संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि
(10)
बदलते समीकरण
मधु मक्खियों को छेड़ना
किसी समय
मौत को दावत देना
कहा जाता था,
और शहद पाने के लिये
तो उन्हें आग की
लपटों में भी
झुलसाया जाता था ।
किन्तु अब तो
शहद के लिये लोग
मधुमक्खियों को भी
पालने लगे हैं,
और उसे भी
एक विकसित
उद्योग की तरह
मानने लगे हैं ।
लगता है,
बदलते परिवेश में
दोंनो चालाकी और
समझदारी से काम ले रहे हैं
और आपस में समझोतों की
नई -नई पृष्ठभूमियाँ
तलाश रहे हैं ।
***
राजघाट में उदास हिन्दी
राजघाट में उदास हिन्दी-
गांधी समाधि के पास बैठी,
अपना दुखड़ा सुना रही थी
ओैर लगातार अपनी उपेक्षा पर
आँसुओं की धारा बहा रही थी।
तभी एक सरकारी दूत आया,
उसे पुचकारा और फरमाया
चल उठ-अब मुँह- हाथ धो ले
अपने आँचल से बहते
आँसुओं को पोंछ ले
देख तेरे लिये फिर भारत सरकार का
अंग्रेजी में सरकुलर आया है,
जिसमें चौदह सितम्बर को
हिन्दी-डे सेलिब्रेट करने का
आदेश फरमाया है ।
तुझे इस वर्ष भी
पूरे जोश खरोश के साथ
याद किया जायेगा -
देश के सभी कार्यालयों को
फूल मालाओं और बैनरों से
सजाया -सॅंवारा जाएगा ।
तेरे त्याग, बलिदान और
राष्ट्र भक्ति के किस्से,
जगह-जगह सुनाये जायेंगे ।
समाचार पत्रों में
तेरे सभी हितैषियों के भी
अनेक फोटो नजर आएँगे ।
तू व्यर्थ ही यहाँ बैठे -बैठे
गांधी जी को
डिस्टर्ब कर रही है ।
और हमारी अच्छी खासी
सरकार को
बदनाम कर रही है ।
***
जीवन अनुभूतियाँ
सुन्दर तन से होत क्या, मन सुन्दर अति होय ।
सुख -दुख के साथी बनें, सफल जिंदगी होय ।।
आस निराशा से भली, तन- मन की है जान ।
समझ लिया जिसने इसे, जीता सीना तान ।।
चिन्ता यदि मन में बसे, चिता सजाएँ रोज ।
उससे नाता तोड़ दे, फिर मन झूमे रोज ।।
दुख अपनों सॅंग बाँटिए, मन हल्का हो जाय ।
उनके सँग न बाँटिए, जो दूना कर ज़ाय ।।
प्रेम और विश्वास ही, जीवन का आधार ।
यदि इनको ही खो दिया, तो जीवन बेकार ।।
निकले जब हम द्वार स़े, जाना तीरथ धाम ।
मात - पिता घर आ गए, हो गए चारों -धाम ।।
जब थे माँ की कोख में, चला रहे थे लात ।
बाहर आकर मत करो, फिर वैसा प्रतिघात ।।
लाख जतन करता रहा, दिल को सका न जीत ।
दिल से जब दिल मिल गया, जीत लिया दिल मीत ।।
***
इन्द्र के देवदूतों का हिन्दुस्तानी चुनावी दौरा....
भारत से आ रही शिकायतों से
स्वर्गवासी बुरी तरह झल्लाये,
इन्द्र के देवदूत-पुष्पक विमान से
सीधे भारत के दौरे पर चले आये ।
आते ही देखा, चुनावों का दौर
बड़े जोरों से चल रहा था ।
देश का हर मंत्री और नेता
आम जनता की खुशामद कर रहा था ।
कुछ नेता खुदा के नाम पर
ठेकेदारी के टेंडर भर रहे थे,
तो कुछ भगवान के नाम पर
अपनी राजनीति की गोटियाँ बिछा रहे थे ।
कुछ नेता इंसानों के बीच
जात पाँत की खाईयाँ खोद रहे थे ।
तो कुछ भाषा और क्षेत्रवाद को लेकर
अपना लॅंगोट घुमा रहे थे ।
जिसे देखो वही
भाषण देता नजर आ रहा था ।
कोरे आश्वासनों से
गरीब जनता को लुभा रहा था ।
कोई ध्वनि प्रदूषण करके
जनता को बहरा बना रहा था ।
और कोई रात में
सोते हुए मतदाताओं को
आ- आकर जगा रहा था ।
देश का हर नेता
उसके उज्ज्वल भविष्य के
सपने दिखा रहा था ।
और बेचारी जनता को वह
दिन में ही तारे दिखा रहा था ।
जनता को ऐसी विपत्ति में देख कर
देव दूतों को बड़ी दया आयी ।
और दिल्ली पहुँचते ही उन्होंने
राष्ट्रपति भवन में खबर पहुंचाई
तुरंत ही मुलाकात की
घड़ी निश्चित करवाई ।
महामहिम जी,
पहले तो इस मुसीबत से घबराये,
फिर तुरंत ही आगवानी को चले आये ।
देव दूतों ने मिलते ही तुरंत प्रश्न दागा,
देश का सम्पूर्ण स्टेटमेंट माँगा ।
महामहिम जी,
यह सब क्या हो रहा है?
देश की गरीब जनता का पैसा
चुनावों में ही क्यों बह रहा है ?
मेहनतकश मजदूरों का बुरा हाल है,
बढ़ती हुयी महॅंगाई का
क्या आपको आभास है?
आज देश में कानून
सिर छिपाये रो रहा है,
हिंसा ओैर आतंकवाद का रावण
खिलखिला कर हॅंस रहा है ।
भ्रष्टाचार का दुर्योधन
इस देश की धरती को हिला रहा है ।
स्वर्ग में भी जाकर
वहाँ सबको डरा रहा है ।
बीच में ही देवदूतों को टोंककर,
महामहिम ने कहा श्रीमान,
मुझे भी इसका आभास है।
मेरे सामने भी देश का
सम्पूर्ण इतिहास है ।
मैं क्या करूँ ?
कुछ समझ में नहीं आ रहा है ।
मुझे भी देश का भविष्य
डूबता ही नजर आ रहा है ।
भारत की राजनीति से आज
सत्य और धर्म का विलोप हो गया है।
हमारे देश के कर्णधारों को
बस धन और कुर्सी से मोह हो गया है ।
इसलिए हे देवदूतो !
मेरा यह संदेश
भगवान तक अवश्य पहुँचा देना
और उस जगतनियंता को
यहाँ के सभी हालात बता देना ।
कब तक हम लोग देश की
दुर्दशा पर रोते रहेंगें ।
और बढ़ते अनाचार का बोझ
यॅूं ही ढोते रहेंगे ।
***
सरकारी व्यवस्था.....
एक सरकारी
चिड़िया घर में
जिस रोज
भूखे अजगर के पिंजड़े में
कुछ जिंदा मुर्गियाँ
परोसी जाती हैं ।
उस रोज
दर्शकों की भीड़
कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है ।
सरकारी मेहमान बना अजगर
किसी दार्शनिक मुद्रा में
अजगर करे ना चाकरी
पंछी करे ना काम ....
गुनगुनाता हुआ
मन ही मन हॅंसता रहता है ।
दर्शकगण कौतूहलवश
मौन खड़े होकर
मुर्गी को जिंदा निगलने की
लोमहर्षक लीला को निहारने
घंटों प्रतीक्षा करते रहते हैं ।
वहीं दूसरी ओर
पिंजड़े के एक किनारे दुबकी
बेचारी मुर्गियाँ
थर - थर काँप रही होती हैं।
और इस सरकारी व्यवस्था पर
आँसू बहा रही होती हैं ।
***
विचार सूक्तियाँ
कुछ सुख त्यागे तब बने, आँगन और मकान ।
आई जब संध्या घड़ी, हुए काल मेहमान ।।
सपनों में जीवन जिया, समझो बंटाढार ।
तन, मन, धन, अभिमान सब, बिछुड़ेंगें अधिकार ।।
मन में अहं ना पालिये, लगे कभी ना चोट ।
जीवन में भी फिर कभी, नहीं घुसेगी खोट ।।
ऐसी वाणी बोलिये, हर मन खुश हो जाय ।
बोली की ही शिष्टता, सब को सुख पहुँचाय ।।
खुशियाँ मिल कर बाँटिये, तन- मन तब हरषाय ।
जीवन की हर मुश्किलें, खुशियों में कट जाय ।।
चाहें सारे मतलबी, अपनी उन्नति होय ।
कंगाली में सब रहें, हमसे बड़ा न कोय ।।
गर्भाशय में मातु से, मिलता रहा दुलार ।
जन्मे तो उससे मिली, प्रेम भरी पुचकार ।।
बातें करिये धैर्य से, बात - बतकही होय ।
ना जाने कब किस घड़ी, चूक कहीं पर होय ।।
सुख- दुख जीवन की सड़क, सबको चलना होय ।
जो इसमें न चल सका, जीवन मुश्किल होय ।।
हार - जीत, सुख- दुख सभी, जीवन में है संग ।
जो इनमें है रम गया, बनता मस्त मलंग ।।
वाद और प्रतिवाद में, कभी फँसें न आप ।
है जीने की यह कला, कभी न उलझें आप ।।
साठ वर्ष के हो गये, कहें लोग सठियाय ।
पेंशन लो घर पर रहो, घर बैठो बतियाय ।।
घरवाली होती वही, जो घर रखे सहेज ।
द्वेष - ईर्ष्या - कलह से, सदा करे परहेज ।।
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जीवन छोटा है, सबका और.....
जीवन छोटा है, सबका और, बहुत पड़े हैं काम ।
क्यों बैठे हो फुरसत में अब, चलना है अविराम ।
चलना ही जब नियति बनी है, चलो सुबह और शाम ।
बढ़ना है नित पथ को गढ़ना, नहीं है अब आराम ।
जितना काम करोगे जग में, उतना होगा नाम ।
बातों में यदि लगे रहे तो, बस होगे बदनाम ।
रोड़े अटकाने वालों को, कुछ न सूझे काम ।
हाथ - बांध रोते रहते हैं, रहते हैं बेकाम ।
जीवन की जब साँझ ढलेगी, तो लगेगा पूर्ण विराम ।
जब तक यह काया चलती है, किये जा अविरल काम ।
कर्म भूमि की इस धरती में, बिखरा गीता ज्ञान ।
अपना कर्म करे जा बन्धू, फल देगा भगवान ।
अपने - अपने कर्म क्षेत्र में, करना होगा काम ।
तब जग में यह देश हमारा, बनेगा पावन - धाम ।
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कृतज्ञता अभिव्यक्त सबको कर रहा हॅूं.....
कृतज्ञता अभिव्यक्त सबको कर रहा हॅूं,
आभारी हूँ आभार ज्ञापित कर रहा हूँ ।
अब यहाँ की कुंजियाँ लो तुम सम्हालो,
अब बिदाई दो मुझे, मैं जा रहा हूँ ।
जब मैं आया था यहाँ अनजान था,
राह मुश्किल थी मगर विश्वास था ।
आपका सम्बल मिला तो चल दिया,
और चाही मंजिलों को पा लिया ।
सुख में, दुख में, संग कितने पल बिताये,
तीज और त्यौहार हिल-मिल सब मनाये।
बंधुत्व के हमने स्वरों में स्वर मिलाये,
स्नेह के हर भावों को तन-मन बसाये।
आपको अनजाने में यदि है सताया,
भूल वश यदि आपके मन को दुखाया ।
मित्र की इस धृष्टता को भूल जाना,
मित्र अपना ही समझ कर माफ करना ।
यदि सजा देना है तो निःसंदेह देना,
किन्तु दिल में तुम मुझे स्थान देना ।
याचना मैं फिर क्षमा की कर रहा हूँ,
विनत होकर आपसे फिर कह रहा हूँ
***