Advertisement of fear and Myth. - 2 in Hindi Motivational Stories by Lakshmi Narayan Panna books and stories PDF | भय और आडम्बर का प्रचार - भगवान को चुनौती - 2

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भय और आडम्बर का प्रचार - भगवान को चुनौती - 2

Part-2
Chalenge to God
एक मंदिर गया था । उस मंदिर में बहुत भीड़ लगती है। जब मैं प्रसाद चढ़ाने जा रहा था तो देखा , लाइन में मुझसे पहले लगा एक आदमी जब मूर्ति तक पहुंचा , जैसे ही प्रसाद चढ़ाने के लिए वह आगे बढ़ा पुजारी ने रोक दिया । पुजारी बोला कि तुम प्रसाद नही चढा सकते मुझे दो मैं चढ़ाऊंगा ।
उस आदमी ने पूंछा - क्यों भाई ?
मैं क्यों नही चढ़ा सकता ,क्या भगवान मेरे हाथ से नही लेंगे ?
पुजारी बोला- ऐसी बात नही है यहाँ प्रसाद हम लोग ही चढ़ाते हैं ।
उस आदमी ने तुरंत जवाब दिया इसका मतलब की तुम चाहते हो कि तुम प्रसाद चढ़ाओ और सारी मिठाई रख लो , खाली डिब्बे में एक दो पीस रखकर मुझे वापस करो । क्या इतने सारे लड्डू पेड़े भगवान खा जाते हैं?
भगवान अगर मेरी श्रद्धा से नही खुश होगा तो क्या वह इस मिठाई का भूखा है ?
तुम लोग यही करते हो सब मिठाई निकालकर रख लेते हो ।अपने अपने घर ले जाते हो जो बचती है उसे फिर बेंच देते हो । वही मिठाई खरीदकर कोई फिर चढ़ाता है । तुम लोग तो आदमी ही नही अपने भगवान को भी मूर्ख बनाते हो ।
इतना कह कर उस आदमी ने डिब्बे से चुटकी-चुटकी कर मिठाई निकालीऔर सब मूर्तियों पर फेंक कर बोला भगवान अगर लेना हो तो ले लेना नही तो इन पुजारियों के गुलाम बने रहो ।
पुजारी मुँह बनाता रहा , उस आदमी ने एक बात और कही , पुजारी यह मिठाई तुम्हारे बच्चे नही मेरे बच्चे खाएंगे और चला गया ।
वह आदमी तो चला गया मगर मेरी समझ में आ गया कि वह बिकुल सही कह रहा था । मैं उस दिन बिना प्रसाद चढाये ही वापस आ गया क्योंकि उस आदमी की तरह मैं झगड़ा तो कर नही सकता था । उस दिन जब मैं घर आया तो तुम सबने अच्छे से मिठाई खाई और खुश हुए । अगर मैं प्रसाद चढ़ाने के लिए उस पुजारी को देता तो वह सब रख लेता और मैं प्रसाद के रूप में तुम सबको चुटकी-चुटकी प्रसाद देकर सन्तोष कर लेता । तब से मैन सोंचा की ज्यादा मन्दिर-मस्जिद नही जाऊंगा बस अपनी मेहनत पर भरोसा करूँगा । जब मैं ऐसा करने लगा तो समय पर फसल तैयार कर पाता था , अनाज खराब नही होता था । पहले तो सब काम धंधा छोड़कर दर-दर भटकता था फिर भी खाने को लाले थे । अभी हम बहुत अमीर नही , तो क्या हुआ कम से कम दो वक़्त की रोटी तो मिल जाती है ।
इसके बाद एक दिन वही शनी की साढ़े साती वाला पुजारी आ गया । मैं समझ गया आज फिर यह आधा किलो सरसों का तेल और ढाई शेर राशन ले जाएगा । फिर भी मैंने ब्राह्मण को अपने दरवाजे से भगाना ठीक नही समझा । उसे बिठाया और कहा पंडित जी यह साढ़े साती कब खत्म होगी ? वह नाराज हो गया , कहने लगा तुम तो जुबान चलाने लगे । मैंने कहा पंडितजी मैं जुबान नही चला रहा कई साल हो गए आखिर यह साढ़े साती दूर होगी कि नही । ब्राह्मण ने कहा जब समय आएगा खत्म हो जाएगी तुम पूजा तो करवाओ जिससे कि तुम्हारा कोई नुकसान न हो । मुझे बहुत गुस्सा आ गया जब यह अपने समय पर ही खत्म होगी तो यह ब्राह्मण मुझसे इतना तेल और राशन किस लिए ले जाता है । मैंने कहा पंडित जी आज पूजा कर दीजिए इसके बाद मैं पूजा नही करवाऊंगा । वह और भड़क गया कहने लगा अगर बीच में पूजा छोड़ी तो यह साढ़े साती कभी खत्म नही होगी । मैंने भी सोंच लिया था साढ़े साती खत्म हो या न हो अब जो कमाऊंगा वह अपने बच्चों के लिए । जब वह ज्यादा ही अंट-संट कहने लगा तो मैंने लाठी उठाई और कहा भाग जाओ पंडित दोबारा मेरे दरवाजे मत आना नही तो ठीक नही होगा । गाँव घर के कुछ लोग इस बात के लिए मुझसे नाराज भी हुए , लेकिन मैंने किसी की नही सुनी । ब्राह्मण चला गया , मैं अपने खेत में लगन से मेहनत करने लगा । तब से पैदावार भी सुधर गई और खाने भर का अनाज भी होने लगा । जल्द ही जमींदारी भी खत्म हो गई जमीनें किसानों के नाम दर्ज हो गईं । जमींदारी के कमरतोड़ लगान से भी छुटकारा मिल गया । स्थिति सुधारने लगी , शनी की साढ़े साती उस ब्राह्मण के साथ ही चली गई । अगर उस दिन मैं दृढ़ निश्चय से उसका विरोध न करता । उसकी मनगढ़ंत बातों पर भरोसा करके अँधेरे में नाचता रहता तो आज जो तुम स्कूल जाकर पढ़ाई करते हो वह सम्भव न होता । बेटा मैने बहुत दुःख और तकलीफें उठाई , तब जाकर कहीं समझ में आया कि जो हो रहा है उसे होने दो अपना काम करो और मेहनत की रोटी खाओ मन्दिर-मस्जिद में जाकर कमाई हुई दौलत मत लुटाओ ।
इस प्रकार से पर्चे छपवाकर कुछ लोग ढोंग का प्रचार करते हैं और तुम्हारे जैसे लोग डर के मारे पर्चे बांट कर उनकी मदद करते हैं । हो सकता हो आस पास के कुछ लोगों का इससे कोई व्यक्तिगत लाभ हो । शायद किसी छपाई मशीन वाले ने अपना धंधा बढ़ाने के लिए यह पर्चे छपवाए हों ।
पिताजी ने मुझे समझाने और मेरे भीतर बैठे डर को निकालने की पूरी कोशिश की । उनके इस प्रयास से मुझे बल मिला और डर का परिमाण भी कम हुआ परन्तु आस पास के आडम्बर वाले माहौल के कारण कहीं न कहीं मन में शंका जरूर बनी रही । जहाँ पर मैं रहता था वहाँ का वातावरण ही कुछ ऐसा था मेरे जीजा जी आज भी घण्टों पोस्टरों और तस्वीरों के सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं । इसी कारण मैं स्वयं को बदल नही पा रहा था धीरे - धीरे करके दैवीय डर मुझे अपनी गिरफ्त में ले रहा था । मैं ब्रत उपवास भी करने लगा था क्योंकि पास- पड़ोस के लगभग सभी लोग करते थे । मुझमें बदलाव तब हुआ जब कुछ वर्षों बाद नटखट स्वभाव के कारण खेल खेल में दूसरे बच्चों से झगड़ा होने की वजह से दीदी नाराज हुआ करती थीं , इसलिए दीदी के घर को छोड़ कर मैं अपने गाँव में आकर ही पढ़ने लगा था ।
बात उन दिनों की जब बरसात का मौसम था चारों तरफ पानी ही पानी भरा था खेत खलिहान जलमग्न हो गए थे । गाँव में जानवरों के लिए चारे का प्रबन्ध करना भी मुश्किल हो गया था । जिनके पास चारे का पर्याप्त भण्डार था उनको छोड़ ज्यादतर लोग ऊँचे स्थानों पर या किसी रिश्तेदार के यहाँ अपने जानवर लेकर चले गए थे । मेरे मम्मी-पापा भी अपनी दो भैंसें लेकर मामा के घर गए हुए थे । उन दिनों नवरात चल रहे थे हमेशा की तरह इस बार भी मैंने ब्रत रखा था । मेरी देखादेखी मेरी छोटी बहन ने भी ब्रत रखा । पहले तो मैं पहला और आखिरी दिन ही उपवास करता था । परन्तु इस बार मैंने पूरे नौ दिन उपवास करने का निर्णय लिया । मुझे देखकर मेरी छोटी बहन भी कहने लगी कि मैं भी पूरे नौ दिन उपवास रहूंगी । बचपन होता ही ऐसा है हम वही करते और सीखते हैं जो हमारे घर और पास पड़ोस की संस्कृति होती है । क्योंकि बच्चों को बड़ों की कही हर बात का यकीन जो हो जाता है । उनके मन में बहुत सारे प्रश्न तो होते हैं परन्तु किसी बड़े व्यक्ति के उत्तरों से वे सन्तुष्ट भी हो जाते हैं । उत्तर सही है या गलत इस बात से फर्क नही पड़ता । क्योंकि उन्हें सही उत्तर पता ही नही होता तो शक भी कैसा ? अक्सर ही बड़े बूढ़ों को कहते सुनता था कि जब सच्चे मन से उपवास किया जाता है तो भूख भी नही लगती , क्योंकि भगवान शक्ति देते हैं । मुझे भी लगता था वे सही कहते हैं । पहले तो कभी पूरे नौ दिनों का उपवास किया नही था । मैंने सोंचा की जब माता जी की कृपा रहेगी तो नौ दिन क्या हैं ! एक दिन जैसे तैसे बीत गया दूसरे दिन थोड़ा कष्ट हुआ । वैसे भी लोग कहते कुछ भी हों कि ब्रत में भगवान शक्ति देते हैं इसलिए भूख नही लगती । लेकिन मैंने देखा है उन लोगों को , उपवास के दिनों में वे दिनभर कचर -पचर कुछ न कुछ खाया पिया करते ही हैं । भले ही रोज सन्तुलित आहार न लेते हों लेकिन उपवास के दिनों वे अच्छी चीजों को ही आहार के रूप में लेते हैं । जैसे कि दूध , फल (सूखे व ताजे दोनो प्रकार के) , घी में तले हुए आलू के साथ नमक (फरहरी नमक ) भी लेते ही हैं । तब भूख लगने का सवाल ही नही । बल्कि यह सब स्वास्थ्य के लिए और भी लाभदायक हो जाता है । फल लेने से पर्याप्त मात्रा में रफेज मिल जाता जो पाचन को सुदृढ़ करता है । फलों से प्राप्त विटामिन्स विभिन्न रोगों से मुक्ति प्रदान करती हैं । दूध से तो प्रोटीन , विटामिन्स , वसा और ग्लूकोज की भी पूर्ति हो जाती है । वास्तव में वह उपवास नही होता । यह सन्तुलित आहार लेने का एक अवसर है जब व्यक्ति ढोंग ढकोसला ही सही परन्तु इस डर के कारण उपवास रखता है और भूख शांत करने के लिए प्रतिबन्धत पदार्थों को भोजन के रूप में न लेकर , सन्तुलित आहार लेता है । उस समय मुझे इतना ज्ञान तो था नही की उपवास का सही तरीका और लाभ क्या है ? वास्तव में उपवास से कोई देवी देवता खुश नही होता । यह तो डाइटिंग का एक तरीका मात्र है जो व्यक्ति अनजाने और धोखे में करता है । उपवास के और भी बहुत से कारण और लाभ मैं आगे बताऊंगा पहले बात करते हैं मेरे उपवास का क्या हुआ ? दूसरा दिन बीतते -बीतते भूख हावी होने लगी मम्मी-पापा तो घर पर थे ही नही आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी न होने के कारण पैसे भी उतने ही थे कि बाजार से सब्जी तेल नमक को भी कम पड़ जाएं । भैंसें भी घर पर नही थीं कि दूध दही ही खा सकें । थोड़े बहुत आलू और वही फरहरी नमक इसके अलावा पानी । शाम होते-होते भूख बहुत तेज होने लगी ।
मैंने बहन से पूछा की भूख तो नही लग रही ? तो उसने कहा- नही पेट मे दर्द हो रहा है ।
वैसे दर्द तो मेरे पेट में भी हो रहा था लेकिन यह खराब हाज़मे का दर्द नही था । यह दर्द तो भूख के कारण था । उस वक़्त मुझे विज्ञान की अधिक जानकारी नही थी , परन्तु भूख और पेटदर्द में फर्क पता था । उपवास तोड़ने की गलती मैं नही करना चाह रहा था । घर में खाने के लिए ऐसा कुछ भी नही था जो उपवास में खाया जा सके । आलू भी खत्म हो चुके थे बाजार अगले दिन शाम को थी तब तक तो भूख को शांत करने के लिए कुछ न कुछ चाहिए ही था । रास्ता सिर्फ एक था


शेष अगले भाग में......