Kanto se khinch kar ye aanchal - 6 in Hindi Short Stories by Rita Gupta books and stories PDF | काँटों से खींच कर ये आँचल - 6

Featured Books
Categories
Share

काँटों से खींच कर ये आँचल - 6

काँटों से खींच कर ये आँचल

रीता गुप्ता

अध्याय छ

अब अपने आगे के नौ महीने के अज्ञातवास की भी हमें पूरी तयारी करनी थी. एक भी चूक दीक्षा की गृहस्थी के लिए घातक होती.

उसी रात को दीक्षा ने रविश को बताया कि वह मेरे साथ जल्द ही सिडनी, ऑस्ट्रेलिया जाने वाली है. वह पहले भी अपने पापा के साथ घूमने जा चुकी थी. संयोग से उसका पासपोर्ट उसके साथ ही था. उसने उसे बताया कि वह वीसा के सिलसिले में दिल्ली जा रही है. रविश का गुस्सा सातवें आसमान तक जा पहुंचा था कि दीक्षा ने उसे खबर दिया कि आज ही उसे जोरो से चक्कर और उल्टियां भी आयीं हैं. उसे किसी खुश खबरी का अंदेशा लग रहा है. वीसा के चक्करों से आज़ाद होते ही वह अपने टेस्ट्स करवा लेगी. रविश के आग-मिजाज़ पर शीतल जल का छिडकाव हो गया मानों.

अगले कुछ दिनों में हमने कोटा में ही एक अच्छे से किराये के घर की व्यवस्था कर लिया. वहां वैसे भी हम अजनबी थे. मेरा काम हो चुका था. मैं अब ज्यादा से ज्यादा अक्षित की पढाई और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पर ध्यान दे रही थी. अब वह हॉस्टल छोड़ घर पर ही रहने लगा था. दीक्षा और उसके पापा मेरा खूब ध्यान रख रहें थें. वे हमेशा आते-जातें रहते. दीक्षा की जिन्दगी में अब पासा पलट चुका था. अपनी गर्ववती होने की खबर देने के बाद वह, एक तरह से उनसे खुद को पूरी तरह से काट लिया था. रविश हमेशा उतावला रहता उससे बातें करने. अपनी माँ के साथ वह कई बार घर आ कर दीक्षा के पापा से माफ़ी और उसका ऑस्ट्रेलिया का नंबर मांग चुका था. इसका हल दीक्षा ने इ-मेल के जरिये संपर्क कर निकाला था. काफी सफाई से वह मेरे नाम को फोटो-शॉप कर अपना मेडिकल रिपोर्ट उन्हें भेज देती.

कोटा में बितायें वो वक़्त मेरी जिन्दगी के सर्वश्रेष्ठ पल थे. मैं अपना पसंदीदा कार्य ‘अध्यापन’ कर रही थी. मेरे अपने मेरे आस-पास थे. जो मुझे इतना प्यार दे रहें थें कि मैं कभी कभी भाव-विभोर हो उठती. जिन्दगी ने अब तक जिस चीज से मुझे महरूम किया हुआ था वो अब छप्पर फाड मुझ पर नेमत बन बरस रहें थें. नवां महिना सिर्फ अक्षित के लिए ही परीक्षा की घडी नहीं थी बल्कि मेरे और दीक्षा के लिए भी थें.

कोई दस महीनों के बाद दीक्षा गोद में एक गुडिया सी बच्ची ले मेरे संग लौटी थी. सच हमने एक अज्ञातवास ही काटा था. हमारे लौटने के कुछ दिनों के बाद रविश उतावला हुआ आया था,

“अरे दीक्षा तुम कब लौटी ? मुझे बताया तक नहीं....”, उसकी नज़रें बच्ची को तलाश रही थी. मैंने दीक्षा की हथेलियों को दबा, भावनाओं पर काबू रखने का संकेत दिया.

“क्यूँ रविश जी आप तो मेरी बेटी को तलाक देने की बात कर रहें थें, अब बेटी का बाप बनते ही प्यार का उद्द्वेग आने लगे”, मैंने तंज कसा था.

कोई महीने भर की बच्ची को ले दीक्षा अब अपने घर जाने वाली थी. बीतें महीनों में उसने एक माँ की तरह मेरी देख-भाल किया था. अभी भी सबको मेरे लिए दिशा-निर्देश दे ही रही थी.

“रविश मैं एक शर्त पर तुम्हारे साथ चलूंगी कि मैं हर दिन अपने घर जरूर आउंगी, जब तुमने मुझे त्यागा था तो यहीं मुझे सहारा मिला”,

उसने कहा तो मैं मुस्कुरा उठी कि मैं बेटी को उसका हक-अमृतरस दे सकूँ इसके लिए दीक्षा ने कैसी शर्त रखी थी. शायद वह क्षण हमारे परिवार के सुखदतम् क्षणों में एक होगा क्यूंकि उसी वक़्त अक्षित का फोन आया कि उसका चयन देश के एक प्रमुख मेडिकल संस्थान में हो गया है.

“माँ मेरा चयन हो गया , माँ मैं सफल हो गया माँ-माँ .....”, अब तक यार, बड्डी या आंटी कहने वाला मेरा बेटा मुझे ‘माँ’ बोल रहा था. ख़ुशी के अतिरेक में मेरे अश्रु दृग द्वार की बंधन तोड़ भावनाओं से ओत-प्रोत किसी सौन्दर्य-प्रसाधन की तरह मेरे चेहरे की चमक द्विगुणी कर रहें थें.

“बेटा अब तुम जल्दी से घर आ जाओ, आज तुम्हारी दीदी भी तुम्हारी भांजी को ले लौट रही है. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती”, अविरल आंसुओं के बीच मैंने कहा.

...... जाने कब ये अपने फाइल समेट मेरे पहलू में आ बैठ गएँ थें.

“अनुभा तुमसे शादी करना मेरी जिन्दगी का सबसे सही फैसला था”, कहते इन्होने मुझे अपनी बाहों में समेट लिया. मैंने भी मुठ्ठी भींच सारी खुशियों को कैद कर लिया. अलग अलग मरुभूमियों में उगे दो छोटे-बड़े कैक्टस अब सुंदर विविध रंगों के फूलों और फलों से लदे वृक्ष में परिवर्तित हो चुके थें क्यूंकि सारे कांटें तो अब पुष्प-गुच्छ बन सुवासित हो रहें थें.

***