(१)
कैसे कहूँ है बेहतर ,हिन्दुस्तां हमारा?
कह रहे हो तुम ये ,
मैं भी करूँ ईशारा,
सारे जहां से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।
ये ठीक भी बहुत है,
एथलिट सारे जागे ,
क्रिकेट में जीतते हैं,
हर गेम में है आगे।
अंतरिक्ष में उपग्रह
प्रति मान फल रहें है,
अरिदल पे नित दिन हीं
वाण चल रहें हैं,
विद्यालयों में बच्चे
मिड मील भी पा रहें है,
साइकिल भी मिलती है
सब गुनगुना रहे हैं।
हाँ ठीक कह रहे हो,
कि फौजें हमारी,
बेशक जीतती हैं,
हैं दुश्मनों पे भारी।
अब नेट मिल रहा है,
बड़ा सस्ता बाजार में,
फ्री है वाई-फाई ,
फ्री-सिम भी व्यवहार में।
पर होने से नेट भी
गरीबी मिटती कहीं?
बीमारों से समाने फ्री
सिम टिकती नहीं।
खेत में सूखा है और
तेज बहुत धूप है,
गाँव में मुसीबत अभी,
रोटी है , भूख है।
सरकारी हॉस्पिटलों में,
दौड़ के हीं ऐसे,
आधे तो मर रहें हैं,
इनको बचाए कैसे?
बढ़ रही है कीमत और
बढ़ रहे बीमार हैं,
बीमार करें छुट्टी तो
कट रही पगार हैं।
राशन हुआ है महंगा,
कंट्रोल घट रहा है,
बिजली हुई न सस्ती,
पेट्रोल चढ़ रहा है।
ट्यूशन फी है हाई,
उसको चुकाए कैसे?
इतनी सी नौकरी में,
रहिमन पढ़ाए कैसे?
दहेज़ के अगन में ,
महिलाएं मिट रही है ,
बाज़ार में सजी हैं ,
अबलाएँ बिक रहीं हैं।
क्या यही लिखा है ,
मेरे देश के करम में,
सिसकती रहे बेटी ,
शैतानों के हरम में ?
मैं वो ही तो चाहूँ ,
तेरे दिल ने जो पुकारा,
सारे जहाँ से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।
पर अभी भी बेटी का
बाप है बेचारा ,
कैसे कहूँ है बेहतर ,
है देश ये हमारा?
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
(२)
सम्बुद्ध
भावों में कोई भक्ति नहीं ,
फिर कैसे प्रभु का पान करे?
जिसकी जिह्वा रस उन्मादित,
वो कैसे ईश गुण गान करे?
है तत्पर जो भौतिक जग को,
उसे सूक्ष्म जगत अभिज्ञान कहाँ?
जिसका मन उन्मुख इतर इतर,
निज पीड़ा का निदान कहाँ?
ये जग जो नश्वर होता है,
इसमें कैसे ईश्वर पाए ?
जो चिर निरंतर ,अमर तत्व,
अविनाशी ,अनश्वर पाए.
उस परम तत्व का अर्थ कहाँ?
इन शब्दों के आख्यानों में ,
वो छिपा पड़ा है व्यर्थ यहाँ,
बुद्ध पुरुषों के व्याख्यानों में ,
जो भी व्यंजित है शब्दों में ,
वो परम नहीं है छाया है,
वो भावों से है अनुरंजित,
जो अतिरिक्त है, माया है.
जब तक नर मौन न साधेगा,
पंच दरवाजे होंगे अवरुद्ध,
कैसे निज अभिधार्थ फलेगा
,और होंगे मानव संबुद्ध ?
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
(३)
निर्धारण
ख़ुदा की जफ़ा को जफ़ा मानते हो,
है उसकी अता ये ना पहचानते हो।
ये उसकी नहीं बन्दे तेरी खता है,
ख़फ़ा है अकारण तुझे भी पता है।
सजा है ये तेरी या तुझ पे भरोसा,
जाने ये कैसे क्या है तू ख़ुदा सा?
क्या पता मालिक की कोई दुआ है,
तू नाहक समझता गलत सा हुआ है।
जब न रहेगा इस जग में अंधेरा,
जाने जग कैसे सूरज का बसेरा।
गर तुझको मोहब्बत है खुद के ख़ुदा से,
तो लानत फिर कैसी शिकायत ख़ुदा से?
है ठीक गलत क्या ये सब जानते हैं,
बामुश्क़िल हीं उसको पहचानते हैं।
वो सृष्टि का कर्ता है सृष्टि का कारण,
करे कैसे कोई भी उसका निर्धारण?
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित