Taaiji ki rasoi in Hindi Women Focused by Anjali Joshi books and stories PDF | ताईजी की रसोई

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ताईजी की रसोई

निर्मला ताईजी की रसोई की महक तब भी पूरे मोहल्ले की रौनक थी और आज भी हैं। सब कुछ बदल गया निर्मला ताईजी की जिंदगी में लेकिन ये महक और खाने का स्वाद आज भी पहले दिन सा हैं। मेरे पापा उन्हें भाभी कहते थे। पुराने मोहल्लों की खासियत होती थी, हर पड़ोसी किसी ना किसी रिश्ते में बंध ही जाता था। अंकल आंटिया तब कहां होती थी। तब सब चाचे ताये मौसी बुआ सब परिवार। इसी तरह निर्मला ताईजी मेरी ताईजी थी। मोहल्ले में एक से बढ़कर एक सुघड़ गृहणियां लेकिन निर्मला ताईजी की बात सबसे अलग। किसी का कोई पकवान बनने की जगह बिगड़ जाए वो सुधार देती। रसोई ऐसे करतीं जैसे अन्नपूर्णा पेट भरता मन नहीं। खेलते कूदते कोई बच्चा उनके आंगन पहुंच जाता खाली हाथ कभी नहीं लौटता, हाथ में मठरी शक्करपारा पूरी परांठा कुछ ना कुछ होता। ना जाने कहां से इतनी ममता समाती उनमें। तायाजी उनके सच्चे जीवनसाथी, उनकी ही तरह सब पर प्यार लुटाते । उनके बेटे भूषण भैया से सब बच्चे अक्सर कहते क्या भाग्य हैं आपका भैया निर्मला ताईजी आपकी मम्मी हैं । ख़ान पान के ठाठ हो तो आप जैसे । समय अपनी गति से चलता रहा मेरे पापा का ट्रान्सफर हो गया फिर वही से मेरा ब्याह कर विदा भी कर दिया मम्मी पापा ने। रिटायरमेंट के बाद पापा अपनी जड़ों के पास लौट आए अपने प्रिय मोहल्ले अपने पैतृक घर लौट आए। इस दफे छुट्टियों में मेरा भी बरसों बाद वहां जाना हुआ। गली के कोने से ही ताईजी के हाथ की तुअर की दाल में हिंग के छोंक की खुशबू आई। अपने घर के पहले कदम ताईजी के घर की ओर हो लिए। बाहर तक आ रहें हंसी ठठ्ठो से मन खुश हो गया। ताईजी के पोते पोतियों की आवाजें होंगी, सोचती हुई बैठक में घुसी तो देखा कोई  आठ दस बच्चे पंगत में बैठकर खाना खा रहे हैं। बच्चों के कपड़े देखकर लगा गरीब घरों के बच्चे हैं । चेहरे पर सुखद आश्चर्य लिए रसोई की ओर बढ़ ही रही थीं की एक कम उम्र कीऔरत गरम पकौड़े परोसने के लिए लेकर चली आ‌ रही थी। मुझे देखा तो बोली कौन चाहिए आपको। मुझे लगा शायद ताईजी मोहल्ला छोड़ गई ये नए मकान मालिक हैं। मैंने हाथ जोड़कर कहा माफ किजीए पहले यहां निर्मला ताईजी रहतीं थीं मैं गलतफहमी में भीतर तक चलीं आई। अरे नहीं गलतफहमी नहीं अम्मा मेरा मतलब आपकी ताईजी यहीं हैं अंदर रसोई में। वो महिला बोली आप बैठो मैं बुलाती हूं उन्हें। चारों ओर नजरें दौड़ाते हुए मैं अपना बचपन ढुंढ रहीं थीं तभी ताईजी बाहर आई। जैसे ही अपना नाम बताया ताईजी बोली अरे वा मेरी गुड़िया इत्ती बड़ी हो गई। कलेजे से लगा लिया उन्होंने उसी पहले वाली आत्मियता से। मैं उनके बदले स्वरूप को देखकर दिमाग में बैठी छवि से मिलाने की असफल कोशिश कर रही थी। माथे पर एक रुपए के सिक्के जितनी बड़ी बिंदी लगाने वाली ताईजी ने चंदन का टीका लगा रखा था। बारह महीने गोटा किनारी की साड़ी पहनने वाली ताईजी ने सूत की साड़ी पहनी थी। अन्नपूर्णा की अवतार किसी तपस्विनी सी दिख रही थी। आंखें सुनी सी जरूर थी लेकिन चेहरे की ममता और तेज पहले से भी ज्यादा। उतावली हो रही थी मैं उनसे सवाल पूछने के लिए ढेर सारे। लेकिन उन्होंने सबसे पहले उस महिला को आवाज लगाई और कहा ममता बेटा गुड़िया के लिए थाली परोस ला। रोटी के साथ आलू गोभी की सब्जी का पहला निवाला लेते ही बचपन में लौट गईं मैं। ताईजी आज भी वही स्वाद । अब बताइए ना कैसी है आप? तायाजी कब गुजरें ? भूषण भैया कहां हैं? ताईजी मुस्कुराते हुए बताने लगी मैं कैसी हूं तू बता कैसी लग रही हूं। मैंने कहा किसी तपस्विनी किसी देवी सी। ताईजी खिलखिला कर हंस पड़ी। बोली देवी वेवी तो नहीं पर हां मैं एकदम ठीक हूं जिंदगी से खुश हूं संतुष्ट हूं। तेरे तायाजी सात साल पहले श्रिजी शरण में चले गए। भूषण बिल्कुल बढ़िया है अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ स्टेशन के पिछे वाली कॉलोनी में सुख शांति से है। हैरानी से मेरी आंखें चौड़ी हो गई । स्टेशन के पास की कॉलोनी? वहां तो सिर्फ बड़े बड़े बंगले हैं। और इसी शहर में वो आपसे अलग? ताईजी बोली बंगला ही हैं भूषण का भी। मैं भी वहीं सोती हूं रे। दिन भर यहां रहतीं हूं। बताती हूं सब , तू हाथ मत रोक खाती रह। गुड़िया तेरे तायाजी सरकारी अफसर थे तू जानती ही हैं। उनके जाने के बाद मुझे पेंशन मिलना शुरू हो गई। जब वो गए साल भर तक तो मैं भी बेजान सी बुत बनी घुमती रहीं। फिर सोचा भगवान ने जितनी आयु लिखी काटना तो हैं ही। तेरे तायाजी के जाने के दो तीन साल पहले ही हम बंगले में रहने लगे थे।भूषण बहुत नामी इंजीनियर हैं शहर का। बड़े बड़े लोग आते जाते हैं। मैंने खुद को समेटने के लिए अपने प्रिय काम रसोई को फिर से हाथ में लेना चाहा। लेकिन बहु भक्ति को बिल्कुल पसंद नहीं आया। उसका कहना था घर में बड़े बड़े लोग आते जाते हैं सब सोचेंगे हम दो तीन नौकर नहीं रख सकते? और फिर मुझसे रोज़ देशी खाना नहीं खाया जाता। मम्मी काम करेंगी तो कल से उन्हें लगेगा मैं भी करूं। उन्हें भी आराम करने दो और मुझे भी। मैं अपना ऑफिस संभाल लूं वहीं बहुत हैं। मैंने उम्मीद से भूषण की तरफ देखा शायद वो समझेगा की रसोई पहले मेरा कर्म थी अब मेरी जरूरत हैं। लेकिन भूषण ने वही बात दोहराई कहां मम्मी सबको लगेगा हम आपको ठीक से नहीं रख रहे। इसलिए आप अब ये सब रहने दो। मैं भीतर ही भीतर छटपटाने लगी । क्या करूं क्या ना करूं। पूजा पाठ करूं तो कितनी देर करूं। फिर एक दिन तो मेरा मन बहुत विचलित हो गया। भूषण के घर में जो खाना बनाने बाई आती हैं दुःखी होकर दुसरी बाई से बोल रही थी आज उठने में देर हो गई बच्चों को बिस्किट पकड़ा कर आई हूं खाना नहीं बना पाई उनका। बस तभी मन ही मन फैसला कर लिया। अगले दिन यहां आई भूषण के घर की एक बाई को साथ लेकर, उसको कुछ पैसे देकर घर साफ करवाया। भगवान की दया से तेरे तायाजी पैसे पेंशन सब छोड़ गए मेरे लिए। कुछ पैसे बैंक से निकाल कर यहां की रसोई फिर से जमाई। भूषण के घर काम करने वाली बाईयो और ड्राईवर के अलावा अपने इस मोहल्ले में कुछ लोगों के घरों में काम करने वाली बाईयो के बच्चों के लिए ये रसोई खोल दी। अकेले थक ना जाऊं इसलिए ये ममता को काम पर रख लिया। ये आठ दस बच्चे दोनों वक्त यही खाना खाने लगे। भूषण और भक्ति को पता चला तो सारी दुनिया में ढिंढोरा पीट दिया हमारी मां समाज सेवा करने लगीं हैं। हम उन्हें करने देते हैं , बच्चों को ऐसा बोलने में ऊंची शान लगती हैं तो ठीक है । मुझे कौनसा कोई फर्क पड़ता हैं। दो तीन कॉलेज के बच्चे बोले अम्मा टिफिन सेवा दोगी? उन्हें भी हां कह दिया। वो पैसा ममता को दे देती हूं। दिन भर यहां अपने पुराने लोगों और मेरी रसोई में मेरा समय सुख से निकल जाता हैं रात को भूषण के घर जाकर सो जाती हूं। पूरा जीवन कर्म करते हुए गुजरा जब तक हाथ पैर चल रहे हैं करती रहुंगी। जब खाना खाकर इन बच्चों के चेहरे पर मुस्कान आती हैं मुझे लगता हैं मेरी पूजा हो गई प्रसाद मिल गया। एक बार फिर मैं पेट भर कर ताईजी के घर से निकली। मन में विचार आया वाह रे प्रभु की लीला , जिन ताईजी के अपने बच्चों को कोई दुसरी महिला खाना बना कर खिलाती हैं उस महिला के बच्चों को ताईजी खाना खिला रही हैं। और इस बात की ग्यारंटी ताईजी की रसोई में खाने और खिलाने वालों को जो संतुष्टि मिलती हैं वो भूषण भैया को पैसे देकर भी नहीं मिलती होगी।