बोलिए।"
यह सुनते ही वो जोर से हँसने लगती है और बोलती है-
"ये क्या तूने जी...जी...लगा रखी है। कोई ऐसे बात करता है क्या अपने दोस्त से?"
"आई एम रियली वेरी वेरी सॉरी रेखा...!"
"सॉरी के बच्चे मैं यहां तेरा सॉरी नहीं सुनने आयी हूँ। मुझे बता तू कुछ दिनों से इस तरह से मुझे इग्नोर क्यों मार रहा है?"
मैं उसे कुछ नही बोल पाता क्योकि मैं सच मे अंदर से बहुत घबरा गया था। मेरी कुछ कहने की भी हिम्मत नहीं हो पा रही थी।
तभी वो बोली-
"देख मुझे पता है तू बहुत अच्छा लड़का है और तू मुझे पसंद करता है।"
यह सुनते ही मैं अपनी जगह से उठ गया और वहां से जाने लगा कि तभी उसने मेरी हाथ की कलाई को सख्ती से अपनी मुट्ठियों में जकड़ते हुए कहा-
"देख मेरी बात पूरी नहीं हुई है। पहले मुझे पूरी करने दे। हां तो मैं कह रही थी कि तू मुझे पसंद करता है मुझे भी पता है और मजे की बात है कि पगले मैं भी तुझे बहुत चाहती हूं।"
यह कहते कि साथ उसने मुझे अपने गले से लगाया औऱ मेरे गाल पर एक चुम्बन अंकित करती हुई वहां से चली गयी।
मैं काफी देर तक उसी स्थिति में खड़ा रहा। इस तरह का एहसास मुझे पहली बार हो रही थी। हृदय की स्पंदन लभगग दुगनी हो चली थी। मेरे रोम रोम में अजीब सी गुदगुदी का एहसास हो रहा था।
मुझे यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि यह सपना है या हकीकत।
मैं उस रात बिल्कुल ही नहीं सोया। किशोरावस्था में प्यार और पहले चुम्बन के एहसास मेरे दिल मे उमंगों के हिलोरे मार रहे थे। मैं जागती आंखों से कल्पनालोक में गोते खा रहा था। इस एहसास ने मुझ पर जादुई असर किया था। शायद पहले प्यार का एहसास यही होता है जिसे शब्दों में बयाँ करना लगभग असम्भव से होता है बस उसे आंखे भींचकर एहसास ही किया जा सकता है।
अब हम दोनो को एक साथ वक़्त बिताना बहुत ही ज्यादा अच्छा लगने लगा था। जिस दिन रेखा स्कूल नहीं आती तो मेरा दिल पूरे दिन बैचैन रहता और किसी काम मे जी नहीं लगता था। अब हम एक दूसरे को काफी हद तक पसन्द करने लगे थे। उन दिनों मोबाइल का ज़माना नहीं हुआ करता था इसलिए जो वक़्त स्कूल में काट लिया करते थे वो बेहद ही खास हुआ करते थे।
समय गुजरते पता नहीं लगा कि कब हम लोग इंटरमीडिएट पढ़ाई के आखिरी चरण में पहुँच चुके थे।
आज स्कूल में फेयरवेल के बाद आखिरी इम्तिहान था जो 10 बजे से शुरू होना था। पहले मुझे रेखा का लाइब्रेरी में 7 बजे सुबह इंतज़ार करना था। रेखा आज मुझे बहुत ही ज़रूरी बात बताने वाली थी। तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे।
आज तो रेखा को हर हालत में आना ही था, क्योंकि वह आज बहुत ही खास बात बताने वाली थी।
यूँ इस कस्बे में हमदोनों की मुलाकातें न के बराबर ही हो पाती थीं। सारा दिन एक-दूसरे के लिए तड़पते रहने के बावजूद, वे दस-पंद्रह दिनों में एकाध बार, बस तीन-चार मिनट के लिए ही मिल पाते थे। इस छोटी-सी मुलाकात के दौरान भी आमतौर पर उनमें आपस में कोई बात न हो पाती। उनकी बातचीत का माध्यम वे स्लिपें ही रह गई थीं, जो एक-दूसरे को लिखा करते थे। इन्हीं स्लिपों में वे अपनी सब भावनाएँ, अपने सब दर्द उड़ेल दिया करते थे। इन्हीं स्लिपों से तय होती थी, उनकी अगली मुलाकात की जगह और उसका वक्त।
दरअसल छोटे से इस कस्बे में लड़के-लड़की का आपस में बात करना इतना आसान नहीं था। बात तो कहीं न कहीं की जा सकती थी, पर बात करने की खबर जंगल की आग की तरह पूरे कस्बे में फैलते देर नहीं लगती थी। कम उम्र के होने के बावजूद मुझे और रेखा में इतनी समझ थी, कि हम न तो अपनी और न अपने घर वालों की बदनामी होने देना चाहते थे। इसलिए जब भी वे आपस में मिलते तो यही कोशिश करते, कि भीड़ में बात न की जाए।
हाँ, कभी-कभार मौका मिल जाने पर एकाध वाक्य का आदान-प्रदान हो जाया करता था। मैं अखबार सामने रखे अपने आसपास बैठे लोगों पर भी नजर रखे था। यह ध्यान रखना बेहद जरूरी था, कि उन लोगों में से उसकी जान-पहचान का कोई न हो। साथ ही इस बात का ख्याल रखना भी जरूरी था, कि वहाँ बैठे किसी आदमी को उस पर यह शक न हो जाए कि वह वहाँ अखबार पढ़ने के लिए नहीं बल्कि किसी और इरादे से आया है।
एक समस्या और भी थी। सामने के, किताबों से भरी अलमारियों वाले, कमरे में लाइब्रेरियन के अलावा कई लोग मौजूद होते थे। उस कमरे में लोगों का आना-जाना भी लगा रहता था।
हालाँकि रेखा एक छोटे कद की, साँवली सी, साधारण-सी लड़की थी, पर न जाने क्यों लड़के को वह बड़ी आकर्षक लगी थी।
उस वक़्त मोबाइल का प्रचलन नहीं होने की वजह से हमदोनो अपने स्कूल के लाइब्रेरी में ही छोटी-छोटी स्लिपों पर अपनी भावनाएँ व्यक्त करके उन्हें किताब में रखकर एक-दूसरे को पकड़ा देते। मगर किताब के अंदर रखकर स्लिप देने का तरीका दो-चार दिन ही चल पाया। जल्दी ही लड़के-लड़की को यह भान हो गया कि ही रोज इस तरह किताबों का आदान-प्रदान करना ठीक नहीं। तब एक नया तरीका उन्होंने निकाला, कि पेन में निब वगैरह निकाल उस जगह में स्लिप रखकर एक-दूसरे को देने लगे। एक-दूसरे तक ऐसा 'पेन' पहुँचाना भी कोई आसान बात नहीं थी।
अब यह तरीका भी लोगों को अखरने लगा था।
अब मैं रेखा के घर पर चिट्ठी लिखता ज्योति के नाम से और रेखा, मुझको चिट्ठी लिखती कपिल के नाम से। कोड शब्दों के जरिए मिलने की जगह, तारीख और समय तय कर लेते और इस तरह हम स्कूल के बाहर दस-पंद्रह दिनों में एक बार मिला करते। इन्हीं मुलाकातों में वे भावनाओं से लबालब अपनी-अपनी स्लिपें, किसी न किसी तरीके से एक-दूसरे को पकड़ा देते। आज का मिलना भी इसी तरह एक चिट्टी के जरिए ही तय हुआ था, जो रेखा ने लिखी थी। मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। मैं मान रहा था कि उसकी चिट्ठी लड़की को मिल गई हो। उसकी नजरें बार-बार अपनी कलाई घड़ी से टकराती। तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे।
आज सुबह से लाइब्रेरी में मैं अपने सामने अखबार फैलाए बैठा था, मगर मेरा सारा ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही था। सीढ़ियों पर जैसे ही किसी के आने की आहट होती, मैं चौकन्ना होकर उधर देखने लगता। मुझे पूरी उम्मीद थी, कि रेखा आएगी। दरअसल मैं खुद ही तयशुदा वक्त से पंद्रह-बीस मिनट पहले आ गया था।
मैं मायूस हो चुका था, कि अब वो नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े रेखा सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश मेरे पास वाली जगह खाली थी, जहाँ रेखा बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था।
मेरे दिल में तूफान-सा मच रहा था। आज स्कूल के आखिरी दिन मैं रेखा से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था।
मैंने कनखियों से रेखा की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी । उसने पुराने तरीके से बात-चीत आरम्भ की। उसने अपनी डायरी निकाली और पेन से कुछ लिखने लगी और लिखने के बाद मेरी तरफ सरका दिया।
उसने उस डायरी के पृष्ठ पर लिखा था-
"देव! मुझे बताते हुए अत्यंत दुख हो रहा है कि इस शहर में आज की शाम मेरी आखिरी होगी। कल सुबह मुझे दिल्ली निकला है, वहां मेरा दाखिला एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में एम.बीए. के लिए हुआ है। तुम्हारे साथ बिताए एक एक पल मुझे आज भी तुम्हारे वजूद का एहसास करवाते हैं जिसे मैं यहां से जाने के बाद भी हमेशा अपने साथ ही पाऊंगी। मुझे अपने कैरियर के लिए यह कोर्स जिस तरह से ज़रूरी है उसी तरह मेरी ज़िंदगी तुम्हारे बिना कल्पना करना यथार्थ है। मैं चाहती हूं कि तुम मुझे हमेशा यूं ही प्यार करते रहना। हम बहुत ही जल्द मिलेंगे और हम मिलकर अपने हर ख्वाइशों को पूरा करेंगे।
मैं इस डायरी में अपना पता लिख रही हूं मुझे हमेशा खत लिखते रहना जब तक कि मैं वापिस न आ जाऊं।
तुम्हारी अपनी रेखा शर्मा"
तभी अचानक देव ने मेज पर रखी डायरी में कुछ लिखा और धीरे से उसकी तरफ खिसकाते हुए फुसफुसाया, 'आल दि बेस्ट!'
ये शब्द सुनते ही आसपास बैठे तीन-चार स्कूल के स्टाफ्स के चेहरे एकदम से रेखा की ओर घूम गए। उन्हें कुछ भनक लग गई रेखा ने डायरी से वह पृष्ठ फाड़ कर देव को थमाया और लाइब्रेरी से बाहर की तरफ भाग पड़ी।
संकोच, डर और घबराहट से देव का चेहरा पीला पड़ गया और उसके माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा। सीढ़ियों की तरफ जा रही रेखा को देख पाने का साहस जुटा पाना, उसके लिए संभव नहीं हो पाया। वह उसी तरह नजरें गड़ाए, अखबार पढ़ने का नाटक करता रहा।
मेरी उस से वह आखिरी मुलाकात थी। उसके बाद वह अगले दिन दिल्ली चली गयी पढ़ाई पूरी करने और मैं गुवाहाटी में आई.आई.टी.
में दाखिला हो गया। मैंने चार वर्षों तक वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और वहीं से एम.टेक. की भी पढ़ाई पूरी की। उसके बाद मेरा प्लेसमेन्ट उत्तराखण्ड के पन्तनगर में टाटा मोटर्स में हो गया।
गुवाहाटी से ले कर पुणे तक मुझे उसके खत निरन्तर मिलते रहे और मैं भी प्यार भरे खत का बेबाकी से जवाब देता रहा।
अचानक एक दिन उसके दादा की तबियत खराब हुई और उस पर परिवारिक दबाव बना कर उसकी किसी संजय कोहली से विवाह संपन्न करा दिया गया। वह अंदर से बिल्कुल ही टूट गयी थी।
उसके बावजूद भी वो लगातार खत लिखती रही और मैं उसे ढाढ़सा बढ़ाता रहा कि वो अपने आप को बिखरने न दे और ज़िन्दगी की नई पारी को भगवान का उपहार मान कर आगे बढ़ो।
जवाब में उसने भी मुझसे अपनी इस दायित्व का निर्वाहन करने का आश्वशन दिया।
पिछले 2 सालों से उसका कोई खत नहीं आया था और मैं आज 9 सालों बाद उससे मिलने उसके पास जा रहा था।
मैं लिखूंगा, तो बहुत लंबा हो जाएगा। सिर्फ इतना कहना चाहूंगा। वो जो उस दौर में हुआ था, वो आज भी कायम है। सच कहूं, तो पहले जैसा। समय बदल चुका है, फिर भी वो खास है। खास ही रहेगी। पर सुना है कि अब वो पहले जैसी नहीं रही। अब वो शर्माती नहीं। अब वो किसी को देखकर बचने की कोशिश नहीं करती।
सुना है, वो अब पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत हो चली है। लोग अब तक हम दोनों के बारे में तमाम कहानियां किस्से सुनाते रहे हैं। सच कहूं, तो मुझे उसका नाम अपने साथ जुड़े देखकर हैरानी नहीं होती, बल्कि अच्छा लगता था। नाम आज भी जुड़ता है। पर सच कहूं, तो उससे मिले जमाने हो गए। शायद दशक भर का समय। वो आज भी वैसे ही मुस्कराती होगी। वो आज भी वैसे ही ठिठोली करती होगी। वो आज भी वैसे ही खुश होगी। जैसा मैं उसे देखा करता था। जैसा मैं चाहता था। वो हमेशा खुश रहे। अब तो दशक भर का समय हो गया है। सुना है, अब वो पहले से भी ज्यादा चंचल हो गई है। गुदगुदी होती है।
पर... अब मैं बदल चुका हूं। अहसास ही बाकी बचे हैं मुझमें। अब मैं पहले से भी ज्यादा गुस्से वाला हो गया हूं। अब मैं किसी की परवाह नहीं करता। शायद इतने समय से एकांत होने के कारण ऐसा हो।
03 मार्च 2008
लगभग 9 सालों बाद आज मैं अपनी रेखा के ससुराल में ठीक उस दरवाजे के बाहर खड़ा हूँ जहाँ मेरी रेखा शर्मा इस दरवाजे से अंदर जाते ही रेखा कोहली बन गई। मैं बता नही सकता कि मैं कितना उत्सुक हूँ अब। एक दशक के बाद में रेखा को देखने वाला हूँ। मेरे मन मे बहुत से सवाल उमड़ पड़े है-
"वह अब किसी दिखती होगी?
क्या वो भी मेरी तरह थोड़ी चिड़चिड़ी हो गयी होगी नहीं नहीं वो तो अभी भी अपने विचारों की तरह सुंदर और गंगा की अविरल धारा की तरह पवित्र होगी।
मेरा अचनाक उसे इस तरह सरप्राइज देना उसको सबसे बड़ा उपहार होगा।
मैं उससे आज घंटो बातें करूँगा।
उससे बहुत से शिकवे शिकायत हैं जिसकी मैं झड़ी लगा दूंगा क्योकि पिछले 2 सालों से उसका कोई भी खत नहीं आया है।"
अचनाक दरवाजा खुलता है और एक शख्स हाथ जोड़े देव को अंदर बुलाता है। देव ने ध्यान से देखा तो वो शख्स और कोई नहीं बल्कि रेखा के पति संजय कोहली थे। रेखा ने चिट्ठी में एक बार अपनी तस्वीर भेजी थी जिसमें वो अपने पति के साथ लाल साड़ी में भेजी थी। सच मे रेखा लाल रंग में बहुत ही ज्यादा फबती थी।
थोड़ी देर में संजय जी पानी का ग्लास ले कर आते हैं और पानी पीने के बाद देव पूछता है-
"रेखा किधर है दिखाई नहीं दे रही है? कहीं गई है क्या?"
ऐसा कहने के बाद भी संजय कुछ जवाब नहीं देता है। ऐसी मायूस आदर सत्कार से देव अचंभित हो जाता है। उसे कुछ गड़बड़ लगता है। देव दुबारा उस से पूछता है रेखा के बारे में तो संजय देव से गले लिपट जाता है। देव के बिल्कुल ही समझ नहीं आता कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।
थोड़ी देर में ही देव को अपने कन्धे गिला महसूस होता है और अब सिसकारी उसके कानों में गूंजने लग जाती है। देव एक झटके से संजय को खुद से जुदा करते हुए बोलता है-
"इज् एवरी थिंग ऑल राइट? सब ठीक तो है ना?
बताओ संजय क्या हुआ रेखा को?"
संजय, देव को अंदर एक कमरे में ले कर जाता है औऱ सामने दीवार की तरफ इशारा करता है। सामने देखते ही देव के कदमो से ज़मीन खिसक जाती है। सामने रेखा की तस्वीर पर फूलों का हार चढ़ा हुआ था। यह दृश्य देखते ही अचनाक दुनिया रुक सी गयी और देव की धड़कन उसी पल थम सी गयी।
वो वहीं पछाड़ खा कर वहीं सोफे पर गिर जाता है। खुले मुंह और खुले आंखों से वह बार बार उस तस्वीर की तरफ टकटकी लगा कर देखे जा रहा है। उसे विश्वास नही हो रहा था कि जो खुले आंखों से देख रहा है क्या वह सत्य है?
अनायास ही आंशू की धारा देव के आंखों से फुट पड़ी। काफी देर तक वो अपने सिर को पकड़े खुद को कोश रहा था कि उसने आने में बहुत देर कर दी। ज़िन्दगी की ऐसी भागमभाग में वो ऐसा व्यस्त हुआ कि उसने जीवन का सबसे अनमोल तोहफा कब उस से जुदा हुआ उसका एहसास होंने में 2 साल का वक़्त लग गया। काफी देर तक वो उसी स्थिति में पड़ा रहा।
संजय तस्वीर के नीचे एक बक्शे से कुछ कागज निकालते हुए देव को देते हुए कहता है-
"देखो देव जो होना था वो हो चुका है अब हकीकत को बदला नहीं जा सकता। अपने आप को संभालो मुझे रेखा ने तुम्हारे पवित्र प्रेम के बारे में सब कुछ बताया है और मुझे आज भी उसके प्यार पर फक्र महसूस होता है। मरने से पहले कुछ लेटर्स उसने दिए थे और जो भी चिट्ठियां तुम्हे वो भेजती थी उसकी एक कॉपी अपने पास रखती थी ताकि उस चिट्ठी के जवाब आने पर क्रमबद्ध तरीके से रख सके और एकांत में बैठ कर उन्हें एक क्रम में पढ़ने पर पुराने दिन को याद कर सके। उसने यह चिट्ठियां देते हुए कहा था कि जब तुम आओगे तो मैं तुम्हारे सुपुर्द कर दूँ और तुम दोनो की चिट्ठियां एक साथ क्रम में उसके इस तस्वीर के नीचे जरुर पढो।"
देव ने संजय से वह चिट्ठियां ली और पढ़ने लगा-
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06 मई 1999
मेरे अपने सिर्फ मेरे देव!
मेरी तरफ से तुम्हारे लिए यह पहला खत है। मगर फिर भी मैं इसे पहला नहीं कहूंगी क्योंकि इससे पहले लिखे सारे खत मुहब्बत की जमीं में आज भी दफन हैं जिसके सारे लफ्ज मेरे दिल की हालत को बयां करते हैं।
वे खत इतने सारे हैं कि मेरी याद्दाश्त उनकी गिनती भूल गई है।
मैं तुम्हारे सामने अपना गुनाह स्वीकार करना चाहती हूं। मैंने पहले भी तुमसे ये बात कही थी लेकिन उस वक्त तुम हंस पड़े थे। मेरे इश्क के इजहार की गहराई को तुम महसूस नहीं कर सके थे।
जब तुम मेरे इश्क में पड़े, मैं उससे कहीं पहले से तुमसे मुहब्बत करती रही हूं- लेकिन तुमने हमेशा मेरे अहसासों को नजरअंदाज किया।
तुम्हारे साथ बिताए हुए चंद लम्हों को मैने अपने पहलू में समेटकर रख लिया है । कितने मादक, कितने मनमोहक, कितने प्रेमपूर्ण थे वो क्षण, जब हम दोनों एक दूसरे के इतने समीप थे कि सांसों से सांसे टकरा रही थी, नज़रे एक-दूसरे में डूबने की कोशिश कर रही थी, धडकनें इतनी तीव्र हो गई थी कि मानो एक-दूसरे से प्रतियोगिता कर रही हो और हम प्रेम के सागर मे खोते जा रहे थे । कभी तुम्हारी प्यार भरी मुस्कान याद आती है तो कभी तुम्हारा छुप-छुपकर मुझे निहारना। उन क्षणों ने मुझे एक ऐसे अदृश्य बंधन में बांध दिया है कि जितना तुमसे दूर जाता हूं, उतना ही तुम्हे अपने निकट पाता हूं ।
ये प्रेम जो मेरे ह्रदय में तुम्हे दिखाई पडता है, ये ना तो किसी कल्पना की उडान है और ना ही कोई आकर्षण; ये प्रेम तो तुम्हारे प्रेम के प्रभाव से मेरे ह्रदय में उत्पन्न हुआ है । तुम्हारे प्यार के सम्मुख मै सब कुछ मिटा देना चाहती हूं , यहां तक कि खुद को भी या फ़िर यूं कहो कि खुद को तुम्हारी यादों में भुला देना चाहती हूं ।
तुम्हारी रेखा।
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07 जुलाई 2001
मेरी प्यारी रेखा!
कभी मैंने तुमसे जल्द ही मिलने की तुम्हारी झूठी कसम खाई थी, आज जब वो याद आया तो ऐसा लगा जैसे मेरा सीना चीर दिया गया हो । मेरा दिल तडप उठा ये सोचकर कि मैने ये भी किया । किंतु आज तुमसे कुछ भी छिपाने का ख्याल भी नही आता । यही इच्छा होती है को तुम्हारे सम्मुख पूरी तरह से खुल जाऊं, तुम्हारे मेरे बीच कोई परदा, कोई ओट, कोई व्यवधान ना रहे। सिर्फ़ तुम हो और मै होऊं; और ये दुनिया हम दोनों में सिमट कर रह जाये। किसी रात तेरी जुल्फ़ों की छांव में सिर रखकर सो जाऊं और उस रात की कभी सुबह ना हो ।
तुम्हारे मेरे संग होने के विचार मात्र से ही मेरा मन-मयूर प्रफ़ुल्लित होने लगता है। ऐसे प्रतीत होता है कि जैसे फ़िर से वृक्ष हरे-भरे हो गए है, फ़िर से सूखी नदियों में जल प्रवाहित होने लगा है, फ़िर से बंज़र जमीन पर फ़सले लहलहा उठी है, फ़िर से वनों में पशु-पक्षी नृत्य करने लगे है और फ़िर से ये 'नक्षत्र' एक नया जीवन पा गया है।
उम्मीद है कि बहुत जल्द ही मुलाकात होगी लेकिन कब होगी इसका वादा मैं इस बार नहीं कर सकता। अपना ख्याल रखना।
तुम्हारे लिए मैंने अपनी ज़िंदगी की पहली कविता लिखी है जो शायद तुम्हे पसन्द आए-
नहीं जानता हूँ मैं
न ही इजहार करने का
सलीका ही पता है! मुझे
इस पुराने खेल के
नये नये नियम और पैतरों से
शायद बेखबर हूँ मैं
मैं जानता हूँ जो
वो सिर्फ इतना है कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
एक दिन में सौ साल
एक पल में सौ बार करता हूँ।
अपनी मुस्कुराहट से तुम्हें
हर बार करता हूँ आगाह
और अपनी सांसो से ही
इजहार करता हूँ।।
मगर ये जो भी बेचैनी है
मेरी सांसो में
ये जो भी नशा होता है
मुझे हर सुबह का
ये जो भी फितूर है मेरी आंखों में
ये गवाही दे रहे हैं इस बात की
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ
हंसी आ सकती है
तुम्हें मेरी बात को सुनकर
मगर मैं रोकर भी
तुम्हें दिखा नहीं सकता हूं। क्योंकि
लगी है आंसुओं से शर्त मेरी
और दर्द इंतजार में है कि
आंसू दे मुझे हरा
और वो मुझे गिरफ्त में कर ले
मगर कुछ कसम सी दिल ने
खा रखी है जैसे
कि भले ही दर्द बहे रगों में
खून के बदले
पर आंखों में उसके निशा नहीं होंगे।।
मुमकिन है कि अल्फाज़ मेरे
जरा कुछ फिल्मी हों
मगर सच ये है
कि इश्क
फिल्मों के सिवा नहीं देखा मैंने
ये लब्ज भी। अब से पहले
था कभी नहीं सीखा मैंने
मगर ये सब दास्तान सच है
उसी तरह
जिस तरह धरती आसमान
मैं और तुम
और तुम्हारे सीने में मेरे नाम का
धड़कता दिल
अब ये फैसला तुम पर है
कि तुम इसे इश्क समझो
या मेरा पागलपन
मुझे सब ही मंजूर है।
क्योंकि
इश्क अगला मकाम
पागलपन ही होता है।।
तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा देव
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08 सिंतबर 2001
मेरे अपने देव!
तुम इस बात से भी इंकार करते रहे हो कि तुम मुझसे इश्क करते हो लेकिन मैं बखूबी जानती हूं कि पहली बार तुमने मुझे कब प्यार की नजर से देखा। यह सब अचानक हुआ था एक दिन जब तुम मेरे अंदर कोई बात देखकर हैरान हो उठे थे।
सिवाय प्यार की राह के किसी और रास्ते पर ऐसी हैरान कर देने वाली बातें होती हैं क्या? इन्हीं हैरानियों में प्यार छुपकर आया। मुझे तुम इससे पहले नहीं जानते थे।
पहले तुम्हारे अंदर बिखरे-बिखरे से खयालात होंगे जो एक मर्द के दिल में औरत के लिए होते हैं लेकिन प्यार उन सबको एक साथ बांधता है।
मैंने उस दिन भी पत्र लिखा था। मैंने कहा था, ‘तुम मुझसे प्यार करते हो।’
मैं उस दिन से पहले यह बात नहीं कह सकती थी जबकि मैं बारह खतों में तुम्हारे लिए अपनी मुहब्बत का बयां लिख चुकी थी।
अब मैंने तुम्हारे सामने अपने गुनाह को कुबूल कर लिया है। मुझे लगा कि शर्मों-हया के मारे में मैं लाल हो जाऊँगी लेकिन मेरा चेहरा शांत है। तुम्हारे चुंबन के अहसासों से सारी शर्मो-हया कहीं दूर चली गई हैं।
क्या तुम अपनी नज़र से अब मुझे कभी गिराओगे या हमेशा उठाओगे क्योंकि हम दोनों ही एक-दूसरे के बारे में सोचते हैं?
ऐसा लगता है कि तुमने मेरे अंदर की एक चीज़ को छीन लिया है। मैं बेशर्म सी हो गई हूँ। क्या फिर भी तुम मुझसे प्यार करोगे?
ओह! तुम मुझसे प्यार करते हो, हां करते हो। तुम आशिक हो! हम दोनों ही आशिक हैं। तुम और मैं।
अच्छा, तुमको यह जानने के बाद खुशी हुई होगी कि मैंने तुम्हारा इंतजार किया और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, तुमसे प्यार का इजहार किया। लेकिन जब सब कुछ ठीक था तो मैं क्यूं तुमको इंतजार करती देखती रही कि तुम अपने प्यार का इज़हार करोगे।
ओह! मैं तुमको आजमा रही थी। क्यों नहीं मैंने तुमको तभी अचानक अपनी बाहों में भरा और कहा, ‘ऐ मेरे बेजुबां आशिक, देखो इधर और बताओ कि तुम किस प्यास से मरे जा रहे हो।’
और तुम कभी नहीं जान सकोगे? मेरे महबूब, कि मैंने तुम्हें किसलिए प्यार किया, तुम कभी नहीं जान सकोगे। मैं ऐसे मर्द पे यकीं करती हूँ जो यह सोचता है कि उसने शहर को जीत लिया है लेकिन उसे यह कभी पता नहीं चल पाता कि उस शहर के लिए यह बहुत थका देने वाली हार थी।
वह शहर तो खुद हारना चाहता था जिसके हर दीवार और खिड़कियों पर लगे समर्पण के झंडे लहरा-लहरा कर फट गए थे।
मुहब्बत के जंग में रणनीतियाँ तो औरत ही बनाती है लेकिन आखिर में इस मुठभेड़ में उसे हारना ही होता है जब वह किसी हसीं मर्द को सामने पाती है।
बीते दिनों जो कुछ भी हुआ, उसके लिए तुम मुझे अपनी तारीफ करने का थोड़ा मौका दो क्योंकि शायद आगे मैं अपने बारे कुछ न कह-सुन सकूं। तुम अभी इसी वक्त उन बातों के लिए मेरी तारीफ करो।
मेरे लिए तो अब कोई जंग जीतने को बाकी नहीं रहा। तुम और सुकून ने मुझे अपना कैदी बना लिया है, मुझे अपनी जिंदगी से जुदा कर दिया है।
मेरे आशिक, मैं हजार जिंदगियों में भी शायद ऐसी जिंदगी नहीं पा सकती। मैं अपना अस्तित्व मिटा देना चाहती हूँ और तुम्हारी बाहों में समा जाना चाहती हूँ। तुमको प्यार देकर मैं कितनी आसानी से तुमको अपनी जिंदगी दे सकती हूँ।
आह! मेरे प्रिय, मैं पूरी तरह से तुम्हारी, खुशी-खुशी तुम्हारी हूं। क्या तुम कभी इस बात का पता लगा पाते- तुम, जो एक चीज तलाशने में कितना वक़्त गंवा देते हो?
तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी रेखा।
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09 फरवरी 2002
मेरी प्यारी रेखा
हम जिनसे भी प्रेम करते हैं वो हमारे अपने होते हैं और अति प्रिय होते हैं। जिनके साथ हम हमेशा रहते हैं, उनके बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं।
हर इंसान में गुण और दोष दोनों होते हैं। इंसान की यह मानसिकता होती है कि वो किसी के गुणों की बजाय दोषों को जल्दी देखते हैं।
हाँ, जहाँ सवाल प्रेम का है तो भी, किसी के दोष को हम नजरअंदाज कुछ समय के लिए कर भी दें, लेकिन वही व्यवहार बन जाए तो उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हम जिनसे प्रेम करते हैं, हम तो यही चाहेंगे कि उनमें जो कमियाँ हैं उन्हें दूर किया जाए।
मुझे याद नहीं कि मुझे कभी यह कहने की जरुरत पड़ी हो कि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। इसलिए शायद जब भी तुमने कुछ पूछा, उसके जवाब में मैंने हमेशा एक पत्र लिखकर दिया है। मैं जानता था तुमने मेरी बातों से अपने जीवन की किताब को भर लिया था। जहाँ और किसी के कहे शब्दों के समाने की जगह ही नहीं छोड़ी थी। हमारे जीवन में एक जैसे किस्से जुड़ने लगे थे।
बहुत खुश थी उस दिन तक जब तक मेरे अतीत की आखिरी कहानी तुमने पढ़ ली थी। उसके बाद शब्दों की दौड़ में खामोशी ने भाग ले लिया था। बहुत कुछ लिख देने के बाद उस किताब के कुछ पन्ने खाली छोड़ना थे। उन खाली पन्नों में हमें अपने किस्सों को लिखने की इजाजत नहीं थी, ना ही एक-दूसरे को बताने की।
एक-दूसरे की खामोशी को हमें अकेले जीना था। बहुत मुश्किल था क्योंकि हम दोनों जानते थे कि गलती इतनी बड़ी नहीं थी, जितनी बड़ी सजा मिल रही है। मेरे बार-बार आखिरी-आखिरी कह देने पर तुमको विश्वास नहीं था। सबकुछ देने के बाद भी तुम मुझसे इतना कह देने का हक ना ले सकी कि अपने अतीत को फाड़कर फेंक दूँ।
मुझे याद नहीं कि मुझे कभी यह कहने की जरुरत पड़ी हो कि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। इसलिए शायद जब भी तुमने कुछ पूछा, उसके जवाब में मैंने हमेशा एक पत्र लिखकर दिया है। मैं जानता था तुमने मेरी बातों से अपने जीवन की किताब को भर लिया था।
तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा देव
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10 अप्रैल 2003
मेरे प्रिय देव!
प्रिय, तुम्हारे नाम ने आज सुबह मुझे गहरी नींद से जगा दिया। मैंने पाया कि ख्वाब से निकलकर जब तक मैं बाहर आ पाती उससे पहले ही मेरे लब तुम्हारे नाम का गीत गुनगुना रहे थे।
मैं सोचने लगी कि जब मेरी रूह शांत पड़ी थी तब यह कौन दगाबाज़ था जो मेरे अंदर अबूझ सी बातें बोल रहा था। पिछली रात मैंने ख्वाब में देखा कि तुम एक बहुत बड़े पेड़ थे जिसके साये में मैं थी और आँधी हम दोनों को उड़ा ले गई।
इसके बाद क्या हुआ, मैं सब भूल चुकी हूं। इतना काफी था जिसकी वजह से नींद खुलते ही मैं काफी खुश थी।
वे सारे ख्वाब अब उसी तरह से बुझे-बुझे लग रहे हैं जैसे कि सुबह में अचानक दरवाजा खोलते ही सूरज का उजाला घर के अंदर जलती मोमबत्ती की रोशनी का अस्तित्व मिटा देता है। अब वह मोमबत्ती दीवारों को रोशन नहीं करती क्योंकि दिन की रोशनी उसके ऊपर हावी हो जाती है। उसी तरह, मैंने ख्वाब में क्या देखा, वह सब भूल गई हूं क्योंकि दिन के उजाले में समाकर तुम आए और उन यादों को मिटा गए।
ओह! तुम कैसे हो? जग गए? बिस्तर से उठ गए? सुबह कुछ खाया कि नहीं? मैं तुमसे हजार बार पूछती हूं। तुम मेरे बारे में ही सोच रहे हो, मैं जानती हूँ। लेकिन क्या सोच रहे हो?
मैं अपने बारे में ऐसे सवालों को सोचकर खुश हो रही हूं। अगर मैं जान सकती कि कल जो कुछ भी मैंने अपने प्यार का इजहार करते हुए कहा उसे सोचकर आज तुम मुस्कुरा रहे हो तो मैं अपने बारे में सोचकर खुशी के मारे रोने लगूंगी।
एक तुम ही हो जो मुझे अपने बारे में सोचने पर मजबूर करते हो। तुम्हारी वजह से ही आज मैं अपनी तलाश कर रही हूं। पहले मुझे खुद पर अधिकार था और इसे मैं अपनी सबसे महान चीज समझती थी लेकिन तुम्हारे वश में आने के बाद वह भावना जाने कहां चली गई और मैं एक राज को जानने के लिए रोती रह गई जो मेरा नहीं था।
क्या मैं कभी जान पाऊंगी कि तुमने मुझसे इश्क क्यों किया? यह मेरी सूफियाना उलझन है लेकिन यह किसी संदेह से उपजा सवाल नहीं है। तुम मुझसे इश्क करते हो। क्यों करते हो, यह मैं कभी जान पाऊंगी?
तुमने भी अपने बारे में मुझसे यही सवाल पूछा था और इसका कोई जवाब तुमको नहीं मिला था क्योंकि मैं पूरी की पूरी तुम्हारी हो चुकी थी। मैं इस सवाल का जवाब तभी सोच पाती जब मैं अपनी सांसों को रोक पाती। अगर मैं अपने सांसों को एक पल के लिए रोक लेती और तुम्हारे बगैर दुनिया को देखने की कोशिश करती तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक जाती और किसी सुनसान-वीरान जगह में गिर जाती।
लेकिन, उसके बाद जैसे ही मैं डर के मारे सांस लेती तो मेरे सितारे मुझे बाहों में भर लेते और आसमान में चमककर तुम्हारा चेहरा मुझे दिखाते। ओ हसीन सितारे, मैं तुम्हारे साये में ही तो पैदा हुई थी, तुम मेरे साथ घूमते रहे और बचपन से मेरे बारे में खामोशी से भविष्यवाणियां करते रहे लेकिन मैं नहीं समझती थी कि उन बातों का मतलब क्या था- तुम्हारी चमक में मेरे आशिक का नाम छुपा हुआ था।
बचपन में कभी-कभी बिना किसी कारण के मैं बहुत खुश रहती थी। मुझे उस समय पंख लग गए थे। कभी कोई खेत परियों का देश बन जाता था और मैं इसमें से गुजरती थी। मैं सोचती हूँ कि धरती के इन जादुई पलों को तुमने भी जरूर जीया होगा। तुम्हें भी घास पर चलते हुए हवाओं की हल्की छुअन का अहसास हुआ होगा या बारिश के बाद और भी खिले-खिले दिखने वाले खुशबूदार फूलों के साये में तुम खड़े हुए होगे।
याद है एक बार मैंने तुमसे पूछा था कि तुम कहां-कहां रहकर जवां हुए। ऐसा मैंने इसलिए पूछा था कि क्योंकि मुझे लगता था कि शायद हम कहीं पहले भी मिले थे, लेकिन हम कहाँ मिले थे इसे मैं अपनी जवानी की खुशी को समेटते हुए याद नहीं कर पा रही थी।
मैं देख सकती हूं कि दूर कहीं कुछ रहस्य हमारा इंतजार कर रहा है। यह रहस्य कुछ ऐसा है जिसके बारे में मैं पहले अनुमान नहीं लगा सकती थी- तुम्हारे साथ उम्र बिताकर बूढ़े होने की खुशी।
क्या वह वक्त उस शाम की तरह ही खुशनुमा नहीं होगा जब हम दोनों एक दूसरे का हाथ थामे बैठे हुए थे और सूरज ढलते ही हमारे सर पर सितारे आकर चमकने लगे थे। उन पलों के जीवन में बीते दिनों की जाने कितनी यादें खिंचकर चली आई थी। क्या बुढ़ापे में भी हमारी मुहब्बत वैसी का वैसी ही नहीं रहेगी-सितारों से भरी यादों वाली जगह जैसी?
तुम्हार प्रेम-पत्र मेरे पास पड़ा है जब मैं यह सब लिख रही हूं। तुम इतने कम लफ्जों में सब कुछ कैसे कह देते हो!
कल तुम आओगे। मैं और क्या चाहूँगी- कल और उसके साथ आने वाली सौगातों के सिवा? तुम मेरे दिल में हो, मेरे प्रिय। दुनिया की और कोई भी चीज मेरे इतने करीब नहीं हो सकती, जितने तुम हो।
तुम्हारी अपनी रेखा
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11 मार्च 2004
मेरी प्यारी रेखा
तुम जानती थी मैंने अपने जीवन के हर किस्से को तुम्हारे साथ बाँटा है। हमारी पहली कहानी की शुरुआत मेरे अतीत की आखिरी कहानी की निरंतता में थी। फिर भी तुम्हें मनाना मेरे लिए मुश्किल था। किसी के लिए भी मुश्किल होता। बस एक आसान-से रास्ते की तलाश में मैंने तुम्हारी दूर हो जाने की शर्त को मंजूर कर लिया। हम चल पड़े उस खामोशी की राह जहाँ एक इंतजार, एक तन्हाई, एक उम्मीद के अलावा कुछ कोरे पन्ने भी थे, जिस पर हमें कुछ लिखने की इजाजत नहीं थी, ना ही एक दूसरे को कुछ बताने की।
बहुत दिनों तक अपने हाथों में उन कोरे पन्नों को लेकर हम एकदूसरे से दूर रहें। लेकिन हमें पता नहीं था हमारी नजरें चुराकर समय उन कोरे कागज पर बहुत कुछ लिख रहा था। मुझे आज भी याद है वो खामोशी के दिन, वो दूरियाँ, और उसके बाद हुई मुलाकात.......ताश के पत्तों की तरह हम एक-एक पन्ना एकदूसरे के सामने रखते गए, और देखा कि अब भी हमारी कहानी में एक जैसे किस्से थे। वही बच्चों-सी जिद, वही सूफियों-सी सीख, वही झूठमूठ के किस्से, और दिल की सच्ची कहानी, वही तुम्हारी मुस्कुराहट को देखना, और देख लेने पर नजरों को चुरा लेना, वही बहते हुए आँसू, और सूनी-सी आँखों में उम्मीद की तलाश ........ सबकुछ एक जैसा था। एक बात को छोड़कर उस दिन पहली बार तुमने मुझे आई लव यू कहा । लेकिन तुम्हारे कहने से पहले ही मैं जान चुका था कि प्यार को किसी शब्दावली की जरुरत नहीं होती, खामोशी की अपनी जुबां होती है, जो समय और किस्मत से जुड़कर कई बार ऐसे किस्से गढ़ लेती है, जो बड़ी-बड़ी बातें और आई लव यू जैसे शब्द नहीं गढ़ पाते।
तुम्हारा अपना देव
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12 जून 2005
मेरे प्रिय देव
मर्द और औरत का एक-दूसरे से प्यार में कितना अंतर होता है? क्या दुनिया में और कोई ऐसी चीज है जो इतनी अलग हो? मैं रोज अपनी रूमानी सुबह यही सोचते हुए बिताती रही हूं और तुम्हारे साथ इन अहसासों को बांटना चाहती हूं।
लेकिन अपनी जिंदगी के इस दर्द को तुमको दिखाना मेरे लिए इतना आसान नहीं है।
मैं यह क्या करती रही हूं? मेरे प्रिय, मैं अपने लिए एक ड्रेस सिल रही हूं और ड्रेस, जिसे दिल से तैयार किया गया हो, प्रेम-पत्र की तरह होता है। जब यह बन जाएगा तो तुम इसे देखकर इसकी तारीफ तो करोगे लेकिन यह नहीं जान सकोगे कि इस ड्रेस को बनाने में कितने राज छुपे हैं।
इसलिए मैं कहती हूं कि तुम्हारा प्यार और मेरा प्यार एक जैसा नहीं है।
सोचो, जब तुम मेरे लिए एक कोट लाओ और मुझसे कहो कि यह तुमने खुद अपने हाथों से मेरे लिए बनाया है तो मैं उसे देखकर कितनी दीवानी हो जाऊंगी !
एक दिन तुमने मुझे एक ड्रेस दिया था जिसे किसी दर्जी ने सिला था, फिर भी मैंने उसे चूमा था। यह तब की बात है जब हमारा प्यार शुरू हुआ था और हम दोनों एक-दूसरे से हाथ मिलाकर रह जाते थे।
लेकिन, आज मैं तुमको अपने ड्रेस के बारे में बताऊंगी ताकि तुम इससे जुड़ी मेरी भावनाओं को जान सको। इस ड्रेस में बीच में एक खुली सी जगह है-जो बहुत ज्यादा खुली नहीं है- वहीं मेरा दिल धड़कता है।
हवाओं में लहराने वाली यह स्कर्ट थोड़ी लंबी हो गई है। मैंने इस ड्रेस में अपना सपना बुना है। कभी जब मैं तुमको गुड नाइट कहने के बाद दरवाजे से बाहर जाती रहूंगी तो देर तक तुम मुझे देखते रहोगे, इस ड्रेस के आखिरी छोर के गायब होने तक और यह तुम्हारी आंखों से ओझल होने तक तुमसे कहती रहेगी, ‘गुड बाय, गुड बाय, मैं तुमसे कितना प्यार करती हूं। देखो मुझे, मैं धीमे कदमों से जा रही हूं।’
चलो, ये तो मैंने तुमको अपने ड्रेस के बारे में बताया। तुम्हारे लिए मेरे प्यार का यह एक अहम हिस्सा है और तुमको इसमें कोई रुचि नहीं है? क्योंकि इसमें तुमको मैं वह सब नहीं दिखा सकी जिसे देखने की इच्छा तुम मर्दों को होती है।
क्या तुम्हारे पास ऐसा कुछ है जो मुझे बता सको; वे सारे जज़्बात जो मेरे लिए तुम्हारे मर्दाने मन में चलते रहते हैं?
तुम यहां सिर्फ कल आए थे और मैं बहुत चाहती हूं कि तुम आगे भी आते रहो। तुमसे खुश न रहने वाली लेकिन बहुत प्यार करने वाली तुम्हारी प्रेमिका।
तुम्हारी अपनी रेखा
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13 अगस्त 2005
प्रिय देव
कोरे कागज को एकटक देखते हुए मैं तुम्हारे बारे में सोचती रही हूं कि मेरे दिल की जो हालत है, क्या उसका हू ब हू बयां यह खत वहां कर पाएगा जब तुम इसे पढ़ रहे होगे।
फिलहाल मैं यही महसूस कर रही हूं कि मैं इसलिए जी रही हूं क्योंकि तुम मुझे प्यार करते हो और अगर ऐसा नहीं होता तो मेरा जीवन उसी तरह खत्म हो जाता जैसे कलम से स्याही।
अभी तक, मेरे प्रिय, अभी तक! ऐसा कुछ हम दोनों के बीच शुरू नहीं हुआ और हमने कुछ ऐसा नहीं किया जो प्यार में होता है।
मैं फिलहाल यह नहीं कहूँगी कि हमारा प्यार सावन के महीने में पहुंच गया है। मुझे तो ऐसा लगता है बहुत दिनों से यह बसंत महीने में ही रुका हुआ है।
हर अगले दिन पिछले दिन से ज्यादा शिद्दत से मैं तुम्हारे प्यार से बंधती जा रही हूं। इसलिए हर दिन अब एक सा नहीं होता। मेरे लिए आने वाला कल बीते हुए से ज्यादा खुशनुमा होता है।
तुम मेरे हो, मेरे अपने! लेकिन यह उतना सच नहीं है जितना कि मैं तुम्हारी हूं। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि अपना दिल और रूह तुमपे लुटाने के बाद अब मेरे वश में नहीं कि मैं किसी भी चीज को अपने अधिकार में रख सकूं। मेरे अंदर मेरी पहचान खो सी गई है।
मैं पूरी तरह से तुम्हारी हो चुकी हूं। ये सब कहना हो सकता है कि बेकार की बातें हों लेकिन मैं और क्या कह सकती हूं अगर मुझे कोई बात कहनी हो तो?
क्या मैं कभी सच में तुम्हारे आकाश का सितारा बन पाऊंगी, जैसा कि तुम कहते हो मेरे आशिक।
प्रिय, मेरे लिए एक सितारा तुम हो जाओ और मैं तुम्हारे लिए एक सितारा बन जाती हूँ। जब कभी हम दोनों अलग रहें तो ऐसा हो कि आसमान में हम दोनों के सितारे एक-दूसरे को तलाशते रहें। स्वर्ग के किसी मोड़ पर जाकर वे मिल जाएं और वे साथ-साथ चलते रहें।
बिना किसी अंधविश्वास के मैं यह कह सकती हूँ कि मुझे इन सितारों में एक खूबसूरत जिंदगी दिखती है। क्या तुमने कभी इन आसमानी चीजों में खुद को तलाशा है?
तुम्हारी अपनी रेखा
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14 अक्टूबर 2005
प्रिय देव
मुझे ऐसा अहसास हो रहा है कि आज तुम कुछ न कुछ ऐसा करोगे जिसकी वजह से खास तौर से मुझे बहुत खुशी मिलेगी। मेरी सारी खुशियां तुम्हारे दामन में हैं।
यह बता नहीं सकती कि मैं तुम्हारी कितनी अहसानमंद हूं। तुमको यह अहसास होना चाहिए। मेरे जिस्म और रूह की सारी खुशियों के पीछे तुम्हारी इनायत है जो जाने-अंजाने में तुमसे मुझे मिले हैं।
मैं आज के दिन भी यही सोच रही हूं कि मर्दों में तुम सबसे ज्यादे अंजाने किस्म के हो क्योंकि तुमने मुझसे मेरी जिंदगी के बारे में कभी पूछा नहीं।
शायद तुमको यह कभी याद भी नहीं आएगा कि मैं इस धरती पर कभी पैदा भी हुई थी।
आज मेरा जन्मदिन है!
तुमने कभी पूछा नहीं, इसलिए मैंने भी कभी बताया नहीं; फिर भी यह दिन आ ही गया। क्या तुम इस बारे में जानते हो, क्या तुमने किसी और से इस बारे में कभी पूछा था?
अगर तुम जानते होते तो जरूर मुझे अपनी प्यार भरी बातों के साथ बधाई देते। मुझे लगा कि आसमान से सीधे तुम्हारे पास इस बात की खबर आएगी और तुम मुझे इस बात के लिए माफ करोगे कि मैने वह बात तुमसे छिपाए रखी जिसके बारे में तुमने कभी पूछा ही नहीं।
मैं तुमको अपने जन्मदिन की बधाई देती हूँ मेरे आशिक!
तुम्हारे लिए ही यह दिन आया है। क्या तुम आज खुश हो, मेरे मन में यह सवाल है?
मैं यह भी सोच रही हूँ कि क्या मैं तुमको आज शाम अपने घर के अंदर खामोशी से आते देख सकूंगी? क्या तुम आज आकर उन बिखरे हालात को ठीक कर दोगे जो दिनभर मेरे अंदर हलचल मचाते रहे?
अब मैं तुम्हारे लिए इस पत्र को मोड़कर रख रही हूं। हालांकि सूरज के निकले हुए काफी वक्त बीत चुका है। फिर भी मैं तुमको ‘गुड आफ्टरनून’ नहीं कह सकती क्योंकि हम दोनों के प्यार की डिक्शनरी में ऐसा कोई लफ़्ज है ही नहीं।
गुड नाइट। मेरे लिए अपनी उंगलियों को रोकना कितना कठिन है जो तुम्हारे लिए लिखते हैं। मैं तुमको इतनी बार चूमती हूँ कि मैं गिन नहीं पाती।
मेरे डियरेस्ट, मेरे स्वीटहार्ट, मैं तुम्हारी इबादत करती हूं। गुड नाइट।
जब तक मैं जिंदा हूं तब तक जितना महसूस करती हूं उससे कहीं ज्यादा तुमसे प्यार करना है।
तुम्हारी अपनी रेखा
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15 नवंबर 2007
मेरे दोस्त
क्या तुम सोचते हो कि खत में तुमको दोस्त लिखना बहुत सर्द सी शुरुआत है? मैं ऐसा नहीं सोचती।
क्या दोस्ती सच्चे प्यार की पहली मंजिल नहीं होती? मैं नहीं जानती कि मर्द किस तरह प्यार में पड़ते हैं लेकिन खुद के बारे में इतना कह सकती हूं कि मैं तुम्हारे प्यार में नहीं पड़ती अगर पहले तुमसे दोस्ती न हुई होती।
ओह, मेरे प्रिय, और उसके बाद, मैं तुमसे दोस्ती के ऐसे धागे से बंध गई हूं जिसका कोई ओर-छोर नहीं है।
मैंने सुना है कि मर्द ऐसा कहते हैं कि औरतों के साथ दोस्ती के रिश्ते में सच्चाई और गहराई की कमी होती है। जो ऐसा बोलते हैं, उनके बारे में मैं ऐसा सोचती हूं कि उनको कभी किसी औरत की सच्ची दोस्ती नहीं मिली है।
मैं अपनी जाति की प्रशंसक हूं क्योंकि मैं उसके अकेलेपन के कुछ रहस्यों को जानती हूं जिसे तुम मर्द नहीं जानते। एक समय मैंने यह भी जाना कि तुम्हारी दोस्ती मेरी जिदंगी के लिए सबसे गहरी चीज है।
इसलिए क्या यह कहना सही नहीं होगा कि औरत दोस्ती के रिश्ते में मर्दों से कहीं ज्यादा खो जाती है क्योंकि मर्दों के मुकाबले यह उसके लिए बहुत मायने रखती है और उसकी जिंदगी को दूर तक छूती हुई गुजरती है?
लेकिन मर्दों में दोस्ती की कितनी ही क्षमता हो, यह उसके मन को नहीं भर सकती। एक मर्द हमेशा दोस्ती से आगे एक ऐसी औरत को पाना चाहता है जो उसके जीवन को पूर्णता दे, उसके रूह और जिस्म को वह सब कुछ दे जो उसको चाहिए। सिर्फ दोस्ती किसी मर्द को संतुष्ट नहीं कर सकती। वह कुछ चीजों पर अपना अधिकार मानकर चलता है और जीवन में दोस्ती से कहीं ज्यादा पाने का दावा करता है।
लेकिन एक औरत के लिए एक समय ऐसा आता है जब प्यार में दोस्ती ही सब कुछ हो जाती है। किसी की दोस्त बनने की तीव्र इच्छा ही ऐसी औरतों के रूह को छूकर गुजरती है और दोस्ती को ही प्यार में ज्यादा तवज्जो देती है।
तुम्हारी अपनी रेखा
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03 मार्च 1999
07 अप्रैल 2008
मेरे सपने देव
तुम सोच रहे होंगे की ये इतनी पुरानी तारीख़ क्यों डाली है और डाली भी है तो एक डेट नई क्यों है और तो और दोनो में 9 साल का क्यों अंतर है इस ख़त पर।
...तो वो इसलिए क्योंकि मेरी जिंदगी आज भी उसी पल में रुकी हुई है ....जब तुम मेरे साथ थे ...आज इतने दिनों के बाद तुम्हारा फोन आया ..यकीन मानो जैसे मै किसी नदी में डूब रही थी और तुम्हारी आवाज ने तिनके का सहारा दे दिया ..और मुझे फिर से जिन्दा होने का एहसास दिया ....जिस पल तुम्हारी आवाज मेरे कानो में पड़ी ..मानो एक और जिंदगी उसी पल जी ली मैंने ..कब शबनमी कतरे आँखों की कोर छोड़ कर मेरे होठो को चूमने लगे कुछ पता नहीं चला ..सब कुछ उस एक पल में हो गया
तुमसे बात होने के बाद अब क्या कहूँ मेरा क्या हाल है....
मेरे कमरे की वो दीवारें जो आजतक मुझे बदरंग लगती थी...
आज अचानक वो मुझे रंग-बिरंगी और खूबसूरत लग रही हैं .....
मै बोल रही हूँ तो भी लग रहा है की गुनगुना रही हूँ ....
खाने - पीने की चीजो का स्वाद बढ़ गया है ....
और एकदम से मेरा कुछ मीठा खाने का मन हो आया है ...
मेरी डायरी और कलम मुझे प्यारी निगाहों से घूर घूर के देख रही हैं ..की अब तक जो दर्द की स्याही उन पर उड़ेलती आई हूँ मै, शायद आज प्यारा सा कोई नगमा लिख दू उनपर तो उनको भी चैन आ जाये .....ऐसा ही लग रहा है उनके मुझे देखने से !!!
ओह ! मेरी जिंदगी तुम नहीं जानते ..मेरी जिंदगी में तुम्हारे होने के क्या मायने हैं ....बस अब कहीं मत जाना ..और जाना तो मेरी जिंदगी लेकर जाना ......
ओह्ह मैं तुमसे इतने सालों बाद पहली बार फोन से बात करने खुशी में तो यह बताना तो भूल ही गयी या शायद मेरी हिम्मत नहीं हुई बताने की मुझे ब्रेन ट्यूमर है और मैं इस वक़्त आखिरी चरण में हूँ। मैं यह खबर दे कर तुम्हे कमजोर नहीं करना चाहती थी।
हम इतने खुसनसीब नहीं होते की हमारी हर इच्छा पूरी हो सके।
मुझे न चाहते हुए भी तुम्हारा साथ बीच से छोड़ कर जाना पड़ रहा है लेकिन ये मत सोचना कि मैं तुम्हारी दोस्ती या पहले प्यार को तोड़ दिया है। मेरे शोना यह तो अगले 6 जन्मों तक और चलने वाला है और इस बार मैं तुम्हारा पहले से अपनी दोनो बाहें फैलाए इंतज़ार कर रही होंगी।
जिंदगी की सारी खुशियाँ तुम्हारे नाम
सिर्फ तुम्हारी तुम्हारी अपनी रेखा
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यह रेखा के अक्षरों के रुप में आखिरी शब्द थे। उसने जाते जाते अपने प्रेम को अमर कर दिया था। वो अपनी प्रेम की यात्रा पर जा चुकी थी जहां देव का बेसब्री से इंतज़ार कर ही थी।
थोड़ी देर में संजय उस कमरे में देव के पास आते हैं। उसे हिलाते हैं लेकिन देव अपनी जगह से नहीं हिल पाता। संजय देख कर अचंभित रह जाता है कि देव अब इस दुनिया मे नही रहा था। उसकी दाहिनी मुट्ठी में रेखा की आखिरी चिट्ठी थी जिसे पढ़ते ही वो भी उस यात्रा पर निकल चुका था जिसकी मंजिल पर दोनो का मिलन होने वाला था। हाँ सच मे अब वो बहुत जल्द एक होने वाले थे, बस उन्हें एक होने में कुछ वक्त ज़रुर लगा गया था लेकिन उन्हें अब जुदा करने वाला कोई भी नहीं था।