संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि
(9)
फिंगर प्रिंट
दौड़ते आ रहे,
एक रास्ते के मोड़ पर
थानेदार से हवलदार
टकराया ।
जिसे देखते ही
थानेदार गुर्राया-
क्यों बे,चोर भाग गया ?
और तू उसे पकड़ नहीं पाया।
अगर ऐसे ही काम करेगा,
तो हवलदार से थानेदार
कैसे बनेगा ?
पहले तो हवलदार घबराया
फिर थानेदार से फरमाया-
सर,चोर तो भाग गया,
पर जाते -जाते वह अपना
फिंगर प्रिंट मुझको दे गया है,
आप कहें तो
उसकी फोटो कापी
करवा लेते हैं,
और सारे अखबार में
छपवा देते हैं।
सर, उससे चोर का भी
पता चल जाएगा
और अपने को
माल भी मिल जाएगा ।
सुनते ही
थानेदार मुस्कराया,
और हवलदार की
पीठ को थपथपाया ।
अरे फिर तो वाकई
तुमने गजब किया है,
जो चोर के फिंगर प्रिंट को
ढॅूंढ़ लिया है ।
जरा मुझे भी दिखाओ
और साले चोर को
पकड़वाओ ।
तब हवलदार ने
तुरंत ही
रूमाल को हटाया
और अपने गाल में
उछल आये,
फिंगर प्रिंट को
दिखाया ।
***
कितना खाया कितना लूटा.....
कितना खाया कितना लूटा,
किसकी कथा सुनायें ।
अपनी माँ के दर्द को यारो,
हम कैसे बतलायें ।।
क्या इन्हें शहीदों की कुर्बानी,
बिल्कुल याद ना आयी ।
जो चुपके - चुपके माता की,
इज्जत ही दांव लगायी ।।
राजनीति सीता जैसी थी,
उसे सूर्पनखा कर दी ।
चीर - हरण में दुःशासन की,
ऐसी - तैसी कर दी ।।
हर्षद, परमिट और हवाला,
चीनी, रिश्वत और घोटाला ।
सेन्टकिट्स, सुखराम, गुवाला,
धोखाधड़ी कमीशन काला ।।
टू जी, कामन वेल्थ, कोयला,
माईनिंग और रेत माफिया ।
सत्ता में घुस गये कालिया,
नहीं दिख रहा कोई कन्हैया ।।
पशुओं तक का छीन निवाला,
अरबों का करते घोटाला ।
कैसे देश का पिटा दिवाला,
क्या कर लेगा करने वाला ।।
घूमे पहन बैजन्ती माला,
कुर्सी की ही जपते माला ।
कब बदलेंगे अपना पाला,
चाहे जब कर लें मुँह काला ।।
अपने ही आँगन में देखो,
कितना जहर फैलाया ।
जात-पांत गुंडागर्दी का,
नंगा नाच नचाया ।।
भाषा-पानी, क्षेत्रवाद का,
कैसा पाठ पढ़ाया ।
एक देश के राज्यों को ही,
आपस में लड़वाया ।।
लोकपाल हो आई बी आई,
या आयोग या सी बी आई ।
साम, दाम और दंड के रस्ते,
रख दें सबको ठंडे बस्ते ।।
नित नूतन करते हथकंडे,
कभी नहीं रहते ये मन्दे ।
भ्रष्टाचार के रूके न धंधे,
काले धन के हैं ये बन्दे ।।
माँ के फटे हुये आँचल को,
कहाँ - कहाँ सिलवायें ।
और लगे पैबन्दों को हम,
कैसे कहाँ छिपायें ।।
***
त्रिकोण सास बहू बेटे का
तपती जेठ की
दोपहरी में
देवी माँ के
मन्दिर के लिए
एक माँ
अपने बेटे और बहू को
रिक्शे में बैठा कर हाथ जोड़े
गर्म सड़क पर,
नंगे पैर चलती लुड़कती, उठती, लेटती
भरे बाजार से गुजरती
शहनाई की धुनों के बीच
चली जा रही थी ।
पीछे महिलाओं के
समवेत स्वर-
दण्ड भरन तुम्हारे आई हों,
माई केवल माँ...
माई केवल माँ...
माई केवल माँ...
मुखरित हो रहे थे ।
रिक्शे में बैठे
बेटे -बहू के
उज्ज्वल भविष्य
की मंगल कामना
और सुखों के लिये
मनौती माँगने की
इतनी कठोर साधना
वह कर रही थी ।
किन्तु कालान्तर में
यह दृश्य सब भूल जाते हैं
और फिर वही
सदियों से चले आ रहे,
सास- बहू - बेटे के
त्रिकोण में फॅंस कर
उलझ जाते हैं ।
भटक जाते हैं ।
***
पत्नी परमेश्वरः
इक्कीसवीं सदी में
पति परमेश्वर विषय पर
एक कार्यक्रम में,
व्याख्यान को सुनकर-
सभा के अंत में
एक बेचारे पति ने,
गुस्से में वक्ता की कालर को
पकड़ कर,उसे हिलाया
और फिर झॅुंझला कर बोला ।
मंच पर बड़ी लम्बी- चौड़ी
डींगें हाँक रहा था,
और वेद- वेदान्तों की
कहानियाँ भी दुहरा रहा था ।
इस कलयुग में
सतयुग,त्रेता, द्वापर की
बातें करता है
जो मन में आता है,
वह बकता है ।
पति पत्नी का झगड़ा तो,
हर युग में होता रहा है ।
किन्तु इस कलियुग में
दोषी पत्नी ही हो
तो भी हर मौकों पर
बेचारे पति को ही
झुकना पड़ता है ।
इसलिए तो आज
पत्नि ही परमेश्वर
कहलाती है ।
जो बेचारे पति को
जीवन भर झुकाती है।
वक्ता ने तुरंत ही
अपना कालर छुड़ाया
और उसे बड़े प्यार से
समझाया ।
यहीं तो हमारे-
तुम्हारे बीच मतभेद है
जिसका कि मुझे खेद है ।
श्रीमान्,सचमुच
मैं अपनी पत्नी के सामने
आज तक नहीं झुका हूँ
हमेशा झगड़ने पर
वही घुटनों के बल-चल कर
मेरे पास तक आती है,
और फिर बड़े प्यार से
हाथ पकड़ कर,
मुझे पलॅंग के नीचे से
निकालती है ।
***
मेरे आँगन की तुलसी
मेरे आँगन की तुलसी
जो मेरे पूर्वजों ने लगाई थी,
वह लोकरंजनी नहीं,
लोक मंगलकारी थी ।
जब कोई साँझ की बेला में
थका हारा,श्रम की बूँदों में नहाया
घर लौटता था,
तो वह लहरा-लहरा कर
उसका स्वागत करती थी ।
तब प्रत्युत्तर में उसे
दोनों हाथ जुड़े मिलते थे ।
तो तत्क्षण ही उसे
निरोगी होने का
आशीर्वाद भी मिलता था ।
वह श्रद्धा- विश्वास -
और भक्ति की प्रतिमूर्ति थी ।
मेरी माँ, माटी के दिये में
बड़े लगन से प्रेम की बाती भाँजती
और श्रद्धा के तेल में डुबो कर
दीप प्रज्ज्वलित करती थी ।
रोज भोर होते ही जल चढ़ाती
और तुलसी दल को
अपने मुख में रखकर
पूजन अर्चन करती थी,
तो वह अपने लिये ही नहीं
सभी के लिये सुख – शांति
और मंगल की कामना करती ।
तब मेरे पिता जी भी
उसके सामने बैठ कर
रामचरित मानस का पाठ करते हुए,
एक- एक शब्द का गूढ़ रहस्य
बडे़ भाव विभोर होकर बतलाते
सुनकर सभी लोग
सिसकियाँ भरने लगते
और आँखों से अश्रु बहाने लगते ।
यह दृश्य हमारे घर का ही नहीं,
सभी घरों का था,
जहाँ दया, क्षमाशीलता, उदारता
और आदर्शों -मर्यादाओं का
नित्य संवेदनशील संगम होता था ।
कहने को तो आज भी
मेरे आँगन में
वह तुलसी लगी है ।
फर्क सिर्फ इतना है,
कि कल वह हरी- भरी थी,
पर आज मुरझायी और
उदास खड़ी है ।
***
गांधी संग्रहालय से - एक साक्षात्कार
पहुँचा उस दिन, राजघाट में -
देखा वैभव गांधी जी का ।
अपने राष्ट्र के राष्ट्र पिता थे,
स्मारक था-उनके अनुरूप ।
वह तो था, सब ठीक किन्तु
जब संग्रहालय में पहुँचा उनके -
बड़े जतन से, बड़े यतन से
रखा हुआ था-सब सामान ।
हाथ की लाठी आँख का चश्मा
कमर घड़ी और पाँव की चप्पल
खाने के - बर्तन भी देखे,
लिखने की-दावात कलम,
खून में सनी-वह एक लंगोटी,
चरखा पोनी भी साथ दिखी ।
सादा जीवन उच्च विचार की
वह झलक हमें झकझोर गई ।
राष्ट्रपिता की सादगी हमको
सीधे जमीन में गाड़ गई ।
मौन उन्हें मैं देख रहा था,
वे कातर सी देख रहीं थीं ।
मन के भाव भाँप कर बोली -
वह प्यारी गांधी की लाठी
उनके हर पग साथ चली थी,
जो सत्य न्याय का अवतारी था ।
मैं बनी सहारा गांधी जी का
जो अहिंसा का परम पुजारी था ।
पर हाय री, मेरी किस्मत देखो
किनके हाथों थमा दिया ।
स्वजनों का ही रक्त बहाने
मुझको कैसे फॅंसा दिया ।
गांधी की वह एक लंगोटी
मंद-मंद मुस्काई थी,
बड़े प्रेम से बोली मुझसे -
कंगाली का रूप देखकर
अपनाया था, उनने मुझको ।
सबके तन को ढॅंकने खातिर
पहन मुझे वे घूमे थे ।
पर भोग विलासी मानव ने तो
सचमुच कितना गजब ढा दिया ।
तन को तो नंगा कर डाला
मन को भी तो न छोड़ा ।
मर्दों की बात करें हम क्या
नारी ने कदम बढ़ा डाले ।
चश्मा भी चुप क्यों रहता ।
वह बोल उठा यूँ खरी -खरी ।
आँखों के अंधों को देखो,
घूम रहे हैं गली -गली ।
मन में आए भावों को
आँखों से खूब पढ़ा जाता है,
पर काले चश्मों की फैशन ने
सचमुच कितना गजब ढा दिया-
बेशर्मी शैतानी ढॅंकना
अब तो बहुत सरल होता है ।
अहिंसा के सीने में खुलके
हिंसा ने होली खेली थी ।
गांधी जी को छेद गई थी
मैं मनहूस अभागिन गोली ।
बोली वह-इतिहास बनी में,
यहाँ पड़ी हूँ –
इस अनमोल तिजोरी में ।
मुझसे शिक्षा न ले पाया
खेल रहा - वह गोली से ।
कितने गांधी और गिरेंगे
भारत तेरे आँगन में ।
कमर घड़ी का काँटा देखो -
बंद पड़ा है, शीशे में ।
किसे फिकर है, वक्त को परखे
और साथ चले हर पग पग में ।
अब समय चक्र का काँटा देखो
कितना धीमा चलता है ।
कितनी ऐसी और धरोहर
यहाँ वहाँ बेजान पड़ी थीं।
एक समय उनका भी था,
जब गांधी के संग चलती थीं ।
इतिहास हमें क्या माफ करेगा ?
हमने यह क्या कर डाला ?
कहाँ वो रहना चाह रही थीं ?
कहाँ उन्हें हम बिठा गए ।
अष्ट धातु में ढाल- ढाल कर
हमने उन्हें बिठा डाला ।
चौराहों- दोराहों पर
हमने उन्हें सजा डाला ।
गाँधी तेरी आँधी खो गई -
राजनीति के गलियारों में,
गांधी नर का नाम नहीं था ।
गांधी एक विचार धारा थी ।
ऐसी धारा-जिसमे आकर
सब अपनी प्यास बुझाते थे ।
समझ नहीं आता है अब तो
कहाँ खो गई, वह धारा ।
घूर घूर कर पूछ रही थी,
खून से लथ-पथ वह चादर-
अब भी प्यास क्या बाकी
रह गई ?
नहीं बुझी तो और बुझा लो ।
पर इतना याद रखो
हे मानव,
गुजरा वक्त न आने वाला ।
हर पल को तुम आज समेटो ।
जो बीत गया-सो बीत गया ।
अब कल की घड़ियों का
स्वागत हो ।
तो आओ मुझे ओढ़ लो तन में
फिर बन जाओ तुम गांधी ।
फिर बन जाओ
तुम गांधी....।
***