भाग-2 से आगे की कहानी-
(इस भाग में लिखी बातें किसी धर्म या समुदाय विशेष को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि समाज में फैली बुराइयों के पीछे का दर्द समझाना है। मैं अपने पाठकों से वादा करता हूँ कि कहानी का अंत शानदार ही होगा)
बेटे की अर्थी का बोझ सारी जिंदगी अब नन्नू के कंधों पर रहने वाला था। नन्नू सारा क्रिया कर्म करके अपने घर आ गया पर चूल्हा जलाने की हिम्मत किसी मे न हुई। अब तो घर में आये हुए कुछ मेहमान अपने घर वापिस जा चुके थे और कुछ ही लोग घर मे बचे थे। नन्नू ने सोंचा की जब तक घर पर मेहमान है और थोड़ी चहल पहल है ठीक है पर जब ये सब चले जायेंगे तो यही दीवारें हमको काटने को दौड़ेंगी। आखिर कैसे संभालूंगा पत्नी और बेटी को। आखिरकार वो दिन आ ही गया जब घर से सब चले गए और घर फिर से सूना हो गया।
अब न तो घर मे खाना बनता और न ही परिवार एक दूसरे से बात ही करता। सब एक दूसरे से नज़रे चुराते और अकेले में जाके रोते। चौहान साहब अभी तक हैरान थे कि उनके बेटे शेखर की कोई खबर न थी। न कोई चिट्ठी न कोई संदेश। चौहान साहब और उनके बड़े बेटे श्रीकांत ने दिल्ली जाके अपने बेटे के बारे में पता करने की सोंची।
नन्नू का परिवार यूं तो टूट गया था पर बहन मनोरमा का मन यह मानने को तैयार नही था कि उसका भाई अब नहीं रहा। उसने सोंचा अपने भाई को याद रखने का और सम्मान दिलाने के लिए कुछ तो करना होगा। आखिर उसने निश्चय कर ही लिया कि अपने भाई के जाने का वो दुख नही मनाएगी बल्कि अपने शहीद भाई को उचित सम्मान दिलाएगी। उचित सम्मान दिलाने के लिए मनोरमा, नन्नू और कुछ गांव वालों ने कलेक्टर साहब से मिलके गांव का नाम बदलकर शहीद बेटे के नाम पर रखने और बेटे की एक बड़ी सी मूर्ति गांव के चौराहे पर स्थापित करने का आग्रह किया। कलेक्टर साहब को यह प्रस्ताव अच्छा लगा और उन्होंने नन्नू को और गांव वालों को इसपर विचार करके जवाब देने का समय मांगा।
सभी गांव वाले शैलेन्द्र के इस बलिदान से बहुत प्रभावित थे। गांव वालों ने कलेक्टर साहब के जवाब का इंतजार किये बिना ही चौराहे पर एक मूर्ति का निर्माण आरंभ कर दिया। यह सूचना मिलते ही कि कुछ गॉंव वाले गांव का नाम किसी नीची जाति के आदमी के नाम के रखना चाहते है और चौराहे पर एक मूर्ति भी लगाना चाहते है, गांव के ऊंची जाति के लोग संघर्ष पर उतर आए। उनको यह बिल्कुल भी पसंद नही आया कि इनके होते हुए किसी नीच जाती के आदमी के नाम पर गांव का नाम हो और चौराहे पर उसकी मूर्ति भी लगे चाहे उस आदमी ने अपने देश की लिए अपने आपको शहीद ही क्यों न कर लिया हो। जो चौहान साहब दिल्ली जाने वाले रहे अपने बेटे के बारे में पता करने के लिए वही चौहान साहब ऊंची जाति वालों की तरफ से सबसे आगे थे।
चौहन साहब ऊंची गर्जना से बोले- इस गांव में किसी नीच जाती के नाम से न कोई कार्य पहले कभी हुआ था और न ही कभी होगा। जो इंसान मर गया वो किस काम का एक मेरे बेटे को देखो दुश्मनों के छक्के तो छुड़ा ही चुका है अब जल्दी ही वापिस आ जायेगा। अगर लगानी ही है तो मूर्ति मेरे बेटे की लगाओ अगर गांव का नाम बदलना ही है तो मेरे बेटे के नाम पर रखो, वैसे भी इन भूखे नंगे नीच लोगो ने गांव को दिया ही क्या है बीमारी, गंदगी, पिछड़ापन और भूख। मेहनत तो इन सबसे कभी हुई ही नही है। अगर हम सब इनको काम धंधा न दे तो ये सारे भूख और बीमारी से ही मर जाये। ये चले है गांव का नाम बदलने। तुम सारे जिंदगी भर सिर्फ हमारा कचरा साफ करो बाकी सब हम कर लेंगे।
यह सुनके सभी गांव वालों को अत्यंत दुःख हुआ और नन्नू की आंखों से तो आंसू छलक आये।
बोले- मालिक आपका कथन सही है हमने और हमारे बाप दादा ने शायद कुछ नही दिया होगा आपको और इस देश को पर आज मेरे बेटे ने देश के लिए कुर्बान होकर ये फर्क मिटा दिया है इसलिए आप लोग भी इस कार्य मे हमारा साथ दे जिससे एक शहीद को उचित सम्मान मिल सके। मालिक उसके बाद आप जो कहेंगे हम सबके लिए राजी है। आप मालिक हो आप हमारे माईबाप हो। आपका भी बेटा सरहद पर था मेरे बेटे के साथ दोनों ने दुश्मनों को मिल कर हराया है जैसे आपके बेटे ने वैसे ही मेरे बेटे ने फिर दोनों में फर्क कैसा? आपका बेटा भी तो मेरे बेटे जैसा ही है।
चौहान साहब भयंकर गुस्से में आग बबूला होकर बोले- अपनी औकात में रहो नीच आदमी। तम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे बेटे के बारे में बोलने की। खाल उधड़वा दी जाएगी। जो तुमने और तुम्हारे बाप दादाओं ने सारी जिंदगी किया है वही तुम्हारा नसीब है ये नाम पर गांव और चौराहे पर मूर्ति नहीं। जवान बेटियों के बाप हो और समझदार भी हो।
यह सब सुनके सभी गांव वाले डर गए और अपने अपने घर जाने लगे। तभी नन्नू की बेटी मनोरमा सभी के सामने आके बोली- काका, हम सब तो सोंच रहे थे कि जैसे आपका बेटा सेना में है तो आप हमारा दर्द समझ सकेंगे। पर आप तो बातों ही बातों में कहीं और ही चले गए। हम चाहे दूसरे के लिए अपने प्राण ही क्यूँ न न्योछावर कर दे पर आप लोंगो के दिल मे जगह कभी नहीं बना सकते। जब पढ़ना चाहते थे तब अपने हमसे अपने संडास साफ कराए जब खेती करना चाहते थे तब हमारी जमीनें हड़प ली जब कमाना चाहते थे तब आपने अपने ही घर पर गुलामी करवाई और जब इज़्ज़त बचानी चाही तब अपन ही हमारी इज़्ज़त से खेला। काका क्या हम इज़्ज़त से एक सांस भी नहीं ले सकते। हम मंदिर तक नहीं जा सकते क्यूंकि आपने तो हमसे हमारा भगवान तक छीन लिया है।
दर्द, गुस्से और दुख का अज़ीब से स्वर था उसकी आवाज़ में जिसे सुनके सभी का दिल पिघल गया पर चौहान साहब किसी अलग ही मिट्टी से बने लगते थे वो नहीं पिघले। मनोरमा को घूरते ही रहे। चौहान साहब का बेटा श्रीकांत भी पीछे खड़ा मनोरमा को घूरता जा रहा था और मन ही मन मुस्कुरा रहा था।
यह देख कर मनोरमा तिलमिला उठी और बोली- काका, चाहे कुछ भी हो जाये मैं अपने भाई को उसके हक का सम्मान दिलाकर रहूंगी चाहे उसके लिए मेरी जान ही क्यों न चली जाए। आप हमारे भगवान को हमसे चाहे कितना भी दूर कर दो पर इस बार हमारे भगवान हमारे ही साथ होंगे तुम्हारे नहीं।
To be continued.... भाग-4
.....देव.