Mera aur usaka intkaam in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | मेरा और उसका इंतिक़ाम

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मेरा और उसका इंतिक़ाम

मेरा और उसका इंतिक़ाम

घर में मेरे सिवा कोई मौजूद नहीं था। पिता जी कचहरी में थे और शाम से पहले कभी घर आने के आदी न थे। माता जी लाहौर में थीं और मेरी बहन बिमला अपनी किसी सहेली के हाँ गई थी! मैं तन्हा अपने कमरे में बैठा किताब लिए ऊँघ रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखा कि पारबती है।

दरवाज़े की दहलीज़ पर खड़े खड़े उस ने मुझ से पूछा। “मोहन साहब! बिमला अंदर है क्या?”

जवाब देने से पेशतर एक लम्हे के लिए पारबती की तमाम शोख़ियां मेरी निगाहों में फिर गईं और जब मैंने सोचा कि घर में कोई मुतनफ़्फ़िस मौजूद नहीं तो मुझे एक शरारत सूझी, मैंने झूट बोलते हुए बड़ी बे-पर्वाई के अंदाज़ में कहा: “अपने कमरे में बुलाऊज़ टाँक रही है।”

ये कह कर मैं दरवाज़े से बाहर निकल आया। बिमला का कमरा बालाई मंज़िल पर था। जब मैंने गली के रौशनदान से पारबती को सीढ़ियां चढ़ते देखा। तो झट से दरवाज़े में दाख़िल हो कर उस को बंद कर दिया और कुंडी चढ़ा कर वह क़ुफ़्ल लगा दिया जो पास ही दीवार पर एक कील से लटक रहा था और दरवाज़े में ताला लगाने के बाद मैं अपने कमरे में चला आया और सोफे पर लेट कर अपने दिल की धड़कनों को सुनता रहा।

पारबती के किरदार का हल्का सा नक़्शा यूं खींचा जा सकता है।

वो ब-यक-वक़्त एक शोख़ चंचल और शर्मीली लड़की है। अगर इस घड़ी आप से बड़ी बेतकल्लुफ़ी से बात कर रही है तो थोड़े ही अर्से के बाद आप उसे बिलकुल मुख़्तलिफ़ पाएंगे। शरारत उस की रग रग में कूट कूट कर भरी है लेकिन बाअज़ औक़ात इतनी संजीदा और मतीन हो जाती है कि उस से बात करने की जुर्रत नहीं हो सकती। मुहल्ले भर में वो अपनी क़िस्म की वाहिद लड़की है। लड़कों से छेड़छाड़ करने में उसे ख़ास लुत्फ़ आता है। अगर कोई लड़का जवाब में मामूली सा मज़ाक़ भी करदे तो उसे सख़्त नागवार गुज़रता है। गली के नौजवानों के नाज़ुक जज़्बात से खेलने में इसे ख़ास लुत्फ़ आता है। बिल्ली की तरह वो चाहती है कि चूहा उस के पंजों के नीचे दुबका रहे और वो उस को इधर उधर पटख़ पटख़ कर खेलती रहे जब उकता जाये तो छोड़ कर चली जाए। कोठे पर चढ़ कर मुहल्ले के लड़कों के पतंग तोड़ लेने में उस को ख़ास महारत हासिल है।

हमारे घर में अक्सर उस का आना जाना था। इस लिए मैं उस की शोख़ तबीयत से एक हद तक वाक़िफ़ था। मेरे साथ वो कई मर्तबा नोक झोंक कर चुकी थी। मगर मैं दूसरों की मौजूदगी में झेंप कर रह जाता था। मुझे उस से नफ़रत न थी। इस लिए कि उस में कोई शैय भी ऐसी नहीं जिस से नफ़रत की जा सके। अलबत्ता उस की तबीयत किसी क़दर उलझी हुई थी और उस की हद से ज़्यादा शोख़ी बाअज़ औक़ात मेरे जज़्बात पर बहुत गिरां गुज़रती थी। अगर मैं सब के सामने उस की फुलझड़ी ऐसी ज़बान को (जिस से कभी तेज़-ओ-तुंद और कभी नरम-ओ-नाज़ुक शरारे निकलते थे) अपनी गोयाई की क़ुव्वत पर ज़ोर दे कर बंद कर सकता तो मुझे ये शिकायत हरगिज़ न होती। बल्कि इस में ख़ास लुत्फ़ भी हासिल होता मगर यहां मौजूदा निज़ाम की मौजूदगी में इस क़िस्म के ख़्वाब क्योंकर पूरे हो सकते हैं!

पारबती के मुतनासिब जिस्म में जुमला खूबियां भरी पड़ी थीं। दोशीज़गी उस के हर अज़ू में सांस लेती थी। आँखों में धूप और बारिश के तसादुम ऐसी चमक, गदराए हुए जोबन का दिलकश उभार, आवाज़ में सुबह की ख़ामोश फ़िज़ा में मंदिर की घंटियों की सदा ऐसी हलावत, और चाल....... ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं हैं कि उस के ख़राम का नक़्शा पेश किया जा सके।

घर ख़ाली था, दूसरे लफ़्ज़ों में मैदान साफ़ था! इस लिए मैंने मौक़ा बहुत मुनासिब ख़्याल किया और उस से इंतिक़ाम लेने की ठान ली। मेरी अर्से से ख़्वाहिश थी कि इस फिसल जाने वाली मछली को एक बार पकड़ कर इतना सताऊँ। इतना सताऊँ कि रो दे और कुछ अर्से के लिए अपनी तमाम शोख़ियां भूल जाये।

मैं कमरे में बैठा था कि वो हस्ब तवक़्क़ो घबराई हुई आई और कहने लगी।

“दरवाज़ा में ताला लगा हुआ है।”

मैं बनावटी हैरत से मुज़्तरिब हो कर यकायक उठ खड़ा होगया।

“क्या कहा?”

“सदर दरवाज़े में ताला लगा हुआ है!”

“बाहर से गली के इन गंदे अंडों ने ताला लगा दिया होगा!”

ये कहता हुआ मैं उस के पास आ गया।

इस पर पारबती ने कहा। “नहीं, नहीं ताला तो अंदर से लगा हुआ है!”

“अंदर से... और बिमला कहाँ है?”

“अपने कमरे में तो नहीं। कोने कोने में देख आई हूँ। कहीं भी नहीं मिली।”

“तो फिर उसी ने शरारत की है। जाओ देखो बावर्ची-ख़ाने, ग़ुसल-ख़ाने में या इधर उधर कहीं छुपी होगी....... तुम ने तो मुझे डरा ही दिया था।”

ये कह कर में वापस मुड़ कर सोफे पर लेट गया और वो बिमला को ढ़ूढ़ने चली गई। पंद्रह बीस मिनट के बाद फिर आई और कहने लगी।

“मैंने तमाम घर छान मारा। परमात्मा जाने कहाँ छुपी है। आज तक मेरे साथ उस ने इस क़िस्म की शरारत नहीं की लेकिन आज जाने उसे क्या सूझी है?”

पारबती सोफे के पीछे खड़ी थी मैंने उस की बात सुनी और पास पड़े हुए अख़बार के औराक़ खोलते हुए कहा।

“मुझे ख़ुद तअज्जुब हो रहा है। सेहन के साथ वाले कमरों में जा कर तलाश करो, वहीं किसी पलंग के नीचे छुपी बैठी होगी।”

ये सुन कर पारबती ये कहती हुई चली गई।

“उसे मेरी शरारतों का इल्म नहीं। ख़ैर सौ सुनार की, एक लोहार की!”

उस को मुज़्तरिब देख कर मेरा जी बाग़ बाग़ होरहा था। इस तीतरी को अपनी होशियारी पर कितना नाज़ था! मैं हंसा, इस लिए कि उस के फड़फड़ाने वाले पर मेरी गिरिफ़्त में थे और मैं बड़े मज़े से उस के इज़्तिराब का तमाशा कर सकता था।

मैं अपने ज़ेहन में इस होने वाले ड्रामे का तमाम प्लाट तैय्यार कर चुका था और इस पर अमल कर रहा था। थोड़ी ही देर के बाद वो फिर आई। इस मर्तबा वो सख़्त झल्लाई हुई थी। दाहिने कान से बहुत नीचे बालों का एक गुच्छा किलिप की गिरिफ़्त से आज़ाद हो कर ढलक आया था। साड़ी सर पर से उतर गई थी और वो बार बार अपने गर्द भरे हाथों को एक नन्हे रूमाल से पोंछ रही थी। कमरे में दाख़िल हो कर मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गई।

मैंने उस से लेटे लेटे दरयाफ़्त किया। “क्यों कामयाबी हुई क्या?”

उस ने थकी हुई आवाज़ में जवाब दिया। “नहीं, मैं अब यहां बैठ कर उस का इंतिज़ार करती हूँ।”

“हाँ बैठो, मैं ज़रा ऊपर हो आऊं।” ये कह कर मैं उठा और चला गया।

बालाई मंज़िल की छत पर मैं पंद्रह बीस मिनट तक टहलता रहा। चाबी मेरी जेब में थी। इस लिए मालूम था कि पारबती किसी सूरत में भी घर से बाहर नहीं निकल सकती और ये एहसास मेरे दिल में एक नाक़ाबिल-ए-बयान मुसर्रत पैदा कर रहा था। मैदान बिलकुल साफ़ था और मैं इस मौक़ा से पूरा पूरा फ़ायदा उठाना चाहता था। मेरी सब से बड़ी ख़्वाहिश ये थी कि पारबती की दूसरों पर हँसने वाली आँखों की चमक एक लम्हे के लिए मान्द पड़ जाये और उस को मालूम हो जाये कि मर्द के पास निस्वानी शरारतों का बहुत कड़ा जवाब है!

ये खेल बहुत ख़तरनाक था। क्योंकि इस बात का डर था कि वो पिता, माता जी या बिमला को तमाम बीते हुए वाक़ियात सुना देगी। इस सूरत में घर वालों की निगाहों में मेरे वक़ार की तज़लील यक़ीनी थी। मगर चूँकि मेरे सर पर इस दिलचस्प इंतिक़ाम का भूत सवार था। जो मैंने उस शोख़ लड़की के लिए तजवीज़ किया था। इस लिए कुछ अर्से के लिए ये तमाम चीज़ें मेरी आँखों से ओझल होगई थीं। मैं अपने दिल से सवाल करता था कि नतीजा क्या होगा। लेकिन इस का जवाब मेरी पोज़ीशन की सही तस्वीर दिखाने की बजाय पारबती... शिकस्त ख़ूर्दा पारबती की तस्वीर आँखों के सामने खींच देता था... मैं बेहद मसरूर था।

कुछ अर्सा बालाई मंज़िल पर टहलने के बाद में नीचे आया। पारबती कुर्सी पर बैठी सख़्त इज़्तिराब की हालत में अपनी ख़ूबसूरत टांग हिला रही थी। जिस पर रेशमी साड़ी का कपड़ा इधर उधर थिरक रहा था।

मैंने कमरे में दाख़िल होते हुए उस से पूछा। “क्यों बिमला मिली।”

“नहीं! मैंने एक बार फिर सब कमरों को छान मारा है लेकिन वो ऐसी ग़ायब हुई है जैसे गधे के सर से सींग।”

में मुस्कुरा दिया। “चलो हम दोनों मिल कर उस को ढूंढें। तुम इस क़दर घबरा गई हो। तुम तो बड़ी निडर और बेबाक लड़की हो।”

“घबराने की कोई बात नहीं! लेकिन मुझे बहुत जल्द घर वापस जाना था।” पारबती के लबों पर एक निहायत ही प्यारा तबस्सुम पैदा हुआ।

हम दोनों एक अर्से तक नीचे सेहन में पलंगों के नीचे, चारपाइयों के पीछे, चीज़ों के इधर उधर पर्दों को हटा हटा कर बिमला को तलाश करते रहे। मगर वो घर पर होती तो मिलती। आख़िर कार मैंने ख़ुद को सख़्त मुतअज्जिब ज़ाहिर करते हुए पारबती से कहा। “हैरत है तुम्हीं बताओ आख़िर बिमला गई कहाँ?”

पारबती जो बार बार झुकने, उठने और बैठने से बहुत थक गई थी, अपनी पेशानी से पसीना के नन्हे नन्हे क़तरों को पोंछती हुई बोली।

“मैं क्या जानूं, ज़मीन खा गई या भूत प्रेत उठा कर ले गए, ये आप ही की बहन की कारस्तानी है, ख़ैर कोई हर्ज नहीं, मैं भी ऐसा सताऊँगी कि उम्र भर याद रखेगी! बिमला हज़ार हो मुझ से उड़ कर कहाँ जाएगी।”

मैं ख़ामोश रहा और इत्मिनान से कुर्सी पर बैठ गया। इस वक़्त हम माता जी के कमरे में थे। पारबती मेरे सामने टायलट मेज़ के क़रीब खड़ी थी। इस के चेहरे को देख कर ये मालूम होता था कि क़तई तौर पर ख़ालीउज़्ज़ेहन है। ग़ैर इरादी तौर पर वो बार बार मेज़ के गोल आईने में अपना चेहरा देख रही थी। और टांगों पर से अपनी साड़ी की शिकनें दरुस्त कर रही थी। दफ़अतन कमरे के मुकम्मल सुकूत से बा-ख़बर हो कर वह सख़्त मुज़्तरिब हो गई और मुझ से कहने लगी।

“मोहन साहब मुझे घर जाना है, जितना जल्द जाना चाहती हूँ इतनी देर होती जाती है। बिमला के अब पर लग गए हैं। शायद मेरे हाथों उस की शामत आई है।”

“हाँ, हाँ, मगर मैं क्या कर सकता हूँ, आप जानें और वो, इस में मेरा क्या क़ुसूर है। और अगर आप को सचमुच जल्दी जाना है तो कहिए, मैं आप की कमर में रस्सी बांध कर छत से लटका दूं, कहिए तो ताला तोड़ दूं? अब आप की जो राय हो?”

इस ने एक लम्हे के लिए सोचा और जवाब दिया। “मजबूरी है ताला तोड़ना ही पड़ेगा।”

लेकिन। मैंने कुर्सी पर से उठते हुए कहा। “ताला बहुत बड़ा है और उसको तोड़ने के लिए बहुत सी दिक्कतें पेश आयेंगी। इस के इलावा हथौड़े की चोटों की आवाज़ सुन कर लोग क्या कहेंगे?”

ये सुन कर वो संजीदा होगई और कुछ देर सोचने के बाद बोली, “लेकिन मुझे घर भी तो जाना है लोग क्या कहेंगे, हम किसी ग़ैर के घर में सेंध थोड़ी लगा रहे हैं अपने घर का ताला तोड़ रहे हैं।”

“है है आज मैं किस साअत से आई थी, अब क्या होगा। मैं किस तरह जाऊं, हाय राम किस बला में फंस गई!”

मेरा वार ख़ाली गया। दर-अस्ल में ये चाहता था कि वो माहौल की नज़ाकत से अच्छी तरह आगाह हो जाये जिस में कि वो उस वक़्त मौजूद थी। चुनांचे मैंने बात को ज़रा वज़ाहत से बयान किया। “माता जी लाहौर गई हैं! पिता जी बाहर हैं और बिमला ग़ायब है इस सूरत में... ” मैं ये कहते कहते रुक गया और फिर इस फ़िक़रे को यूं पूरा कर दिया। “ताला तोड़ना अच्छा मालूम नहीं होता।”

अब की दफ़ा तीर निशाने पर बैठा। पारबती के सपेद चेहरे पर हल्की सी सुर्ख़ी छा गई और एक लम्हे के लिए ऐसा मालूम हुआ कि उस के गालों पर गुलाब की पत्तियां बिखर गई हैं। वो अपनी रेशमी साड़ी में सिमटी, काँपी, थर्राई, पारे की तरह तड़पी और कुछ कहती कहती ख़ामोश हो गई। मैंने इस मौक़ा से फ़ायदा उठाया और हमदर्दाना लहजा में कहा।

“तुम ख़ुद सोच सकती हो। वैसे मुझे कोई उज़्र नहीं!”

वो पेच-ओ-ताब खा कर रह गई। मैं उस को मुज़्तरिब देख कर बहुत मसरूर हो रहा था! कल की चुलबुली शोख़-ओ-शुंग और तर्रार लड़की जो बादलों से आंख-मिचौली खेलती हुई बिजली की तरह चमका करती थी। आज दिए की किरण बन कर रह गई थी जो मेरी फूंक के रहम पर थी।

साहिल के पत्थरों से टकरा कर पलटती हुई लहर की तरह उस ने अपने आप में नई ताज़गी पैदा करके कहा। “मेरी तो जान पर बनी हुई है और आप हैं कि चबा चबा कर बातें किए जा रहे हैं।”

“कौन सी बात?”

“यही, यही कि लोग क्या कहेंगे?” उस ने अपने शर्मीले जज़्बात पर पूरी क़ुव्वत से क़ाबू पाते हुए कहा। मैं कुर्सी पर बैठ गया और ज़ेर-ए-लब गुनगुनाने लगा।

“माता जी लाहौर गई हैं, पिता जी बाहर हैं और बिमला ग़ुम है!”

“आप कौन सी नई बात कर रहे हैं! ये तो मुझे भी मालूम है, सवाल तो ये है कि बिमला कहाँ है?”

“ऊपर होगी और कहाँ?”

“ऊपर? ऊपर की ख़ूब कही। मैं ऊपर चप्पा चप्पा ढूंढ आई हूँ।”

“तुम उसे नीचे ढूंढती होगी। तो वो दूसरी सीढ़ियों से ऊपर चली जाती होगी। जब तुम ऊपर जाओगी तो वो नीचे आजाएगी। ये एक बात मेरे ज़ेहन में आती है और... ”

“इस का एक ईलाज हो सकता है” पारबती ने अपने दाहिने गाल पर उंगली से एक निहायत दिलकश गढ़ा बनाते हुए कहा। मैं ऊपर जाती हूँ और आप ऐसा कीजिए कि दूसरी सीढ़ियों पर खड़े हो जाईए और जूंही वो नीचे उतरे उसे पकड़ लीजिए।

मैंने उस की तजवीज़ को सुना और कहा लेकिन शायद वो असल में यहां मौजूद ही न होगी।

“यहां मौजूद न हो।” मेरी बात सुन कर पारबती का सर ज़रूर चकरा गया। वो कहने लगी।

“हाँ हो सकता है, इस लिए कि अगर होती तो मिल न जाती?”

“क्या हो सकता है वो यहां न हो तो फिर दरवाज़े को ताला किस ने लगा दिया है। ये कहीं आप की शरारत तो नहीं, सच्च कहिए?”

“मुझे क्या मालूम, मेरा ख़्याल है कि बिमला अपनी किसी सहेली के हाँ गई होगी। ये मैं इस लिए कह रहा हूँ कि वो सुबह अपनी साड़ी इस्त्री कररही थी!”

“आप क्या कह रहे हैं?” पारबती की हैरत लहज़ा-ब-लहज़ा बढ़ रही थी। “अगर वो किसी सहेली के हाँ गई है तो फिर ताला किस ने लगाया है....... ये क्या शरारत है?”

“हैरान होने की कोई बात नहीं, मुझे अच्छी तरह याद है कि वो अपनी सहेली ही के हाँ गई है, इस लिए कि जाते वक़्त वो संतू को हम-राह लेती गई थी, अब मुझे याद आया। बाक़ी रहा मैं, तो आप ही बताईए, मैं आप को क्यों क़ैद करने लगा। पर इतना ज़रूर कहूंगा कि बड़ी दिलचस्प मछली जाल में फंसी है।”

“आप क्या कह रहे हैं.......तो फिर.......तो फिर.......ये शरारत....... ” वो अपने फ़िक़रे को पूरा न कर सकी।

“हाँ ये शरारत मैं भी तो कर सकता हूँ।” मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया। “आप का ख़याल है कि मैं इस का अहल नहीं?... शायद मैंने आप से किसी वक़्त का बदला लिया हो।”

पारबती की हालत अजीब-ओ-ग़रीब थी। बंद भाप की तरह वो बाहर निकलने के लिए बे-क़रार हो रही थी। उस ने मेरी तरफ़ तेज़ निगाहों से देखा, जैसे मेरे सीने के असरार जानना चाहती है। लेकिन मैं एक कामयाब ऐक्टर की तरह अपना पार्ट निभा रहा था।

उस ने अपनी आँख की पुतलियों को नचाते हुए दरयाफ़्त किया। “लेकिन इस शरारत की वजह?”

“मुझे मालूम नहीं!”

वो ख़ामोश होगई। फिर यकायक जैसे उसे कुछ याद आगया। कहने लगी।

“मोहन साहिब! मुझे घर जाना है!”

“मुझे मालूम है, पर ये तो बताईए, क्या किसी ने आप का हाथ पकड़ा है?”

“तो दरवाज़ा खोल दीजिए।” ये कहने के बाद उस ने कुछ सोचा और कहा। “लेकिन आप किस तरह कह रहे हैं कि ताला आप ने लगाया है, क्या बिमला वाक़ई यहां नहीं है?”

“मुझे यक़ीन है कि वो यहां नहीं है। इस लिए कि मैं ख़ुद उसे राम गली में छोड़ कर आया हूँ और मैं ने इन हाथों से क़ुफ़्ल लगाया है” मेरी गुफ़्तुगू का अंदाज़ निहायत मतीन और संजीदा था।

“आप ने क़िफ़्ल क्यों लगाया?” पारबती ने निहायत तेज़ी से दरयाफ़्त किया। “देखा मैं न कहती थी, ये आप ही की कारस्तानी है।”

“क्यों लगाया, इस लिए कि मैंने लगा दिया। और मैं ने नहीं लगाया। और मैंने नहीं लगाया मेरे हाथों ने लगाया है।”

“ये भी कोई बात है?”

मैं कुर्सी पर से उठा और जमाई लेकर कहा। “रात को देर तक बाहर रहने से पूरी नींद नहीं सो सका। मेरा ख़याल है, अब सोना चाहिए।”

“चाबी दे दीजिए, फिर आप सौ सकते हैं। वर्ना क़ियामत बरपा कर दूँगी।”

पारबती ने सख़्त इज़्तिराब की हालत में चाबी के लिए अपना हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाया।

“चाबी...चाबी” मैंने अपनी क़मीज़ की जेब में हाथ डाल कर कहा। “मगर वो तो ग़म हो गई होगी। नामालूम किस ने उड़न छू कर डाली। अब क्या होगा?”

ये सुन कर पारबती ख़श्म-आलूद हो कर बोली। “ग़ुम हो गई होगी।” यानी आप को पहले से ही मालूम था कि गुम हो जाएगी। मोहन साहब! दाहिने हाथ से चाबी निकाल कर दे दीजिए, ये शरारतें जवान लड़कियों के साथ अच्छी मालूम नहीं होतीं, वर्ना मेरा नाम पारबती है पारबती, मुझे कोई ऐसी वैसी लड़की न समझिएगा।”

“चाबी वाक़ई ग़ुम है!” मैंने पहली सी मतानत के साथ जवाब दिया “और तुम्हें इस क़दर तेज़ होने की ज़रूरत नहीं, बे-कार तुम मुझ पर इस क़दर गर्म हो रही हो।”

“चाबी गुम कहाँ हुई। मुझे भी तो मालूम हो?” पारबती अब हवा से लड़ना चाहती थी। “आख़िर आप की जेब से कोई जिन्नात ले गया।”

“अगर तुम्हें मालूम हो जाये तो क्या कर लोगी, दरवाज़ा बंद है और मैंने उसे गली में फेंक दिया है! लो अब साफ़ सुनो मैं दरवाज़े की दर्ज़ से देखा कि जब मैंने गली में फेंकी तो कुत्ते ने हड्डी समझ कर मुँह में दबोच लिया और निगल लिया। अब वो कुत्ता ढ़ूंडा जाये, इस का पेट चीरा जाये, तब कहीं मिले।”

ये सुन कर वो झल्ला कर रह गई और ज़्यादा तेज़ आवाज़ में कहा। “आप को इस शरारत का जवाब देना होगा?”

“किसे?”

“ये बाद में मालूम हो जाएगा।”

“मैंने इत्मिनान का सांस लिया और कहा। “तो फिर ये बाद की बात है उस वक़्त देखा जाएगा। अब हमें हाल पर ग़ौर करना है। कुत्ते के पेट में कहीं कुंजी घुल न गई हो।”

वो ख़ामोश होगई। और में भी चुप होगया। कमरे में मुकम्मल सुकूत तारी था। वो टायलट मेज़ के क़रीब मुतहय्यर खड़ी थी और ग़ालिबन अपनी बे-बसी पर कुढ़ रही थी।

“आप दरवाज़ा नहीं खोलेंगे?” उस ने कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद कहा। “देखिए मुझे न सताईए,वरना इस का अंजाम अच्छा न होगा।”

“मेरे पास चाबी नहीं, इस लिए मजबूर हूँ, हाँ अलबत्ता शाम को दरवाज़ा खोला जा सकता है इस लिए कि शायद उस वक़्त तक तलाश करने पर मिल जाये।”

“और मैं उस वक़्त तक यहीं क़ैद रहूंगी?”

“नहीं, तुम बड़ी ख़ुशी से सहन में, कमरों में, कोठों पर जहां चाहो कूद सकती हो, गा सकती हो, मुझे कोई उज़्र नहीं।”

“परमात्मा जाने आप को क्या होगया है।” वो मेरी गुफ़्तुगू के अंदाज़ पर सख़्त हैरत-ज़दा थी।

“मैं अच्छा भला हूँ लेकिन कभी कभी तफ़्रीह भी तो होनी चाहिए। क्या तुम इस की क़ाइल नहीं हो। क्या तुम कभी ऐसा तफ़्रीह मज़ाक़ नहीं करतीं।”

“मुझे घर जाना है मोहन साहिब!” उस ने मेरे सवाल का जवाब दिया।

“तुम बिलकुल सही कह रही हो, तुम्हें घर जाना है। घर गया पानी से भर और इस में बड़े बड़े कछुओं का डर, लेकिन बताओ मैं क्या कर सकता हूँ?”

“चाबी दे दीजिए, बहुत सता चुके अब ना सताईए।”

“देवी जी, मुझे अफ़्सोस है कि वो कमबख़्त नाशुदनी गुम हो गई है।”

“गुम हो गई है, ग़ुम हो गई है, आप ने ये क्या रट लगा रखी है। आप चाबी क्यों नहीं देते?”

“मेरे पास नहीं है सरकार, कुत्ते के पेट में है।”

“मोहन साहिब! लड़कियों से इस तरह का मज़ाक़ नहीं करते। कुत्ते का पेट, आप की जेब है।”

“अच्छा तो यूंही होगा।”

“यूंही होगा, चाबी लाईए मैं जाना चाहती हूँ।”

“मैं एक बार नहीं सौ बार कह चुका हूँ कि चाबी मेरे पास नहीं है, नहीं है, नहीं है।”

“चाबी आप के पास है, आप के पास है, आप के पास है!”

“मेरे पास नहीं, नहीं, नहीं है।”

“नहीं आप ही के पास है, है, है।” इस ने “है” को सौ मर्तबा दुहराते हुए कहा।

“अच्छा नहीं थी तो है।”

“तो लाईए जेब से निकालिये।”

“मैं नहीं दूंगा।”

“आप को देना पड़ेगी।”

“कोई ज़ोर है?”

“मैं चिल्लाना शुरू कर दूँगी।” उस ने मुझ पर रोब गांठा।

“ब-सद शौक़।” मैंने बड़े इत्मिनान से जवाब दिया। “मगर तुम को मालूम होना चाहिए कि नाहक़ अपना गला फाड़ोगी, हलक़ थकाऊगी... कुछ भी न होगा, रोपीट के देख लो। मैं झूट नहीं कहता... इस कमरे में कोई रौशनदान नहीं। दरवाज़ों पर जितने पर्दे लटक रहे हैं सब के सब दुबैज़ हैं। मुझे बचपन ही में इस का कई मर्तबा तल्ख़ तजुर्बा हो चुका है कि यहां से बुलंद से बुलंद आवाज़ भी बाहर नहीं जा सकती। माता जी एहतियातन मुझे इस कमरे में पीटा करती थीं। मैं इस मार से छुटकारा हासिल करने के लिए ज़ोर ज़ोर से चिल्लाया करता था कि पिता जी मेरी आवाज़ सुन लें मगर बे-सूद... तुम बे-कार चिल्लाओगी।”

पारबती ने मेरी बात सुनी और हारे हुए इंसान की तरह कहा। “लेकिन आप चाबी नहीं देंगे?”

मुझे अफ़्सोस से कहना पड़ता है कि “नहीं”

“क्यों? इस का सबब?”

“फिर वही मुहमल सवाल।”

“आप का मज़ाक़ हद से बढ़ रहा है।” इस ने अपनी साड़ी के गिरते हुए पल्लू को सँभालते हुए कहा। “में ये सब मुआमला हर्फ़ बहरफ़ जैसे का तैसा बिमला को सुना दूंगी।”

“बड़े शौक़ से, में आज शाम को दिल्ली जा रहा हूँ। इस के इलावा बेचारी बिमला कर भी किया सकेगी?”

“वो आप के पिता जी से शिकायत करेगी।”

“मेरी एक ख़श्म-आलूद झिड़की उस की ज़बान बंद करने के लिए काफ़ी होगी।”

“तो मैं ख़ुद उन से सब कुछ कह दूंगी।”

“जो दिल में आए कर लेना। इस वक़्त इस के इज़हार की ज़रूरत नहीं है।”

मैंने कहने को तो कह दिया। मगर दिल में बहुत डरा। पिता जी गो नरम दिल थे। मगर इस क़िस्म की शरारत का सुन कर उन का रंजीदा होना लाज़िम था। बहरहाल मैंने सोच रखा था कि अगर पारबती ने उन से कह दिया तो मैं सर झुका कर उन की लॉन तान सुन लूंगा। दर-अस्ल मैं किसी क़ीमत पर भी इधर उधर की चीज़ें कतर कर झट से अपने बिल में घुस जाने वाली चूहिया को अपने दाम-ए-इंतिक़ाम से बाहर नहीं निकालना चाहता था।

मुझे ख़ामोश देख कर वह मेरे फ़र्ज़ से आगाह करने की ख़ातिर बोली। “आप को मालूम होना चाहिए कि मुझे घर जाना है। बस दिल लगी हो चुकी। अब कुंजी सीधे मन से निकालिये”

“तुम नहीं जा सकती हो।”

“ये भी अजीब सिखा शाही है।”

“हाँ इस मकान में मेरा राज है और सामने वाले मकान पर तुम्हारा। अपने मकान की छत पर तुम सिवा जी हो और हम तुम्हारी हुकूमत तस्लीम करते रहे। तुम ने हज़ारों मर्तबा चढ़े हुए पतंगों को कई कई रील डोर समेत तोड़ लिया है और हम ख़ामोश रहे हैं। आज हमारी बादशाहत में हो। इस लिए तुम्हें दम मारने की मजाल न होनी चाहिए।”

“मैंने आप के पतंग कभी नहीं तोड़े, आप ग़लत कह रहे हैं।”

“तुम झूट बोल रही हो पारबती, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इस वक़्त मेरे हाथ बड़े बड़े इख़्तियारात की डोर है, मर्दों से बात बात पर नोक झोंक करना तुम्हारी फ़ित्रत में दाख़िल हो गया है। मगर शायद तुम्हें ये मालूम नहीं कि हम लोग बड़े सख़्त गीर होते हैं। बुरी तरह बदला लेते हैं समझीं!”

ये सुन कर वो और भी घबरा गई। “मैं जानती हूँ।”

वो दरवाज़े की तरफ़ बढ़ रही थी कि मैंने दौड़ कर दहलीज़ में उस का रास्ता रोक लिया। “तुम कमरे में ही रहोगी?”

“हटिए, मुझे जाने दीजिए।” उस ने मेरे बाज़ू को झटका दिया।

मैं वहीं पर जमा रहा, ये देख कर वो एक क़दम पीछे हट गई और सख़्त ग़ुस्से की हालत में कहा। “आप ज़बरदस्ती कर रहे हैं।”

“अभी तुम ने ज़बरदस्ती का निस्फ़ भी नहीं देखा।”

“आप मुझे नहीं जाने देंगे?”

“नहीं।”

“मैं रो दूंगी, मोहन साहब मैं सर पीट लूंगी अपना” और उस की आँखों से वाक़ई टप टप आँसू गिरने लगे, उसी हालत में वो रूनी आवाज़ में धमकियां देती हुई आगे बढ़ी। मुझे धक्का दे कर उस ने दरवाज़े से बाहर निकलना चाहा। इस कश्मकश और परेशानी में मुज़्तरिब देख कर मुझे उस पर तरस आ गया। और जब वो ताज़ा हमले के लिए आगे बढ़ी। तो मैंने बड़े आराम से उस के गीले होंटों को अपने लबों से छू लिया।

मेरे लबों का उस के होंटों को छूना था कि आफ़त बरपा हो गई। ये समझिए कि किसी ने आतिश-बाज़ी की छछूंदर को आग दिखा दी है। उस ने मुझे वो मोटी मोटी गालियां दीं कि तौबा भली और मेरे सीने को अपने हाथों से धड़ा धड़ पीटना शुरू कर दिया। लुत्फ़ ये है कि आप रोती जाती थी। आख़िर कार जब मुझे मार मारकर थक गई तो ज़मीन पर बैठ कर सर को घुटनों में छुपा कर और भी ज़्यादा ज़ोर से रोना शुरू कर दिया।

निस्फ़ घंटे की मिन्नत समाजत के बाद उस ने अपनी आँखों से आँसू बहाने बंद किए। इस के बाद मैंने जेब से चाबी निकाली और सदर दरवाज़ा खोल कर अपने कमरे की तरफ़ जाते हुए कहा। “दरवाज़ा खुला है और आप जा सकती हैं।”

उस शाम को मैं दिल्ली चला गया। और पंद्रह रोज़ के बाद वापस आया। चूँकि घर में किसी ने इस शरारत के मुतअल्लिक़ मुझ से इस्तिफ़सार न किया। इस लिए मालूम हुआ कि पारबती ने मेरा चैलेंज क़बूल करलिया है कि वो इंतिक़ाम ज़रूर लेगी

एक रोज़ मैंने मेज़ का दराज़ खोल कर अपनी बड़ी तस्वीर निकाली। इस लिए कि मुझे उस का फ़्रेम बनवाना था। ये फ़ोटो ख़ाकिसतरी रंग के बड़े लिफाफे में बंद था। चुनांचे मैं उस को खोल कर देखे बग़ैर फ़्रेम साज़ के हाँ ले गया। उस की दुकान पर मैंने डेढ़ घंटे के ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद फ़्रेम के लिए एक लकड़ी इंतिख़ाब की और कुछ हिदायात देने के बाद तस्वीर वाला लिफ़ाफ़ा दुकान-दार को दे दिया। उस ने जब उसे खोल कर देखा तो खिलखिला कर हंस पड़ा। मैंने जब तस्वीर पर नज़र दौड़ाई तो देखा। इस पर स्याह पैंसिल से मूंछें और दाढ़ी बनी हुई है। नाक पर एक स्याह गोला सा रखा है और चश्मे के शीशे बिलकुल स्याह करदिए गए हैं। ये तस्वीर मेरी शबीह थी मगर इस मसख़ हालत में उस को पहचानना बहुत दुशवार था। पहले पहल तो मैं बहुत मुतहय्यर हुआ कि ये किस की हरकत है मगर फ़ौरन ही सब मुआमला साफ़ होगया... सिवा जी मेरी ग़ैर हाज़िरी में अपनी हमसाया सलतनत पर निहायत कामयाबी से छापामार गए थे|