Hawao se aage - 23 in Hindi Fiction Stories by Rajani Morwal books and stories PDF | हवाओं से आगे - 23

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हवाओं से आगे - 23

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

हवाओं से आगे

(भाग 3)

उस रोज़ ज़ाहिदा ने महक के बाथरूम में मर्दाना बाथ-रॉब में लिपटी ब्रीफ देखी थी | तभी उसके दिमाग में कुछ खटका जरूर था पर फिर विचारों को परे झटककर वह सोने चली गयी थी किन्तु महक के एक फ़ोन ने पिछली सारी कड़ियाँ जोड़नी शुरू कर दी थीं मसलन साफ़ एश-ट्रे में भी कुछ राख़ का अंततः बची रह जाना, अलमारी में पुरुष की कमीजें, शेविंग-किट और बेड से सटी टेबल में कुछ कंडोंम के अनपैक्ड पैकिट | महक ने जल्दी से सबकुछ क्लीन कर दिया था ये कहते हुए कभी-कभी जल्दबाज़ी में अल्ताफ़ यहीं से तैयार होकर दफ्तर चला जाता है | अतुल ने तो शायद ये सब नोटिस भी नहीं किया था |

“महक क्या लिव-इन में थी ?” अतुल की बात को नकारे जाने का कोई कारण ज़ाहिदा के पास नहीं था,

“हाँ अगर मैं उन सारी कड़ियों को जोडती हूँ तो वह लिव-इन में ही थी जब हम उसको विजिट करने गए थे”

“तुमने पहले क्यूँ नहीं बताया ?”

“तुम तो अल्ताफ़ की तारीफ़ करते नहीं अघा रहे थे, अब क्या हो गया ? मुझे लगा तुम उसे पसंद करते हो ?”

“हाँ... मगर... वैसे नहीं कि मैं उसको अपना दामाद बना लूँ ?”

“मतलब वह सिर्फ़ तुम्हारा दामाद ही नहीं बनेगा, एकस्क्यूज़ मी... महक मेरी भी बेटी है” ज़ाहिदा चिढ-सी उठी थी,

“तुम न जब से पचास की हुई हो कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़ी हो उठी हो ?”

“अब इसमें मेरी बात कहाँ से आ गयी बीच में ? वैसे भी इसमें लाल-पीले होने की क्या ज़रूरत है?”

“मैं महक की शादी अपनी बिरादरी में करना चाहता था” अतुल अपनी धुन में कह गया था | उस वक्त वह एक पिता था सिर्फ़ एक पिता, ज़ाहिदा को अतुल में एक पुरुष नज़र आ रहा था, उस वक़्त वह उसका पति तो कतई नहीं था |

“क्या...ये क्या कह रहे हो अतुल ? अल्ताफ़ में क्या खराबी है ? यही कि वह मुस्लिम है ? किन्तु तुम ये कैसे भूल गए कि महक जिस कोख से पैदा हुई है वह एक मुसलमान औरत की ही है” ज़ाहिदा फूट-फूटकर रोने लगी थी, उसे अतुल से ऐसे दोगले व्यवहार की उम्मीद नहीं थी |

गुस्से में वह बाहर निकल आई थी और उस वक़्त बगीचे के कोने में रखी उस बेंच पर बैठी वह इतना सब सोचती-विचरती रही थी | व्यक्ति एक ही जीवन में इतना डबल स्टैण्डर्ड कैसे हो सकता है, पुत्री प्रेम समझा जा सकता है किन्तु अपने जीवन में आने वाली दो स्त्रियों से एक ही व्यक्ति दो भिन्न पकार का व्यवहार कैसे कर सकता है ? ज़ाहिदा के सपनों में बसी अतुल की छवि भरभराकर गिरने लगी थी, एक पुरुष जो अपनी शर्तों पर जीवन जीता आया हो वह खुद ही अपने उसूलों से समझोता कैसे कर सकता है ? हवा में ठंडक उतरने लगी थी, बेंच उसे निहायत ठंडी लगने लगी थी किन्तु उस वक़्त घर लौटकर जाने का मन तो कतई नहीं था उसका | अचानक कांधों के इर्द-गिर्द शाल की गर्मी के साथ-साथ जाने-पहचाने हाथों की छुअन भी महसूस की थी उसने,

“इस तरह यहाँ बैठी रही तो ठंड पकड़ जाओगी फिर संभालना मुझे ही पड़ेगा”

“तुम मुझे तो सम्भाल लोगे किन्तु मेरे आस्तित्व का क्या करोगे जिसे तुमने अपने विचारों से भरभरा कर तहस-नहस कर दिया है ? मैं अब तक एक झूठी जिंदगी जीती आई थी, यह विचार मेरे मन को मथे डाल रहा है, यूँ प्रतीत हो रहा है मानो सीने में एक तूफ़ान-सा उमड़-घुमड़ रहा है जो बाहर आ भी नहीं रहा और भीतर ही भीतर मुझे दबोचे ले रहा है, ये तूफ़ान बाहर नहीं निकला तो मैं मर जाऊँगी” ज़ाहिदा सुबकने लगी थी,

“हम घर चलकर बात करते हैं, दरअसल मैं स्वार्थी हो चला था, मैं नहीं चाहता था कि जो परेशानियां हमने अपनी ज़िन्दगी में झेली हैं उनको महक भी झेले |

“किन्तु... अतुल वह फैसला कर चुकी है और उसने हमसे रज़ामंदी नहीं मांगी बल्कि अपना फ़ैसला सुनाया है”

अतुल ने ज़ाहिदा को अपनी बाहों में समेट लिया था और धीरे-धीरे वे दोनों अपने घर की तरफ बढ़ चले थे |

अचानक अतुल बोला था,

“तुम्हें अल्ताफ़ का पैर छूना याद है, जरूर महक ने सिखाया होगा... वर्ना उसके मुल्क में तो हाथ मिलाने का रिवाज़ ठहरा”

“हम्म... और उसने महक के घर की डस्टिंग करने के बाद गन्नू बप्पा पर मोगरे के फूल भी चढ़ाए थे, तुम्हें याद है ? चांदी के गणपति बप्पा की वह छोटी सी मूरत जो तुमने महक को बचपन में गिफ्ट की थी ?”

“हाँ याद है ...और वह उसे हमेशा अपने साथ रखती थी, प्यार से गन्नू बप्पा कहा करती थी” अतुल ने भावुक हो कर पूछा था,

“महक विदेश में बस जाएगी तो हम बूढ़े-बूढियों का क्या होगा ? काश हमारे एक बेटा और होता”

“वही होगा जो मंजूर ए खुदा होगा”

“मने ?”

“कुन फायाकुन” ज़ाहिदा ने आँखें बंद किए हुए बुदबुदाया,

“इसके मायने क्या होता है ?”

“दरअसल यह अरबी की आयत हैं,‘कुन’ मतलब ‘टू बी’ या “टू एक्जिस्ट’ और ‘फायाकुन’ का मतलब होता है “इट इज़’ यानिकी इसका पूरा अर्थ देखें तो हुआ ‘बी, एंड इट इज़’, जिसका मतलब होता है-जब इस दुनिया में कहीं कुछ नहीं था तब भी वह था” ज़ाहिदा ने आसमानी शक्ति की ओर इशारा करते हुए कहा था,

“वह....कितनी सुंदर व्याख्या है, प्रेम व्यक्ति को कितना ज़हीन, सकारात्मक और सुंदर बना देता है” है न ज़ाहिदा ?

मैं इसे इस संदर्भ में समझाता हूँ कि कहीं पर कुछ न था तो प्रेम था, कुछ है तो वह प्रेम है और यदि कुछ बचा रहेगा तो भी वह प्रेम ही होगा... प्रेम ही एकमात्र विकल्प है इस संसार के बचे रहने का”

“आमीन” ज़ाहिदा के जवाब में अतुल ने कहा था,

“सुम्मा आमीन, यही कहते हैं न ?”

“हाँ... तुम तथास्तु भी कह सकते हो, प्रेम ही एकमात्र विकल्प है यदि इस संसार के अस्तित्व को बचे रहना है”

“हाँ ..” अब्बा का लिखा दोहा कितना सामयिक है, ज़ाहिदा मन ही मन बुदबुदाने लगी थी,

प्रेम सहज-सी भावना, देखे उम्र न जाति |

प्रेम लगन जिस तन लगे, सुलगे दीपक पांति ||”

अतुल विचारमग्न सा बैठा था, ज़ाहिदा को यकीन आने लगा था कि अतुल अब इस बात के दो विकल्प नहीं तलाशेगा, वह कोई तर्क नहीं देगा, वह चाहेगा की उसकी महक अपने देश की संस्कृति को दूसरे मुल्क की संस्कृति से समृद्ध करेगी |

“याद है ज़ाहिदा हमने एक बेटे का नाम भी सोच लिया था”

“हाँ याद है,‘आज़ाद’ बनाना चाहते थे तुम उसे”

“हमने महक में भी तो आज़ाद के सभी गुण रोप ही दिए, जो तुम चाहती थीं न... सब बेफिक्रियाँ, आजादियाँ और ख्वाहिशें ? जो बेलगाम हों किन्तु पतनशील हरगिज़ नहीं”

“हाँ अब बेटे और बेटी में फर्क रह भी कहाँ गया है ? हम महक के पास आते-जाते रहेंगे, आख़िर उसके बच्चों को भी तो संभालना होगा”

“वैसे भी अगर तुम ज्यादा दिन इस घर से दूर रही तो तुम्हारी तुलसा जी और ये अन्य पौधे तुम्हारी याद में हलकान नहीं होने लगेंगे ? हम इसी घर से बंधे रहेंगे, यही हमारी धुरी होगी जहाँ हम अपने विचारों को और पुख्ता बनाते हुए उम्र की सीढियां चढ़ते चले जाएँगें”

ताला खोलते हुए दोनों ने दरवाज़े के पास लगी तख्ती को एक साथ पढ़ा था “ज़ाहिदा-अतुल”

“देखो मैंने यहाँ भी तुम्हें पहले तवज्जोह दी है और हमेशा देता रहूँगा, शायद हर बात का सिर्फ़ एक ही विकल्प होता है”

अगली सुबह-सुबह अचानक ज़ाहिदा का मोबाइल घनघनाया था, उधर से महक थी जो उस वक़्त चहकी-चहकी जा रही थी,

“अम्मी-पापा आप लोग कब आ रहे हो ? अल्ताफ़ आप दोनों को मुझसे ज्यादा मिस कर रहा है, वह आप दोनों को प्रणाम भेज रहा है...जल्दी आइएगा ...वी आर वेटिंग फॉर यू, लव यू बोथ !”

“तो कब के टिकट्स बुक करवाने हैं ?” अतुल पूछ रहा था और ज़ाहिदा खिड़की के बाहर झाँकती हुई लगातार मुस्कुराए जा रही थी,

“क्या हुआ जो यूँ मुस्कुराए जा रही हो ?”

“दरअसल रात की बारिश के बाद सब कुछ कितना धुला-धुला सा हो गया है, सारी धुँध छँटने लगी है”

अतुल ने खिडकियों पर से परदे हटा दिए थे, हवाओं से आगे दूर एक सूरज चमकने की तैयारी में था |

***