Surju Chhora - 4 in Hindi Short Stories by Kusum Bhatt books and stories PDF | सुरजू छोरा - 4

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सुरजू छोरा - 4

सुरजू छोरा

भाग - 4

दो साल पहले का दृश्य धुंध के बीच से उगने लगा... पुजारी के चेहरे पर एक और चेहरा लगा है जो बाहर वाले को अपना कुरूप दिखने नहीं देता, उस समय एक पूरी रात उन्हें नींद नहीं आई बार-बार करवट बदलते और सिटकनी खोलकर बाहर बरामदे में खड़े रहते उनकी दृष्टि सामने पड़नी हुई ऊँचे टीले पर सुरजू का मिनी बंगला ठहरा, जिसके आगे चमकता सौ वाट की रोशनी में एक नया नाम ‘‘सूरज प्रकाश’’ पुजारी की आँखें चुंधियाने लगी छाती के बीच काले बादलों की कड़कड़ाहट ‘‘शाले..... पैंतीस वर्ष देश की राजधानी में गजिटेड होने के बावजूद गांव में ऐसा घर नहीं बना पाये ये हाथी पांव वाला दर्जी इसकी औकात तो देखो..... ‘‘सांप लोटने लगा सीने पर’’ क्या किया जाय... कि रूखसत हो गांव से...’’ सोचते हुए बिस्तर पर लेटे तो पत्नी ने पूछा ‘‘मूत्र रोग लगा गया क्या.... कितनी दफा बाहर निकलते हो’’? उन्हें लगा चोरी न पकड़ी गई हो उस विचार की जो अभी आँख खोलने ही वाला था....., पसीना छलछलाने लगा माथे पर’’ नहीं...नहीं कोई रोग वोग नहीं तुझे तो सपना दिखता है... अरे मेरी प्यारी बुलबुल अपने प्रिय के लिए अशुभ न सोचाकर... भली औरत......! वे दृश्य में खो गये - बीच खोले के तीनों बन्द घर के ताले टूटे गांव की नींद में खट् खट् खटाक आधी रात को छोरे के बूटों की ठ्क ठ्क लोगों की नींद में हुई, आज तो आया ही नहीं घर बेचारा...! सूत्रों से पता किये थे...। दिन में धुर दोपहर छोरा पसीने से छल बलाया पीपल की छाँह में खड़ा हुआ क्षण भर...! बैठ कर देखने लगा प्रकृति का नजारा-पहाड़ी के नीचे झरना बह रहा उसके आस पास पेड़ों के झुरमुट चिड़ियों के उडते झुण्ड और झरने पर पानी भरती पनिहारिने उसकी थकान मिट गई रात आठ बजे तक बैठा रहता था पीठ थी बाजार की तरफ पीछे खड़ी पुलिस! बेखबर रहा छोरा जो सपने में भी नहीं सोचा...

‘‘ पीठ पर डन्डे की कोंच ‘‘तेरा नाम सुरजु है बे..

‘‘नहीं साब...’’ पल भर अकबका गया था छोरा यह सच है कि सपना? आँखें मली पुलिस इंस्पेक्टर ही था कड़क खाकी वर्दी काली घनी रौबदार मूछे मँुह से आती कच्ची दारू की गन्ध... ‘‘तो तेरा नाम क्या है बे...?’’

‘‘सूरज प्रकाश शाब...’’

‘‘ओह! नाम सूरज और काम चोरी!’’ क्यों बे...?’’

चोरी..., न...हीं शाब मैंने कोई चोरी नहीं की शाब... मैं तो आँख खुलते ही पहाड़ी लांघ यहाँ आ जाता हूँ। सुबह-सवेरे..... हाँ शाब, पूछ लो शाब सब्बी दुकानदारों से पूछ लो शाब...‘‘ उसकी पनियाली आँखें एक एक चेहरे पर अपना सुरक्षा कवच बनाने को टिकी सबने कहा सुरजू चोरी नहीं करता पुलिस शाब....’’ भीड़ पुलिस से याचना करने लगी थी, ‘‘सूरजू चोरी कर ही नहीं सकता.........’’ सुरजू के इर्द-गिर्द भीड़ बढ़ने लगी थी....

‘‘तेरे बाप का नाम क्या है बे’’ इंस्पेक्टर डन्डे को जमीन पर कोंचने लगा था।

‘‘शिबू सिंह रावत है जी’’

तो तूने ही गहने और बर्तन चुराये अपने गांव मंे! तेरे खिलाफ रपट लिखाई गई है।

सनाका खा गया छोरा...

किसने रपट लिखाई और क्यूँ...? उसके आगे देश से आये हुए रसूखदार चेहरे नाचने लगे... फिर एकाएक समय का क्षण कौंध गया उसकी मासूम गालों पर पुजारी शंकराचार्य का थप्पड़...!

वह जब तक संभलता इंस्पेक्टर और दो सिपाही बीच बाजार में उसे हथकड़ी लगाकर जीप मंे बिठा कर ले जाने लगे वह ‘‘नहीं शाब मैंने कोई चोरी नहीं की...’’ रिरियाने लगा था।

‘‘...तो तेरे बाप ने की होगी....?’’ इंस्पेक्टर ने डन्डा हवा में लहराया अगर ज्यादा बोला तो... फिर भी न डरा छोरा‘‘ शाब सब जानते गरीब गुरबा है अपने पसीने की खाई है मैंने... अगर मैंने कभी कहीं हराम की खाई होती तो मूत पिया होगा शाब... सब जानते हैं शाब... सब... सब... वह रिरिया कर बाजार की भीड़ को देख याचना कर रहा था, कोई तो बचाये उसे...

शाम को कोहराम मच गया था घर में...... लोग आये झूठी संवेदना लेकर... विलखती गृहस्थी को देखा ‘‘च्च ....चच बुरा हुआ बहुत बुरा हुआ रे छोरा सुरजू ...

पवित्रा छाती फटकराने लगी थी कजरी पूजा घर में कुल देवता को ललकारने लगी ‘‘गरीब...गुरबा को धरती पर रहने का हक नहीं... देवता..... तूने जिंदगी दी थी हमें....इससे अच्छा तो कीड़े मकौड़ों में होती हमारी जान... कैसा अनर्थ है देव... तेरी तो.... आँखें है न... बाकी तो काणे (अन्धे) हैं बल....

सास-बहू का बिलखना और बिलख बिलख कर देवता को पुकारना... स्त्रियाँ डर गई ‘‘कहीं घात लग गई तो.... कोई न बचेगा.... कई परिवार नष्ट हो जायेंगे’’

नरसिंह देवता के थान पर जायेगी कजरी... उसकी घात प्राण लेती है बल सीधे.......!

सास-बहू को बिलखते देख कर उन्हें अपने भीतर खुशी महसूस हुई...., वे चालक लोमड़ी सी ‘‘कुछ नहीं होगा... पवित्रा....., कुछ नहीं होगा कजरी... सब ठीक हो जायेगा.... तुम धैर्य रखो.... छूट जायेगा छोरा कोरट कचहरी भगवान दुश्मन को भी न दिखाये....’’ दो चार शब्दों से सहानुभूति की बौछार करती जहर की काटी हुई सी दहशत की छाया मंे लिपटी अपने घर की ओर भागी ‘‘देवता को पुकारना यानि विध्वंस....’’

तुरन्त फोन मिलाया ‘‘थानेदार साहब छोरे को छोड़ दो... आपका हिस्सा पहुँच जायेगा...

थानेदार ने अट्हास लगाया।

तुरन्त काल कोठरी का ताला खोला ‘‘जा बे.... उन्हांेने वापस ले लिया मुकदमा..... भले लोग हैं तेरे परिवार को देखकर दया आ गई उनको...

सुरजू जानता था ऐसा ही कुछ होगा ‘‘सांच को आंच क्या...?’’

वह खड़ा रहा देखता रहा शून्य में कोई खुशी की लहर उसके चेहरे पर नहीं उछली.....

इंस्पैक्टर ने उसे घूर कर देखा ‘‘अबे... काल कोठरी में ही रहने का इरादा है क्या...? चल निकल बाहर...’’

सुरजू पत्थर सा अविचल ‘‘मैं कैसे जाऊँ शाब... जिन्होंने मुझे यहाँ पहुँचाया... जिन्होंने चोर बनाया मुझको, जब तक आकर वे माफी न मांगें मैं तो जाऊँगा ही नहीं शाब...

थानेदार को काटो ते खून नहीं

... और गांव में औरतों की आँखों में बैठी दहशत ‘‘कहीं नरसिंह की घात लग गई तो...? बड़ा खतरनाम देवता होता है नरसिंह.....!

अगले दिन पुजारी और रसूख वाले तीन आदमी थाने में हाजिर ‘‘गलती में हो गया छोरा चोरी तो मजदूरों ने की थी शक कर बैठे तुझ पर... चल घर चल अब... ‘‘उनकी आवाज अब पिघलने लगी थी’’

सुरजू अचकचा कर उनकी आँखों में एक टक देखने लगा - चोरों का भी कोई घर होता है ठाकुरों?’’ मेरा घर कहाँ...? मैं चोर... जेल में ही सडुँगा... सुरजू की आँखें अंगारे सी लाल हो गई... सुरजू फट पड़ा फिर एकाएक बुक्का फाड़ कर रोने लगा इतनी मार्मिक रूलाई कि चुप कराते नहीं बना। इतनी मार्मिक रूलाई कि पहाड़ भी पिघल जाये।

‘‘तू चोर नहीं है सुरजू.... गलतफहमी हो गई थी भानजे। हम भी देवता नहीं हैं यार... गलती भी इंसान से ही होती है भानजे...! अब बैठ गाड़ी में...’’ प्यार से पुचकार से जहर भरी मिठास उगलते उसे लाये थे... फिर बाजार में लोगों का डर भी था सभी थे सुरजू की तरफ...

पुजारी को देवता का डर तो नहीं लेकिन सुरजू के साथ खड़े लागों की आँखों का डर था। कैसे घृणा भरी नजरों से देख रहे थे सब.... नये पुजारी के चेहरे पर एक और चेहरा जो बाहर वाले को अपना कुरूप देखने नहीं देता... बाहर वाला ठण्डी उग्रता के साथ शब्दों को इस तरह मारता है गोया गोली लगे और आवाज भी न हो...! चारों ओर सन्नाटा छाने लगे उस सन्नाटे में भीतर ही पीड़ा से तड़फता रहे आदमी पर विरोध में होंठों से स्वर भी न निकले, इस चेहरे की दो रहस्यमयी आँखें खाली समय में लेनिन, जिन्ना, गाँधी, लोहिया को पीती रहती हैं। फिलवक्त मनमोहन को पी रही हैं -सबसे मारक हथियार चुप्पी है दोस्तों... ’’भूले भटके एक वाक्य जो भी कह देंगे पत्थर की लकीर! सरकार की कुर्सी पर वर्षों रहे चपरासी से एक-एक सीढ़ी चढ़कर गजिटेड हुए, शहर में मौज मस्ती से जीवनयापन किया गो कि जिन्दगी इनके इशारों पर नाचती रही, जैसा चाहा समय और परस्थितियों को मोड़ा और अब सरकारी सेवा से निवृत गांवों की सेवा कर रहे हैं। गांव के भीतर फुससुसाते एक एक उदार विचार पर खरगोश जैसे कान खड़े रखते हैं... इस तरह सब कुछ अपने हित में करते हैं और सबकी नजरों में भले बने रहने का स्वांग करते हैं।

सुरजू की आँखें पुजारी पर रेंग रही हैं उसके मोटे होठों के भीतर रहस्यमयी मुस्कान फूटती है ‘‘मेरे पांव? इन्हें आकाश में तो टिका नहंी सकता..., टिकेंगे तो इसी जमीन पर... इसे तो तुम भी समझते हो न शकुनि मामा.... कितनी टेढ़ी चाल चलो....’’ उसने मारा हाथ टिन के बक्से पर.., पूरा घर थरथराने लगा, रसोई में भात का मांड निकालती कजरी के हाथ से पतीला छूट गया लहरा कर आई सुरजू के चेहरे का ताप देखा और पवित्रा पर बरसने लगी ‘‘....बोला था सासू माँ बोला था न तुमको... मत करो इनसे कोई रंजिश की बात...’’

पवित्रा के भीतर भय रेंगने लगा उसने बेटे के चेहरे को देखा लगा ज्वालामुखी फटने के कगार पर आ गया है!

कभी मास्टर का चेहरा उसे डराता कभी पुराने पुजारी का तो कभी नये पुजारी का चेहरा गड्मड़ होने लगा है....

दृश्य परत दर परत उसकी आँखों के आगे झमकने लगे हैं....

आस-पास के गांवों से महिलाओं का जमघट सुरजू की दुकान मंे लगने लगा तो उसने पांच कारीगर रख लिये! उसके रेडीमेट महिला वस्त्रों की खपत समूचे पहाड़ मंे होने लगी तो उसे शहरों से भी आर्डर मिलने लगे! तो सुरजू से धियाड़ी मजदूर, सब्जी वाले, छोटे दुकानदार ब्याज पर पैंसा उठाने लगे....! उन्हीं दिनों मैदानों से पहाड़ों में बसावट करने के लिये लोगों में जमीन खरीदने की होड़ सी लग गई...! अब पहाड़ गंगा जमुनी संस्कृति का परिचायक होने लगा था। इस परिवर्तनकारी समय में अचानक सुरजू की आँख जमादार भोलूराम और उसकी सुअर टोली पर पड़ी....! जिसकी मुखिया सुअरी अपने नन्हे-नन्हे दर्जन भर बच्चों के साथ बाजार की तमाम कीचड़ को बहा कर ले जाने वाले नाले मंे छप् छप् छपाक का खेल खेलने में मस्त थी। सुरजू की चेतना में एकाएक बिजली की कौंध उठी!! गोया जिन्दगी में पहली मर्तबा उसने इतना खूबसूरत दृश्य देखा! जैसे विवेकानन्द को आत्मसाक्षात्कार हुआ था... सुरजू के ज्ञान चक्षु भी कुछ इसी तरह खुलने लगे....!! उसके अविकसित गंवार मानस में उथल-पुथल शुरू होने लगी....! थोड़ी देर लगी जब उसका ‘मैं’ केन्द्र में अभीभूत हुआ....!

एक सप्ताह बाद गांव ने आँखें फाड़ते हुए सुरजू और मुसियाये चेहरे वाली सूखी छोटी-छोटी आँखों में पानीदार चमक लिये लम्बे ठूँठ पेड़ से, जमांदार भोलूराम को गुफ्तगू करते देखा...., नानी की तमाम पनियारी एवं रौखड़ जमीन के कागज सुरजू के हाथों से लेते हुए श्री भोलूराम के हाथों में फड़फड़ा रहे थे.....!!

सुरजू की आँखों मंे बिम्ब बनने लगा है ‘‘कीचड़ से भरी गुलाबी मुलायम थूथनी लिये सुअरी के मासूम बच्चे अपनी माँ के साथ राह चलते हुए भ्रमवश किसी आंगन, खुले दरवाजों से होते हुए रसगन्ध चुआते पानी के बर्तनों, अनाज के कनस्तरों, धुले बर्तनों, कपड़ों में मुँह मारते अचानक घुसे......! कोई हाथ बबराकर (हड़बड़ा) डन्डा खोजते टेढ़े होते चेहरे आँखें कपाल पर चढ़ाये आधे-अधूरे गलीच शब्द हवा में फेंकते - निहोण्या रे.. सुरजू छोरा... आक्... आक् थू.... आक् थू... उबकाई लेते बदहवाश एक-दूसरे को धाद मारते.... ‘‘राम राम पूरा घर अशुद्ध कर दिया! सत्यानाशी रे... सुरजू छोरा.... घाट पर लगे तेरी तजबीज.... कभी, कहीं तो मिलेगा तू.......? गंगा जल छिड़कते हाथ - खाना पीना हराम कर दिया, रे छोेरा....

हिवाली कांठी से आती ताजी हवा को चींधती उनकी खरखरी आवाजें - एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था... हा... हा... हा... रात को नींद में सपना... सपने में गुलाबी थूथन घुर्र... घुर्र..... हा... हा... हा...

गांव वालों को लगा था उसके साथ ठट्टा (मजाक) कर रहा है छोरा...., फिर भी शंका के बूते पर पकड़ लिया - ‘‘क्यांे बे... भोलूराम....! हमारे पड़ोसी बनने का भी सपना देखने लगा है तू.....?’’

भोलूराम ने भी आग उगलती आँखों के बरक्स अपनी पानीदार आँखें टिका दी थी - इतने कम दाम में इतनी सारी जमीन! कौन छोड़ेगा ठाकुरों?... किस्मत सबको एक बार ही मौका देती है...’’ गांव के हैरत भरे चेहरे पर गोया झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा हो....!!

चलीस मवासांे (परिवार) के अनगिन चेहरों को सीधी आँख से टक्कर देता भोलु जमांदार....!!’’ खौलने लगे सब चूल्हे की जलती आँच में रखी डेगची के उबलते पानी में जैसे आलू...!

...तो सुरजू भीगी आवाजों से रू-ब-रू होते एक ही वाक्य दोहरा रहा है - मेरा जो डिसीजन ठहरा - अब तो बदलने से रहा... ठठाकर कर हँसने लगा है छोरा..... जब तक वे सब उसकी आँख की परिधि से गायब न हुए! हँसता ही रहा छोरा... हा हा हा हा.....

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