Dahleez Ke Paar - 20 in Hindi Fiction Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | दहलीज़ के पार - 20

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दहलीज़ के पार - 20

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(20)

चिकी जिस गाँव मे रहती थी, वह गाँव वैसे तो दक्षिणी दिल्ली की सीमा के अन्दर आता था, किन्तु विकास की दृष्टि से वह स्थान अभी तक गाँव से थोड़ा ही बेहतर कहा जा सकता था। चूँकि पुष्पा वहाँ पर पहले भी जा चुकी थी, इसलिए ‘ महिला जागरूकता अभियान ' की टीम को चिकी का घर ढूँढने के लिए अधिक कष्ट नही झेलना पड़ा। जिस समय टीम वहाँ पर पहुँची थी, दरवाजे के बाहर चिकी की ननद कुछ महिलाओ से बाते कर रही थी। उसने पुष्पा को देखते ही पहचान लिया और औपचारिक अभिवादन करके स्वागत—स्वरूप पुष्पा की टीम को घर मे आने का सकेत किया। सकेत पाकर पूरी उसके पीछे—पीछे तुरन्त ही घर के अन्दर पहुँच गयी।

टीम ने घर के अन्दर पहुँचकर देखा, आँगन मे एक अधेड़ स्त्री बैठी हुई दाल बीन रही थी। वह लक्ष्मी की माँ थी। गरिमा ने चारो ओर दृष्टि घुमाकर चिकी को खोजा, किन्तु उसकी दृष्टि खाली हाथ वापिस लौट आयी। पुष्पा ने गरिमा की व्याकुलता को भाँपकर चिकी की ननद से कहा—

लक्ष्मी ! चिकी घर मे नही है ?

भित्तर घर मे है ! तम बैठ्‌ठो, मै चाय बणाकै ल्याऊँ ! यह कहते हुए चिकी की ननद लक्ष्मी ने जूट की रस्सियो से बुनी हुई चारपाई तथा दो—तीन प्लास्टिक की कुर्सियाँ अपनी माँ के निकट आँगन मे ही बिछा दी। गरिमा, पुष्पा तथा प्रभा चारपाई पर बैठ गयी और श्रुति तथा अथर्व कुर्सियो पर बैठ गये। लगभग पन्द्रह मिनट तक वे सब बैठकर परस्पर बाते करते रहे, जब तक लक्ष्मी चाय—नाश्ता लेकर आयी। इतने समय मे लक्ष्मी की माँ अर्थात्‌ चिकी की सास ने एक शब्द भी नही कहा, चुप बैठी हुई अपना कार्य करती रही, मानो अपने निकट बैठे हुए अतिथियो की उपस्थिति का उसको आभास नही हुआ था अथवा उनका आगमन उसको प्रिय अनुभव नही हुआ था, इसलिए वह उनसे व्यवहारिक उदासीनता बनाये हुए थी। लक्ष्मी ने सबको चाय परोसकर एक कप माँ की ओर बढ़ा दिया और एक कप मे चाय लेकर स्वय सिप करने लगी।

चाय पीते हुए चिकी की सास को जैसे अपने कर्तव्य का स्मरण हो आया था, उन्होने कठोर स्वर मे आदेश देकर लक्ष्मी से कहा— लच्छो ! बोल दे उससे, मेहमान आये है, बाहर आ जावेगी! लक्ष्मी को आदेश देकर वह पुनः अपने काम मे व्यस्त हो गयी। माँ को आदेश सुनकर लक्ष्मी चाय छोड़कर अन्दर की ओर चली गयी।

लक्ष्मी के जाने के पश्चात्‌ सभी की दृष्टि चिकी के दर्शन की अभिलाषा के लिए उधर लग गयी, जिधर लक्ष्मी गयी थी और सम्भवतः जिधर से चिकी के आने की आशा थी। कुछ ही क्षणो की प्रतीक्षा के अन्त मे उनकी दृष्टि कमरे से बाहर निकलकर बरामदे मे प्रवेश करती हुई एक स्त्री पर पड़ी, जिसका सारा शरीर साड़ी मे लिपटा हुआ था। उसकी साड़ी से बाहर झाँकते हुए हाथो का तथा पैरो का अग्रभाग ऐसे प्रतीत हो रहा था, मानो उन्हे साड़ी के पिजरे मे बन्दी बनाये जाने का भय सता रहा था, इसलिए उनमे कपन हो रहा था।

बरामदे से निकलकर वह स्त्री ‘महिला जागकता अभियान' की टीम की ओर बढ़ती आ रही थी। उसके आगे कुछ कदमो की दूरी पर लक्ष्मी थी। इसी आधार पर टीम ने अनुमान लगा लिया कि साड़ी मे लिपटी हुई स्त्री चिकी हो सकती है। अनुमान बिल्कुल सत्य था। निकट आते ही गरिमा ने तथा पुष्पा ने चेहरा देखे बिना ही चिकी को उसकी कद—काठी और चाल—ढाल से पहचान लिया। चिकी को पहचानते ही गरिमा के होठ प्रसन्नता से फैल गये, किन्तु क्षण—भर पश्चात्‌ ही उसकी वह प्रसन्नता लुप्त हो गयी, जब उसको चिकी की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नही मिली।

घूँघट मे मुँह छिपाये हुए चिकी वहाँ पर आकर खड़ी हो गयी। प्रभा ने उसकी ओर कुर्सी बढ़ाते हुए धीमे स्वर मे कहा— बैठ जाइये! कुछ क्षणो तक सभी लोग चिकी की ओर इस प्रतीक्षा मे देखते रहे कि वह कुर्सी पर बैठेगी। उनका यह भी अनुमान था कि ग्रामीण परिवेश होने के कारण शायद वह कुर्सी पर बैठने की भूल करने का दुस्साहस नही कर सकेगी। उनका अनुमान सत्य सिद्ध हुआ। चिकी ने कोई प्रतिक्रिया नही की। वह मौन धारण किये हुए मूर्तिवत्‌ खड़ी रही। कुछ क्षणो तक वातावरण मे निःशब्दता बनी रही। तदुपरात चिकी की सास ने कठोर स्वर मे निःशब्दता को चीरते हुए अपनी उपस्थिति का उद्‌घोष किया और अपनी शाब्दिक भगिमा से यह चेतावनी देने का प्रयास किया कि उस जैसी सास के जीवित रहते हुए युवा—पीढ़ी सदियो से चली आ रही परम्परा को तोड़ने का प्रयास न करे ! चिकी की सास ने एक बार प्रभा की ओर घूरते हुए देखा और फिर लक्ष्मी को आदेश दिया—

लच्छो ! बुत बणके खड़ी—खड़ी के ताक री है ? जा, बहू कू पिड्‌ढा ल्याके दे !

माँ का आदेश सुनते ही लक्ष्मी अन्दर गयी और पिड्‌ढा ( चार छोटे—छोटे पाँये वाला लकड़ी का चौकटा, जो बारीक रस्सियाे से बुनकर स्त्रियो के बैठने के लिए बनाया जाता है। उत्तरी भारत के ग्रामीण परिवारो मे स्त्रियाँ प्रायः चारपाई या कुर्सी पर नही बैठती है) लाकर बिछाते हुए चिकी को सम्बोधित करके बोली— बैठ जा !

लक्ष्मी के स्वर मे एक विचित्र प्रकार का विद्रोह था, असन्तोष था और साथ ही उसके स्वाभिमान को पुष्ट करता हुआ अहभाव भी था। उसके स्वर मे चिकी के प्रति उपेक्षा भी थी, अधिकारपूर्ण आदेश—भाव भी था, तिरस्कार भी था और दया—भाव था। एक साथ इतने अधिक भावो को वहन करने वाले उन दो शब्दो को ग्रहण करती हुई चिकी लकड़ी के उस चौकटे पर बैठ गयी, जिसे स्थानीय भाषा मे पिड्‌ढा की सज्ञा प्रदान की गयी थी। उसी समय सात—आठ स्त्रियाँ आकर दरवाजे पर रुकी और उनमे से एक ने कहा—

लच्छो की माँ ! जल्दी आ जा, आणा हो तो ! आवाज सुनते ही लक्ष्मी की माँ उठ खड़ी हुई और उत्तर भारत की परम्परागत शैली मे अपनी साड़ी का पल्ला सीधा करते हुए बोली—

लच्छो ! मै जा री हूँ ! घर का ध्यान राखिए ! अर बाहर कू मत चली जाइये बहू कू अकेल्ली छोड़ के, जब तक मै ना आऊँ ! बेटी को घर पर रहने का निर्देश देकर लक्ष्मी की माँ उन स्त्रियो के साथ चली गयी। ‘महिला जागरूकता अभियान की टीम'

इस विचित्र—व्यवहार से आश्चर्यचकित थी कि चिकी की सास, जो अब तक के पूरे समय तक घर आये अतिथियो के प्रति उदासीन बनी रही थी, घर से बाहर जाते समय भी वे उतनी ही उदासीन थी और अतिथियो के सन्दर्भ मे कोई निर्देश देना भी आवश्यक नही समझा।

इतना ही नही, चिकी भी अभी तक मौन व्रत धारण किये हुए बैठी थी। इस परिस्थिति मे गरिमा और प्रभा स्वय को अपेक्षाकृत असहज अनुभव कर रही थी। श्रुति और पुष्पा चिकी की स्थिति का भी और गरिमा तथा प्रभा की स्थिति का भी थोड़ा—सा अनुमान कर पा रही थी परन्तु वे भी चुप बैठे रहना ही उचित अनुभव कर रही थी।

माँ के जाने के कुछ क्षणोपरात लक्ष्मी ने एक लबी साँस ली और एक झटके से अपनी गर्दन हिलायी, जैसे अपने मनःमस्तिष्क पर पड़े हुए किसी भारी बोझ को उतार फेका हो। तदुपरात वह धीरे से मुस्कुरायी और बोली—

म्हारे पड़ोस मे एक मौत हो गयी, व्‌ही गयी है म्हारी माँ ! लक्ष्मी ने अपनी बात पूरी की ही थी, उसी समय एक लम्बा—चौड़ा राक्षसो—सी आकृति का पुरुष घर के अन्दर से निकला। वह भीमकाय पुरुष कुछ क्षण तक आँगन मे खड़ा होकर अतिथियो को निहारने के बाद घर से बाहर निकल गया, किसी से कुछ कहे—सुने बिना। गरिमा ने उस पुरुष की ओर सकेत करके लक्ष्मी पर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली, तो लक्ष्मी ने यह निश्चित करके कि पुरुष घर के बाहर निकल चुका है, कहा—

मेरा भाई था, बड़ा भाई ! चिकी का जेठ ! गरिमा की दृष्टि का उत्तर देकर उसने चिकी को सम्बोधित करके कहा—

बहू राणी, अब पल्ला उघाढ़ ले ! ये सब थारे सै मिलण खात्तर आये है, इणसे बी बोल—बतला ले थोड़ी देर !

लक्ष्मी का आदेश पाकर चिकी ने अपना घूँघट ऊपर कर लिया और पुष्पा की ओर देखकर अभिवादन स्वरूप मुस्कुराने लगी। पुष्पा ने गरिमा की ओर देखकर सकेत करके चिकी को उसका परिचय दिया और प्रेमपूर्ण मधुर शब्दो मे उलाहना भी दिया कि वह अपने ही गाँव—पड़ोस मे पली—बढ़ी अपनी बचपन की सखी को नही पहचान सकी। चिकी ने पुष्पा के उलाहने का उत्तर शब्दो मे नही दिया, केवल क्षमा याचना की—सी मुद्रा मे गरिमा की ओर मुस्कराने लगी। गरिमा ने उसकी मुस्कराहट मे आत्मीयता का अनुभव किया। उसने यह भी अनुभव किया कि चिकी के होठो पर हँसी है, किन्तु उसकी आँखो मे अथाह पीड़ा का सागर हिलोरे ले रहा था। चिकी की अज्ञात पीड़ा का अनुभव करके गरिमा की आत्मीयता छलक पड़ी और उसके होठ बड़बड़ा उठे — चिकी कैसी है तू ?

गरिमा के प्रश्न के साथ बातचीत का सिलसिला आरम्भ हो गया। चिकी ने बताया, चूँकि उसका विवाह हुए अभी अधिक समय नही हुआ है, इसलिए उसको ग्रामीण परम्पराओ का निर्वाह अत्यधिक अनुशासन मे रहकर करना पड़ता है। चिकी का सम्पूर्ण वक्तव्य इस बात का सकेत दे रहा था कि वह ‘महिला—जागरुकता अभियान' मे सहयोग करने की स्थिति मे नही है। इसके विपरीत श्रुति पर चिकी की बातो का प्रभाव अपने विचारो के अनुरूप पड़ रहा था। वह कह रही थी —

हमारे अन्दर विद्रोह करने की शक्ति तभी आती है, जब हमारी पीड़ा हमारे धैर्य के बाँध को तोड़ देती है। जब एक स्त्री के अन्दर इन खोखली मान्यताओ के प्रति विद्रोह का उफान आयेगा, तभी समाज मे क्रान्ति सम्भव है। यह तभी सम्भव है, जब स्त्री के अन्दर का साहस जागेगा और उसका साहस तब जागेगा, जब स्त्री अपने कदम इस दहलीज से बाहर रखेगी। जिस प्रकार हनुमान जी मे अपनी असामन्य सामर्थ्य को विस्मृत करके सामान्य जीवन जीते हुए अन्याय और अत्याचार—अनाचार का विरोध करने का साहस नही करते थे, उसी प्रकार आज स्त्री भी अपनी शक्ति को भूल चुकी है। और जिस प्रकार जामवन्त के स्मरण कराने पर हनुमान जी को अपनी शक्ति का पुनः स्मरण हो आया था, उसी प्रकार हमारा अभियान स्त्रियो को उनकी शक्ति से पुनर्परिचित करायेगा !

श्रुति के लम्बे भाषण का लक्ष्मी पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा था। चूँकि चिकी ने श्रुति के भाषण की कोई प्रतिक्रिया नही दी थी, इसलिए उसके ऊपर इसका कितना प्रभाव पड़ा ? यह कहना या अनुमान लगाना कठिन था। इतने प्रभावशाली वक्तव्य को सुनकर भी चिकी का चेहरा भावशून्य था, यह लक्ष्मी को अच्छा नही लगा। लक्ष्मी ने चिकी की ओर से नाक—मुँह सिकोड़कर श्रुति से कहा —

यू के करेगी तेरे अभियान का, तू मुझे बता, के अभियान है तेरा ? लक्ष्मी के प्रश्न के उत्तर स्वरूप श्रुति और अथर्व ने अपने अभियान के विषय मे विस्तारपूर्वक बताया और उस अभियान के उदय की कारणभूत परिस्थितियो के विषय मे भी विस्तारपूर्वक बातचीत की। बातचीत के अन्तर्गत प्रसगवश उन्होने प्रभा और श्रुति के साथ घटित दुर्घटना का सदर्भ देते हुए समाज के नकारात्मक विचारो की भर्त्सना और श्रुति तथा प्रभा के साहस एवम्‌ कर्मठता की प्रशसा की। प्रभा और श्रुति की त्रासदी सुनने के पश्चात्‌ लक्ष्मी ने बताया कि पाँच वर्ष पूर्व उसका विवाह एक सम्पन्न परिवार मे हो चुका था, परन्तु वह एक वर्ष भी पति के घर सुखपूर्वक नही रह पायी। उसने बताया —

मेरे ब्याह कू दस महीने हुए थे। एक रात कू मै अपणी सास्सु की साथ चौक मे सो री थी। सवेरे के तीनेक बजे मेरी आँख खुली, जब मेरी सास्सु गाली दे—दे कै मेरी इज्जत निल्लाम कर री थी। क्या ? ऐसा व्यवहार क्यो कर रही थी तुम्हारी सास ? गरिमा ने आश्चर्य से पूछा।

मेरे ससुर के घर अर चचिया ससुर के घर के बीच मे एक गज—भर ऊँच्ची दीवाल खड़ी थी, जिसै कूदके कोई बालक भी इघे सै उघे जा सके था। मेरी सास्सु का कहणा था, मेरे चचिया सुसर का लौड्‌डा दिवाल कूदके मेरे धोरे आया था अर मेरी सास्सु कु जाग्गी हुई देखकै दरवाजे सै भग्गा था। बहण मेरी, मैन्ने भतेरे हाथ—पाँव पिट्‌टे, भतेरी सफाई दी, पर मेरी कौण सुण्णे वाला था वहाँ ? मेरी सास्सु तो बस एक बात कू लेके अड़के बैठगी— तेरी राज्जी सै तेरे ध् ाोरे ना आया था अर तैन्ने ना बुलाया था, तो तैन्ने रोला—रुक्का क्यूँ ना मचाया ? अब तम बताओ, मै सोयी हुई रोला—रुक्का कैसे मचात्ती?

तुम्हारे पति ने कुछ नही कहा तुम्हारे पक्ष मे अपनी माँ से ? गरिमा ने लक्ष्मी से प्रश्न किया।

मेरा घरवाला तो अपणी माँ सै बी दो कदम आग्गे बढ़गा ! उसने मेरे से बोलना छोड़ दिया अर मेरे धोरे आणा बन्द कर दिया ! मै एकाध बार उससे बोल्यी, तो कहण लग्या — मैन्ने तो तू उसी टैम त्याग दी थी, जिस टैम मुझे तेरे तिरया—चरित्तर का पता चला था। अब या तो तू अपणे आप इस घर कू छोड़के चली जा, या मुझे धक्के देके मार—मार के भगानी पड़ेगी ! बहण मेरी, ऊ दिण था, सो यू दिण है, मै उसी दिण अपणी माँ के घर आगी अर आज चार बरस होग्गे, मै यही सुख से रह री हूँ ! बाप—भईया मेरा दूसरा ब्याह करणा चाहवै थे, पर मै तैयार न हुई दूसरा ब्याह करण कू !

क्यो ? गरिमा ने पूछा।

मुझे लगे है, औरत की जिदगी मे दुक्ख—इ—दुक्ख है, ब्याही हो या कुँवारी, पीहर मे रहे या ससुराल मे ! औरतो को उसी दुख से मुक्त कराने के लिए हमने ‘महिला जागरुकता अभियान' आरम्भ किया है। आज हम यहाँ चिकी को इसी अभियान से जोड़ने के लिए आये है !

गरिमा की बात सुनकर लक्ष्मी हँसने लगी। जैसे उसने कोई बचकानी बात कह दी हो। उसने हँसते हुए कहा — यू ? यू द्रोपदी जुड़ेगी थारे अभियान से ? यू थारे अभियान से जुड़ जावेगी, तो पाँच—पाँच चन्डो कू काैण सम्हालेगा ? उनकी रात कैसे कटेगी !

यह क्या कह रही हो तुम लक्ष्मी ! प्रभा ने कहा!

सच्ची कह री हूँ मै, बिलकुल सच्च ! मेरे पाँच भाई है, पाँचो कू यू अकेल्ली थाम री है ! कहकर लक्ष्मी चिकी को धिक्कारने की मुद्रा मे हँसी।

तुम्हारी माँ कुछ नही कहती ? प्रभा ने पुनः प्रश्न किया। मेरी माँ कुन्ती है ! अपणे बेट्‌टो कू भित्तर भेजके ऊ बाहर पहरा देवे है !

चिकी ? गरिमा ने आश्चर्य और प्रश्न का भाव प्रकट किया। चिकी बिचारी के कहवेगी ? इसमे दम होत्ता तो मेरे भाईयो की हिम्मत थी, वे इसके धोरे तक फटक जात्ते ! पर इसकी किस्मत फुट्‌टी है, पच्चीस बरस तक कमीना बाप और अब मेरे पाँच भाई... ! लच्छो ! क्या कह रही हो तुम, सोच—समझकर बोला करो !

पुष्पा ने लक्ष्मी को झिड़ककर कहा!

क्यूँ, मै झूँठ बोल री हूँ ? इसके गाँव की होके भी तमै कोई बेरा नी, पर मै जाणूँ हूँ, इसके कमीणे बाप की करतूत ! उसणे इसकी साथ... ! सबकू पता है इसकी बड़ी बहण ब्याह कू अपणे पेट मे बाप का पाप लेके ससुराल गयी थी। ऊ तो भला हो उसकी बुआ का, जिसणे उसका पाप गिरवा के बात सिम्हाल ली अर इसकी बहण की गृहस्थी बचा ली !

लच्छो, तुम्हे ये सब बाते किसने बतायी ? गरिमा ने पूछा। इसणे इ बतायी है ! मै इससे रोज कहूँ हूँ, सिर ऊप्पर उठाके जीणा सीख, पर इसकी हिम्मत कोण्या होत्ती अड़के जीणे की ! हमे अपने अभियान के माध्यम से ऐसी ही स्त्रियो मे जागरुकता लाना है, लच्छो ! प्रभा और श्रुति ने एक साथ कहा।

इसे जगाणा तो बहोत मुसकिल काम है ! मै जाग्गी—जुग्गी कैसी हूँ ? मुझे जोड़ो अपणे अभियाण से अर बताओ मुझे क्या करणा है। मै बारवी तक पढ़ी हूँ ! सीणा—पिरोणा सब आवे है। अपणे दम पे अर अपणी कमायी पे जी री हूँ अब भी। टेलीविजण पे किसी हीरोइन कू जिस कपड़े कू एक बेर पहरे हुए देख ल्यूँ हूँ, अगले दिण उसी डिजैण कू तैयार करके...! यह कहते—कहते अपणा वाक्य बीच मे ही छोड़कर लक्ष्मी उठी और भिन्न—भिन्न डिजाइनो वाले कपड़े लाकर ढेर लगा दिया, जो उसने सिलकर तैयार किये थे। गरिमा, प्रभा और श्रुति उन डिजाइनो को देखकर लक्ष्मी की प्रतिभा से आश्चर्यचकित हो रही थी। उन्हे कुछ सूझ नही रहा थ कि क्या कहे। तभी अथर्व ने कहा —

लच्छो जी ! आप हमारे साथ शहर मे रह सकती हो ? अब तो यू गाँव बी सहर हो रा है !

मेरा मतलब है, इस अभियान मे काम करने के लिए घर से अलग हमारे साथ रहने मे आपको प्रॉब्लम तो नही होगी ? आप चाहेगी, तो रात मे अपने घर पर आ सकती है।

भाई, अब मेरा घर है कहाँ ? यू घर मेरे भाईयो का है। अर मेरे घरवाले ने मै काढ़के घर से बाहर कर दी थी चार बरस पहले ! मै तो खुद ही थारे साथ चलणे कू तैयार हो री हूँ। मरणे से पहले मै भी थारे सहारे से कुछ भला काम कर सकूँ, इससे बढ़िया के हो सके है !

ठीक है, लच्छो जी ! इस अभियान की सफलता आप जैसी साहसी और जागरूक महिलाओ पर ही निर्भर है ! अथर्व ने कहा, तो श्रुति ने आगे बढ़कर कहा —

हाँ ठीक है, लेकिन हमारे अभियान का उद्‌देश्य जगी हुई महिलाओ को जगाना नही, सोयी हुई और निराश हो चुकी महिलाओ को जगाना और उनमे आशा का सचार करना है। कि वे अपने साथ हो रहे अत्याचारो से मुक्त हो सके !

श्रुति ! तुम्हारा स्वभाव इतना विद्रोही हो गया है, सही बात का भी विद्रोह करने लगती हो !

अथर्व का आशय था कि लक्ष्मी जैसे कार्यकर्ता इस अभियान को सफल बना सकते है ! प्रभा ने श्रुति को समझाते हुए कहा।

अगले ही क्षण उसने कार्यक्रम को आगे बढ़ाने की दिशा मे प्रस्ताव रखा — अब हमे दो भागो बँटकर अलग—अलग स्थानो पर जाकर लोगो से सम्पर्क करना चाहिए, ताकि हमारा अभियान गति पकड़ सके और सगठन का विस्तार करने का दायित्व—भार हम यथार्थ रूप मे ग्रहण कर सके। मेरा विचार है कि मै, श्रुति और पुष्पा भाभी एक टीम मे काम करे और अथर्व, लक्ष्मी और गरिमा भाभी जी दूसरी टीम के रूप मे ! आप सबका इस विषय मे क्या विचार है ? प्रभा मै पहले ही कह चुकी हूँ कि मै अभी इस अभियान मे सक्रिय भूमिका नही निभा सकती ! गरिमा ने प्रभा के विचार का विरोध करते हुए कहा। गरिमा के शब्दो को सुनकर और उसकी भाव—भगिमा को देखकर लक्ष्मी गम्भीर सोच मे पड़ गयी। कुछ क्षणो तक वह विचारमग्न मुद्रा मे गरिमा को घूरती रही। तदुपरान्त उसने

गरिमा से उपहास और प्रश्नात्मक शैली मे कहा —

वाह जिज्जी, दूसरो को जगाणे चल पड़ी हो ! तमे पहले खुद जागणा पड़ेगा, जभी दूसरो को जगा सकोगी तम !

ऐसी बात नही है लक्ष्मी, जैसी तुम समझ रही हो। मेरी स्थिति तुम सबसे अलग है। मेरा एक बेटा है, पति है, सास—ससुर है, उन सबके साथ गाँव मे रहती हूँ ! मै उन सबकी सहमति से ही इस अभियान मे सक्रिय भूमिका निभा सकती हूँ। लक्ष्मी को समझाने के पश्चात्‌ गरिमा ने प्रभा से कहा — प्रभा तुम यह भली—भाँति समझ लो, मै न तो अकेली हूँ और न ही तुम्हारी तरह स्वतत्र हूँ ! इस समय कोई भी निर्णय लेने से पहले अपने बेटे का हित—अहित सोचना मेरी पहली जिम्मेदारी है। मेरे बेटे को अपने माता—पिता का स्नेह और देखभाल मिले, इसके लिए मुझे प्रत्येक कदम पर और प्रत्येक विषय मे पति की अपेक्षा है। उनके बिना मै कोई भी निर्णय नही ले सकती!

भाभी, स्त्रियो को उनकी इसी मानसिक—परतत्रता से स्वतत्र कराना तो इस अभियान का उद्‌देश्य है ! स्त्रियो की इसी सोच का, इसी ममता का और पुरुष के बिना स्वय को अबला—अशक्त अनुभव करने के एहसास का लाभ यह पुरुष प्रधान—समाज सदियो से उठाता आ रहा है। सत्य तो यह है कि स्त्री वास्तव मे अबला नही है, बल्कि पुरुष की विकृत सोच ने उसे अबला बना दिया है। अब समय आ गया है कि पुरुषवादी मानसिकता से मुक्त होकर स्त्री आगे बढे ! श्रुति ने गरिमा को अप्रत्यक्ष्तः पुरुषवादी सोच को परिपुष्ट करने वाली और स्वय को अबला समझकर पुरुष का शासन सवीकार करने वाली कह दिया। गरिमा को श्रुति का यह आरोप स्वीकार्य नही था। अतः उसने स्पष्टीकरण देकर कहा —

श्रुति, जिसे तू मानसिक परतत्रता कह रही है, वह सोच सफल दामपत्य—जीवन के लिए आवश्यक है। दामपत्य—जीवन मे स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के दो पहिये की भाँति है, जिन्हे साथ—साथ चलना होता है ; एक ही दिशा मे चलना होता है। तू अभी इस गूढ़ विषय को नही समझ सकेगी !

भाभी, तो क्या हम यह समझ ले कि आप इस अभियान मे हमारा साथ नही दे रही हो ? प्रभा ने कहा।

मैने ऐसा तो नही कहा। मै बस थोड़ा—सा समय चाहती हूँ। मुझे पूरा विश्वास है, आशुतोष को को कोई आपत्ति नही होगी तुम्हारे अभियान मे मेरी सक्रिय भूमिका से। मै चाहती हूँ, अपने परिवार के साथ रहते हुए तुम्हारे अभियान के लिए कार्य करूँ ! मै अशुतोष से निवेदन करुँगी कि बिट्‌टू की अच्छी शिक्षा के लिए हम दिल्ली मे आकर रहे, ताकि वे गाँव के आने—जाने के कष्ट से बच जाएँ और मुझे भी घर की दहलीज के बाहर आकर कुछ करने का अवसर प्राप्त हो सके।

गरिमा के विचार से सभी सहमत तो हो गये। प्रभा ने उसका समर्थन करते हुए कहा कि किसी भी परिवार के लिए उसके परिवार का महत्व सर्वोपरि है। रूढ़िवाद, प्रगतिवाद, पुरुषवाद और स्त्रीवाद आदि सभी से परिवार ऊपर है, इसलिए गरिमा जब और जैसे सम्भव होगा ‘महिला जागरुकता अभियान' मे अपना सहयोग दे सकती है।

इसके बाद उसी समय टीम ने चिकी के घर से वापिस जाने का कार्यक्रम बनाया। कार्यक्रम मे निश्चित हुआ कि पुष्पा और लक्ष्मी टीम मे पूर्णकालिक सदस्य के रूप मे सम्मिलित रहेगी। कार्यक्रम के अनुसार सभी लोग चिकी से पुनः भेट करने की आवश्यकता की बात कहते हुए वहाँ से तत्काल विदा हो गये। रास्ते मे चलते—चलते विचार—विमर्ष करते हुए निर्णय लिया गया कि अपना साप्ताहिक पत्र—‘दहलीज के पार' इसी माह से प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया जाए। इस साप्ताहिक पत्र मे सहयोग के लिए गरिमा से प्रभा ने आग्रह किया कि वह प्रथम पत्र मे प्रकाशित करने के लिए कुछ सामग्री तैयार करे और आशुतोष के माध्यम से भिजवा दे, अथर्व उस सामग्री को उसके ऑफिस से प्राप्त कर लेगा। गरिमा ने प्रभा का आग्रह सहज ही स्वीकार कर लिया और गाँव लौटने की आज्ञा माँगी। उसी समय आशुतोष का फोन आया कि वह गरिमा को लिवाकर लाने के लिए आ रहा है। गरिमा ने आशुतोष को बताया कि वह बस स्टॉप पर उसकी प्रतीक्षा करे। शीघ्र ही गरिमा बस स्टॉप पर पहुँच गयी और आशुतोष के साथ देर रात्रि तक घर अपने पहुँच गयी।

***