Lallu in Hindi Classic Stories by Pushp Saini books and stories PDF | लल्लू

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लल्लू

( कहानी -- लल्लू ✍)
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"बेटा हुआ है" नर्स ने जैसे ही यह ख़बर दी तो अम्मा चहक उठी और बोली --"अरे लल्लू तू बाप बन गया,छोटा लल्लू आया है" ।

जी हाँ लल्लू ! इसी नाम से ही सभी मुझे पुकारते आए हैं ।वैसे स्कूल में मेरा नाम ललित लिखाया गया था लेकिन पड़ोस के लड़के भी उसी स्कूल में पढ़ते थे तो वह वहाँ भी लल्लू नाम से मुझे पुकारते और धीरे-धीरे सभी मुझे लल्लू ही कहने लगे ।बहुत गुस्सा आता था और कोफ़्त होती थी इस नाम से लेकिन मना करने पर भी कोई मानता ही नहीं था ।

             पिता जी कहते तेरी दादी ने कितने प्यार से तेरा नाम लल्लू रखा है,बुराई ही क्या है इसमें और मैं कहता कि प्यार से ऐसा नाम रखा जाता है तो नफ़रत से क्या रखतीं?

             माँ कहती ऐसे नाम अगर बच्चों के रखे जाए तो सब अला-बला दूर रहती है उनसे और कभी नज़र भी नहीं लगती ।माँ की बात में मुझे दम लगता था क्योंकि मुझे कभी नज़र लगी ही नहीं ,कोई नज़र भर कर देखता तभी नज़र लगती न ।

               लेकिन एक घटना ने इस नाम के प्रति मेरी नफ़रत को खत्म कर दिया ।

              मेरी ही कक्षा में एक लड़की पढ़ती थी सुरभि ।यथा नाम तथा गुण ।उसके होने से ऐसा लगता था जैसे सारा वातावरण सुगंधित फूलों की ख़ुश्बू से महक गया हो ।बहुत खूबसूरत परी-सी और सबसे ज्यादा धनी भी ।एक वही थी जो स्कूल गाड़ी से आती थी ।उसका ड्राइवर कैसे उसके लिए गाड़ी का दरवाजा खोलता और बंद करता था ,उस वक्त वह एकदम महारानी लगती थी ।वह मन-ही-मन मेरे मन में रहने लगी थी ।

                     मेरे दो पक्के वाले दोस्त थे ,गगन और मगन ।दोनों मेरी ही तरह पढ़ाई में ढीले और सेहत से पिलपिले ।एक दिन सुबह-सुबह गगन को सुरभि की गाड़ी से स्कूल आते देखा ।यह तो एकदम से अप्रत्याशित घटना थी ।
                    हम उससे कुछ पूछते उससे पहले ही वह शुरू हो गया कि कैसे वह घर से आ रहा था और सुरभि ने गाड़ी रुकवाकर उसे लिफ्ट दी और रास्ते भर कितनी बातें करती हुई आयी ।

मुझे उससे मन ही मन जलन हो रही थी और अपनी किस्मत पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसा मेरे साथ क्यों नहीं होता ।

        गगन ने लंच टाइम में फिर वही बातें शुरू कर दी ।मुझे अनमना-सा देखकर कहने लगा ---"अरे लल्लू! ज्यादातर बातें तो वह तेरे विषय में ही कर रही थी" ।

मैने हैरानी से कहा --"क्या" ?

"और क्या, लल्लू को कबसे जानते हो, कहाँ रहता है, वह पढ़ाई में मन लगाए तो और अच्छा कर सकता है, मैं उससे दोस्ती करना चाहती हूँ लेकिन वह कभी बात ही नहीं करता और भी न जाने क्या-क्या..........।"

"क्या सच्ची में" ।

"और क्या"।

"सच में ऐसा लगता है जैसे वह मन ही मन तुझ से ...." कहते हुए गगन और मगन ने एक दूसरे के हाथ पर ताली दे मारी ।

"तुझे उससे आज ही बात करनी चाहिए, ऐसा न हो कि वह तेरा इन्तजार करते-करते किसी और से दोस्ती कर ले" ।

"लेकिन यार तुम तो जानते हो मैने कभी लड़कियों से इस तरह बात नहीं की" ।

"ओ हो तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे बुड्ढ़े हो गए हो "--- कहते हुए मगन हो-हो कर हँसने लगा 

"अरे वहाँ देखों वह अकेली खड़ी कुछ पढ़ रही है, यही मौका है उससे बात करने का और डरते क्यों हो हम हैं न साथ"---- गगन ने कहा 

दोनों लगभग खींचते हुए मुझे वहाँ ले गए और मुझे उसकी तरफ धकेल कर दोनों रफू चक्कर हो गये ।

सुरभि ने किताब से नज़रें हटाकर मुझे देखा ।मैने अपने आपको संभालते हुए सोचा कि अब आ ही गया हूँ तो दोस्ती का प्रस्ताव रख ही देता हूँ उसके सामने ।

           मैने जैसे ही उससे यह बात कही वह आगबबूला हो गयी और बोली ---"शक़्ल देखी है अपनी ।वैसे तुम्हारे नाम और सूरत से फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन तुम पढ़ाई में भी लल्लू ही हो, लल्लू कही के "।

वह और भी न जाने कितने मधुर वचनों से मेरा मान बढ़ा रही थी लेकिन मेरे दिमाग में एक ही वाक्य गूंज रहा था "तुम पढ़ाई में भी लल्लू ही हो"

मैं समझ गया था कि गगन ने इस लल्लू को उल्लू बनाया है लेकिन अब मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता था क्योंकि मुझे इस घटना ने धीर-गंभीर बना दिया था ।अब मुझे पढ़ाई के सिवा कुछ नहीं सूझता था ।गगन और मगन भी मेरे इस रूप को देखकर हैरान थे ।

             मैं उस साल कक्षा में प्रथम आया ।जब मेरा नाम प्रिंसिपल ने पुकारा और मैं मंच पर उनके साथ खड़ा हुआ तभी वह पहला लम्हा था जब दिल ने कहा कि नाम से नहीं इंसान काम से बड़ा होता है ।इस साल मेरी मेहनत और जुनून ने सुरभि ही नहीं उसके जैसे कितने पढ़ाकुओं को पीछे छोड़ दिया था ।

धीरे-धीरे पढ़ाई से प्यार हो गया और अपने नाम से भी ।अब कभी मेहमानों के सामने पिताजी व अम्मा मुझे लल्लू न कहकर ललित कहते तो मुझे बहुत परायापन महसूस होता था ।मैं जब-तब कह देता था कि लल्लू ही कह लिया करें ।

एक अच्छी नौकरी मिलने के बाद निकिता जैसी खूबसूरत और समझदार लड़की से शादी हो गयी लेकिन जब भी मैं पीछे मुड़कर अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना को सोचता हूँ तो वही घटना मुझे संजीवनी बूटी लगती है और सुरभि को मन ही मन गुरु का दर्जा दे बैठा हूँ ।

पुष्प सैनी 'पुष्प'