Doshi kaun in Hindi Mythological Stories by Ajay Kumar Awasthi books and stories PDF | दोषी कौन

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दोषी कौन

कितना सुंदर और प्रिय था सब कुछ । हर दिन मानो नया संदेश लेकर आता । उमंग और उल्लास।भरा होता अहल्या के रोम रोम में । ऋषि पत्नी अहल्या अपने पतिदेव की सत्यनिष्ठा से सेवा करना ही अपना सबकुछ समझती थी । पति गौतम महाज्ञानी,तपस्वी और ऋषियों में श्रेष्ठ थे ।ऋषि- समाज उनकी विद्वता के आगे नतमस्तक था ,तभी तो उन्होंने सम्पूर्ण समाज के कल्याणार्थ महायज्ञ का आयोजन किया था और न केवल ऋषिगण, चक्रवर्ती राजागण तथा आचार्य आये। बल्कि देवों को भी उस महायज्ञ में आमंत्रित किया गया था और उस यज्ञ में स्वयं देवेन्द्र का भी पदार्पण हो रहा था ।
यज्ञ अनुष्ठान के पश्चात ऋषि समाज के बीच विचार -गोष्ठी का भी आयोजन किया गया था ,जिसके मुख्य अतिथि देवराज इंद्र थे । ऋषि गौतम आज अति व्यस्त हैं क्योंकि आज महानुष्ठान सम्पन्न हो रहा है तथा अतिथियों का आगमन सतत हो रहा है । शिष्यगण सबके ठहरने,भोजन और विश्राम की समुचित व्यवस्था में व्यस्त हैं ।ऋषि गौतम सारी व्यवस्था स्वयं देख रहे हैं और आज तो विशेष अतिथि के स्वागत की तैयारी चल रही है । स्वर्गलोक से देवराज इंद्र पधार रहे हैं । उनके स्वागत में विशाल तोरण द्वार,ध्वज पताका लगाए गए हैं ।राह में पुष्प सज्जा की गईं है । सारा समाज उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है और क्यों न हो वे देवेन्द्र हैं,स्वर्गलोक के स्वामी हैं,समर्थ हैं और यही समाज की सबसे बड़ी खासियत है कि वह।समर्थ ओर सम्पन्न को बड़ा मान देता है ।

देवराज पधार रहे हैं ।।स्वागत द्वार पर धीरे धीरे उनका प्रवेश हो रहा है ।द्वार पर ऋषी गौतम और उनकी पत्नी अहल्या उनके स्वागत के लिए खड़े हैं। देवराज चलकर उनके पास पहुँचते हैं आरती की थाली लिए उनके सम्मुख होती हैं और यहीं पर उनकी अपूर्व सुंदरता से देवेन्द्र का साक्षात्कार होता है वे उनकी सुंदरता पर मुग्ध हो जाते हैं । मर्त्यलोक में इतनी सुंदरता विद्यमान है ,,,? उन्हें आश्चर्य होता है। देवी अहल्या का मुख मंडल उन्हें व्याकुल कर देता है । उनकी घूरती आंखों से बेखबर अहल्या बड़े हर्ष से उनका स्वागत करती है उनकी आरती उतारती है । आज उन्हें बड़ा गर्व हो रहा है कि उनकी पर्ण कुटी के आश्रम में बड़े बड़े दिग्गज पधार रहे हैं । उन्हें अपने पतिदेव पर अभिमान होता है ।

देवराज विशेष कक्ष में ठहराए गए हैं उनकी सेवा के लिए रात और दिन शिष्य तैनात कर दिए गए हैं। उनके लिये फल फूल और मिष्ठान्न रखे गए हैं ।पर अमृत सूरा सोमरस का पान करने वाले, नित नई सुंदर अप्सराओं से घिरे मदमस्त इंद्र के लिए ये तुच्छ भोज रुचिकर नही है । उन्हें तो व्याकुल किये दे रहा है अहल्या का अप्रतिम सौंदर्य । वे उसे भोग लेना चाहते हैं । किसी तरह एक बार पा लेना चाहते हैं और यही तो दोष है कि जीवन मे एक बार विषय की कामना प्रबल हुई नही कि विवेक नष्ट होता चला जाता है और भोग की कामना यंत्रवत सब कुछ करने को बाध्य कर देती है फिर नीति, नियम,मर्यादा नही रह जाते । वे इतने बड़े आयोजन के मुख्य अतिथि है उन्हें यह आकर्षित नहीं करता निरन्तर भोग से उनके जीवन से तप,ज्ञान और विवेक सब खत्म हो चुका है ।।बस अतुल शक्ति और सामर्थ्य के वे स्वामी हैं और इसलिए वे सब अपनी मर्जी से करना चाहते हैं। उनके रास्ते मे बाधा आखिर है क्या ?

सारे आयोजनों के साथ दिवस बीत गया है । रात घिर आयी है सब अपने विश्राम कक्ष की ओर चले गए हैं । दिन भर की व्यस्तता के बाद थककर चूर ऋषि गौतम अपनी कुटिया में निद्रा मग्न हैं अहल्या भी सो रही हैं दिन भर के कोलाहल के बाद आश्रम अब शांत ,स्थिर दिखाई दे रहा है पर कहीं अतिचंचलता है,कोई मन अतिव्याकुल है,वासना,भोग-कामना का नशा उसके शरीर को दहका रहा है । अपने कक्ष में आधीरात को भी अपने सेज से दूर इंद्र बस उस सुंदरी अहल्या को पाने के लिए व्याकुल हैं ।

आधी रात बीत चुकी है प्रतिदिन ऋषि गौतम ब्रह्म मुहूर्त में स्नान के लिए नदी -तट पर चले जाते हैं । उनके जीवन मे केवल तप है,ज्ञान की पिपासा है,वैराग्य है कामना लेशमात्र भी नही है । कठोर साधना से उन्होंने अपना तन और मन को तपाया है और आज उस अवस्था को प्राप्त है जहां अंतर्मन की खांटी सोने जैसी पवित्रता हैं ।  लेकिन आज रात पुरी व्यतीत नही हुई है लेकिन मध्यरात्रि में ही दूर कहीं मुर्गा बांग देता है यह बांग मुर्गे की ओर से ब्राह्म बेला की सूचना है । नित्यप्रति की भांति ऋषि गौतम अपनी शैय्या से उठ कर स्नान को नदी की ओर चल पडते हैं ,,,,

मुर्गा बांग देता और अपने कक्ष के गवाक्ष से देवेन्द्र देख रहे हैं अहल्या की कुटिया को । ऋषि गौतम कुटिया से निकल कर जा रहे हैं द्वार उड़का हुआ है । भोग लालसा ने बड़ी चतुराई दे दी है देवराज को। अपने मायावी प्रताप से देवेन्द्र अब वही  तेजस्वी,तपस्वी,ज्ञानी गौतम बन चुके हैं । गौतम के वेश में इंद्र वासना की अग्नि में जलते धीरे धीरे ऋषि गौतम की कुटिया की ओर बढ़ रहे हैं ,,, सती अहल्या को अपने सामर्थ्य से पाना इंद्र के लिए संभव नही है । उसे तो उसी छल से पाया जा सकता है ।
द्वार पर आहट होती है ,,अहल्या जाग जाती हैं । ऋषि गौतम आ गए हैं वापस । आते ही वे अहल्या को अपने बाहुपाश में ले लेते हैं । आज उनमें ये प्रबल काम-वासना कैसी ? अचंभित होती हैं अहल्या पर पति के सम्मुख उनके बोल नही निकलते । तप्त देह लिए वे कामातुर हैं  सुंदरी अहल्या को आज पा लेना चाहते हैं प्रेमालाप की आतुरता बढ़ती जा रही है ।

     नदी तट पर आज ऋषि गौतम को अजीब सा लग रहा है । चारो ओर रात्रिकालीन नीरव शांति है । शायद उन्हें प्रभात का भ्रम हो गया है । पर मुर्गे ने तो बांग दी थी ? वे लौट पड़ते हैं ,आज कुछ अनिष्ट का अंदेशा उनके मन प्रांतर को विचलित कर रहा है ,,,,वे लौट रहे हैं ,,,,,,

पुनः द्वार पर आहट ,,अहल्या देखती हैं ,ऋषि गौतम द्वार खड़े हैं तो फिर ये कौन ? ये दो दो गौतम कैसे ? और एक अनिष्ट की कल्पना उन्हें भयभीत कर देती है । उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।कुछ गलत हुआ है उनके साथ । उनके सतीत्व पर किसी ने अपनी कुदृष्टि डाली है । हतप्रभ,अवाक,लज्जा से गड़ी वे अपमानित खड़ी हैं । किसी ने अपने छल से उन्हें लूट लिया है ।क्या करें ! कड़वा सच सामने अट्टहास करता हुआ खड़ा हो जाता है । वो पहले के गौतम और कोई नही ,स्वयं देवराज इंद्र हैं ,जिनकी आरती उन्होंने स्वागत द्वार पर श्रद्धा से उतारी थी और अब जो द्वार पर खड़े हैं,वे उनके अपने गौतम हैं । उनके पति परमेश्वर । ऋषि गौतम द्वार पर खड़े हैं । सुबह का सूर्य अपनी लालिमा फैला रहा है । उसका बढ़ता तपता प्रकाश मानो ऋषिवर को भी प्रचंड क्रोध और अपमान की ज्वाला से दग्ध किये दे रहा है । इतना बड़ा विश्वासघात । वो भी उससे ,जिसे उन्होंने अपने आयोजन में सर्वेसर्वा बनाया था और अहल्या क्या अपने पति को इतना भी नही समझ सकी ? जरूर उसके मन मे कामना का बीज अंकुरित था । स्वयं को तो उन्होंने विषय से मुक्त कर लिए था पर अहल्या के मन मे वासना का बीज था तभी तो उसने सहर्ष उस आमंत्रण को स्वीकार कर लिया था । अब रहा नहीं जा है और वो मुर्गा,जिसने समय का भ्रम दिया था ,वो कौन था ?
वो इंद्र के छल का साथी चन्द्रमा था । हां,चंन्द्रमा ने किया था वह मुर्गे का स्वांग । वासना के ज्वार से उतरकर इंद्र खड़े हैं । सारी चतुराई पकड़ी गई है । झूठा स्वांग उनके सामने उजागर हो गया है । गौतम के मुख से शाप निकला --"जाओ इंद्र,जिस वासना के वशीभूत होकर तुमने ऐसी नीचता की है,वह पाप तुम्हारे सर्वांग पर दिखाई देगा ।" ऐसा कहकर उन्होंने अपनी मृगछाला चन्द्रमा के मुख पर दे मारीब-- कलंकित चन्द्रमा चेहरे पर दाग लिए खड़ा था ।
" और अहल्या तुम ? इतने बरस साथ रहकर भी तुमने मुझे पहचाना नही ? तुम्हे कैसे लगा कि मैं कामना के जंगल मे भटकने वाला जीव हूँ ,जिसे सिर्फ दैहिक तृप्ति चाहिए ?  तुम्हारे भीतर भी वही कामना विद्यमान है तुम्हे उसका प्रायश्चित करना होगा । तुम शिलाखण्ड में परिवर्तित होकर दीर्घकाल तक इसका परिणाम भुगतना होगा ।"

तीव्र वेदना लिए अहल्या वह शाप भोगने को विवेश है । क्या दोष है उनका ? सिर्फ इतना कि उन्होंने अपने पति को सर्वस्व माना और उनकी हर इच्छा को अपनी इच्छा जानकर स्वीकारा ? पति का प्रतिकार कैसा ? वो तो उनके लिए परमेश्वर हैं ,सर्वस्व हैं ,पर नही , आज किसी का छल उन्हें अपवित्र कर चुका है । उन्हें पाप की भागीदारी का दंड भोगना होगा । दोष न हो तो भी ।

अहल्या शिलाखण्ड में बदल जाती हैं । कामुक इंद्र कामुकता का शाप लिए अपमानित होता है । कलंकित चंद्रमा अपने चेहरे पर दाग लिए घूमता रहता है ,,,,

पूरे एक युग  के बाद त्रेता में प्रभु श्रीराम का चरण- स्पर्श अहल्या को शिला-खण्ड के शाप से मुक्त करता है और ऋषि गौतम उन्हें स्वीकारते हैं, परंतु यह प्रश्न अपनी धूरी पर आज भी स्थित है कि दोषी कौन... ? और अहल्या आज भी उस सवाल के साथ खड़ी है कि मेरा दोष क्या था.... ?

--अजय अवस्थी किरण