Mozil in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | मोज़ील

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मोज़ील

मोज़ील

त्रिलोचन ने पहली मर्तबा....... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इस लिए कि उस की तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टियर्स पर चला आया था।

आसमान बिलकुल साफ़ था। बादलों से बे-नियाज़, बहुत बड़े ख़ाकिस्तरी तबू की तरह सारी बंबई पर तना हुआ था। हद्द-ए-नज़र तक जगह जगह बत्तियां रौशन थीं। त्रिलोचन ने ऐसा महसूस किया था कि आसमान से बहुत सारे सितारे झड़ कर बिल्डिंगों से जो रात के अंधेरे में बड़े बड़े दरख़्त मालूम होती थीं, अटक गए हैं और जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहे हैं

त्रिलोचन के लिए ये बिलकुल एक नया तजुर्बा, एक नई कैफ़ियत थी....... रात को खुले आसमान के नीचे होना। उस ने महसूस किया कि वो चार बरस तक अपने फ़्लैट में क़ैद रहा और क़ुदरत की एक बहुत बड़ी नेअमत से महरूम। क़रीब क़रीब तीन बजे थे। हवा बेहद हल्की फुल्की थी। त्रिलोचन पंखे की मैकानिक्की हवा का आदी था जो उस के सारे वजूद को बोझल कर देती थी। सुबह उठ कर वो हमेशा यूं महसूस करता था। रात भर उस को मारा पीटा गया है। पर अब सुबह की क़ुदरती हवा में उस के जिस्म का रवां रवां, तर-ओ-ताज़गी चूस कर ख़ुश हो रहा था। जब वो ऊपर आया था तो उस का दिल-ओ-दिमाग़ सख़्त मुज़्तरिब और हैजान-ज़दा था। लेकिन आधे घंटे ही में वो इज़तिराब और हैजान जो उस को बहुत तंग कररहा था। किसी हद तक ठंडा हो गया था वो अब साफ़ तौर पर सोच सकता था।

कृपाल कौर और उस का सारा ख़ानदान....... मोहल्ले में था। जो कट्टर मुसलमानों का मर्कज़ था। यहां कई मकानों को आग लग चुकी थी कई जानें तल्फ़ हो चुकी थीं। त्रिलोचन इन सब को ले आया होता। मगर मुसीबत ये थी कि करफ़्यू नाफ़िज़ हो गया था और वो भी न जाने कितने घंटों का....... ग़ालिबन अड़तालीस घंटों का....... और त्रिलोचन लाज़िमन मग़्लूब था आस पास सब मुसलमान थे, बड़े ख़ौफ़-नाक क़िस्म के मुसलमान। और पंजाब से धड़ा धड़ ख़बरें आ रही थीं कि वहां सिख मुसलमानों पर बहुत ज़ुल्म ढह रहे हैं। कोई भी हाथ.......मुसलमान हाथ बड़ी आसानी से नर्म-ओ-नाज़ुक कृपाल कौर की कलाई पकड़ कर मौत के कुवें की तरफ़ ले जा सकता था।

कृपाल की माँ अंधी थी। बाप मफ़्लूज। भाई था, वो कुछ अर्से से देव लाली में था कि उसे वहां अपने ताज़ा ताज़ा लिए हुए ठेके की देख भाल करना था।

त्रिलोचन को कृपाल के भाई निरंजन पर बहुत ग़ुस्सा आता था। उस ने जो कि हर रोज़ अख़्बार पढ़ता था, फ़सादाद की तेज़ी-ओ-तुंदी के मुतअल्लिक़ हफ़्ता भर पहले आगाह कर दिया था और साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया था। निरंजन, ये ठेके वेके अभी रहने दो। हम एक बहुत ही नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं। तुम्हारा अगरचे रहना बहुत ज़रूरी है। अव्वल तो यहां से उठ जाओ, और मेरे यहां चले आओ। इस में कोई शक नहीं कि जगह कम है लेकिन मुसीबत के दिनों में आदमी किसी न किसी तरह गुज़ारा कर लिया करता है....... मगर वो न माना। इस का इतना बड़ा लैक्चर सुन कर सिर्फ़ अपनी घनी मोंछों में मुस्कुरा दिया। “तुम ख़्वाह-मख़्वाह फ़िक्र करते हो....... मैं ने यहां ऐसे कई फ़साद देखे हैं। ये अमृतसर या लाहौर नहीं बमबई है। बमबई। तुम्हें यहां आए सिर्फ़ चार बरस हुए हैं और मैं बारह बरस से यहां रह रहा हूँ....... बारह बरस से।”

जाने निरंजन बंबई को क्या समझता था। उस का ख़याल था कि ये ऐसा शहर है।

अगर फ़साद बरपा भी हों तो उन का असर ख़ुद ज़ाइल हो जाता है। जैसे उस के पास छूमंतर है....... या वो कहानियों का कोई ऐसा क़िला है जिस पर कोई आफ़त नहीं आ सकती। मगर त्रिलोचन सुबह की ठंडी हवा में साफ़ देख रहा था कि.......मोहल्ला बिलकुल महफ़ूज़ नहीं। वो तो सुबह के अख़्बारों में ये भी पढ़ने के लिए तैय्यार था कि कृपाल कौर और इस के माँ बाप क़तल हो चुके हैं।

उस को कृपाल कौर के मफ़्लूज बाप और उस की अंधी माँ की कोई परवाह नहीं थी। वो मर जाते और कृपाल कौर बच जाती तो त्रिलोचन के लिए अच्छा था....... वहां देव लाली में उस का भाई निरंजन भी मारा जाता तो वो भी अच्छा था कि त्रिलोचन के लिए मैदान साफ़ हो जाता। खासतौर पर निरंजन उस के रास्ते में एक रोड़ा ही नहीं, बहुत बड़ा कंकर था। चुनांचे जब कभी कृपाल कौर से उस की बात होती तो वो उसे निरंजन सिंह के बजाय कंकर सिंह कहता।

सुबह की हवा धीरे धीरे बह रही थी....... त्रिलोचन का केसूं से बे-नियाज़ सर बड़ी ख़ुश-गवार ठंडक महसूस कर रहा था। मगर उस के अंदर बे-शुमार अंदेशे एक दूसरे के साथ टकरा रहे थे.......कृपाल कौर नई नई उस की ज़िंदगी में दाख़िल हुई थी। वो यूं तो हट्टे कट्टे कंकर सिंह की बहन थी, मगर बहुत ही नर्म-ओ-नाज़ुक लचकीली थी।

उस ने देहात में परवरिश पाई थी। वहां की कई गर्मियां सर्दियां देखी थीं मगर उस में वो सख़्ती, वो गठाओ, वो मर्दाना पन नहीं था जो देहात की आम सिख लड़कियों में होता है जिन्हें कड़ी से कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है।

उस के नक़्श पतले पतले थे, जैसे अभी ना-मुकम्मल हैं। छोटी छोटी छातियां थीं जिन पर बालाइयों की चंद और तहें चढ़ने की ज़रूरत थी। आम सिख देहाती लड़कियों के मुक़ाबले में उस का रंग गोरा था मगर कोरे लट्ठे की तरह, और बदन चिकना था जिस तरह मर्सी राइज़ड कपड़े की सतह होती है। बे-हद शर्मीली थी।

त्रिलोचन उसी के गांव का था। मगर ज़्यादा देर वहां रहा नहीं था। प्राइमरी से निकल कर जब वो शहर के हाई स्कूल में गया तो बस फिर वहीं का हो के रह गया। स्कूल से फ़ारिग़ हुआ तो कॉलिज की तालीम शुरू हो गई। इस दौरान में वो कई मर्तबा.......ला-तादाद मर्तबा अपने गांव गया, मगर उस ने कृपाल कौर के नाम की किसी लड़की का नाम तक न सुना, शायद इस लिए कि वो हर बार इस अफ़रा-तफ़री में रहता था कि जल्द-अज़-जल्द वापस शहर पहुंचे।

कॉलिज का ज़माना बहुत पीछे रह गया था। अडवानी चैंबर्ज़ के टेरेस और कॉलिज की इमारत में ग़ालिबन दस बरस का फ़ासिला था और ये फ़ासिला त्रिलोचन की ज़िंदगी के अजीब-ओ-ग़रीब वाक़ियात से पुर था। बर्मा। सिंगापुर। हांगकांग....... फिर बंबई जहां वो चार बरस से मुक़ीम था।

इन चार बरसों में उस ने पहली मर्तबा रात को आसमान की शक्ल देखी थी। जो बुरी नहीं थी....... ख़ाकिस्तरी रंग के तंबू की छत में हज़ार-हा दिए रौशन थे और हवा ठंडी और हल्की फुल्की थी।

कृपाल कौर का सोचते सोचते वो मोज़ील के मुतअल्लिक़ सोचने लगा। उस यहूदी लड़की के बारे में जो अडवानी चैंबर्ज़ में रहती थी। उस से त्रिलोचन को, गोडे गोडे इश्क़ हो गया था। ऐसा इश्क़ जो उस ने अपनी पैंतीस बरस की ज़िंदगी में कभी नहीं किया था।

जिस दिन उस ने अडवानी चैंबर्ज़ में अपने एक ईसाई दोस्त की मार्फ़त पर फ़्लैट लिया, उसी दिन उस की मुडभीड़ मोज़ील से हुई जो पहली नज़र देखने पर उसे ख़ौफ़-नाक तौर पर दीवानी मालूम हुई थी। कटे हुए भूरे बाल उस के सर पर परेशान थे। बे-हद परेशान। होंटों पर लिप स्टिक यूं जमी थी जैसे गाढ़ा ख़ून और वो भी जगह जगह से चटख़ी हुई थी। ढीला ढाला लिबास सफ़ैद चुग़ा पहनी थी। जिस के खुले गिरेबान से उस की नील पड़ी बड़ी बड़ी छातियां तीन चौथाई के क़रीब नज़र आ रही थीं। बांहें जो कि नंगी थीं महीन महीन बालों से अटी हुई थीं जैसे वो अभी अभी किसी सैलून से बाल कटवा के आई है और उन की नन्ही नन्ही हवाईयां उन पर जम गई हैं।

होंट इतने मोटे नहीं थे मगर गहरे उन्नाबी रंग की लिप स्टिक कुछ इस अंदाज़ से लगाई थी कि वो मोटे और भैंसे के गोश्त के टुकड़े मालूम होते थे।

त्रिलोचन का फ़्लैट उस के फ़्लैट के बिलकुल सामने था। बीच में एक तंग गली थी। बहुत ही तंग....... जब त्रिलोचन अपने फ़्लैट में दाख़िल होने के लिए आगे बढ़ा तो मोज़ील बाहर निकली। खड़ाऊं पहने थी । त्रिलोचन उस की आवाज़ सुन कर रुक गया। मोज़ील ने अपने परेशान बालों की चक्कों में से बड़ी बड़ी आँखों से त्रिलोचन की तरफ़ देखा और हंसी....... त्रिलोचन बौखला गया। जेब से चाबी निकाल कर वो जल्दी से दरवाज़े की जानिब बढ़ा। मोज़ील की एक खड़ाऊं सीमेंट के चिकने फ़र्श पर फिसली और उस के ऊपर आ रही।

जब त्रिलोचन सँभला तो मोज़ील उस के ऊपर थी, कुछ इस तरह कि उस का लंबा चुग़ा ऊपर चढ़ गया था और उस की दो नंगी....... बड़ी तगड़ी टांगें इस के इधर उधर थीं और.......जब त्रिलोचन ने उठने की कोशिश की तो वो बौखलाहट में कुछ इस तरह मोज़ील.......सारी मोज़ील से उलझा जैसे वो साबुन की तरह उस के सारे बदन पर फिर गया है।

त्रिलोचन ने हाँपते हुए मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में से उस माफ़ी मांगी। मोज़ील ने अपना लिबादा ठीक किया और मुस्कुरा दी। “ये खड़ाऊं एक दम कंडम चीज़ है।” और वो उतरी हुई खड़ाऊं में अपना अंगूठा और उस की साथ वाली उंगली फंसाती कोड़ी डोर से बाहर चली गई।

त्रिलोचन का ख़याल था कि मोज़ील से दोस्ती पैदा करना शायद मुश्किल हो। लेकिन वो बहुत ही थोड़े अर्से में उस से घुल मिल गई। लेकिन एक बात थी कि वो बहुत ख़ुद-सर थी। वो त्रिलोचन को कभी ख़ातिर में नहीं लाती थी। उस से खाती थी। उस से पीती थी। उस के साथ सिनेमा जाती थी। सारा सारा दिन उस के साथ जुहू पर नहाती थी। लेकिन जब वो बाँहों और होंटों से कुछ और आगे बढ़ना चाहता तो वो उसे डांट देती। कुछ इस तौर पर उसे घुरकती कि उस के सारे वलवले उस की दाढ़ी और मूंछों में चक्कर काटते रह जाते।

त्रिलोचन को पहले किसी के साथ मोहब्बत नहीं होती थी। लाहौर में, बर्मा में, सिंगापुर में वो लड़कियां कुछ अर्से के लिए ख़रीद लिया करता था। उस के वहम-ओ-गुमान में भी ये बात नहीं थी कि बंबई पहुंचते ही वो एक निहायत अल्हड़ क़िस्म की यहूदी लड़की के इश्क़ में गोडे गोडे धँस जाएगा। वो इस से कुछ अजीब क़िस्म की बे-एतिनाई और बे-इल्तिफ़ाती बरतती थी। इस के कहने पर फ़ौरन सज-बन कर सिनेमा जाने पर तैय्यार हो जाती थी। मगर जब वो अपनी सीट पर बैठते तो इधर उधर निगाहें दौड़ाना शुरू कर देती। कोई उस का शनासा निकल आता तो ज़ोर से हाथ हिलाती और त्रिलोचन से इजाज़त लिए बग़ैर उस के पहलू में जा बैठती।

होटल में बैठे हैं। त्रिलोचन ने खासतौर पर मोज़ील के लिए पुर-तकल्लुफ़ खाने मंगवाए हैं, मगर उस को कोई अपना पुराना दोस्त नज़र आ गया है और वो निवाला छोड़ कर उस के पास जा बैठी है और त्रिलोचन के सीने पर मूंग दल रही है।

त्रिलोचन बाअज़ औक़ात भुन्ना जाता था, क्योंकि वो इसे क़तई तौर पर छोड़ कर अपने उन पुराने दोस्तों और शनासाओं के साथ चली जाती थी और कई कई दिन इस से मुलाक़ात न करती थी। कभी सर दर्द का बहाना, कभी पेट की ख़राबी का जिस के मुतअल्लिक़ त्रिलोचन को अच्छी तरह मालूम था कि फ़ौलाद की तरह सख़्त है और कभी ख़राब नहीं हो सकता।

जब उस से मुलाक़ात होती तो वो इस से कहती। “तुम सिख हो...... ये नाज़ुक बातें तुम्हारी समझ में नहीं आ सकतीं।”

त्रिलोचन जल भुन जाता और पूछता। “कौन सी नाज़ुक बातें....... तुम्हारे पुराने यारों की?”

मोज़ील दोनों हाथ अपने चौड़े चकले कूल्हों पर लटका कर अपनी तगड़ी टांगें चौड़ी कर देती और कहती। “ये तुम मुझे उन के ताने क्या देते हो...... हाँ वो मेरे यार हैं....... और मुझे अच्छे लगते हैं। तुम जलते हो तो जलते रहो।”

त्रिलोचन बड़े वकीलाना अंदाज़ में पूछता। “इस तरह तुम्हारी मेरी किस तरह निभेगी”

मोज़ील ज़ोर का क़हक़हा लगाती। “तुम सचमुच सिख हो....... इडियट, तुम से किस ने कहा है कि मेरे साथ निभाओ....... अगर निभाने की बात है तो जाओ अपने वतन में किसी सिखनी से शादी कर लो....... मेरे साथ तो इसी तरह चलेगा।”

त्रिलोचन नर्म हो जाता। दर-अस्ल मोज़ील उस की ज़बरदस्त कमज़ोरी बन गई थी। वो हर हालत में उस की क़ुर्बत का ख़्वाहिश-मंद था। इस में कोई शक नहीं कि मोज़ील की वजह से उस की अक्सर तौहीन होती थी। मामूली मामूली क्रिस्टान लौंडों के सामने जिन की कोई हक़ीक़त ही नहीं थी, उसे ख़फ़ीफ़ होना पड़ता था। मगर दिल से मजबूर हो कर उस ने ये सब कुछ बर्दाश्त करने का तहय्या कर लिया था।

आम तौर पर तौहीन और हतक का रद्द-ए-अमल इंतिक़ाम होता है मगर त्रिलोचन के मुआमले में ऐसा नहीं था। उस ने अपने दिल-ओ-दिमाग़ की बहुत सी आँखें मीच ली थीं और कई कानों में रुई ठोंस ली थी। उस को मोज़ील पसंद थी....... पसंद ही नहीं जैसा कि वो अक्सर अपने दोस्तों से कहा करता था। गोडे गोडे उस के इश्क़ में धँस गया था। अब उस के सिवा और कोई चारा नहीं था उस के जिस्म का जितना हिस्सा बाक़ी रह गया है। वो भी इस इश्क़ की दलदल में चला जाये और क़िस्सा ख़त्म हो।

दो बरस तक वो इसी तरह ख़ार होता रहा। लेकिन साबित क़दम रहा। आख़िर एक रोज़ जब कि मोज़ील मौज में थी। अपने बाज़ूओं में समेट कर पूछा। “मोज़ील....... क्या तुम मुझ से मोहब्बत नहीं करती हो।”

मोज़ील उस के बाज़ूओं से जुदा हो गई और कुर्सी पर बैठ कर अपने फ़िराक़ का घेरा देखने लगी। फिर उस ने अपनी मोटी मोटी यहूदी आँखें उठाईं और घनी पलकें झपका कर कहा। “मैं सिख से मोहब्बत नहीं कर सकती।”

त्रिलोचन ने ऐसा महसूस किया कि पगड़ी के नीचे इस के केसूं में किसी ने दहकती हुई चिंगारियां रख दी हैं। उस के तन बदन में आग लग गई....... “मोज़ील! तुम हमेशा मेरा मज़ाक़ उड़ाती हो...... ये मेरा मज़ाक़ नहीं, मेरी मोहब्बत का मज़ाक़ है।”

मोज़ील उठी और उस ने अपने भूरे तरशे हुए बालों को एक दिल-फ़रेब झटका दिया। “तुम शेव करा लो और अपने सर के बाल खुले छोड़ दो....... तो में शर्त लगाती हूँ कई लौंडे तुम्हें आँख मारेंगे.......तुम ख़ूबसूरत हो।”

त्रिलोचन के केसों में मज़ीद चिंगारियां पड़ गईं। उस ने आगे बढ़ कर ज़ोर से मोज़ील को अपनी तरफ़ घसीटा और उस के उन्नाबी होंटों में अपने मूंछों भरे होंट पैवस्त कर दिए।

मोज़ील ने एक दम “फ़ू-फ़ूं” की और उस की गिरिफ़्त से अलाहिदा हो गई।

“मैं सुबह अपने दाँतों पर बरशश कर चुकी हूँ.....तुम तकलीफ़ न करो।”

त्रिलोचन चिल्लाया। “मोज़ील।”

मोज़ील वेंटी बैग से नन्हा सा आईना निकाल कर अपने होंट देखने लगी जिस पर लगी हुई गाड़ी लिप स्टिक पर ख़राशें आ गई थीं। “ख़ुदा की क़सम.......तुम अपनी दाढ़ी और मूंछों का सही इस्तिमाल नहीं करते....... इन के बाल ऐसे अच्छे हैं कि मेरा नेवी ब्लू स्कर्ट बहुत अच्छी तरह साफ़ कर सकते हैं.......बस थोड़ा सा पैट्रोल लगाने की ज़रूरत होगी।”

त्रिलोचन ग़ुस्से की इस इंतिहा तक पहुंच चुका था। जहां वो बिलकुल ठंडा हो गया था। आराम से सोफे पर बैठ गया। मोज़ील भी आ गई और उस ने त्रिलोचन की दाढ़ी खोलनी शुरू कर दी.......इस में जो पिनें लगी थीं। वो उस ने एक एक कर के अपने दाँतों तले दबा लीं।

त्रिलोचन ख़ूबसूरत था। जब उस के दाढ़ी मोंछ नहीं उगी थी तो वाक़ई लोग उस को खुले केसों के साथ देख कर धोका खा जाते थे कि वो कोई कम-उम्र ख़ूबसूरत लड़की है। मगर बालों के इस अंबार ने अब इस के तमाम ख़द्द-ओ-ख़ाल झाड़ियों के मानिंद अंदर छुपा लिए थे। उस को उस का एहसास था। मगर वो एक इताअत शिआर और फ़रमां बर्दार लड़का था। उस के दिल में मज़हब का एहतिराम था। वो नहीं चाहता था कि इन चीज़ों को अपने वजूद से अलग कर दे जिन से उस के मज़हब की ज़ाहिरी तकमील होती थी।

जब दाढ़ी पूरी खुल गई और उस के सीने पर लटकने लगी तो उस ने मोज़ील से पूछा। “ये तुम क्या कर रही हो?”

दाँतों में पिनें दबाये वो मुस्कुराई। “तुम्हारे बाल बहुत मुलाइम हैं....... मेरा अंदाज़ा ग़लत था कि इन से मेरा नेवी ब्लू स्कर्ट साफ़ हो सकेगा.......त्रिलोचन.......तुम ये मुझे दे दो। मैं इन्हें गूँध कर अपने लिए एक फस्ट क्लास बटवा बनाऊंगी।”

अब त्रिलोचन की दाढ़ी में चिंगारियां भड़कने लगी। वो बड़ी संजीदगी से मोज़ील से मुख़ातब हुआ “मैं ने आज तक तुम्हारे मज़हब का मज़ाक़ नहीं उड़ाया....... तुम क्यों उड़ाती हो....... देखो किसी के मज़हबी जज़्बात से खेलना अच्छा नहीं होता....... मैं ये कभी बर्दाश्त न करता। मगर सिर्फ़ इस लिए करता रहा हूँ कि मुझे तुम से बे-पनाह मोहब्बत है.......क्या तुम्हें इस का पता नहीं।”

मोज़ील ने त्रिलोचन की दाढ़ी से खेलना बंद कर दिया। “मुझे मालूम है।”

“फिर।” त्रिलोचन ने अपनी दाढ़ी के बाल बड़ी सफ़ाई से तह किए और मोज़ील के दाँतों से पिनें निकाल लीं। “तुम अच्छी तरह जानती हो कि मेरी मोहब्बत बकवास नहीं....... मैं तुम से शादी करना चाहता हूँ।”

“मुझे मालूम है।” बालों को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दे कर वो उठी और दीवार से लटकी हुई तस्वीर की तरफ़ देखने लगी। “मैं भी क़रीब क़रीब यही फ़ैसला कर चुकी हूँ कि तुम से शादी करूंगी।”

त्रिलोचन उछल पड़ा। “सच”

मोज़ील के उन्नाबी होंट बड़ी मोटी मुस्कुराहट के साथ खुले और उस के सफ़ैद मज़बूत दाँत एक लहज़े के लिए चमके। “हाँ!”

त्रिलोचन ने अपनी निस्फ़ लिपटी हुई दाढ़ी ही से उस को अपने सीने के साथ भींच लिया। “तो.......तो कब?”

मोज़ील अलग हट गई। “जब.......तुम अपने ये बाल कटवा दोगे!”

त्रिलोचन उस वक़्त “जो हो सो हो” बना था। उस ने कुछ न सोचा और कह दिया। “मैं कल ही कटवा दूंगा।”

मोज़ील फ़र्श पर टेप डांस करने लगी। “तुम बकवास करते हो त्रिलोचन....... तुम में इतनी हिम्मत नहीं है।”

उस ने त्रिलोचन के दिल-ओ-दिमाग़ से मज़हब के रहे सहे ख़याल को निकाल बाहर फेंका। “तुम देख लोगी।”

“देख लूंगी।” और वो तेज़ी से आगे बढ़ी। त्रिलोचन की मोंछों को चूमा और फ़ूं फ़ूं करती बाहर निकल गई।

त्रिलोचन ने रात भर क्या सोचा....... वो किन किन अज़ीयतों से गुज़रा, इस का तज़्किरा फ़ुज़ूल है, इस लिए कि दूसरे रोज़ उस ने फोर्ट में अपने केस कटवा दिए और दाढ़ी भी मुंडवा दी....... ये सब कुछ होता रहा और वो आँखें मीचे रहा। जब सारा मुआमला साफ़ हो गया तो उस ने आँखें खोलीं और देर तक अपनी शक्ल आईने में देखता रहा जिस पर बंबई की हसीन से हसीन लड़की भी कुछ देर के लिए ग़ौर करने पर मजबूर हो जाती।

त्रिलोचन वही अजीब-ओ-ग़रीब ठंडक महसूस करने लगा था जो सैलून से बाहर निकल कर उस को लगी थी। उस ने टेरेस पर तेज़ तेज़ चलना शुरू कर दिया। जहां टैंकों और नलों का एक हुजूम था। वो चाहता था कि इस दास्तान का बक़ाया हिस्सा उस के दिमाग़ में न आए। मगर वो आए बिन न रहा।

बाल कटवा कर वो पहले दिन घर से बाहर नहीं निकला था। उस ने अपने नौकर के हाथ दूसरे रोज़ चिट मोज़ील को भेजी कि उस की तबीयत ना-साज़ है, थोड़ी देर के लिए आजाए। मोज़ील आई। त्रिलोचन को बालों के बग़ैर के देख कर पहले वो एक लहज़े के लिए ठिटकी। फिर “माई डार्लिंग त्रिलोचन” कह कर उस के साथ लिपट गई और इस का सारा चेहरा उन्नाबी कर दिया।

उस ने त्रिलोचन के साफ़ और मुलाइम गालों पर हाथ फेरा। इस के छोटे अंग्रेज़ी वज़ा के कटे हुए बालों में अपनी कंघी की और अरबी ज़बान में नारे माती रही। उस ने इस क़दर शोर मचाया कि उस की नाक से पानी बहने लगा.......मोज़ील ने जब उसे महसूस किया तो अपनी स्कर्ट का घेरा उठाया और उसे पोंछना शुरू कर दिया.......त्रिलोचन शर्मा गया। उस ने स्कर्ट नीची की और सरज़निश के तौर पर उस से कहा। “नीचे कुछ पहन तो लिया करो।”

मोज़ील पर इस का कुछ असर न हुआ। बासी और जगह जगह से उखड़ी हुई लिप स्टिक लगे होंटों से मुस्कुरा कर उस ने सिर्फ़ इतना ही कहा। “मुझे बड़ी घबराहट होती है.......ऐसे ही चलता है।”

त्रिलोचन को वो पहला दिन याद आ गया। जब वो और मोज़ील दोनों टकरा गए थे और आपस में कुछ अजीब तरह गड्ड-मड्ड हो गए थे। मुस्कुरा कर उस ने मोज़ील को अपने सीने के साथ लगा। “शादी कल होगी!”

“ज़रूर।” मोज़ील ने त्रिलोचन की मुलाइम ठोढ़ी पर अपने हाथ की पुश्त फेरी।

तय ये हुआ कि शादी पूने में हो। चूँकि सिविल मैरिज थी। इस लिए उन को दस पंद्रह दिन का नोटिस देना था। अदालती कार्रवाई थी। इस लिए मुनासिब यही ख़याल किया गया कि पूना बेहतर है। पास है और त्रिलोचन के वहां कई दोस्त भी हैं। दूसरे रोज़ उन्हें प्रोग्राम के मुताबिक़ पूना रवाना हो जाना था।

मोज़ील, फोर्ट के एक स्टोर में सेल्ज़ गर्ल थी। इस से कुछ फ़ासले पर टैक्सी स्टैंड था। बस यहीं मोज़ील ने उस को इंतिज़ार करने के लिए कहा था....... त्रिलोचन वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर वहां पहुंचा। डेढ़ घटना इंतिज़ार करता रहा मगर वो न आई। दूसरे रोज़ उसे मालूम हुआ कि वो अपने एक पुराने दोस्त के साथ जिस ने ताज़ा ताज़ा मोटर ख़रीदी है, देव लाली चली गई है और एक ग़ैर मुअय्यन अर्से के लिए वहीं रहेगी।

त्रिलोचन पर क्या गुज़री?....... ये एक बड़ी लंबी कहानी है। क़िस्सा मुख़्तसर ये है कि उस ने जी कड़ा किया और उस को भूल गया....... इतने में उस की मुलाक़ात कृपाल कौर से हो गई और वो उस से मोहब्बत करने लगा और थोड़े ही अर्से में उस ने महसूस किया कि मोज़ील बहुत वाहियात लड़की थी जिस के दल के साथ पत्थर लगे हुए थे और जो चिड़ों के मानिंद एक जगह से दूसरी जगह फुदकता रहता था। इस एहसास से उस को एक गौना तसकीन हुई थी कि वो मोज़ील से शादी करने की ग़लती न कर बैठा था।

लेकिन इस के बावजूद कभी कभी मोज़ील की याद एक चुटकी के मानिंद उस के दिल को पकड़ लेती थी और फिर छोड़ कर कदकड़े लगाती ग़ायब हो जाती थी.......वो बे-हया थी.......बे-मुरव्वत थी, उस को किसी के जज़्बात का पास नहीं था, फिर भी वो त्रिलोचन को पसंद थी। इस लिए कभी कभी वो उस के मुतअल्लिक़ सोचने पर मजबूर हो जाता था कि वो देव लाली में इतने अर्से से क्या कर रही है। उसी आदमी के साथ है। जिस ने नई नई कार ख़रीदी थी या उसे छोड़ कर किसी और के पास चली गई है। उस को इस ख़याल से सख़्त कोफ़्त होती थी कि वो उस के सिवा किसी और के पास होगी। हालाँकि उस को मोज़ील के किरदार का ब-ख़ूबी इल्म था।

वो उस पर सैकड़ों नहीं हज़ारों रुपय ख़र्च कर चुका था, लेकिन अपनी मर्ज़ी से। वर्ना मोज़ील महंगी नहीं थी। उस को बहुत सस्ती क़िस्म की चीज़ें पसंद आती थीं। एक मर्तबा त्रिलोचन ने उसे सोने के टोप्स देने का इरादा किया जो उसे बहुत पसंद थे, मगर उसी दुकान में मोज़ील झूटे और भड़कीले और बहुत सस्ते आवेज़ों पर मर मिटी और सोने के टोप्स छोड़ कर त्रिलोचन से मिन्नतें करने लगी कि वो उन्हें ख़रीद दे।

त्रिलोचन अब तक न समझ सका कि मोज़ील किस क़िमाश की लड़की है। किस आब-ओ-गुल से बनी है। वो घंटों उस के साथ लेटी रहती थी। उस को चूमने की इजाज़त देती थी।

वो सारा का सारा साबुन की मानिंद इस के जिस्म पर फिर जाता था। मगर वो उस को इस से आगे एक इंच बढ़ने नहीं देती थी। उस को चढ़ाने की ख़ातिर इतना कह देती थी। “तुम सिख हो.......मुझे तुम से नफ़रत है!....... ”

त्रिलोचन अच्छी तरह महसूस करता था कि मोज़ील को उस से नफ़रत नहीं। अगर ऐसा होता तो वो उस से कभी न मिलती। बर्दाश्त का माद्दा उस में रत्ती भर भी नहीं था। वो कभी दो बरस तक उस की सोहबत में न गुज़ारती। दो-टोक फ़ैसला कर देती। अंडर वीयर उस को ना-पसंद थे। इस लिए कि उन से उस को उलझन होती थी। त्रिलोचन ने कई बार उस को उन की अशद ज़रूरत से आगाह किया। उस को श्रम-ओ-हया का वास्ता दिया, मगर उस ने ये चीज़ कभी न पहनी।

त्रिलोचन जब उस से हया की बात करता था वो चिड़ जाती थी। “ये हया वया क्या बकवास है....... अगर तुम्हें इस का कुछ ख़याल है तो आँखें बंद कर लिया करो....... तुम मुझे ये बताओ कौन सा लिबास है जिस में आदमी नंगा नहीं हो सकता....... या जिस में से तुम्हारी निगाहें पार नहीं हो सकतीं....... मुझ से ऐसी बकवास न किया करो....... तुम सिख हो....... मुझे मालूम है कि तुम पतलून के नीचे एक सिल्की सा अंडर वीयर पहनते हो जो नेकर से मिलता जुलता है.......ये भी तुम्हारी दाढ़ी और सर के बालों की तरह मज़हब में शामिल है....... श्रम आनी चाहिए तुम्हें। इतने बड़े हो गए हो और अभी तक यही समझते हो कि तुम्हारा मज़हब अंडर वीयर में छिपा बैठा है!”

त्रिलोचन को शुरू शुरू में ऐसी बातें सुन कर ग़ुस्सा आया था । मगर बाद में ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने पर वो कभी कभी लुढ़क जाता था और सोचता था कि मोज़ील की बातें शायद ना-दुरुस्त नहीं और जब उस ने अपने केसों और दाढ़ी का सफ़ाया करा दिया तो उसे क़तई तौर पर ऐसा महसूस हुआ कि वो बे-कार इतने दिन बालों का इतना बोझ उठाए उठाए फिरा जिस का कुछ मतलब ही नहीं था।

पानी की टैंकी के पास पहुंच कर त्रिलोचन रुक गया। मोज़ील को एक बड़ी मोटी गाली दे कर उस ने उस के मुतअल्लिक़ सोचना बंद कर दिया....... कृपाल कौर। एक पाकीज़ा लड़की। जिस से उस को मोहब्बत हुई थी। ख़तरे में थी, वो ऐसे मोहल्ले में थी जिस में कट्टर क़िस्म के मुसलमान रहते थे और वहां दो तीन वारदात भी हो चुकी थीं....... लेकिन मुसीबत ये थी कि उस मोहल्ले में अड़तालीस घंटे का करफ्यू था। मगर करफ्यू की कौन पर्वा करता है। इस चाली के मुसलमान ही अगर चाहते तो अंदर ही अंदर कृपाल कौर, उस की माँ और उस के बाप का बड़ी आसानी के साथ सफ़ाया कर सकते थे।

त्रिलोचन सोचता सोचता पानी के मोटे नल पर बैठ गया। उस के सर के बाल अब काफ़ी लंबे हो गए थे। उस को यक़ीन था कि एक बरस के अंदर इंदर ये पूरे केसों में तबदील हो जाऐंगे। उस की दाढ़ी तेज़ी से बढ़ी थी। मगर वो उसे बढ़ाना नहीं चाहता था। फोर्ट में एक बारबर था वो इस सफ़ाई से उसे तराशता था कि तुर्शी हुई दिखाई नहीं देती थी।

इस ने अपने लंबे और मुलाइम बालों में उंगलियां फेरीं और एक सर्द आह भरी.......उठने का इरादा ही कर रहा था कि उसे खड़ाऊं की करख़्त आवाज़ सुनाई दी, उस ने सोचा कौन हो सकता है?....... बिल्डिंग में कई यहूदी औरतें थीं जो सब की सब घर में खड़ाऊं पहनती थीं....... आवाज़ क़रीब आती गई। यक-लख़्त उस ने दूसरी टेकनी के पास मोज़ील को देखा, जो यहूदियों की ख़ास क़ता का ढीला ढाला लम्बा कुर्ता पहने बड़े ज़ोर की अंगड़ाई ले रही थी....... इस ज़ोर की कि त्रिलोचन को महसूस हुआ इस के आस पास की हवा चटख़ जाएगी।

त्रिलोचन, पानी के नल पर से उठा। उस ने सोचा। “ये इका ईकी कहाँ से नुमूदार हो गई.......और Fस वक़्त टियर्स पर क्या करने आई है?....... ”

मोज़ील ने एक और अंगड़ाई ली.......अब त्रिलोचन की हड्डियां चटख़्ने लगीं।

ढीले ढाले कुरते में उस की मज़बूत छातियां धड़कीं....... त्रिलोचन की आँखों के सामने कई गोल गोल और चिपटे चिपटे नील उभर आए। वो ज़ोर से खांसा मोज़ील ने पलट कर उस की तरफ़ देखा। उस का रद्द-ए-अमल बिलकुल ख़फ़ीफ़ था। खड़ाऊं घिसटती वो उस के पास आई और उस की नन्ही मुन्नी दाढ़ी देखने लगी। “तुम फिर सिख बन गए त्रिलोचन?”

दाढ़ी के बाल त्रिलोचन को चुभने लगे।

मोज़ील ने आगे बढ़ कर उस की ठोढ़ी के साथ अपने हाथ की पुश्त रगड़ी और मुस्कुरा कर कहा। “अब ये बरश इस क़ाबिल है कि मेरी न्यू ब्लू स्कर्ट साफ़ कर सके.......मगर वो तो वहीं देव लाली में रह गई है।”

त्रिलोचन ख़ामोश रहा।

मोज़ील ने उस के बाज़ू की चुटकी ली। “बोलते क्यों नहीं सरदार साहब?”

त्रिलोचन अपनी पिछली बेवक़ूफ़ियों का इआदा नहीं करना चाहता था। ताहम उस ने सुबह के मलगिजे अंधेरे में मोज़ील के चेहरे को ग़ौर से देखा....... कोई ख़ास तबदीली वाक़्य नहीं हुई थी। एक सिर्फ़ वो पहले से कुछ कमज़ोर नज़र आती थी। त्रिलोचन ने उस से पूछा। “बीमार रही हो?”

“नहीं।” मोज़ील ने अपने तरशे हुए बालों को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दिया।

“पहले से कमज़ोर दिखाई देती हो?”

“मैं डाइटिंग कर रही हूँ।” मोज़ील पानी के मोटे नल पर बैठ गई और खड़ाऊं फ़र्श के साथ बजाने लगी। “तुम गोया कि..… अब फिर... नए सिरे से सिख बन रहे हो।”

त्रिलोचन ने किसी क़दर ढिटाई के साथ कहा। “हाँ!”

“मुबारक हो।” मोज़ील ने एक खड़ाऊं पैर से उतार ली और पानी के नल पर बजाने लगी। “किसी और लड़की से मोहब्बत करनी शुरू की?”

त्रिलोचन ने आहिस्ता से कहा। “हाँ!”

“मुबारक हो.......इसी बिल्डिंग की है कोई?”

“नहीं।”

“ये बहुत बुरी बात है।” मोज़ील खड़ाऊं अपनी उंगलियों में उड़स कर उठी। “हमेशा आदमी को अपने हम-साइयों का ख़याल रखना चाहिए।”

त्रिलोचन ख़ामोश रहा। मोज़ील ने उठ कर उस की दाढ़ी को अपनी पांचों उंगलियों से छेड़ा। “क्या उसी लड़की ने तुम्हें ये बाल बढ़ाने का मश्वरा दिया है?”

“नहीं।”

त्रिलोचन बड़ी उलझन महसूस कर रहा था जैसे कंघा करते करते उस की दाढ़ी के बाल आपस में उलझ गए हैं। जब उस ने नहीं कहा तो उस के लहजे में तीखा-पन था।

मोज़ील के होंटों पर लिप स्टिक बासी गोश्त की तरह मालूम होती थी। वो मुस्कुराई तो त्रिलोचन ने ऐसा महसूस किया कि उस के गांव में झटके की दुकान पर कसाई ने छुरी से मोटी रग के गोश्त के दो टुकड़े कर दिए हैं।

मुस्कराने के बाद वो हंसी। “तुम अब ये दाढ़ी मुंडा डालो तो किसी की भी कसम ले लो, मैं तुम से शादी कर लूंगी।”

त्रिलोचन के जी में आई कि उस से कहे कि “वो एक बड़ी शरीफ़, बा-इस्मत और पाक तीनत कुंवारी लड़की से मोहब्बत कर रहा है और उसी से शादी करेगा.......मोज़ील उस के मुक़ाबले में फ़ाहिशा है। बद-सूरत है। बे-वफ़ा है। बे-मुरव्वत है” मगर वो इस क़िस्म का घटिया आदमी नहीं था। उस ने मोज़ील से सिर्फ़ इतना कहा। “मोज़ील! मैं अपनी शादी का फ़ैसला कर चुका हूँ। मेरे गांव की एक सीधी सादी लड़की है....... जो मज़हब की पाबंद है। उसी के लिए मैं ने बाल बढ़ाने का फ़ैसला कर लिया है।”

मोज़ील सोच बिचार की आदी नहीं थी, लेकिन इस ने कुछ देर सोचा और खड़ाऊं पर निस्फ़ दायरे में घूम कर त्रिलोचन से कहा। “वो मज़हब की पाबंद है तो तुम्हें कैसे क़बूल करेगी?....... क्या उसे मालूम नहीं कि तुम एक दफ़ा अपने बाल कटवा चुके हो?”

“उस को अभी तक मालूम नहीं.......दाढ़ी मैं ने तुम्हारे देव लाली जाने के बाद ही बढ़ानी शुरू कर दी थी....... महज़ इंतिक़ामी तौर पर....... उसी के बाद मेरी कृपाल कौर से मुलाक़ात हुई। मगर मैं पगड़ी इस तरीक़े से बांधता हूँ कि सौ में से एक ही आदमी मुश्किल से जान सकता है कि मेरे केस कटे हुए हैं....... मगर अब ये बहुत जल्द ठीक हो जाऐंगे” त्रिलोचन ने अपने लंबे मुलाइम बालों में उंगलियों से कंघी करना शुरू की।

मोज़ील ने लंबा कुरता उठा कर अपनी गौरी दबीज़ रान खुजलानी शुरू की। “ये बहुत अच्छा है....... मगर ये कम-बख़्त मच्छर यहां भी मौजूद है....... देखो, किस ज़ोर से काटा है।”

त्रिलोचन ने दूसरी तरफ़ देखना शुरू कर दिया। मोज़ील ने उस जगह जहां मच्छर ने काटा था उंगली से लब लगाई और कुरता छोड़ कर सीधी खड़ी हो गई। “कब हो रही है तुम्हारी शादी?”

“अभी कुछ पता नहीं।” ये कह कर त्रिलोचन सख़्त मुतफ़क्किर हो गया।

चंद लम्हात तक ख़ामोशी रही। इस के बाद मोज़ील ने उस के तफ़क्कुर का अंदाज़ा लगा कर उस से बड़े संजीदा अंदाज़ में पूछा। “त्रिलोचन....... तुम क्या सोच रहे हो?”

त्रिलोचन को उस वक़्त किसी हमदर्द की ज़रूरत थी। ख़्वाह वो मोज़ील ही क्यों न हो। चुनांचे उस ने उस को सारा माजरा सुना दिया। मोज़ील हंसी। “तुम अव्वल दर्जे के इडियट हो.......जाओ उस को ले आओ। ऐसी क्या मुश्किल है?”

“मुश्किल!....... मोज़ील, तुम इस मुआमले की नज़ाकत को कभी नहीं समझ सकती....... किसी भी मुआमले की नज़ाकत....... तुम एक ला-उबाली क़िस्म की लड़की हो....... यही वजह है कि तुम्हारे और मेरे तअल्लुक़ात क़ायम नहीं रह सके, जिस का मुझे सारी उम्र अफ़्सोस रहेगा।”

मोज़ील ने ज़ोर से अपनी खड़ाऊं पानी के नल के साथ मारी। “अफ़्सोस बी डीम्ड....... सिली इडियट....... तुम ये सोचो कि तुम्हारी इस....... क्या नाम है उस का.......उस मोहल्ले से बचा कर लाना कैसे है....... तुम बैठ गए हो तअल्लुक़ात का रोना रोने....... तुम्हारे मेरे तअल्लुक़ात कभी क़ायम नहीं रह सकते थे....... तुम एक सिली किस्म के आदमी हो....... और बहुत डरपोक। मुझे निडर मर्द चाहिए.......लेकिन छोड़ो इन बातों को.......चलो आओ, तुम्हारी उस कौर को ले आएं!”

इस ने त्रिलोचन का बाज़ू पकड़ लिया....... त्रिलोचन ने घबराहट में इस से पूछा। “कहाँ से?”

“वहीं से, जहां वो है....... मैं उस मोहल्ले की एक एक ईंट को जानती हूँ....... चलो आओ मेरे साथ।”

“मगर सुनो तो.......करफ्यू है।”

“मोज़ील के लिए नहीं....... चलो आओ।”

वो त्रिलोचन को बाज़ू से पकड़ कर खींचती उस दरवाज़े तक ले गई थी जो नीचे सीढ़ियों की तरह खुलता था। दरवाज़ा खोल कर वो उतरने वाली थी कि रुक गई और त्रिलोचन की दाढ़ी की तरफ़ देखने लगी।

त्रिलोचन ने पूछा। “क्या बात है?”

मोज़ील ने कहा। “ये तुम्हारी दाढ़ी....... लेकिन ख़ैर ठीक है। इतनी बड़ी नहीं है....... नंगे सर चलोगे तो कोई नहीं समझेगा कि तुम सिख।”

“नंगे सर!” त्रिलोचन ने किसी क़दर बौखला कर कहा। “मैं नंगे सर नहीं जाऊंगा।”

मोज़ील ने बड़े मासूम अंदाज़ में पूछा। “क्यों?”

त्रिलोचन ने अपने बालों की एक लट ठीक की। “तुम समझती नहीं हो। मेरा वहां पगड़ी के बग़ैर जाना ठीक नहीं।”

“क्यों ठीक नहीं।”

“तुम समझती क्यों नहीं हो कि उस ने मुझे अभी तक नंगे सर नहीं देखा....... वो यही समझती है कि मेरे केस हैं। मैं उस पर ये राज़ इफ़्शा नहीं करना चाहता।”

मोज़ील ने ज़ोर से अपनी खड़ाऊं दरवाज़े की दहलीज़ पर मारी। “तुम वाक़ई अव्वल दर्जे के इडियट हो.......गधे कहीं के....... उस की जान का सवाल है.......क्या नाम है, तुम्हारी उस कौर का, जिस से तुम मोहब्बत करते हो।”

त्रिलोचन ने उसे समझाने की कोशिश की। “मोज़ील, वो बड़ी मज़हबी क़िस्म की लड़की है....... अगर उस ने मुझे नंगे सर देख लिया तो मुझ से नफ़रत करने लगेगी।”

मोज़ील चिड़ गई। “ओह, तुम्हारी मोहब्बत बी डीम्ड....... मैं पूछती हूँ। क्या सारे सिख तुम्हारे तरह के बेवक़ूफ़ होते हैं....... उस की जान को ख़तरा है और तुम कहते हो कि पगड़ी ज़रूर पहनोगे....... और शायद वो अपना अंडर वीयर भी जो नेकर से मिलता जुलता है।”

त्रिलोचन ने कहा। “वो तो मैं हर-वक़्त पहने होता हूँ।”

“बहुत अच्छा करते हो....... मगर अब तुम ये सोचो कि मुआमला उस मोहल्ले का है जहां मियां भाई ही मियां भाई रहते हैं और वो भी बड़े बड़े दादा और बड़े बड़े मवाली....... तुम पगड़ी पहन कर गए तो वहीं ज़बह कर दिए जाओगे।”

त्रिलोचन ने मुख़्तसर सा जवाब दिया। “मुझे इस की पर्वा नहीं....... अगर मैं तुम्हारे साथ वहां जाऊंगा तो पगड़ी पहन कर जाऊंगा....... मैं अपनी मोहब्बत ख़तरे में नहीं डालना चाहता!”

मोज़ील झुँझला गई। “इस ज़ोर से उस ने पेच-ओ-ताप खाए कि उस की छातियां आपस में भिड़ भिड़ गईं। गधे.......तुम्हारी मोहब्बत ही कहाँ रहेगी। जब तुम न होगे....... तुम्हारी वो....... क्या नाम है उस भड़वे का....... जब वो भी न रहेगी। उस का ख़ानदान तक न रहेगा....... तुम सिख....... ख़ुदा की क़सम तुम सोख हो और बड़े इडियट सिख हो!”

त्रिलोचन भुन्ना गया। “बकवास न करो!”

मोज़ील ज़ोर से हंसी। महीन महीन बालों के गुबार से अटी हुई बांहें इस ने त्रिलोचन के गले में डाल दीं और थोड़ा सा झूल कर कहा। “डार्लिंग चलो, जैसे तुम्हारी मर्ज़ी....... जाओ पगड़ी पहन आओ। मैं नीचे बाज़ार में खड़ी हूँ।”

ये कह कर वो नीचे जाने लगी। त्रिलोचन ने उसे रोका। “तुम कपड़े नहीं पहनोगी!”

मोज़ील ने अपने सर को झटका दिया। “नहीं.......चलेगा इसी तरह।”

ये कह कर वो खट खट करती नीचे उतर गई। त्रिलोचन निचली मंज़िल की सीढ़ियों पर भी उस की खड़ाऊं की चोबी आवाज़ सुनता रहा। फिर उस ने अपने लंबे बाल उंगलियों से पीछे की तरफ़ समेटे और नीचे उतर कर अपने फ़्लैट में चला गया। जल्दी जल्दी उस ने कपड़े तबदील किए। पगड़ी बंधी बंधाई रखी थी। उसे अच्छी तरह सर पर जमाया और फ़्लैट का दरवाज़ा मुक़फ़्फ़ल कर के नीचे उतर गया।

बाहर फुटपाथ पर मोज़ील अपनी तगड़ी टांगें चौड़ी किए सिगरेट पी रही थी। बिलकुल मर्दाना अंदाज़ में। जब त्रिलोचन उस के नज़दीक पहुंचा तो उस ने शरारत के तौर पर मुँह भर के धुआँ उस के चेहरे पर दे मारा। त्रिलोचन ने ग़ुस्से में कहा। “तुम बहुत ज़लील हो।”

मोज़ील मुस्कुराई। “ये तुम ने कोई नई बात नहीं कही....... इस से पहले और कई मुझे ज़लील कह चुके हैं।” फिर उस ने त्रिलोचन की पगड़ी की तरफ़ देखा। “ये पगड़ी तुम ने वाक़ई बहुत अच्छी तरह बांधी है....... ऐसा मालूम होता है तुम्हारे केस हैं”

बाज़ार बिलकुल सुनसान था। एक सिर्फ़ हवा चल रही थी और वो भी बहुत धीरे धीरे। जैसे करफ्यू से ख़ौफ़-ज़दा है। बत्तियां रौशन थीं मगर उन की रोशनी बीमार सी मालूम होती थी। आम तौर पर उस वक़्त ट्रेनें चलनी शुरू हो जाती थीं और लोगों की आमद-ओ-रफ़्त भी जारी हो जाती थी। अच्छी ख़ासी गहमा गहमी होती थी। पर अब ऐसा मालूम होता था कि सड़क पर कोई इंसान गुज़रा है न गुज़रेगा।

मोज़ील आगे आगे थी। फुटपाथ के पत्थरों पर उस की खड़ाऊं खट खट कर रही थी। ये आवाज़, इस ख़ामोश फ़िज़ा में एक बहुत बड़ा शोर थी। त्रिलोचन दिल ही दिल में मोज़ील को बुरा भला कह रहा था कि दो मिनट में और कुछ नहीं तो अपनी वाहियात खड़ाऊं ही उतार कर कोई दूसरी चीज़ पहन सकती थी। उस ने चाहा कि मोज़ील से कहे खड़ाऊं उतार दो और नंगे पांव चलो। मगर उस को यक़ीन था कि वो कभी नहीं मानेगी। इस लिए ख़ामोश रहा।

त्रिलोचन सख़्त ख़ौफ़-ज़दा था। कोई पत्ता खड़कता तो उस का दिल धक से रह जाता था। मगर मोज़ील बिलकुल बे-ख़ौफ चली जा रही थी। सिगरेट का धुआँ उड़ाती जैसे वो बड़ी बे-फ़िक्री से चहल-क़दमी कर रही है।

चौक में पहुंचे तो पुलिस मैन की आवाज़ गरजी। “ए.......किधर जा रहा है।”

त्रिलोचन सहम गया। मोज़ील आगे बढ़ी और पुलिस मैन के पास पहुंच गई और बालों को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दे कर कहा। “ओह , तुम.......हम को पचाना नहीं तुम ने.......मोज़ील....... ” फिर उस ने एक गली की तरफ़ इशारा किया। “इधर इस बाजू....... हमारा बहन रहता है। उस की तबीयत ख़राब है.......डाक्टर ले कर जा रहा है....... ”

सिपाही उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था कि उस ने ख़ुदा मालूम कहाँ से सिगरेट की डिबिया निकाली और एक सिगरेट निकाल कर उस को दिया। “लो पियो।”

सिपाही ने सिगरेट ले लिया। मोज़ील ने अपने मुँह से सुलगा हुआ सिगरेट निकाला और उस से कहा “हीयर अज़ लाईट!”

सिपाही ने सिगरेट का कश लिया। मोज़ील ने दाहिनी आँख उस को और बाएं आँख त्रिलोचन को मारी और खट खट करती उस गली की तरफ़ चल दी....... जिस में से गुज़र कर उन्हें....... मोहल्ले जाना था।

त्रिलोचन ख़ामोश था, मगर वो महसूस कर रहा था कि मोज़ील करफ्यू की ख़िलाफ़-वरज़ी कर के एक अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की मुसर्रत महसूस कर रही है....... खतरों से खेलना उसे पसंद था। जब जुहू पर उस के साथ जाती थी तो उस के लिए एक मुसीबत बन जाती थी। समुंद्र की पीलतन लहरों से टकराती, भिड़ती वो दूर तक निकल जाती थी और उस को हमेशा इस बात का धड़का रहता था कि वो कहीं डूब न जाये। जब वापस आती तो उस का जिस्म सीपों और ज़ख़मों से भरा होता था मगर उसे उन की कोई पर्वा नहीं होती थी।

मोज़ील आगे आगे थी। त्रिलोचन उस के पीछे पीछे। डर डर के इधर उधर देखता रहता था कि उस की बग़ल से कोई छुरी मार नुमूदार न हो जाये। मोज़ील रुक गई। जब त्रिलोचन पास आया तो उस ने समझाने के अंदाज़ में उसे कहा।त्रिलोचन डीयर....... इस तरह डरना अच्छा नहीं....... तुम डरोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ हो के रहेगा....... सच कहती हूँ, ये मेरी आज़माई हुई बात है।”

त्रिलोचन ख़ामोश रहा।

जब वो गली तय कर के दूसरी गली में पहुंचे। जो उस मोहल्ले की तरफ़ निकलती थी, जिस में कृपाल कौर रहती थी तो मोज़ील चलते चलते एक दम रुक गई....... कुछ फ़ासले पर बड़े इत्मिनान से एक मारवाड़ी की दुकान लूटी जा रही थी। एक लहज़े के लिए उस ने मुआमले का जायज़ा लिया और त्रिलोचन से कहा। “कोई बात नहीं....... चलो आओ।”

दोनों चलने लगे....... एक आदमी जो सर पर बहुत बड़ी प्रात उठाए चला आ रहा था। त्रिलोचन से टकरा गया। प्रात गिर गई। उस आदमी ने ग़ौर से त्रिलोचन की तरफ़ देखा। साफ़ मालूम होता था कि वो सिख है। उस आदमी ने जल्दी से अपने नेफ़े में हाथ डाला....... कि मोज़ील आ गई। लड़खड़ाती हुई जैसे नशे में चूर है उस ने ज़ोर से उस को आदमी को धक्का दिया और मख़्मूर लहजे में कहा। “ए क्या करता है.......अपने भाई को मारता है....... हम इस से शादी बनाने को मांगता है।” फिर वो त्रिलोचन से मुख़ातब हुई। “करीम.......उठाओ, ये प्रात और रख दो इस के सर पर।”

उस आदमी ने नेफ़े में से हाथ निकाल लिया और शहवानी आँखों से मोज़ील की तरफ़ देखा, फिर आगे बढ़ कर अपनी कुहनी से उस की छातियों में एक ठोका दिया। “ऐश कर साली.......ऐश कर” फिर उस ने प्रात उठाई और ये जा, वो जा।

त्रिलोचन बड़बड़ाया। “कैसी ज़लील हरकत की है हराम-ज़ादे ने!”

मोज़ील ने अपनी छातियों पर हाथ फेरा। “कोई ज़लील हरकत नहीं....... सब चलता है.......आओ।”

और वो तेज़ तेज़ चलने लगी....... त्रिलोचन ने भी क़दम तेज़ कर दिए।

ये गली तय कर के दोनों उस मोहल्ले में पहुंच गए। जहां कृपाल कौर रहती थी। मोज़ील ने पूछा। ““किस गली में जाना है?”

त्रिलोचन ने आहिस्ता से कहा। “तीसरी गली में.......नुक्कड़ वाली बिल्डिंग!”

मोज़ील ने उस तरफ़ चलना शुरू कर दिया। ये रास्ता बिलकुल ख़ामोश था। आस पास इतनी ग़ुनजान आबादी थी मगर किसी बच्चे तक के रोने की आवाज़ सुनाई नहीं देती थी।

जब वो उस गली के क़रीब पहुंचे तो कुछ गड़बड़ दिखाई दी.......एक आदमी बड़े से उस किनारे वाली बिल्डिंग से निकला और दूसरे किनारे वाली बिल्डिंग में घुस गया। उस बिल्डिंग से थोड़ी देर के बाद तीन आदमी निकले। फुटपाथ पर उन्हों ने इधर उधर देखा और बड़ी फुर्ती से दूसरी बिल्डिंग में चले गए। मोज़ील ठिटक गई थी। उस ने त्रिलोचन को इशारा किया कि अंधेरे में हो जाये। फिर उस ने हौले से कहा। “त्रिलोचन डीयर.......ये पगड़ी उतार दो!”

त्रिलोचन ने जवाब दिया। “मैं ये किसी सूरत में भी नहीं उतार सकता!”

मोज़ील झुँझला गई। “तुम्हारी मर्ज़ी.......लेकिन तुम देखते नहीं, सामने क्या हो रहा है”

सामने जो कुछ हो रहा था दोनों की आँखों के सामने था....... साफ़ गड़बड़ हो रही थी और बड़ी पुर-असरार क़िस्म की। दाएं हाथ की बिल्डिंग से जब दो आदमी अपनी पीठ पर बोरीयां उठाए निकले तो मोज़ील सारी की सारी काँप गई। उन में से कुछ गाढ़ी गाढ़ी सय्याल सी चीज़ टपक रही थी। मोज़ील अपने होंट काटने लगी। ग़ालिबन वो सोच रही थी। जब ये दोनों आदमी गली के दूसरे सिरे पर पहुंच कर ग़ायब हो गए तो उस ने त्रिलोचन से कहा। “देखो, ऐसा करो....... मैं भाग कर नुक्कड़ वाली बिल्डिंग में जाती हूँ....... तुम मेरे पीछे आना....... बड़ी तेज़ी से, जैसे तुम मेरा पीछा कर रहे हो... समझे....… मगर ये सब एक दम जल्दी जल्दी में हो।”

मोज़ील ने त्रिलोचन के जवाब का इंतिज़ार न किया और नुक्कड़ वाली बिल्डिंग की तरफ़ खड़ाऊं खटखटाती बड़ी तेज़ी से भागी। त्रिलोचन भी इस के पीछे दौड़ा। चंद लम्हों वो बिल्डिंग के अंदर थे....... सीढ़ियों के पास। त्रिलोचन हांप रहा था। मगर मोज़ील बिलकुल ठीक ठाक थी। इस ने त्रिलोचन से पूछा। “कौन सा माला?”

त्रिलोचन ने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी। “दूसरा।”

“चलो।”

ये कह वो खट खट सीढ़ियां चढ़ने लगी। त्रिलोचन उस के पीछे हो लिया। ज़ीनों पर ख़ून के बड़े बड़े धब्बे पड़े थे। उन को देख देख कर उस का ख़ून ख़ुश्क हो रहा था।

दूसरे माले पर पहुंचे तो कोरी डोर में कुछ दूर जा कर त्रिलोचन ने हौले से एक दरवाज़े पर दस्तक दी। मोज़ील दूर सीढ़ियों के पास खड़ी रही।

त्रिलोचन ने एक बार फिर दस्तक दी और दरवाज़े के साथ मुँह लगा कर आवाज़ दी।

“महंगा सिंह जी.......महंगा सिंह जी!”

अंदर से महीन आवाज़ आई। “कौन?”

“त्रिलोचन!”

दरवाज़ा धीरे से खुला.... त्रिलोचन ने मोज़ील को इशारा किया। वो लपक कर आई दोनों अंदर दाख़िल हुए....... मोज़ील ने अपनी बग़ल में एक दुबली पतली लड़की को देखा.......जो बेहद सहमी हुई थी। मोज़ील ने उस को एक लहज़े के लिए ग़ौर से देखा पतले पतले नक़्श थे। नाक बहुत ही प्यारी थी मगर ज़ुकाम में मुबतला। मोज़ील ने उस को अपने चौड़े चकले सीने के साथ लगा लिया और अपने ढीले ढाले कुरते का दामन उठा कर उस की नाक पोंछी।

त्रिलोचन सुर्ख़ हो गया।

मोज़ील ने कृपाल कौर से बड़े प्यार के साथ कहा। “डरो नहीं, त्रिलोचन तुम्हें लेने आया है।”

कृपाल कौर ने त्रिलोचन की तरफ़ अपनी सहमी हुई आँखों से देखा और मोज़ील से अलग हो गई।

त्रिलोचन ने उस से कहा। “सरदार साहब से कहो कि जल्दी तैय्यार हो जाएं....... और अपनी माता जी से भी.......लेकिन जल्दी करो।”

इतने में ऊपर की मंज़िल पर बुलंद आवाज़ें आने लगीं जैसे कोई चीख़ चिल्ला रहा है और धींगा मुश्ती हो रही है।

कृपाल कौर के हलक़ से दबी दबी चीख़ बुलंद हुई। “उसे पकड़ लिया उन्हों ने!”

त्रिलोचन ने पूछा। “किसे?”

कृपाल कौर जवाब देने ही वाली थी कि मोज़ील ने उस को बाज़ू से पकड़ा और घसीट कर एक कोने में ले गई। “पकड़ लिया तो अच्छा हुआ.... तुम ये कपड़े उतारो।”

कृपाल कौर अभी कुछ सोचने भी न पाई थी कि मोज़ील ने आनन फॉनन उस की क़मीज़ उतार कर एक तरफ़ रख दी। कृपाल कौर ने अपनी बाँहों में अपने नंगे जिस्म को छुपा लिया और सख़्त वहशत ज़दा हो गई। त्रिलोचन ने मुँह दूसरी तरफ़ मुँह मोड़ लिया। मोज़ील ने अपना ढीला ढाला कुरता उतारा और उस को पहना दिया। ख़ुद वो नंग धड़ंग थी। जल्दी जल्दी उस ने कृपाल कौर का इज़ारबंद ढीला किया और उस की शलवार उतार कर, त्रिलोचन से कहने लगी। “जाओ, इसे ले जाओ.......लेकिन ठहरो।”

ये कह कर उस ने कृपाल कौर के बाल खोल दिए और इस से कहा। “जाओ.......जल्दी निकल जाओ।”

त्रिलोचन ने इस से कहा। “आओ।” मगर फ़ौरन ही रुक गया। पलट कर उस ने मोज़ील की तरफ़ देखा जो धोए देदे की तरह नंगी खड़ी थी। उस की बाँहों पर मुहीन मुहीन बाल सर्दी के बाइस जागे हुए थे।

“तुम जाते क्यों नहीं हो?” मोज़ील के लहजे में चिड़चिड़ापन था।

त्रिलोचन ने आहिस्ता से कहा। “इस के माँ बाप भी तो हैं।”

“जहन्नम में जाएं वो....... तुम इसे ले जाओ।”

“और तुम?”

“मैं आ जाऊँगी।”

एक दम ऊपर की मंज़िल से कई आदमी धड़ा धड़ नीचे उतरने लगे। दरवाज़े के पास आ कर उन्हों ने उसे कूटना शुरू कर दिया जैसे वो उसे तोड़ ही डालेंगे।

कृपाल कौर की अंधी माँ और उस का मफ़लूज बाप दूसरे कमरे में पड़े कराह रहे थे।

मोज़ील ने कुछ सोचा और बालों को ख़फ़ीफ़ सा झटका दे कर उस ने त्रिलोचन से कहा। “सुनो। अब सिर्फ़ एक ही तरकीब समझ में आती है....... में दरवाज़ा खोलती हूँ....... ”

कृपाल कौर के ख़ुश्क हलक़ से चीख़ निकलती निकलती दब गई। “दरवाज़ा।”

मोज़ील, त्रिलोचन से मुख़ातब रही। “मैं दरवाज़ा खोल कर बाहर निकलती हूँ.......तुम मेरे पीछे भागना....... मैं ऊपर चढ़ जाऊंगी....... तुम भी ऊपर चले आना....... ये जो लोग जो दरवाज़ा तोड़ रहे हैं, सब कुछ भूल जाऐंगे और हमारे पीछे चले आयेंगे....... ”

त्रिलोचन ने फिर पूछा। “फिर?”

मोज़ील ने कहा। “ये तुम्हारी....... क्या नाम है इस का....... मौक़ा पा कर निकल जाये .......इस लिबास में इसे कोई कुछ न कहेगा।”

त्रिलोचन ने जल्दी जल्दी कृपाल कौर को सारी बात समझा दी। मोज़ील ज़ोर से चिल्लाई। दरवाज़ा खोला और धड़ाम से बाहर के लोगों पर गिरी....... सब बौखला गए। उठ कर उस ने ऊपर की सीढ़ियों का रुख़ किया। त्रिलोचन उसके पीछे भागा। सब एक तरफ़ हट गए।

मोज़ील अंधा धुंद सीढ़ियां चढ़ रही थीं....... खड़ाऊं उस के पैरों में थी....... वो जो लोग जो दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश कर रहे थे सँभल कर उन के तआक़ुब में दौड़े। मोज़ील का पांव फिसला.......ऊपर के ज़ीने से वो कुछ इस तरह लुढ़की कि हर पथरीले ज़ीने के साथ टकराती, लोहे के जंगले के साथ उलझती वो नीचे आ रही.......पथरीले फ़र्श पर।

त्रिलोचन एक दुम नीचे उतरा। झुक कर इस ने देखा तो उस की नाक से ख़ून बह रहा था। मुँह से ख़ून बह रहा था। कानों के रस्ता भी ख़ून निकल रहा था। वो जो दरवाज़ा तोड़ने आए थे इर्द-गिर्द जमा हो गए....... किसी ने भी न पूछा क्या हुआ है। सब ख़ामोश थे और मोज़ील के नंगे और गोरे जिस्म को देख रहे थे। जिस पर जा बजा ख़राशें पड़ी थीं।

त्रिलोचन ने उस का बाज़ू हिलाया और आवाज़ दी। “मोज़ील.......मोज़ील।”

मोज़ील ने अपनी बड़ी बड़ी यहूदी आँखें खोलीं जो लाल बूटी हो रही थीं और मुस्कुराई।

त्रिलोचन ने अपनी पगड़ी उतारी और खोल कर इस का नंगा जिस्म ढक दिया। मोज़ील फिर मुस्कुराई और आँख मार कर उस ने त्रिलोचन से मुँह में ख़ून के बुलबुले उड़ाते हुए कहा। “जाओ, देखो.......मेरा अंडर वीयर वहां है कि नहीं.......मेरा मतलब है वो....... ”

त्रिलोचन उस का मतलब समझ गया मगर उस ने उठना न चाहा। इस पर मोज़ील ने ग़ुस्से में कहा। “तुम सचमुच सिख हो....... जाओ देख कर आओ।”

त्रिलोचन उठ कर कृपाल कौर के फ़्लैट की तरफ़ चला गया। मोज़ील ने अपनी धुँदली आँखों से आस पास खड़े मर्दों की तरफ़ देखा और कहा “ये मियां भाई है.......लेकिन बहुत दादा क़िस्म का.......मैं इसे सिख कहा करती हूँ।”

त्रिलोचन वापस आ गया। उस ने आँखों ही आँखों में मोज़ील को बता दिया कि कृपाल कौर जा चुकी है....... मोज़ील ने इत्मिनान का सांस लिया....... लेकिन ऐसा करने से बहुत सा ख़ून इस के मुँह से बह निकला “ओह डैम इट.......” ये कह कर उस ने अपनी महीन महीन बालों से अटी हुई कलाई से अपना मुँह पोंछा और त्रिलोचन से मुख़ातब हुई। “ऑल राइट डार्लिंग....... बाई बाई।”

त्रिलोचन ने कुछ कहना चाहा, मगर लफ़्ज़ इस के हलक़ में अटक गए।

मोज़ील ने अपने बदन पर से त्रिलोचन की पगड़ी हटाई। “ले जाओ इस को.......अपने इस मज़हब को। और इस का बाज़ू उस की मज़बूत छातियों पर बे-हिस हो कर गिर पड़ा।