आशु घर से भाग गया
आर0 के0 लाल
दो दिन पहले की बात है आशु के घर पर बड़ी भीड़ लगी थी। मैं भी यह देख कर उसके घर पहुंच गया। देखा कि उसकी मम्मी दरवाजे के दहलीज पर सर पटक पटक कर बेहोश सी हो रही थी। उसकी छोटी बहन दूर एक कोने में सुबक रही थी। वह काफी छोटी थी इसलिए उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था मगर बाकी लोगों को भी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि बारह साल का बच्चा आशु कहां और क्यों भाग गया।
उसके स्कूल के प्रिंसिपल साहब भी वहां खड़े थे। कुछ प्रेस वाले भी कैमरा लेकर वहां पहुंच गए थे। सभी लोगों की कोशिश थी कि कैमरे में उनकी फोटो आ जाए और कल अखबार में छप जाए। आशु की मम्मी का बुरा हाल था , कह रही थी बेटा स्कूल गया था लेकिन लौट के नहीं आया। न जाने कहां चला गया। प्रिंसिपल साहब कह रहे थे कि वह स्कूल में आज अनुपस्थित था। उसका बस्ता स्कूल के फील्ड में पड़ा था। सभी लोग स्कूल वालों पर ही इसकी जिम्मेदारी सौंप रहे थे। लोग आशंका कर रहे थे कि कहीं आशु का किसी ने अपहरण तो नहीं कर लिया। उसकी मां चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कोई तो जाओ उसको ढूंढ के लाओ, मेरा बच्चा कहां चला गया। आशु के पापा तुम्हीं कुछ क्यों नहीं करते? क्या तुम हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहोगे? इसके बावजूद भी आशु को ढूंढने कोई नहीं जा रहा था । कुछ लोग फोन पर जरूर सूचनाओं का आदान प्रदान कर रहे थे। प्रेस वाले भी प्रश्न दाग रहे थे -"उसकी दोस्ती किससे थी, वह किस तरह का लड़का है? किसी पर शक है क्या? आदि। कहीं वह किसी अपराधिक व्यक्ति के चंगुल में ना फंस गया हो ऐसी आशंका व्यक्त करके लोग डरा रहे थे।
आशु के पापा ने बताया कि उनके बच्चे का कहीं पता नहीं चल रहा है। वह सभी रिश्तेदारों और दोस्तों के घर का चक्कर लगा आएं हैं। । उन्होंने याद करके बताया कि कई दिनों से आशु उदास सा रहता था मगर इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पढ़ने में उसका मन नहीं लग रहा था। डांटने पर वह होमवर्क करने बैठता मगर नहीं करता ।
आशु की मम्मी कह रही थी कि किसी ने उसके बेटे को अगुआ तो नहीं कर लिया अगर कोई फिरौती मांगी गयी तो मैं कहां से दूंगी। कहीं वे बच्चे को मार ही न डालें। मगर उसके पापा दलील दे रहे थे कि वह कोई लखपति तो है नहीं कि फिरौती की रकम दे सकें। कोई नेता या उद्योगपति भी नहीं है इसलिए उसे अगवा करने का कोई प्रश्न ही नहीं होता। इसके अलावा वह कह रहे थे कि उसके लड़के का साथ किसी गलत लड़के से भी नहीं है। वह जुआ भी नहीं खेलता जिससे किसी प्रकार की अनिष्ट की संभावना हो। सभी चिंतित हो रहे थे।
किसी व्यक्ति ने सलाह दी कि आशु के बस्ते की तलाशी ली जाए । हो सकता है कि कोई सूत्र हाथ लग जाए । उसके बैग की तलाशी ली गई। बैग में एक पत्र मिला जो आशु ने अपने पापा को लिखा था- " पापा मैं जा रहा हूं। मुझे ढूंढने की कोशिश मत करना। मेरा मन बहुत ऊब गया है। यह भी कोई जिंदगी है, जब देखो डांट फटकार पड़ती रहती है। चाहे स्कूल हो या घर चौबीसों घंटे पढ़ना पड़ता है। मेरे मन में शिक्षा को लेकर एक नहीं अनेकों प्रश्न हैं जिसका उत्तर मुझे नहीं मिल रहा है। इसलिए मेरा मन भी नहीं लगता। मैं बालक ध्रुव की तरह इनका उत्तर ढूंढने जा रहा हूं। अगर उत्तर मिल गया तो मैं आ जाऊंगा वरना नहीं।"
आशू ने लिखा था कि मैं लगातार सोचता रहता हूं कि शिक्षा जीवन जीने की कला है परंतु हमें उसके लिए कुछ नहीं सिखाया जाता। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमें पैदा होते ही स्कूल में झोंक दिया जाता है केवल ढाई से 3 साल की उम्र में। प्रतिदिन छोटे बच्चों को पांच बजे ही उठाकर नहला धुला कर और सजा कर ट्राली में या बस में बैठा दिया जाता है। नींद भी नहीं पूरी होती। यह उम्र खेलने की होती है। मैंने टी वी पर रामायण और श्री कृष्ण सीरियल देखा है। भगवान ने भी अपना बचपन खेल कूद कर बिताया था जबकि हमें न खेलने का समय मिलता है और न घूमने का। सभी जगह कई सालों से बच्चों के खेलने के समय में गिरावट हो रही है जिससे उनका भावनात्मक विकास प्रभावित हो रहा है। उनमें, अवसाद और आत्म- नियंत्रण की समस्याएं बढ़ रहीं हैं। एक अध्ययन में तो यहां तक कहा गया है कि 65% से ज्यादा बच्चे बाहर कम खेलते हैं। उनकी माताएं कहती हैं कि सुरक्षा चिंताओं के कारण अपने बच्चों को आउटडोर खेल को प्रबंधित कर दिया है। सड़क पर दुर्घटनाएं होती रहती हैं, अकेले कैसे भेजें। मुझे समझ नहीं आता कि फिर हमें पैदा ही क्यों किया गया? जब स्कूल भेजा जा सकता है तो खेलने क्यों नहीं भेजा जा सकता? सभी को यह समझना चाहिए कि खेल कूद बच्चों को स्वयं अपनी पहचान बनाने और स्वावलंबी बनने का मौका देता है । बच्चे समस्याओं को हल करने का तरीका सीखते हैं। बच्चे खेलने के माध्यम से अपनी दुनिया में महारत हासिल कर सकते हैं । बच्चे खेल के दौरान गुस्से और अपनी भावनाओं को संभालना सीखते हैं । खेलने से बच्चों को दोस्त बनाने में भी मदद मिलती है। फिर हम सभी को यह मौका क्यों नहीं है?
छोटे बच्चों के एडमिशन के लिए भी बहुत कठोर साक्षात्कार लिए जाते हैं। हम से अपेक्षा की जाती है कि सब कुछ अंग्रेजी में उत्तर देते रहें। सभी को अंग्रेजी की पोएट्री सुनानी पड़ती है। संस्कृत या हिंदी या अपनी भाषा में श्लोक क्यों नहीं रताया जाता? पढ़ना हमें है लेकिन प्रवेश के समय साक्षात्कार मम्मी पापा का क्यों? पढ़ाई का वही पुराना फॉर्मूला। ए फार एपल ही क्यों? हम क्यों नहीं कुछ और बता सकते?
स्कूल में पढ़ाई कम कराकर ज्यादा होमवर्क दिया जाता है। स्कूल से घर पहुंचते ही हम होमवर्क करने पर जुट जाते हैं और हमें नींद आ जाती है। फिर तो मम्मी ही होमवर्क पूरा करती हैं । जब उन्हीं को करना है तो वही स्कूल क्यों नहीं जाती? पेरेंट्स टीचर मीटिंग में टीचर यह कहने से नहीं चूकती कि आपके बच्चे को कुछ नहीं आता जबकि वास्तव में वह कुछ सिखाती ही नहीं। उस पर्चे में लिखा था कि बच्चों को स्कूल में पाठ तोते की तरह कंठस्थ क्यों करा दिए जाते हैं भले ही वह उनका मतलब नहीं समझ पाते।
बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने के लिए क्यों बाध्य किया जाता है जबकि घर में कोई भी अंग्रेजी नहीं बोलता? छोटे बच्चों से भी अपेक्षा करते हैं कि वह अंग्रेजी में बात करें। अपनी स्थानीय भाषा में हम क्यों नहीं पढ़ सकते हैं? हमने टीवी पर देखा है कि जर्मनी, जापान और चीन जैसे देशों में लोग अपनी भाषा में ही बोलते और सीखते हैं। बड़े भैया तो बताते हैं की इंजीनियरिंग और डाक्टरी पढ़ाई के लिए हिंदी में अच्छी किताबें ही नहीं हैं। अंग्रेज चले गए लेकिन अंग्रेजी क्यों यहां बनी हुई है। अपने प्राचीन भारत में विज्ञान, चिकित्सा पूरे विश्व से ज्यादा विकसित थी। क्या उस समय अंग्रेजी जैसी अवेज्ञानिक भाषा थी?
हम से अपेक्षा की जाती है कि हम अनुशासित रहे, निर्धारित ड्रेस में ही स्कूल जाएं । मगर हमारे शिक्षक इसका पालन क्यों नहीं करते ? ज्यादातर जगहों पर अधिकारियों और कर्मचारियों, वकील, जज, खिलाड़ी, डॉक्टर, इंजीनियर और फौजियों की कोई न कोई ड्रेस होती है। यहां तक कि राजनयिक पार्टियों के अलग अलग रंग के ड्रेस हैं। मेरे स्कूल में यह अनिवार्य क्यों नहीं है?
एक सच्चाई यह भी है कि देश में उच्च शिक्षा प्राप्त लाखों लोग बेरोजगार हो रहे हैं। उनके पास डिग्री तो है, किंतु हुनर और कौशल की कमी है। देश के प्रतिष्ठित विद्यालयों में शिक्षा की मौजूदा स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अधिकांश जगहों में समय पर कोर्स की पढ़ाई पूरी नहीं हो पाती है। कम समय में ज्यादा पाठ्यक्रम घोटकर पिलाने का प्रयास क्यों किया जाता है? इससे बच्चों में सीखने का भाव समाप्त हो जाता है । बंद कमरे में किताबें और ब्लैक बोर्ड के जरिए पढ़ाई का पुराना तरीका ही क्यों चल रहा है? स्कूल में आधुनिक साज सज्जा क्यों नहीं है? आज विद्यार्थी केवल परीक्षार्थी रह गए हैं। अच्छे विद्यार्थी भी क्यों आरक्षण के कारण पीछे धकेल दिए जाते हैं?
हमको हर विषय में 100 में से 100 नंबर ही लाना होता है। एक नंबर काटने पर भी हमको क्यों डांट पड़ती है? क्यों ट्यूशन पढ़ने वाले शत-प्रतिशत नंबर पा जाते हैं? यदि बच्चा खराब ग्रेड प्राप्त करता है या उसके लिए किसी दबाव का सामना करना मुश्किल हो रहा है तो क्या उन्हें प्यार का आश्वासन देकर प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए?
पत्र में तमाम बातें आशु ने उठाई थी। उसके प्रश्न बहुत ही सरल मगर आश्चर्यजनक रूप से चौंकाने वाले हैं जो मन मस्तिष्क को हिला देता है। सभी स्तब्ध थे। कहने लगे एकदम सही तो लिखा है। आज शिक्षा के नाम पर कितना गलत हो रहा है, तमाम शिक्षा नीतियां लागू होने के बाद भी शिक्षा कारगर नहीं बन सकी है। वहां बैठे सभी लोग कुछ न कुछ प्रश्न उठाने लगे।
एक सज्जन ने कहा कि बच्चों के स्कूलों द्वारा आए दिन नए तरीके से अभिभावकों का शोषण किया जाता है। मेला, फेट लगाकर हम लोगों के ऊपर वित्तीय भार डालते हैं। हमें मजबूर किया जाता है कि उनकी स्मारिका के लिए विज्ञापन लाएं और उनके कूपन खरीदें। पड़ोस की महिला ने भी अपनी वेदना जताई कि हर साल स्कूल के ड्रेस और पुस्तकें बदल जाती हैं और उन्हें स्कूल की दुकान से ही खरीदना जरूरी होता है। क्लास टीचर ट्यूशन लगाने पर जोर देती है।
अनुत्तरित प्रश्नों के बीच आशु को तो जैसे सब भूल ही गए। आशु के पापा ने पुलिस में एफ 0 आई 0 आर 0 करा दिया। पुलिस आशु को ढूंढ़ रही है और बाकी लोग आशु के प्रश्नों के उत्तर को, मगर मिल कुछ नहीं रहा है। उसकी मम्मी बस रोए ही जा रही है, निरर्थक।
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