Tab Rahul saankrutyayan ko nahi padha tha - 2 in Hindi Short Stories by Arpan Kumar books and stories PDF | तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था - 2

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तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था - 2

तब राहुल सांकृत्यायन को नहीं पढ़ा था

अर्पण कुमार

(2)

अनुरंजन को अपने सबसे घनिष्ठ दोस्त से इस विषय पर बातचीत करते हुए सचमुच अब काफ़ी मज़ा आने लगा था। अनुरंजन उसे दालान के भीतर वाले कमरे में ले गया और उससे कुछ राज़ बाँटने के अंदाज़ में कहने लगा, “ हाँ यार, मैंने इलाहाबाद को अपनी कर्म-स्थली बनाने की सोची है। वहीं रहकर स्कूली बच्चों को पढ़ाऊँगा और स्वयं का भरण-पोषण भी करूँगा। ख़ुद भी आगे की पढ़ाई करूँगा।”

अभी भी कई ऐसे सवाल थे, जो अमरेंद्र के भीतर उठ रहे थे। सवाल क्या, आशंकाएँ अधिक थीं। मगर वह शायद अनुरंजन के काल्पनिक घरौंदे को तोड़ना नहीं चाहता था। इधर अनुरंजन का किशोर मन तो जैसे सातवें आसमान पर सवार था। उसने आगे कहना जारी रखा, “यार अमरेंद्र, क्या सोचता हूँ! कल ही निकल जाऊँ। जितना समय लगेगा, उतना ही मन सशंकित होगा। शुभ कार्य में देरी क्यों की जाए!”

अमरेंद्र को हँसी आ गई। उससे रहा नहीं गया, “तुम भी कभी-कभी बड़ी अजीब बात करते हो। घर छोड़ना कब से भला शुभ कार्य होने लगा?”

उसकी आँखों में एक साथ प्रश्नों के कई बादल तैर रहे थे।

मगर अपनी कल्पना और विचार-लोक में डूबते-उतराते अनुरंजन को इन बादलों के टुकड़ों से कोई विशेष लेना-देना न था। वह, बादल के ऊपर उड़ने वाला जैसे कोई परिंदा बन गया था। अमरेंद्र, निरंतर उसे निहारता चला जा रहा था, जैसे उसे अपने होनहार दोस्त के शब्दों पर कोई भरोसा ही न हो। जैसे कि अनुरंजन कब ज़ोर से हँस दे और झूठ का उसका यह हवामहल भड़भड़ाकर गिर जाए। मगर पुनर्विचार का ऐसा कोई झोंका या डर की ऐसी कोई बारिश न होनेवाली थी। सो नहीं हुई। अनुरंजन ने हँसते हुए उससे परिहास किया “अमरेंद्र, चलो। तुम्हारा एक फ़ायदा तो हुआ। अब तुम स्कूल में सेकंड नहीं, बल्कि फर्स्ट आओगे।”

“नहीं, मुझे सेकंड ही आना है। तुम हमें छोड़कर मत जाओ।” अमरेंद्र की आँखें गीली थीं।

अनुरंजन भी भावुक हो उठा, “अरे यार, ज़िंदगी रही, तो फ़िर मिलेंगे। क्या तुम मुझे अपनी इन उदास और गीली आँखों से विदा करना चाहते हो!”

वे दोनों देर तक गले मिलते रहे और अब भी स्कूल, शिक्षक, सहपाठी और पढ़ाई की बात करते रहे। उस रात अमरेंद्र, अपने बहन की ससुराल में नहीं बल्कि अपने दोस्त के दालान में ही सोया। दोनों दोस्त बातचीत करते कब सो गए, पता ही नहीं चला।

सुबह नहा धोकर अनुरंजन अपनी माँ के पास गया और कहा, “माँ, मुझे दो सौ रुपए दो। मुझे मसौढ़ी जाना है। बोर्ड की परीक्षा पास आ गई है। मुझे कुछ विषयों के पासपोर्ट लेने हैं।”

संभवतः यह अनुरंजन के जीवन का पहला झूठ था। मगर उसकी जुबान कहीं से भी काँप नहीं रही थी। वह आत्मविश्वास से भरा हुआ था। शायद उसमें उस समय राजकुमार सिद्धार्थ की आत्मा प्रवेश कर गई थी। वह एकदम से अविचलित था। उसकी माँ ने उसकी ओर स्नेहिल नयनों से देखा और उससे सहज मातृवत्सलता में पूछा, “अनुरंजन बेटे, तुम तो अब तक एक बार भी अकेले कहीं बाहर नहीं गए हो। फ़िर तुम्हें आज बाहर जाने का ख़याल कैसे आया!”

अनुरंजन के सामने उसका उद्देश्य स्पष्ट था। वह शांत खड़ा था। उसने बड़ी मासूमियत से मगर दृढ़तापूर्वक जवाब दिया, “माँ, हर काम का कोई न कोई एक दिन तो मुकर्रर होता ही है और वह काम कभी न कभी तो पहली बार शुरू करना ही पड़ता है। मुझे कभी न कभी तो अकेले बाहर जाना ही पड़ेगा। सो, आज ही सही। वैसे भी, अब ये गाइड लाने जरूरी हो गए हैं। इसके बगैर तैयारी में दिक्कत हो रही है।”

उसकी बातों में उसके अनिश्चित भविष्य की तैयारी का एक स्केच था। वह उस समय अपने घर के आँगन से नहीं, मानो इलाहाबाद के किसी एक कोने से बोल रहा था, जहाँ जाकर वह अपने जीवन का एक नया संघर्ष-अध्याय लिखनेवाला था। निर्दोषता और दृढ़ता की समवेत चमक इस समय अनुरंजन के चेहरे पर स्पष्ट रूप से झलक रही थी। लाली देवी को शायद मन ही मन बड़ा अच्छा लगा कि उनका बेटा बड़ा हो गया है। उन्होंने सहर्ष अनुरंजन को दो सौ रुपए दिए। अपने इस गुप्त मिशन के लिए अब अनुरंजन की जेब में दो सौ रुपए और उसके हृदय में ढेरों अरमान थे। भार्गव की एक पॉकेट अंग्रेज़ी-हिंदी डिक्शनरी भी उसने अपने पास रख ली थी। जिसे डर कहते हैं, वह उसके भीतर सिरे से गायब था। जैसे एक छोटा बच्चा, आग को भी छू लेता है, क्योंकि उस समय तक उसे इसके परिणाम का अंदाज़ नहीं होता है। ठीक उसी तरह, बाहर की शहरी दुनिया से लगभग पूरी तरह अनजान अनुरंजन को उसकी गंदगी का लेशमात्र भी ख़याल नहीं था।

घर से बाज़ार तक की यात्रा में दोनों दोस्तों के बीच कई तरह की बातें हुईं। अमरेंद्र उसे छोड़ने पास के बाज़ार तक गया और फिर उससे अनुरंजन ने एक वादा लिया। अमरेंद्र ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा “चाहे कुछ भी हो जाए, मैं किसी से भी इसके बारे में कुछ नहीं बताऊँगा।”

दोनों दोस्तों को यह मालूम नहीं था कि वे अब दुबारा कब मिलेंगे।

अनुरंजन टमटम पर सवार हो यही कोई एक घंटे के भीतर ही तारेगना स्टेशन पर पहुँच चुका था। रास्ते में उसके स्कूल के और उसके गाँव के आसपास के दूसरे गाँवों के कुछ लोग भी उससे मिले। उसका एक सीनियर करीमचंद भी मिला। उसने आँखों ही आँखों में उससे पूछा, “क्या माजरा है अनुरंजन! कहाँ भागे जा रहे हो!” अनुरंजन एकबारगी डर गया। जब तक वह संयमित होता, तब तक करीमचंद आगे बढ़ गया। अनुरंजन को समझ में आ गया कि यह उसकी हँसी-ठिठोली से अधिक कुछ और नहीं था। उसे अपनी ओर से कुछ सफ़ाई नहीं देनी पड़ी। स्टेशन पर आकर वह चुपचाप खड़ा हो गया। वहाँ पर यात्रियों का कोलाहल और रेलवे का अनाउंसमेंट मिलकर एक ख़ास तरह का माहौल रच रहे थे, जिसमें ऐसा लगता है कि हम सभी एक निरंतर यात्रा में लीन हैं। हर किसी को कहीं-न-कहीं उसे इलाहाबाद जाना था और उसका रास्ता मुगलसराय से होकर शुरू होता था। तारेगना एक ऐसा स्टेशन है, जो पटना-गया रेल मार्ग के रूट पर है। अनुरंजन ने यह सब पहले ही पता कर लिया था। मुगलसराय जाने के दो तरीके थे। वाया पटना या फ़िर भाया गया। तभी कुछ देर में रेलवे का अनाउंसमेंट हुआ। पटना से ट्रेन आ रही थी जो गया को जाने वाली थी। वह झटपट टिकट काउंटर के पास गया और बिना कोई देरी किए गया के लिए एक टिकट ले लिया और ट्रेन में बैठ गया। ट्रेन चल पड़ी। अनुरंजन अपने जीवन के इस मिशन को अंजाम देने के लिए इस ट्रेन के साथ भागा चला जा रहा था। ट्रेन जितनी तेज चल रही थी उससे कहीं अधिक तेज इस समय उसके दिल की धड़कन चल रही थी। कहते हैं कि जब मंज़िल दूर की हो, तो बीच के गंतव्य जल्दी आ जाते हैं। शायद गया पहुँचने का यह अनुभव, अनुरंजन के लिए ऐसा ही कुछ था। गया से उसने दूसरी ट्रेन ली और देर रात तक वह मुगलसराय पहुँच चुका था। रास्ते में कई अनजान लोगों से कई तरह की बातें हुईं। कुछ लोगों को वह बातूनी लगा तो कुछ लोगों को समझदार। मुगलसराय से इलाहाबाद की ट्रेन अब कल सुबह थी। अनुरंजन ने मुगलसराय स्टेशन के एक बुक स्टॉल से शिवपूजन सहाय का उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ खरीदा। वह उसे पढ़ने में और उसके पात्रों के चरित्र-चित्रण में डूबा हुआ था। तभी उसके पास एक वृद्ध आए और उन्होंने उससे बातचीत शुरू की। बातों ही बातों में वे उसकी पूरी कहानी और योजना से अवगत हो गए। उन्होंने अनुरंजन से कहा, ”तुम मेरे साथ बनारस चलो। हम तुम्हें वहाँ आगे बढ़ने का भरपूर मौका देंगे। जाओ, ट्रेन का टाइम टेबल देखकर आओ। वाराणसी की ट्रेन कब आने वाली है, यह पता करके मुझे बताओ?”

उनकी बातों में कुछ अतिरिक्त मिठास थी। अनुरंजन अपनी सीट से उठा और कुछ देर में पता करके वापस आ गया। उनसे रुक-रुक कर बातचीत होती रही। वे कौन थे, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा तब तक अनुरंजन को नहीं था। कुछ देर में आर.पी.एफ. का एक तगड़ा और मुच्छड़ जवान आया। वे वृद्ध उसे जानते थे या नहीं, मगर उसने पुलिसिया दबदबे के साथ उनसे पूछा, "आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"

उस वृद्ध ने कुछ हकलाते हुए मगर सहज रहने का अभिनय करते हुए जवाब दिया, "टाइम पास कर रहा हूँ।"

यह जवाब सुनकर अनुरंजन को कुछ अटपटा लगा। उसे कुछ संदेह हुआ। उसने अपने पिता से ठगों की कई कहानियाँ सुन रखी थी। हो ना हो उस वृद्ध में उसे ठग की एक छवि दिखी। वह पुलिस वाला सभी लोगों को यह प्लेटफॉर्म ख़ाली करने के लिए कहने लगा। अनुरंजन को कुछ समझ में नहीं आया, मगर उसके किशोर-मन को लगा कि शायद ऐसा ही कुछ नियम हो। स्वभाव से शांति-प्रिय अनुरंजन वहाँ से हटकर जाने लगा। मगर स्टेशन से बाहर निकलने के लिए किधर जाना है, उसे तब यह कहाँ पता था! उसे स्टेशन पर लिखे ‘एग्जिट’ और ‘एंट्री’ का अंतर ही मालूम नहीं था। अनुरंजन, स्टेशन से बाहर न निकलकर, कहीं अंदर की ही तरफ़ जाने लगा। उसको यह अंदाज़ भी नहीं था कि वही मुच्छड़ पुलिसवाला उसे कहीं दूर से देख भी रहा है। अनुरंजन को यूँ असमंजस में देख, पुलिसवाला उसके पास आया और उसका कॉलर पकड़ते हुए और लगभग धकियाते हुए प्लेटफॉर्म से बाहर लाया और भद्दी सी गाली देते हुए कहा, “साले बिहारी, घर से भागकर आया है। मादरजात! तुमलोगों को ऐसी क्या खुजली होती है कि अपना घर-परिवार छोड़ बाहर चले आते हो!”

हमेशा पढ़ाई-लिखाई में अव्वल रहनेवाले और सुसंस्कारित अनुरंजन को ऐसी भाषा की उम्मीद थी और न ही उसे शहर की आपाधापी में मनुष्य द्वारा मनुष्य के यूँ अपमान का इससे पहले ऐसा कोई अनुभव था! अनुरंजन को बड़ा अजीब लगा। कोई ऐसे कैसे बोल सकता है! किसी की भाषा इतनी रुखी और भद्दी कैसे हो सकती है! उसने प्रतिरोध किया, “मैं भागा नहीं हूँ, बल्कि अपनी स्वेच्छा से मैंने गृह-त्याग किया है।”

उस पुलिस वाले को अनुरंजन की बातों में दम लगा या नहीं, इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि इस तरह के जवाब उसे हर दूसरे दिन सुनने को मिल जाते हैं। मगर, अनुरंजन के चेहरे की मासूमियत रही होगी या उसके बातों में सच्चाई का कोई तेज रहा होगा, वह पुलिसवाला उससे आगे कुछ और नहीं बोला और उससे कुछ दूरी बनाकर खड़ा हो गया। गहराती रात में भी मुगलसराय स्टेशन के बाहर मनुष्यों की ऐसी फौज को देख उसे कुछ हैरानी हुई। गाँव के मेले-ठेले के बीच उसने भीड़ को देखा था, मगर वह उसे बड़ी आत्मीय लगती थी। इतनी कि उसे ‘भीड़’ कहना भी, उसे कहीं से मुनासिब नहीं लगता था। ख़ैर, अब वह इस दुनिया में अकेला था। उसने अपने मन को ज़रा मज़बूत किया और स्वयं से ही कहा, "कोई बात नहीं अनुरंजन, अभी इस संसार में कई अच्छी-बुरी चीज़ों का सामना करना पड़ेगा।"

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