Surju Chhora - 3 in Hindi Short Stories by Kusum Bhatt books and stories PDF | सुरजू छोरा - 3

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सुरजू छोरा - 3

सुरजू छोरा

भाग - 3

तो घूमते हुए समय के पहिये के साथ उदय होने लगा था सूरजू का सूरज..., उसे बाजार में उतरना था अपनी कला को लेकर इसके लिये पूंजी की जरूरत थी, मां ने बकरियों की टोली बेचकर जुगाड़ किया और सुरजू बन गया ‘‘कजरी बुटीक’’ का मालिक।

गहरी साजिश! सुरजू का चेहरा जलता अंगारा जैसे हो गया।

कजरी, सुरजू के चेहरे पर आग देखकर बर्फ का फोहा रखती....

क्या खूब! कजरी ताड़ जैसे लम्बे हाथी पंाव वाले मर्द को अपनी काली हिरणी सी सजल आँखों में बन्द करती है तो सुरजू काले भयावह बादलों से लड़ने की ताकत पा जाता है। कजरी कैसी पिघलती नजरों से देखती है उसे..., उसके भीतर का जमा लावा एकाएक पानी में तब्दील होकर बहने लगता है। गांव वालों ने इस बेमेल जोड़ी पर भी घात लगानी शुरू कर दी ‘‘घिडुड़ी (गौरया) सी छोरी और हाथी पांव का वजन ही ही ही हु हु हु उम्र कुल सोलह वर्ष! आठवीं पास कजरी को निष्ठुर मां-बाप नगौले (कुंए) मंे फेंक कर गये! हाय रे विधाता! दया नी आई इनको! ‘‘जितने मुँह उतनी बातें पर मर्द की बच्ची ने किसी से भी तनातनी न की! संस्कारों की पली पुसी गरीबी की ओस में भीगी सीली यह लड़की नहीं न लगती!’’ गांव वालों के ईष्र्यालु मनों पर सांप लोटते’’ बड़े भाग लेकर आया छोरा जो इस पृथ्वी पर ये छोरी पैदा हुई दूसरे लोग तो देहरी से ही धकिया रहे थे बाहर..., जाने कैसे संेध लगी-उस घर में....!’’ कजरी सोचती ‘‘देह का सुन्दर होना क्या मायने रखता है मन के आगे... ये लोग, सुरजू को क्या समझे, जिसका हृदय प्रेम की सरिता है। इसके आगे देह का कुरूप नजर कहाँ आता है!’’ सुरजू का मन सभी के वास्ते प्रेम से छलछलाता रहा था, जो लेना नहीं जानता उसकी बदनसीबी, उसने तो सभी को दिया ही है, गांव भर में बता दे कोई माई का लाल की सुरजू छोरा ने उनको कुछ नहीं दिया। देहरी दर देहरी खड़ा होकर बिजली का बिल समेट लाता छोरा और दस किलोमीटर पैदल दूर श्रीनगर जाकर जमा करता पावों में छाले पड़ जाते, नंगे पांव कांटे कंकड़ चुभते गर्मी हो या सर्दी बारिश की झड़ी हो तो भी दो कोदो की रोटी और कुछ प्याज के टुकड़े साफे पर बाँधे सुरजू की सेवा यात्रा शुरू होती तो अंधेरा होने पर ही गांव की सीमा में पहुँचता छोरा! गांव वालों ने कभी न सोचा कि छोरे के हाथ एक दो रूपये का नोट ही थमा दें कि जा रे सूरजू हमारी ओर से पकौड़ी खा लेना’’, जिस घर में राशन खतम् हुआ, आवाजें आतीं कभी दायें से कभी बायंे से कभी नीचे गांव की नींव से... अकबका जाता छोरा - किसका काम पहले करे? सुरजू कहीं भी हो किसी भी दशा में उसे उस देहरी पर हाजिर होना ही होता! गोया वह सिर झुका कर नहीं कहता ‘‘क्या हुक्म है मेरे आका? पर सहज हँसी के टुकड़े को उछालते पूछता‘‘ क्या-क्या लाना होगा लिस्ट बना कर देना मामी,’’

मामी ने थैला पकड़ाया ‘‘नीचे से फट गया है भानजे अपनी माँ को बोलना मोटी सुई से सिल दे फटाफट ‘‘सिलवालो मामी जितना भी फटा पुराना हो पुरखों का भी...’’ सुरजू की उन्मुक्त हँसी बरकरार मस्ती में चला जा रहा छोरा

‘‘अबे ठीक से सिलाई करना कहीं चीनी चावल गिर गया तो....’’ मामा पीछे से घुड़की देता, सुरजू किसी भी बात का बुरा नहीं मानता उसे हक ही नहीं दिया, उसका स्वभाव ऐसा ही हुआ बचपन से अथवा मजबूरी उसकी, गरीब गुरबा का बेटा ध्याड़ी मजबूरी करने वाला बाप, नानी को सौ रूपये विधवा पेंशन मिलती, माँ लोगों के खेत में खटती तब ही चार बच्चों के पेट में अन्न के दाने पड़ते, पर तन पर चिथड़े ही रहते जब तक कि देश में रहने वाले सम्बन्धी अपने बच्चों की उतरन अहसान का लेबल लगाकर न दे देते...।

गांव में बीमार हुआ कोई अचानक ‘‘कहाँ मर गया रे सुरजू छोरा...?’’ सुरजू लम्बी ताड़ सी टांगो से लपक कर पहाड़ी उतरता श्रीनगर से डाक्टर अथवा दवाई लाता। किसी का गैस अचानक समाप्त हो गया ‘‘लकडियाँ जलाने से धुँआ उठता है, हाथ काले होते हैं, बर्तन काले होते हैं। सुरजू के हाथ सिलेंडर पकड़ते उसके ऊपर आवाज बरसती’’ जा छोरा.... जल्दी लेकर आना खाना इधर ही खा लेना पेट की चिन्ता नी करना।’’

गरमी की दोपहर डुटियाल सा सुरजू पसीने से नहाया पीठ में ढोकर गैस सिलेंडर लाता। ‘‘स्त्री चमकती आँखों से देखती ‘‘खाना लगा दूँ सूरज?’’ अंतड़ियों में भूख कुलबुला रही होती। सेर भर भात पलक झपकते ही चट कर जाता छोरा! हैरत से स्त्री की आँखे फटी रह जाती... डेगची खाली होने पर खीझ उमड़ती सोचती परिवार के लिये खाना कम पड़ेगा तो दुबारा बनाना पड़ेगा ‘‘सेर भर भात खाकर भी पेट नी भरा छोरा....? थाली चाट रहा है, इसका मतलब अभी और चाहिए। करछुल से डेगची को ठनठन बजाकर थोड़ा और देने का प्रयत्न करती हुई मजदूरी से तौलती भात, सुरजू की आँखों के आगे बीस रूपये का कड़क नोट फड़फड़ाता माँ ने कहा था मजदूरी मिलेगी तो चाय पत्ती गुड़ ले आना, वह बुझे मन से घर जाता माँ की हथेली फैली देख किनारे से खिसक जाता, पवित्रा को उसकी आवाज सुनाई देती’’ मैंने भात खा लिया था, माँ’’ पवित्रा संतुष्ट हो जाती कम से कम प्रन्दह-बीस दिनों के अन्तराल पर भात तो मिला! उसका मन भी भरने लगता पवित्रा सोचती मेरे सूरज को... सुरजू न होता तो गांव वाले क्या करते हँसी ठिठोली में कुछ शब्द गांव वालों के मुँह पर मार भी देती ‘‘अरे पत्थर दिल वालों! मेरे सूरज का अहसान नहीं मानते! इससे अच्छा होता वह अपने पिता के गांव ही रहता,’’ सबसे बेखबर सुरजू किसी का खेत जोतने के लिये हल बैल लेकर निकल पड़ता वह खेतों में...

बैलों को वह कुछ देर हरी घार चरने देता। सुरजू का पेट भले ही खाली हो पर वह बैलांे का पेट खाली नहीं रख सकता। इसीलिए वह बैलांे के द्वारा घास की चारी को भी जायज मानता। शाम को गांव में सुरजू और उसके बैलों पर बुरी-बुरी गालियों की बरसात होती, तो भी सुरजू मंद-मंद मुस्कराता - बेचारे अबोध पशु। इन्हें क्या पता तेरा-मेरा..... ‘‘गाली देने वाली चिढ़ कर कहती - तू तो अबोध नहीं है छोरा। हमारी घास वापस कर दे बस’’ सुरजू सहज भाव से कहता ठीक है ‘‘नानी मैं तुम्हारे गोठ में दो पूली घास डाल दूँगा। अब तो शान्त हो जाओ।’’ वह मस्त व्यस्त रहता। गोया एक यही भोग रहा हो, जीवन का सम्पूर्ण ऐश्वर्य। बासी खाना खाते टूटी घाट पर फटे बिछौने में गहरी नींद लेता छोरा। लोग देख-देख कर कुड़ते, जिनकी जिन्दगी में भरपूर होते हुए भी तमाम तरह के अभाव कुकुरमुत्ते से आये दिन उगते रहते। सुरजू को कोई रंजो गम नहीं जिंदगी जैसी भी मिली, उसे सहज रूप से स्वीकार्य है। एक सुबह वह हल लगा रहा था। उसे भूख लगी तो किनारे बैठ कर साफा खोलने लगा था। दो मोटी कोदो की रोटी और टिमाटर धनिया की चटनी की मूँह अंधेरे ही बना कर रख दी थी। उसने एक कौर तोड़ कर मूँह में रखा ही था कि ऊपर से आवाज बम गोले सी उसके ऊपर गिरी - सुरजू रे पिसान खतम हो गया भाँजे घटवार ले जाने पड़ेने गेंहूँ, जलदी ऊपर आ जा भाँजे.....’’ उसके गले में रोटी का टुकड़ा फंस गया था - जालिम औरत! एक तो कलेवा नहीं दिया ऊपर से चार कोस दूर भेज रही है थू.......!! उसने खंखार कर थूका गोया स्त्री के मूँह पर। फिर उसे याद आया कि अपने घर में भी कई दिन से आटा नहीं है। माँ ने कहा था कभी भी किसी काम को न मत कहना सूरज। उसने चार-पांच किलो आटा मिलने की उम्मीद में बैलांे का जुआ खोला और हल कंधे पर रख पुश्ते फलांग्ते हुए पहुँच गया। गेंहूँ की बोरी उसकी राह देख रही थी। चमकती धूप में पसीना-पसीना होते हुए भी पीठ में बोरी बाँध कर उतर पड़ा था नदी की ओर। पवित्रा सोचती सुरजू न होता तो गांव वाले क्या करते। कोई उसके लाल का अहसान नहीं मानता। पत्थर दिल वाले गांव के लोग, अच्छा होता सुरजू अपने गांव ही रहता।

देश से आने वाले सैलानियों के लिए वह एक ईमानदार कुली होता। शहरी बासिंदे नई चमचमाती कारों में आते या कोई खतारा कार को घिसटते हुए वे सब अपनी रईसगिरी की अकड़ में उसे पूछते - क्या बे सुरजू? कुछ पियेगा - कोका कोला, लिम्का, फैन्टा - पर्स खोलकर कड़कड़ाते नोट दुकानदार को पकड़ाते और ठण्डी बोतलों को झपटते हुए अपने प्यासे गले को तर करते। बाद में उसकी सुध ली जाती। स्त्रियाँ कहती - पीले ले छोरा गला सूख गया होगा तेरा....। वह असमंजस में होता। उसके लिए पहाड़ी के भीतर हुआ ठंडा मीठा अमृत तुल्य जल स्रोत ही पर्याप्त ठहरा। वह मन ही मन हंसता - तुम्हारी प्यास तो कभी न बुझनी हुई। भूल गये अपने दिन पत्थर तोड़कर, हल लगाकर, गोबर ढो कर, भेड़-बकरियाँ चरा कर, ककड़ी, फूट, आम, नारंगी की चोरी कर अपने को समझ रहे हैं अपने को समझ रहे हो टाटा, बिरला की औलाद। जब देखो सुरजू छोरा तुम्हारा पायदान हो गया बल? उसका मन बुझने को होता फिर अगले ही क्षण वह ऊपर देखता, सूरज नीले आसमान में लाल अंगारा सा चमक रहा होता - कभी तो अपने भी दिन आयंेगे....’ कभी उसके थोड़ा देर से पहुँचने पर दूसरे घुडै़त की पीठ पर सामान बाँध लेते तो वह मनुहार करने लगता - हे भैजी..... तुम भी न अपने सुरजू छोरे के पेट पर लात मार रहे हो। वह खिल-खिल हंसता, उसके साथ सारा बाजार हंसता, पेड़ हंसते, पहाड़ हंसता, हंसते-हंसते वह धीरे से घुड़ैत को घुड़क्ता - जा बे आगे जा... अपने गांव का बोझा तो मैं ही ढोऊंगा। वह चार-पांच नग गुब्बारे की तरह उठा कर पहाड़ी चढ़ने लगता। जब तक शहरी टीम अपनी स्त्री बच्चों को ठण्डा-गरम नाशता कराते, सुरजू इन्हीं हाथी पांवों से आधा सामान ऊपर पहुँचा देता। उसे अपने हाथी पांव कभी बोझ नहीं लगे। कभी तनिक सी देर होने पर कोई उसे टोकता। अबे सुरजू तू तो नवाबी ठसक के साथ आ रहा है..... यहाँ हमारे बच्चे भूख और थकान से बेहाल हुए जा रहे हैं’’ सूरजू टुकुर-टुकुर ताकता, पर उसके होठों पर चुप्पी रहती और भीतर से वह मुखर रहता - इतनी ही जल्दी है तो, इनकी औरतें अपना बोझ खुद क्यों नहीं ढोती? इन सहाबों की औरतों के लिए पहाड़ी ऐवरेस्ट की चोटी बन जाती है। बड़ी आई मेम साहब! भूल गई उन दिनांे को जब दूसरे गांव से घास लकड़ी चोरी से काटकर सिर पर पहाड़ सा बोझा ढोकर लाती थी। एक ठहरा सुरजू छोरा फोकट का....’’ सुरजू के भीतर राख में दबी चिंगारी जलने लगती। सुरजू तो इनका तबेला हो गया बल, जब चाहा बजाने लगे। विचारांे की आँधी इतनी तेजी से आती कि सुरजू का कूली उड़ने लगता और उड़ते-उड़ते गायब हो जाता। अब सिर्फ सूरज होता अग्नि पिण्ड सा धधकता वह इन्हीं साहबों के बरक्स रूबरू होता। उसके पास चमचमाती गाड़ी होती। उसकी आँखों पर धूप का चश्मा होता और होठों पर सिगरेट। वह पर्स खोलकर कड़कड़े नोट उछालता किसी को गरियाता, किसी का मजाक उड़ाता, लोग याचना भरी दृष्टि से उसके पास आते, वह और अकड़ने लगता। वह सिर्फ सूरज होता, जिसकी चमक से लोगों के पसीने छूटने लगते। प्रश्न अनेक, उत्तर एक - कल्पना करने में क्या जाता है बे सुरजू.... सांप की तरह एक दिन उसे भी अपनी कंेचुल छोड़ देनी है... जाने कहाँ से विचार आते और उसे मस्त कर देते।

‘अब लगी है उनके चोट कलेजा पर....’ सुरजू इस वाक्य को दिमाग के रेशे रेशे में भर लेता है, उन्मुक्त हँसी उसके होंठों से झरती है, इस वक्त कोई नाप सकता सुरजू को औरा (प्रभामंडल) तो विस्मय से भरकर कहता ‘‘एं्! इतना पावरफुल! कौन सी बूटी मिली बे सुरजू छोरा?’’

पुजारी का आना भी हुआ इसी वक्त, सौदा लेने खादी का झोला लटकाये निकल रहे थे, सुरजू के आंगन की दीवार से होकर निकलता है रास्ता तो सुरजू के घर के क्रिया कलाप सभी को दिखते, सुरजू को इस प्रभामंडल में देखकर ईष्र्या वश पुजारी ने कुटिल चाल चल कर सुरजू को फँसा दिया था ‘‘एक बार काल कोठरी की खिदमत से पेट नहीं भरा न...?’’

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