Gulabo in Hindi Classic Stories by Mukteshwar Prasad Singh books and stories PDF | गुलाबो

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गुलाबो

" गुलाबो ’’
साहेबपुर कमाल स्टेशन के पश्चिमी छोर पर चालीस -पचास बनजारे कुछ दिनों से अपने तम्बुओं को तान डेरा जमाए थे। तम्बू फटी-चिटी चादरों और टेन्ट को हाथ सिलाई कर बनाये गये थे। तम्बुओं में रहने वाले मर्द लम्बे तगड़े मुस्टंडे थे तो औरतें व नवयुवतियां सूडौल उरोजों और कसरती बदन वाली। वे औरतें चोली घांघरा पहने, नाक में बुल्की या नथिया और गले में चाँदी की मोटी हंसुली पहने रहती। जब वे चलती तो पांवों के पाजेब से रुन-झुन की मीठी आवाज निकलती। उनके छोटे-छोटे बच्चे मात्र गंजी चड्डी पहने रहते। गले में उनके बद्धी-ताबीज और कमर की डोर में कौड़ियां व पुराने सिक्के लटकते रहते। ये सभी बच्चे अपने तम्बुओं से निकल, आसपास दिन भर धमा चकौड़ी करते, कूदते-फाँदते और खतरनाक नट खेल करते। तम्बुओं के निकट बड़े-बड़े कुत्ते, भेड़-बकरियां,भुटिया घोड़े व गदहे, मुर्गे-मुर्गियां आदि भी बड़ी संख्या में थे। कुल मिलाकर तम्बुओं का एक छोटा गाँव ही बसा था।
सुबह होने के साथ ही तम्बुओं के अन्दर धुआँ उठने लगता, वर्तन की खटर-पटर सुनाई पड़ती। चुनकर लायी गयी लकड़ियों और ईटों को जोड़ बने मिट्टी के चुल्हों पर खाना पकाना शुरु हो जाता। खाने में अधिकतर गुलेल से शिकार में मारे गये जंगली पक्षियों के माँस तथा मोटे चावल के भात होते। आठ-नौ बजते ना बजते खा पीकर निकल पड़ते गबरू बन्जारे रोज की तरह घुमक्कड़ी में। वहीं बनजारिनें गाँव-गाँव घूमकर विभिन्न तरह के टोने-टोटके का भय दिखाकर गँवार अनपढ़ महिलाओं के बीच जड़ी-बूटी, तेल-ताबीज बेचती व बदले में रुपये, आंटा व चावल लेती। नवयुवतियां अपने हस्त निर्मित गुलदस्ते-खिलौने भी बेचती।
बनजारे खेत-बगीचा जाकर मधुमख्खी के छत्ते ढूंढकर मधु निकालते, खरहों, गिलहरियां, खिखिर-सियार का शिकार करते। मैना, पंडुकी, कौआ, चुनमुनियां, वनमुर्गियां व बटेर आदि पक्षियों को बड़ी सफाई से मार गिराते फिर मांसाहार का इंतजाम हो जाता। हाँ ,तम्बुओं में बच जाते छोटे-छोटे बच्चे और किशोरियां। इन्हीं लोगों पर तम्बुओं की रखवाली रहती।वे सब अपने पालतू जानवरों की निगरानी के साथ घास भी चराते।जबकि किशोरियां प्लास्टिक तारों फूलों से सुन्दर-सुन्दर आर्टिफिसियल गुलदस्ते और रबड़ के खिलौने बनातीं।
दिनभर ‘‘हुर्र-हुर्र‘‘ आवाज देते बच्चे अपने घोड़े-गदहों को चराते फिरते। कूदते-फांदते और अजीबो गरीब खेल और कसरत करते रहते। किशोरियाँ वर्तन मांजने के बाद गुलदस्ता बनाती, खिलौने तैयार करती, ताबीज बनाती, साँप के विष उतारने की नक़ली जड़ी की पुड़िया बनाती। इन्हीं वस्तुओं को अगले दिन बड़ी उम्र की महिलाएं घूम-घूम कर बेचने गाँवों में चली जाती ।
​ बनजारों की इन्हीं टोलियों में तीन-चार उन्मुक्त युवतियां थी जो बरवस गोविन्द का ध्यान आकर्षित कर लेती। कारण बंजारों की तम्बुओं के बीच से वह प्रत्येक दिन सुबह 9 बजे अपने आॅफिस जाता और शाम 5-6 बजे के बीच लौटता। पाँच-छः दिनों से वह जब भी गुजरता ’गुलाबो’ नाम की लगभग 20 वर्षीया एक जवान छोड़ी पर उसकी नजर पड़ जाती। उस युवती का नाम ’गुलाबो’ है इसकी जानकारी उसे आते-जाते तब मिली जब उसकी अन्य सहेलियाँ उसे नाम पुकारकर कुछ कहती।
'गुलाबो’ कीचड़ में कमल के समान थी। गोरी-चिट्टी, बड़ी-बड़ी आखों वाली, पतली नाक और ओंठ, छलकती हँसी। चलने पर पाँव के पायल की झुनझुन करती आवाज गोविन्द को रुकने पर मजबूर करती। स्टेशन की छोर पर बड़ा सा ’’पाकड़’’ का पेड,जिसकी छाँह में बेंच बिछी थी। उसी की बगल में तम्बू भी लगे थे। गोविन्द बेंच पर बैठ जाता। गुलाबो को काम करते देखता, हँसते-गुनगुनाते उसके चेहरे की मासूमियत निहारता। हाथों की कारीगरी से झटपट तैयार करते गुलदस्ते को देख मुग्ध होता।
​ लगातार चार-पांच दिनों से गोविन्द का बेंच पर बैठने का सिलसिला जारी था।
इसी दौरान अपने कामों में मशगुल रहने वाली गुलाबो ने पूछ लिया - ऐ बाबू, तुम रोज-रोज बैठकर क्या देखते हो ? गुलदस्ता खरीदोगे। तुम्हारे लिए मैं बहुत सुन्दर गुलदस्ता बना दूँगी। मैं जब गुलदस्ता मन से बना दूँगी ना, तो सालभर ताजा दिखेगा। फिर दौड़कर एक गुलदस्ता लिये गोविन्द के सामने आ गयी।
​ गोविन्द उसके निकट आने पर जितना अकबकाया उससे अधिक गुलाबो के शरीर से उठने वाली बदबू से परेशान हो गया। उसके मुंह से निकल गया - तुम नहाती नहीं हो ? देखने में सुन्दर नाक-नक्शे हैं। शरीर मल-मल कर नहाओगी तो हेमामालिनी बन जाओगी। शरीर से दुर्गन्ध आती है।
पर गुलाबो को अपनी मैली कुचैली देह से ज्यादा हेमामालिनी नाम पर ध्यान अटक गया।
​’’हेमामालिनी’’, वो फिलिम वाली हिरोइन - ’’गुलाबो’’ आश्चर्य से बोली।
हाँ, हाँ तुम भी तो उसी की तरह दिखती हो ना - ’’गोविन्द ने कहा।
एकाएक जब नहाने की बात ध्यान में आया तो गुलाबो बोली - पर बाबू मैं नहाऊँगी कहाँ। वो पानी का नल एकदम खुल्ले में है। कोई परदा नही है। आने जाने वाले सब देखते रहते हैं। फिर बदलने के लिए दूसरा चोली-घांघरा भी तो नहीं है। रात के अंधेरे में चोली-घांघरा पहन कर ही नहाती हूँ। देह में ही सूखता है। बदबू तो देगा ही ना। -गूलाबो ने जवाब दिया।
​ अगर मैं तुमको सलवार सूट खरीदकर दूँ तो तू पहनेगी ? राजस्थानी घांघरा-चोली तो यहाँ बिकती नहीं - गोविन्द ने जिज्ञासा प्रकट की।
नहीं बाबू नहीं। मय्यो -बप्पा जान मार देंगे। हम दूसरा डरेस नहीं पहन सकते। हम्मारा डरेस तो घांघरा चोली ही है - गुलाबो डरती हुई बोली।
​ गोविन्द ने फिर पूछा - तुम्हारा असली गाँव का घर कहाँ है ? कुछ मालूम है ?
​ नहीं, बप्पा जानते हैं। हाँ, एक-दो महीने अपने गाँव जाते हैं हमलोग। गांव बाड़मेर के नजदीक रेगिस्तान की झाड़ियों के बीच है। वहाँ मिट्टी की दीवार और ऊपर बाँस-लकड़ी की छत वाला घर है। समूचा गाँव साल भर घूमता ही रहता है - गुलाबो ने जानकारी दी। पर मुझे वहाँ मन नहीं लगता। यहाँ तम्बू में भी रहने का मन नहीं करता। रंग बिरंगे फराक-सलवार वाली, स्कूल डरेस में किताब लेकर जानेवाली छोड़ियों को देखती हूँ तो मेरा भी पढ़ने को मन करता है। मन करता है यहाँ से भाग जाऊँ। मुझे पंख लग जाये और उड़ जाऊँ। पर उड़ कर जाऊँगी कहाँ। मेरे माई बप्पा, भइया और चच्चा ढूंढ़कर शिकार कर लेंगे। पकड़कर फाँसी पर चढ़ा देंगे या जमीन में गाड़ देंगे।
​ इन जानकारियों से गोविन्द भी मायूस हो गया।
'गुलाबो’ भी उड़ान भरना चाहती है। पर बनजारों के अपने सामाजिक नियम कायदे उसे तम्बुओं में कैद रखती हैं। अचानक घड़ी पर नजर डाली, 10 बज गये थे। गोविन्द तेजी से अपने कार्यालय के लिए भागा।
​आज आॅफिस में उसे मन नहीं लग रहा था। वह गुलाबो के बारे में ही सोच रहा था। गुलाबो भारत में जन्म लेकर भी एक सामान्य नागरिक नहीं,पढ़ने का अधिकार नहीं, सरकारी सुविधाओं का हकदार नहीं। अपने जीवन को स्वतंत्रता पूर्वक जीने की छूट नहीं। कहाँ सोचती है सरकारें बनजारों को स्थायी रुप में बसाने के लिए। भोजन, वस्त्र व आवास के लिए। गंदगी में जन्मना और उसी में मिट जाना, नियति है इन बनजारों, गुलगुलियों, नटों-कनफटों, ययावर-घुमन्तू समूहों की। ये लोग वोट भी नहीं दे सकते।गुलाबो की बातों से गोविन्द को लगा कि तम्बुओं में पलती जिन्दगियां भी नयी दुनियां और ताजी हवा की ओर आकर्षित हैं, पर उनके पैरों में बेड़ियां पड़ी हैं। वे स्वमेव अपनी ही बनायी जीवन शैली व बन्दिशों की गुलामी कर रही हैं। इसलिए मूलभूत बदलाव की आवश्यकता है बनजारों में। पर जिन्हें भारतीय कानून में मताधिकार नहीं, फिर कोई राजनेता और सरकार क्यों सोचें उनके बारे में। भारत में ऐसे लाखों परिवार रेलवे स्टेशनों के किनारे, स्कूल मैदानों में, बागीचों में तम्बुओं को लगाये जीवन बसर कर रहे हैं। धूप, ठंडक और वर्षात का मुकाबला कर अपने बूते जिन्दगी काटते मिलते हैं। फिर भी इन बनजारों को किसी से शिकायत नहीं। कभी भी बिजली, पानी, दवाई, शिक्षा व मुफ्त अनाज की माँग नहीं करते हैं।
इसी बीच एक अनुसेवक ने टोका - कैसियर बाबू, आपको एक्सक्यूटिव साहब बुला रहे हैं।
​ तन्मयता टूटी। गोविन्द हड़बड़ाहट में साहब के कमरे में पहुँचा।
​एक्सक्यूटिव इंजीनियर ने आदेश दिया - कल आप पटना चले जांए। टेन्डर के कागजात लाने हैं। गोविन्द दूसरे दिन पटना चला गया। दो दिनों के बाद रात में लौटा। जब तीसरे दिन गोविन्द अपने कार्यालय जा रहा था तो बनजारों के तम्बूएं उखड़े थे। सिर्फ ईटों-मिट्टी के टूटे कालिख लगे चुल्हे बिखरे पड़े थे। जोर का मानसिक झटका लगा गोविन्द को। गुलाबो अचानक अपनी टोली के साथ चली गयी। उसे लगा कि कोई अपना सगा दूर चला गया बिन बताये। अकेले ’पाकड़’ के उसी पेड़ के नीचे बिछी बेंच पर गोविन्द धम्म से बैठ गया। उसके सामने उजड़ा बिखड़ा आसियाना था।
​ तभी एक रेल ’पैटमेन’ उधर से गुजरा। उसने अचानक पूछ लिया - यहाँ सुनसान में क्यों बैठे हैं ?
गोविन्द ने कहा - यों हीं, पर ये बनजारे अचानक कहाँ चले गये।
​ पैटमेन ने कहा - वैसे यहाँ बनजारों के तम्बू बराबर लगते और उजड़ते रहते हैं। पर कल तो बड़ा हो हल्ला हुआ। खूब झगड़ा हुआ।
क्या हुआ था ?गोविन्द ने पूछा।
अरे उनकी टोली में एक बड़ी सुन्दर लड़की थी गुलाबो। वह मोहन दुकानदार के पुत्र दिनेश के साथ भाग गयी है। इसीलिये सभी बनजारे लाठी, गड़ासे-भाले लेकर घेर लिये मोहन के घर को। दुकान के सामान फेंक दिये ,तोड़-फोड़ की। बड़ी मुश्किल से पुलिस आने के बाद बनजारे वहाँ से हटे। पुलिस के जवानों ने जबरन तम्बुओं को उखाडा।सबों को अपनी अभिरक्षा में लेकर दूसरी जगह ले गये। वे सब गुलाबो के लिए जार-जार रो रहे थे।
​ गोविन्द को लगा कि गुलाबो के मन की दबी इच्छाएं दिनेश के साथ अपनी मंजिल पाने की राह ढूंढ़ ली। गुलाबो के बारे में सोचते हुए गोविन्द अपने कार्यालय पहुँचा। दोपहर में जब केन्टीन में नाश्ता करने आया तो कई लोग चर्चा कर रहे थे। ’’अरे एक बनजारन सब रजिस्ट्रार कोर्ट में शादी करने आयी है। पर लड़का और लड़की की ओर से कोई गवाह बनने वाला ही नहीं है। शादी के लिए रजिस्ट्रार साहब सहमति नहीं दे रहे।’’
​ गोविन्द यह सुनकर चौंकते हुए एक से पूछा - वे दोनों कहाँ हैं भाई जी ?
निबंधन परिसर के कातिब खाना में हैं। शंभु बाबू मोहर्रिर के पास ।
गोविन्द कैन्टिन में नाश्ता किये बिना तेजी से निकला और कातिब खाना में पहुँच गुलाबो के पास आ गया।
गुलाबो अति खुश होते हुए बोली - ’’बाबू तुम आ गये । मेरा ब्याह करा दो ना। तुम्हारा तो मोसे जान-पहचान है।’’
गुलाबो के इतना कहते हीं गोविन्द के आँसू छलक पड़े। गोविन्द ने दिनेश और गुलाबो के साथ रजिस्ट्रार के समक्ष जाकर पहचान करते हुए हस्ताक्षर दर्ज किया।
आज सुन्दर दुल्हन बनी गुलाबो को देख हतप्रभ था गोविन्द। गुलाबो मंजिल पा गयी थी। उसके सपनों में पंख जो लग गये थे। गोविन्द को आत्मिक शान्ति मिली।

मुक्तेश्वर प्र० सिंह