Asli azaadi wali azaadi - 2 in Hindi Moral Stories by devendra kushwaha books and stories PDF | असली आज़ादी वाली आज़ादी - (भाग-2)

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असली आज़ादी वाली आज़ादी - (भाग-2)

पिछले भाग से आगे---

युद्ध खत्म होते ही दोनों परिवार अपने अपने बच्चों का घर पर इंतजार करने लगें। युद्ध समाप्त होने के अगले दिन ही सुबह नन्नू अपने घर के आंगन में बैठे हुए अपनी भैस का सानी चारा कर रहे थे। उनकी पत्नी और बड़ी बेटी पास में खाट पर बैठ कर धूप सेंक रहे थे। कानपुर में जनवरी का महीना बहुत ठंडा होता है। दिन भी देर से होता है और धूप सेंकने का एक अलग ही आनंद होता है। अचानक किसी ने बाहर दरवाज़ा खटखटाया और आनंद में खलल पड़ गया।

नन्नू अपनी बेटी से बोले- बेटा देखो द्वार पर कोई आया है। कही तेरे भैया तो नही आ गया पाकिस्तानियो को धूल चटाकर। वो मारे खुशी के दौड़ती हुई द्वार पर पहुंची और बोली- कौन है?

जवाब मिला- तुम्हारे पोस्टमैन चाचा है बेटा। तेरे पिताजी है क्या घर पे।
वो बोली - हाँ है बुलाती हूं।
यह सुनके नन्नू खुद ही द्वार पर आए और मुझसे बोले- क्या हुआ साहब कोई चिट्ठी है क्या?
मैं बोला चिट्ठी तो नही पर एक तार है।
नन्नू हैरान होते हुए पूंछा- तार?
मैंने उत्तर दिया है, और हाथ बढ़ाते हुए तार नन्नू को थमा दिया।

मैं पोस्टमैन हूं, मुझे पता है तार का मतलब क्या होता है और उस जमाने मे वो क्यों आता था। मैं डरा हुआ था। सोंच रहा था कही नन्नू मुझे वो तार पढ़ने को ना कह दे। बेचारा न ही खुद पढ़ा लिखा था और न ही अपनी बेटी को पढ़ा पाया और जिसको पढ़ाया वो खुद बॉर्डर के था। मैं नज़र चुरा के जाने लगा तो पीछे से आवाज़ आयी। अरे साहब आप तो जानते ही है बालक तो यहां है नही तो अगर तार पढ़ देते तो महान दया होती। नन्नू ने तुरंत अपनी बेटी को पानी और गुड़ लाने को कहा और मुझे खाट पर बैठने का न्योता दिया। मै बैठ तो गया पर शायद मैं दिल से तैयार नही था। मैं चाहता था कि बस किसी तरह से तार पढ़ कर सुनाऊ और नज़र बचाके चला जाऊ पर नन्नू ने सम्मान में चाय बनाने को कह दिया।

मैं दुखी होके सोंच रहा था- कैसे कहूँ भगवान आखिर कैसे कहूं इस बाप से जिसको मैं बचपन से जनता हूं जिसने अपने बच्चे के लिए वो सब कुछ किया जो एक समृद्ध पिता भी शायद न कर पाता। कैसे कहूं उस माँ से जिस माँ ने अपना पेट काट काट के बच्चे को बड़ा किया था और क्या कहूं उस बहन से जिसने आने भाई में अपना सारा संसार देखा था। कैसे कहूं कि शैलेन्द्र युद्ध मे शहीद हो गया है कैसे कहूं कि वो अब नही रहा।

एकदम से नन्नू बोले- चाय आ गयी साहब पीजिये और बताइये की क्या लिखा है तार में। मैंने नज़रे चुराते हुए तार एक बार फिर से देखा और सोंचा की शायद जो लिखा हुआ है वो बदल जाये और इसमें लिखा हो कि इनका बेटा वापिस आ रहा है। पर तार बहुत निर्दयी हुआ करते है अक्सर वही खबर देते है जो हम सुनना नही चाहते। मैंने लड़खड़ाती हुई जुबान से तार को घूरते हुए पढ़ा - आपका पुत्र युद्ध मे शहीद हो गया है।

बस इतना कहना ही था मैंने इधर देखा ना उधर और सीधा घर से बाहर निकल गया। बहुत सारे तार सुनाए थे बहुत सारे पत्र पढ़कर सुनाए थे पर इससे छोटा औऱ दर्द भरा कभी नही पढ़ा था। मैं तो वहाँ से निकलकर आ गया पर मेरे पीछे जो छूट गए उनका जीवन अब आसान न था। पहले माँ बेहोश हुई फिर बहन और पिता वही खड़ा का खड़ा रह गया। शायद सोंच रहा होगा कि पहले किसका सहारा बनू। पर उसका तो खुद का सहारा नही रह था।

नन्नू ने हिम्मत दिखाते हुए अपने आप को संभाला। फिर अपनी पत्नी और बेटी को भी संभालने की कोशिश की। ये आसान नही था। किसी बाप के लिए उसका जवान बेटा हमेशा के लिए छोड़ कर चला जाये। ये दर्द असहनीय होता है। माँ की रो रो के आँखें पथरा गयी। बहन के आंसुओं ने भी रो रो कर दम तोड़ दिया। उनसे अब कुछ भी सहा नही जा रहा था। किसके पास जाते और अपना दुखड़ा सुनाते।  सर्दी का मौसम अपने के शबाब पर था और कोहरा छटने का नाम ही नही ले रहा था न खाली मैदान से और न नन्नू के परिवार से। चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा छाया हुआ था। जीवन मे किसी भी चीज की इच्छा नही रह गयी थी।

दिन बीत गया तीनो लोगों ने ना तो खाना खाया और ना ही पानी पिया। बस पड़े रहे इस सोंच में कि बूढ़े माँ बाप के मरने पर मुखाग्नि देने वाला भी नही बचा। कैसी किस्मत है कि मरने के बाद शरीर को अग्नि देने के लिए मोहताज होना पड़ेगा। ऐसा लगता है जैसे शरीर तो है पर आत्मा ने ही दम तोड़ दिया।

नन्नू रोता और चिल्लाता हुआ- शहीद हुआ है मेरा बेटा शहीद हुआ है वो। मैं क्यों सारे दिन घर मे मुँह छुपा के बैठा हूँ। अपने देश के लिए जान दी है उसने, जैसे चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह ने अपने जीवन को देश पर न्योछावर किया वैसे ही मेरे बेटे ने भी अपनी जान की परवाह न करते हुए कुर्बानी दी है। शहीद है वो शहीद- चिल्लाता हुआ नन्नू अपनी पत्नी की गोद में सिर रखकर दहाड़े मार मार कर और जोर से रोने लगा और अंततः बेहोश हो गया

उस दिन के बाद सब खत्म हो गया था सब कुछ बिल्कुल खत्म। अगले दिन सुबह सुबह सभी गांव वाले नन्नू के घर आये और सभी ने सांत्वना दी। इस घनघोर दुख में सभी नीची जाति वाले साथ थे परंतु एक भी ऊंची जाति का परिवार सांत्वना प्रकट करने नही आया। सरहद पे सिपाही अगर गोली चलाने से पहले ये सोंचने लगे के मैं ऊंचा हूं और तू नीचा है तो दुशमन की क्या जरूरत हम खुद के ही दुश्मन बन जाये।

नन्नू के बेटे की खबर चौहान साहब के घर भी पहुंच चुकी थी अब चौहान साहब भी घबरा गए थे। परंतु उनके घर कोई भी तार नही आया था इस लिए वे इतने भयभीत नही थी। उनको यकीन था कि उनका बेटा सही सलामत है और जल्दी ही छुट्टी लेके घर आ जायेगा। पर अभी एक पूरा दिन हो चुका था पर सरहद से कोई खबर न थी।

मोहल्ले के सभी लोग नन्नू को सांत्वना देने आते रहते थे। सारे दिन लोगो का मजमा लगा ही रहता। उसी दिन शाम तक शहीद शैलेन्द्र का शव गांव आ गया। पूरा गांव हुजूम लगाके उसके अंतिम दर्शन के लिए नन्नू के घर के बाहर इकट्ठा थे। सभी की आंखों में आंसू थे। सभी शैलेन्द्र के नाम की जय जय कार कर रहे थे। पूरा गांव एक साथ दिख तो रहा था पर इस सांत्वना में चौहान साहब और गांव के अन्य उच्च जाति के और धनवान सेठ लोग इकट्ठा नही हुए थे। ये शर्मनाक था पर समय की सच्चाई थी। शव देखते ही नन्नू का पूरा परिवार बेहोशी की हालत में ही आ गया। शैलेन्द्र का शव इतना विक्षिप्त था कि पहचान में ही नही आ रहा था। एक माँ एक पिता और एक बहन के लिए अपने बच्चे का शव देखना कितने दर्द नाक हो सकता है ये समझ पाना आसान नही है। बिना कुछ देर किए हुए शैलेन्द्र को उसकी आखिरी सलामी दी गयी और फिर गंगा माँ में विलीन कर दिया गया।


to be continued....भाग-3

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