Man ka panchhi in Hindi Philosophy by Dr. Vandana Gupta books and stories PDF | मन का पंछी

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मन का पंछी



   सर्दियों की गुनगुनी धूप मुझे हमेशा ही आकर्षित करती रही है। आज भी इस महानगर की बालकनी में बैठी मैं मटर छील रही हूँ, मैथी पहले ही तोड़ कर रख ली। नीलेश को गाजर लाने के लिए बोला है, सर्दियों में गाजर का हलवा न बने ये संभव नहीं। माइक्रोवेव में खसखस बादाम का हलवा भी सेंकने के लिए रखकर मैं खुद को सेंक रही हूँ। जब भी बेटी घर आती है, मेरा मन डाँवाडोल होने लगता है। सुदूर अतीत के सागर में गोते खाते हुए मैं अक्सर कल्पना के पँख लगा भविष्य के आसमान में उड़ने लगती हूँ।
मेरे मन की अतल गहराइयों में भी एक दुनिया बसती है, मेरी अपनी दुनिया.. मेरी यादों की.. मेरे अहसासों की... एक पेड़ है बहुत बड़ा... उस पर फूल भी हैं, पत्तियां भी और काँटे भी... अब यदि फूल तोड़ना है तो कांटे तो चुभेंगे ही...! पर मैं फूल नहीं तोड़ती... फिर भी... मेरे मन का ये पंछी फुदकता रहता है इस डाल से उस डाल पर... कभी अपने पंखों से फूलों को सहला देता है और कभी काँटों से खुद ही घायल हो जाता है।

हर शनिवार को मेरे घर आते ही माँ फ्रिज में से पाँच छः कटोरियाँ निकाल कर रख देतीं.... "बेटा ये गाजर का हलवा मंगलवार को बनाया था, ये दही बड़े बुधवार को, ये खस्ता कचौरी गुरुवार को और ये बेड़वीं और आलू टमाटर की सब्ज़ी शुक्रवार को और ये थोड़ी सी कटहल की सब्जी तुझे पसन्द है न तेरे लिए रखी थी और अभी गर्म समोसे तलती हूँ.."
"ओफ्फो माँ! मैं नौकरी करने बाहर गयी हूँ, भूखी नहीं रहती हूँ, ये सब मत रखा करो.." मैं झुंझला जाती... पर माँ तो माँ होती है, ये अब जान पायी हूँ, खुद माँ बनने के बाद...।
आज बेटी के आने की खबर से मुझे मेरी माँ का वो उतावलापन याद आ रहा है और मेरी वो झल्लाहट भी..!
मैंने स्नेह के उस लाल गुलाब को हौले से सहला दिया.. और उसने भी मेरे मन को गुदगुदा दिया।

मन का पंछी फिर उड़ चला... अभी तो मैं गुलाब की पंखुड़ियां सहला रही थी कि एक कांटा चुभा... शादी के बाद ससुराल में पहली दीवाली मनाकर लौट रही थी। सुबह सात बजे की बस थी। इतने बड़े परिवार में कोई नहीं उठा जल्दी... न सासू माँ, न जिठानी.. खुद ही पानी गर्म किया, चाय बनाई और खाली हाथ ससुराल से निकल पड़ी। मायके से तो नौ बजे बस होती थी, तब भी माँ सुबह पाँच बजे उठकर टिफिन पैक कर देती और त्यौहार के बाद तो ढेर सारी मिठाई भी होती थी साथ में, अपने कार्यक्षेत्र के मित्रों को बाँटने के लिए...। तब मुझे पहली बार लगा कि एक बेटी की माँ और बेटे की माँ में अंतर होता है... या बेटी और बहू में अंतर होता है, तब समझ नहीं आया, किन्तु अगले साल समझ में आया कि व्यक्ति के सोच, स्वभाव, परिवेश और परवरिश में अंतर होता है, क्योंकि मेरी भाभी के लिए भी माँ वही सब करती, बल्कि उससे भी ज्यादा। मुझे याद है मेरे बनाए हुए मेजपोश, मेरे बुने हुए स्वेटर आज भी भाभी के घर हैं... मैंने छोड़ दी थीं वहीं मेरी निशानियां...!

ऐसी ही एक सर्दी की दोपहर थी, जब मैं माँ और दादी के साथ धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी। ये उन दिनों का प्रिय शगल था... कॉलोनी भर की औरतें दोपहर को मटर, मैथी और ऊन सलाई लेकर किसी एक जगह इकट्ठी हो जातीं... हाथ और जुबान तेज़ी से चलते और धूप ढलने के साथ ही चाय और सर्दी की किसी विशेष डिश के साथ महफ़िल उठ जाती, अगली दोपहर तक के लिए। मुझे ये सुख पहली बार मिल रहा था क्योंकि पढ़ाई और नौकरी के चलते बहुत सारे पेंडिंग काम लेकर सिर्फ रविवार ही छुट्टी के हिस्से आता और यूँ ही गुजर जाता था... वो तो अभी मैं मातृत्व अवकाश लेकर मायके आयी हुई थी, तो अनुभव किया कि मैं कितने बड़े सुख से इतने सालों तक वंचित रही हूँ। इस सुख का पूरा उपभोग भी नहीं कर पायी थी कि एक नया नवेला बिल्कुल अनोखा अहसास हुआ... माँ बनने का अहसास...!
"अंशु ने बेटी को जन्म दिया है.." शर्मा आंटी ने कहा था।
"नहीं.." माँ की आवाज़ सुन मैं चौंक गयी.. माँ झूठ क्यों बोल रही हैं?
"आज अंशु बिटिया का माँ के रूप में जन्म हुआ है. " माँ की पूरी बात सुनकर तब भी मेरा ये मनपाखी कितने ही यादों के हिंडोले झूल आया था। 
बचपन से लेकर आज तक माँ को सिर्फ काम करते ही देखा... 
"माँ तुम कभी थकती नहीं?" मेरा प्रश्न सुन माँ मुस्कुरा देती... "थकती हूँ न बेटा.. जब तू परेशान होती है, या तेरे भाई को उसकी मनपसंद डिश बनाकर नहीं खिला पाती या कि तेरी बहन की पसंदीदा फ्रॉक टाइम पर नहीं सिल पाती, तेरे पापा की परेशानी दूर नहीं कर पाती या फिर तेरी दादी के साथ कभी कीर्तन में नहीं जा पाती।"
"ओफ्फो माँ! कभी तो अपने बारे में भी सोचा करो.." मेरी बात माँ हँसी में टाल देतीं कि "जब माँ बनेगी तब समझेगी तू.."
"देख लेना तब भी मैं अपने लिए जीना नहीं भूलूँगी.." पर माँ ने सच कहा था। बेटी के जन्म के बाद मेरे अंदर की वह आक्रामकता अपने आप सहिष्णुता में बदल गयी। अब मार्केट में बच्चों की चीजों पर ही नज़र ठहरती थी। मुझे अपने लिए भी जीना है, यह बात ही मैं भूलने लगी थी। सच कहा था माँ ने, बच्चे का जन्म होने के साथ ही एक माँ का जन्म होता है... कितना कुछ बदल जाता है...!

"ये लो पूरी पाँच किलो गाजर और मावा.. बनाओ अपनी लाडली के लिए हलवा..." नीलेश की आवाज़ ने मेरे मन के पंछी को आसमान और सागर से निकाल कर धरती पर पटक दिया। भूत, भविष्य को छोड़ मैं वर्तमान में लौट आयी।
गाजर धोकर छीलने के बाद फ़ूड प्रोसेसर निकाला.. और लो दस मिनट में गाजर किस गयीं... मैं फिर अतीत में चली गयी.. हम सब भाई बहन बारी बारी से गाजर किसते थे... वो भी क्या दिन थे.. फिर से मेरे मन का पंछी कोई गीला कोना छू आया और मैं यादों से भीग गयी।पापड़ बनाते तब भी, मनपसंद किताब पढ़ते तब भी और इमली छुपकर खाते तब भी हम सब एक साथ थे..!
"क्या है माँ आप भी न अस्मिता आ रही है तो इतना सब काम फैला लेती हो.." बेटे अस्तित्व को मेरी चिंता होने लगती है या कि मैं कहीं बहू को व्यस्त न कर लूँ, इस बात का डर लगता है, पता नहीं... पर उसके मुँह से ये सुनना हमेशा अच्छा लगता है। मेरे मन के पंछी ने फिर एक गुलाब को छू लिया है। 
"दीदी! तू सप्ताह में दो बार आया कर, तू आती है तो माँ कितनी ही नयी डिश बनाती है और हम दोनों को भी उलझा कर रखती है.." मेरे आते ही दोनों छोटे भाई बहन बातों का पिटारा खोल देते थे।
वह शाम बहुत उदास थी और उसके बाद कई उदास शामें यूँ ही गुज़र गयीं, माँ जो गयीं तो लौटकर नहीं आयीं, किन्तु मेरे अंदर मेरी माँ को उगते हुए महसूस किया मैंने। माँ की जो आदतें मुझे बुरी लगती थीं, मैं उनमें ढलने लगी, मेरे बात करने में माँ का अंदाज़ झलकने लगा। क्या ये मेरा वहम था? शायद नहीं... मुझे कई बार बेटी में भी मेरा अक्स दिखता है... शायद यह परिवर्तन पीढ़ी दर पीढ़ी महसूस होता है। पर मन का पंछी अब चुभन महसूस कर रहा था।
सोचते सोचते मेरा मन आगे की ओर उड़ने लगा... माँ रोज ताज़ी सब्जी मंगाती थी। हम लोग सप्ताह में एक दिन जाकर फ्रिज भर लेते थे और बेटी तो मॉल से कटी कटाई सब्जियाँ लाती है और स्टोर कर लेती है, बहू भी कभी कभी ऑनलाइन ही आर्डर कर देती है। जमाना कितनी तेज़ी से बदल रहा है...! क्या मुझे भी बदल जाना चाहिए? बेटा शायद सही कहता है, मैं ही ज्यादा उत्साहित हो जाती हूँ। उन दिनों माँ का लाड़ करने का ये तरीका मुझे भी तो पसन्द नहीं आता था, क्या पता बेटी भी अनिच्छा से मेरा मन रखने के लिए ही चुप रहती हो।
"आहना! बेटा सुनो, मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा, इस बार तुम ही अस्मिता के स्वागत की तैयारी करो.." मैंने बहू को आवाज़ दी।
"मम्मी! मैं तो हमेशा ही कहना चाहती हूँ, पर आपके चेहरे की खुशी और आँखों का उत्साह देख चुप रह जाती हूँ... आप चिंता छोड़कर आराम कीजिए... मैं सब सम्भाल लूँगी.." बहू ने मुझे आश्वस्त कर दिया। बेमन से मैं कमरे में आ गयी।
दिल दिमाग सब खाली थे... किन्तु न जाने क्यों मन का पंछी भी एक कोने में गुमसुम बैठ गया। यूँ तो बहू भी बहुत अच्छी है, हम दोनों को आजतक एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं हुई। शायद मेरी अपनी सोच से ही मन का कोई कोना रीत गया था आज...!

पलकों के कोनों पर नमी जमने लगी, तब आँखों मे भारीपन लगा... !
घर में चहल पहल से पता लगा कि मैं गहरी नींद में थी। नातिन अद्विका को अस्मिता और आहना दोनों समझा रही थीं, पर वह कोई जिद पकड़े बैठी थी।
"क्या हुआ?" मेरी आवाज सुन दौड़कर गोद में आ बैठी... "नानी! देखो न, वहाँ से मम्मी कहकर लाती हैं कि नानी घर ये खाएंगे और वो करेंगे... आपके हाथ की मटर कचौरी खानी है, मामी और मम्मी दे ही नहीं रहीं... पिज़्ज़ा खाने थोड़ी आये हैं नानी के घर...."
"हाँ मेरी बेटी, पिज़्ज़ा नहीं खाना, अभी खिलाती हूँ गर्म गर्म मटर की कचौरी...." मैं चहक उठी।
आज गर्म कचौरियां तलते हुए बेटी में मुझे मेरा नहीं, उसकी नानी का अक्स दिख रहा था, और मेरे मन का रीता कोना अचानक ही ढेर सारे गुलाबों से सुवासित हो गया।
मन का पंछी फिर आल्हादित हो फुदक रहा था.. इस डाली से उस डाली पर.... सिर्फ फूल ही फूल... काँटों का अस्तित्व ही जैसे खत्म हो गया था.... उन फूलों के बीच एक चेहरा अपलक मुझे देख मुस्कुरा रहा था... मेरी माँ का चेहरा....!

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित
(22/12/2018)