कुंवारियों की दुनिया
पिछले कुछ वर्षों में महानगरों तथा अन्य शहरों में कुंवारी काम काजी महिलाओं का एक नया वर्ग विकसित होकर सामने आया है । वैसे कस्बों और गांवो मे आज भी इस प्रकार की सामाजिक इकाई की कल्पना नहीं की जा सकती है । पढ़ी लिखी, सुसंस्कृत और नौकरी पेशा यही है इमेज कुंवारी लड़कियों की ।
वह अकेली रहती है, बाहर आती जाती है, अकेली यात्रा करती है और फैसले भी शायद खुद करने में समर्थ है । हर महिला अनेक प्रकार के दबावों को झेलती है, तथा लगातार खड़े रहने के लिये संर्घषरत है । इन महिलाओं की बौद्विक क्षमता ज्यादा होती हैं, आत्म विश्वास अधिक होता है, और निम्न वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग में इस प्रकार की कुंवारी महिला का होना एक घटना हैं । ये कुमारियां नौकरी करती हैं, घर परिवार से दूर रहती हैं और अपने एक सामाजिक समाज की बड़ी ताकतें उन्हें अक्सर चुनौती देती हैं और वे रोज इस चुनौती का सामना करती है अक्सर इस प्रकार की महिलाओं की एक अच्छी खासी संख्या नजर आती हैं और सबसे बड़ी बात ये कि वे सुखी, सम्पन्न और सफल जीवन व्यतीत करती हुई प्रतीत होती हैं । वे डाक्टर, वैध, वकील, प्रोफेसर, क्लर्क, अध्यापक, कम्प्यूटर प्रोफेशनल हैं, अकेली हैं, किसी काम काजी हॉस्टल में रहती हैं और जीवन के अंधेरे पक्ष को भूल गयी हैं ।
लेकिन समाज की मुख्य धारा में इस इकाई को स्थान नहीं मिला हैं । यह इकाई समाज में माता, पत्नी या बहन की इकाई नहीं है, और इसी कारण समाज इस इकाई को उस रूप में नहीं देख पा रहा हैं, यह जरूर हैं कि यह इकाई समाज में रचनात्मक सहयोग दे रहीं हैं ।
उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं वैसे तो सुखी ओर सफल हैं मगर विवाह नहीं करने के मानसिक दबाव भी यदा कदा दिखाई दे जाते हैं । उनमे अन्दर कुण्ठाएं नहीं हैं । वे पुरुप मित्रों से बेरोक टोक मिलती हैं, मगर कुछ है जो बहुत पीछे छूट गया हैं । भविष्य, वृद्धावस्था का भय भी यदा कदा देखने को मिल जाता हैं । इस तरह की अधिकांश महिलाएं अपने साथी मित्रों के घरों संे जुड़ी हुई हैं और वे अपने आप मे संतुष्ट हैं ।
इस सम्पूर्ण प्रकरण में सामाजिक संबंधों का दायित्व भाव भी विकसित होता हैं । आर्थिक सम्पन्नता, स्वावलम्बन तथा सघंर्ष कर के एक स्थान अर्जित करने के कारण ये महिलाएं स्वयं मंे संतुष्ट हैं, मगर घर परिवार की चर्चा करने पर एक उदासी उनके मुंह पर देखी जा सकती हैं । उनके मां बाप या भाई बहन का जिक्र आने पर आंखे कहीं खो जाती हैं और अपनी शादी या विगत शादी की बात तो शायद और भी ज्यादा दुख देने वाली होती हैं, मगर इस इकाई को सामजिक ढ़ाचे में ढालना बहुत मुश्किल होता हैं और ले देकर बीवी, जीजी या मेमसाहब के सम्बोधन से संतुष्ट होना पड़ता हैं । मम्मी, भाभी, सास या इस तरह के पारम्परिक सम्बोधन इस दुनिया में नहीं हैं और यही उनकी दुखती हुई कमजोर रग हैं ।
सामाजिक उत्पीड़न, हिंसा या अन्य प्रकार के शोषण से भी जब तब दो चार होना ही पड़ता हैं । एक उम्र ढ़लने तक पूरा समाज खास कर पुरुष वर्ग एक विशेष निगाह से ही देख कर कसमसाता हैं । हां, उम्र का एक दौर गुजर जाने के बाद शायद सब कुछ ठीक ठाक लगने लग जाता हैं ।
पिछले 30-40 वरषों में सामाजिक परिवर्तनों का ऐसा नया दौर शुरु हुआ हैं जिसने पारम्परिक परिवार को तोड़ दिया हैं । इकाई परिवार बने और शहरों ओर कस्बों में बस गयें । इन्ही इकाई परिवारों की दूसरी या तीसरी पीढ़ी में लड़कियां बड़ी हुई और नौकरी, शिक्षा के लिए दूर दूर जाने लगी । धीरे-धीरे उनमें संघर्ष की क्षमता, आत्मविश्वास आया और यह इकाई विकसित हुई । नौकरी करने के बाद शादी का अधिकार भी उन्होंने अपने हाथ में ले लिया , परिणाम स्वरूप उन्होंने स्वयं सब निर्णय लिए । इनके मन मे तनाव, अन्तर्द्वन्द्ध तथा व्यग्रता भी आई वे नौकरी के साथ-साथ अपनी इच्छा व आंकाक्षाएं पूरी करने में समाज के बन्धनों को तोड़ने लगी । सभी कुछ ठीक ठाक चल भी सकता है और नहीं भी । इसी प्रकार इन महिलाओं के साथ काम करने वाले पुरुषों का सोच भी अलग प्रकार का है, वे कम्पनी तो चाहते हैं । मगर शादी नहीं । उनके अपने विचार होते हैं और कुवांरियों के सामाजिक संसार में, वे पुरुष फिर नहीं आ पाते हैं ।
धीरे-धीरे इस प्रकार की महिलाओं के समझने में शायद समाज रुचि नहीं लेता, वे अलग थलग पड़ जाती हैं । मनोविकारों से ग्रस्त हो जाती हैं और 50 वर्ष की उम्र के बाद एक थकान से ग्रस्त होकर भविष्य के प्रति आशंकित हो जाती हैं । अब धीरे-धीरे समाज इन कुमारियों को स्वीकार कर रहा हैं । कई प्रकार के सर्वेक्षण और सामाजिक अध्ययनों से यह भी स्पष्ट हो गया है कि ये कुमारियां अपने जीवन और संसार से बहुत जयादा सुखी, संतुष्ट और खुश नहीं हैं, मगर अब क्या हो सकता हैं, उम्र के इस मोड़ पर आकर कुमारी लड़की वापस जीवन तो नहीं जी सकती है न ।
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यशवंत कोठारी
86,लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर302002.
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