Vardi wali bibi - 3 in Hindi Short Stories by Arpan Kumar books and stories PDF | वर्दी वाली बीवी - 3

Featured Books
Categories
Share

वर्दी वाली बीवी - 3

वर्दी वाली बीवी

अर्पण कुमार

(3)

तीन बजकर पचास मिनट पर ‘सिरपूर कागज नगर’ आया। अब आंध्रप्रदेश आ चुका है। स्टेशनों के नाम तेलगू में लिखे जाने दिखने लगे। ‘सिरपूर कागज नगर’ आंध्रप्रदेश के अदीलाबाद जिले में है।

नेवी में कार्यरत पवन के दो और साथी आ गए हैं। तीनो हरियाणवी में बात कर रहे हैं। पोस्टिंग, असाइनमेंट आदि को लेकर।एक रोहतक का और दूसरा झज्जर का है।

दाएँ बाएँ दोनो तरफ साउथ सेंट्रल रेलवे (एस.सी.आर.) के खंभे खेतों में गड़े हैं। ऊपर नीचे लाल और बीच मे सफेद। रेलवे का सीमांकन बताते हुए।

मैंने ग़ौर किया। बड़े बच्चे की माँ ख़ूब गोरी चिटी सुंदर है। पाँवों में पाजेब। पीले रंग के क्लचर से जूड़ा कैसे हुए। बीच मे सफेद रंग के बेल बूटे। सजग इतनी कि शरीर का हर हिस्सा एकदम ढक हुआ। बच्चा तैयार नहीं था। उसे अपने पास पकड़ पहले उसे मिडल बर्थ पर लेटाया। बाद में उसे अपनी छाती से लगा मोबाइल पर गाने सुनने लगी। दोनों कानो में सोने के दो दो रिंग। पूरे सफर बच्चे की देखभाल का ज़िम्मा उसी के भरोसे है। त्रिलोकी मेरे कानों में बुदबुदाए, “यार प्रोफेसर, इसका हसबैंड तो एकदम गबदू है। बच्चे की कोई ज़िम्मेदारी लेना ही नहीं चाह रहा।”

त्रिलोकी की बात से सहमत होता हुआ मैं कहने लगा, “ऐसा ही है त्रिलोकी साहब। अपने देश में जो ब्रेड-बटर अर्नर होता है न, वह ख़ुद को ख़ुदा समझने लगता है। ये सज्जन भी मुझे कुछ-कुछ उसी कैटेगरी में दिखते नज़र आ रहे है।”

ट्रेन चल रही थी और हमारी जुबानें भी। ट्रेन साँप की तरह लहराती हुई और बीच बीच में सीटी बजाती, हमारी जुबानें कैंची की तरह खच खच चलती हुई और फुसफुसाती हुई। ट्रेन बेलौस और बिंदास थी, वहीं हम कुछ डरे हुए और कुछ लिहाज पसंद भी।

इस बेच ‘बीब्रा’ नदी के ब्रीज से ट्रेन का गुजरना हुआ। 'रचनी रोड' हम सवा चार बजे। स्टेशन लगभग सुनसान। गाड़ी रुकी भी नही। वैसे भी इस एरिए में स्टेशनों पर भीड़ कम दिखती है। चार बाईस पर ‘बेल्लम पल्ली’ स्टेशन आया। एक बड़ा स्टेशन । ट्रेन रुकी। जिन्होंने खाना मँगवाया था, अब जाकर वे नीचे उतरे। मेज़ पर रखा खाना उनके परिवार के सभी सदस्य खा रहे हैं। फेमिली हेड साथ में चाय भी पीता चला जा रहा है। 'मंचिर्याल' स्टेशन शाम चार इकतालीस पर पहुँचना हुआ। 'पेद्दूम्पेट' चार इक्यावन पर और 'रामगुंडम' चार चौवन। 'राघवपुरम' पाँच बजाकर सात मिनट।

चलती हुई ट्रेन की खिड़की से मैं बाहर देख रहा था। आगे की ओर दौड़ती ट्रेन के साथ-साथ सभी दृश्य पीछे की ओर छूटते चले जा रहे थे। मैं इन भागते दृश्यों को अपने शब्दों में क़ैद कर रहा था। मैं अपनी डायरी में लिख रहा था...इस समय दोनों तरफ पहाड़ दिख रहे हैं। शाम के सवा पाँच बज रहे हैं। खेतों में धान रोप दिए गए हैं। उनमें पानी भी ख़ूब है। बगुले अपनी फ़िराक़ में हैं। जगह जगह बिजूका लगे हुए हैं। एक पतली लकड़ी पर पुराने बनियान को टाँग दिया गया है। कुछ जगहों पर उसे झंडे के रूप में भी प्रयोग में ले गया है। तब एक साथ कतार में कई झंडे लगा दिए गए हैं। अभी अभी एक नदी के पुल से गुजरना हुआ। पूरी नदी में जगह जगह झाड़ उग आए हैं। बरसात के उस मौसम में भी उसमें रेत ही रेत है। पानी नहीं है। तीन चार बाइक उसमे खड़े हैं। नदी के ऊपर सड़क मार्ग के लिए भी पुल बन रहा है। पानी न होने से नदी वर्तमान में सड़क की तरह काम मे लाई जा रही है।

‘उप्पल’ पाँच बजकर तैंतालीस मिनट पर। ‘काजीपेट टाउन’ शाम छह बजे पहुँचना हुआ। यहाँ रेल पथ मशीन का सौटेललाइट लोको है। यहाँ से सामने गुंबदाकार पहाड हैं, जिसके ऊपर टेलीफोन का टावर और एक पुरानी इमारत है। तभी एक सुंदर एम एस सी पास लड़की का फोटो मोबाइल में दिखाते हुए पवन ने अपने साथी को बोला, "देखो, क्या प्रोपर्टी है!"

मैंने त्रिलोकी की आँखों में देखा। उन्हें इस भाषा पर सख्त ऐतराज़ था। वे कुछ बोलना चाह रहे थे। मगर सफ़र में अनावश्यक झगड़ा करने का कोई विशेष मतलब नहीं था। मैंने उन्हें इशारों से चुप रहने को कहा। स्टेशन से ही लगा इलेक्ट्रिक एवं डीजल दोनों लोको शेड हैं। साढ़े छह बजे ' घनापुर' से निकलना हुआ। यहीं पर नए चढ़े टीटी भी हमारे बोगी से बाहर निकले। फूल स्पीड में। कुछ कुछ ताव में भी। मैने नोट किया, कई टीटी दारोगा की तरह व्यवहार करते हैं। सफेद पेंट और शरीर पर काला कोट। बाएँ हाथ में आरक्षण चार्ट का बंडल और दाएँ हाथ मे एक कलम। चाल ऐसी कि कोई हेड डॉक्टर अस्पताल के बार्ड में राउंड पर निकला हो। छह बैयालीस पर 'रघुनाथ पल्ली' पार करना हुआ। मैं त्रिलोकी जी को बताने लगा, "पल्ली वही है जो छत्तीसगढ़ में ‘पाड़ा’ है या महाराष्ट या कई जगह आंध्र प्रदेश में भी जो ‘पेट’ है।"

त्रिलोकी की आँखों में जिज्ञासा की कुछ चमक उतर आई। मुझे उन बूढ़ी आँखों की बाल-सुलभता बड़ी अच्छी लगी। मैंने बाहर देखा। सूर्यास्त हो चुका था। यह अँधेरे से पहले की रोशनी थी। हरियाणवी युवक ‘काजीपेट’ उतर गए। वे यहाँ से अब ‘विशाखापत्तनम’ जाएँगे। अपने दोस्तों के साथ पवन भी ट्रेन से उतर गया था मगर उसके कहे शब्द मुझे अब भी उसकी उपस्थिति का एहसास करा रहे थे। उसके द्वारा लड़की को प्रोपर्टी देने की संज्ञा मुझे देर तक ‘डिस्टर्ब’ करती रही। कहाँ तो मैं उसे मिलनसार और सहयोगी समझता था (और जो काफी हद तक वह था) और कहाँ वह यूँ भौतिकवादी निकला। मैंने त्रिलोकी से कहा, “देखिए त्रिलोकी बाबू, ये आजकल के लड़के कैसी सोच रखते हैं। समय कहाँ से कहाँ पहुँच गया, मगर इनके भीतर का मर्द अब भी जस का तस ऐंठा पड़ा है । पढ़-लिखकर और नौकरी में लगकर, देश-दुनिया घुमकर भी ये कैसे स्वयं को ‘रौबस्ट’ बनाए रखने की बेमतलब सी कोशिश में रहते हैं|”

“मुझे तो उस वक्त बहुत गुस्सा आया था। आप ही ने रोक दिया।” त्रिलोकी पुनः उस दृश्य में प्रवेश करने लगे थे और उनके भीतर का संवेदनशील पुरुष एक बार फिर से हुंकार भरने लगा था।

ख़ैर, किसी तरह मैंने उन्हें समझाया और उनके गुस्से को शांत किया।

संध्या छह बावन पर ‘जनगाँव’। कुछ ही देर में बाहर अँधेरा घिरने लगा था और अब बाहर देखना मुश्किल हो गया था।

कुछ देर से पसरी चुप्पी को तोड़ते हुए और संवाद को पुनः कायम करने के उद्देश्य से त्रिलोकी ने आगे कहना शुरू किया, "अभी पौने आठ बज रहे हैं। अमूमन आधे घंटे में हम सिकन्दराबाद होंगे।"

मैं खिड़की से गर्दन बाहर निकाल कर अपनी बोगी से इस ट्रेन के इंजन को देखने की कोशिश कर रहा था। यहाँ बैठे बैठे इंजन और उसके पीछे के डब्बों को बलखाते हुए देख मुझे इस समय ‘मजाज़ लखनवी’ की ये पंक्तियाँ बेतरह याद आ रही थीं और मैं उन्हें सहसा गुनगुनाने लगा :-

“ठोकरें खाकर, लचकती, गुनगुनाती, झूमती,

सर-ख़ुशी में घुंघरूओं की ताल पर गाती हुई।

नाज़ से हर मोड़ पर खाती हुई सौ पेच-ओ-ख़म,

इक दुल्हन अपनी अदा से आप शर्माती हुई।

रात की तारीकियों में झिल-मिलाती, काँपती,

पटरियों पे दूर तक सीमाब छलकाती हुई।”

मैं अपनी धुन में अपनी पसंद की पंक्तियों के साथ था और त्रिलोकी अपनी पत्नी की स्मृतियों में गोते लगा रहे थे। जिस तरह किताबें मेरी दुनिया थी वैसे ही दिवंगता पत्नी की याद त्रिलोकी के जीवन की अंतर्धारा थी। हम दोनों अगल-बगल बैठे थे मगर हम दोनों की दुनिया अलग अलग थी। वैसे भी दो लोगों की दुनिया एक हो भी सकती है कैसे! मगर कहीं न कहीं हम अपनी दुनिया से बाहर निकलते हैं और एक दूसरे की दुनिया में झाँकने लगते हैं। इस बार त्रिलोकी आगे आए और पूछने लगे, “बड़ी अच्छी लाइन थी। आप तो अच्छा गा लेते हैं।”

मैं थोड़ा झेंप गया। कहने लगा, “ऐसा कुछ नहीं है त्रिलोकी बाबू। यह तो ट्रेन और इसके सुहाने सफ़र ने मेरा मन मोह लिया। सो, कुछ गुनगुना लिया। वो क्या कहते हैं...मौक़ा है और दस्तूर भी।” एक फ़ीकी हँसी के साथ मैं ट्रेन की खिड़की से बाहर देखने लगा। फिर कुछ रुककर बोला, “ हाँ तो, आप कुछ कह रहे थे।”

त्रिलोकी बताने लगे, “ऐसे तो जाना मैं टालता ही हूँ। मगर इस बार बेटे बहू ने बड़ी ज़िद की। सो जा रहा हूँ। राजेश्वरी को गुजरे चार साल हो गए हैं। उसके बगैर बिलासपुर का घर काटने को दौड़ता है। यह तो दुकान को संभालना होता है, वरना...", त्रिलोकी बीच में ही चुप हो गए।

उधर से फोन आया, मगर त्रिलोकी कहने लगे, "अरे परेशान मत हो बेटे। हम आ जाएँगे। तुम्हारी मम्मी नहीं है न, इसलिए तुम्हें कोई दिक्कत उठाने की ज़रूरत नही है।"

मैं सिर्फ सुन रहा था, मगर हवा में उदासी की ध्वनि चारों ओर फैल गई थी।

बेटे-बहू ने उधर से रात के खाने का ज़िक्र किया होगा। इधर से त्रिलोकी कहने लगे, "अरे नहीं बेटा, भूख नहीं है। बस दो रोटी लेंगे। हाँ करेला और खीरा ज़रूर रखना।"

फिर कुछ देर बाद अपनी भीतरी दुनिया से मानो कुछ बाहर आते हुए और थोड़ा सहज होकर कुछ खुलते हुए कहने लगे, "अच्छा बेटे! स्टेशन आ ही रहे हो तो एक सादा पान ले लेना। मज़ा नहीं आ रहा है। मन शायद कुछ बहल जाए।"

मगर मैं जानता था कि त्रिलोकी अभी भी अपनी कई बातें अपने बच्चों को बता नहीं रहे थे। मन के कई गह्वर खोले और दिखाए जा भी नहीं सकते। पत्नी राजेश्वरी उनके जीवन की धुरी थी। अब वह धूरी गायब हो चुकी थी। त्रिलोकी के भीतर अकेलेपन के बंजर का क्षेत्रफल बढ़ता चला जा रहा था। बच्चे इसे कितना समझेंगे और उन्हें अपना कितना समय देंगे, इसका अंदाज़ लगाना मुश्किल था। वैसे भी पूरी दुनिया में वृद्धों की यह समस्या है।

त्रिलोकी कैसे बताते, वह इस पूरे रास्ते उसकी माँ को ‘मिस’ कर रहे थे। इसका गवाह मैं था। मगर उसे यह बताने के लिए मैं उपलब्ध नहीं था। ट्रेन के रुकते ही मैंने विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस के लिए ऑनलाइन टैक्सी बुक कर ली थी। कल सुबह एक सेमिनार में मुझे पर्चा पढ़ना था। मुझे उसकी तैयारी करनी थी। विषय था "भारत का वर्तमान सामाजिक ढाँचा और हमारा परिवार।"

रास्ते में मैं सोचता रहा...त्रिलोकी सिर्फ़ मेरे पूर्व-पड़ोसी नहीं हैं, बल्कि इस विषय के वे जीवंत नायक भी हैं।

***