Hawao se aage - 22 in Hindi Fiction Stories by Rajani Morwal books and stories PDF | हवाओं से आगे - 22

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हवाओं से आगे - 22

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

हवाओं से आगे

(भाग 2)

“मैं भी तो नाम और हुलिया बदलकर जीते-जीते तंग आ चुकी हूँ”

“जब आमिर खान, इमरान हाशमी जैसे नामी-गिरामी हस्तियों को अपने मजहब की वजह से मकान खरीदने में समस्या होती है तो ऐसे मुल्क में हम जैसे आम नागरिक अपने लिए ठिकाना कैसे जुटाएं ?”

अगले कुछ महीनों में अतुल ने कोशिश करके अपना तबादला अहमदाबाद करवा लिया था, वहीं के जुहापुरा इलाके में उसने दलाल के मार्फ़त एक बिल्डर से बात की थी जिसने आज़ादी के समय सिन्ध से आए मुसलमानों, ईसाईयों और स्थानीय मुसलामानों की मिलीजुली रिहायशी कॉलोनी में एक मकान पक्का करवा दिया था | हालांकि कॉलोनी अनाधिकारिक थी पर बिल्डर को उम्मीद थी कि आने वाले कुछ महीनों में वह कुछ न कुछ जुगाड़ बिठाके कॉलोनी को रजिस्टर्ड करवा ही लेगा |

यूँ ज़ाहिदा और अतुल ने बड़ी मशक्कत करके उस कॉलोनी की बाहरवीं मंजिल पर दो कमरों का एक फ्लेट खरीदा था | जिसे घर बनाने में ज़ाहिदा ने कोई कसार नहीं छोड़ी थी, वहीं बसाया था उन्होंने अपना आशियाना, उन दिनों लिफ्ट भी नहीं लगी थी चढ़ने-उतरने में अतुल के पसीने छूट जाते थे, ज़ाहिदा तो कई-कई दिनों तक चौकीदार से ही सब्ज़ी व किराने का सामान मंगवा लिया करती थी | शिकायत किससे करते ? बिल्डर आख़िर इसी शर्त पर घर उन्हें बेचने को राज़ी हुआ था कि वहाँ लिफ्ट जब लगेगी तब लगेगी | दरअसल तो आर्थिक मंदी, अनाधिकृत जमीन और इस इलाके में आए दिन लगने वाले कर्फ्यू की वजह से उसके मकान बिक ही नहीं रहे थे, घोर आर्थिक परेशानियों से जूझते हुए मजबूरी में उसने अतुल को यह मकान बेचने का निर्णय लिया था | उसकी मजबूरी और अतुल-ज़ाहिदा की मजबूरी दोनों यूँ तो जुदा थीं पर फिर भी इस मजबूरी के नाते ने उन्हें घर तो दिलवा ही दिया था |

पहले प्रसव के समय तक अतुल की माँ उससे न सही किन्तु अपनी आने वाली पीढी की ख़ातिर कुछ नर्म पड़ गयी थीं | उसके लिए एक अलग कमरे, अलग बिस्तर और पीने के पानी का मटका भी खाट के पास ही रख दिया गया था, शुरुआत में ज़ाहिदा को लगा था कि ये सब इंतज़ाम उसकी सहूलियतों के हिसाब से किए गए हैं किन्तु घर की बढ़ी-बूढियों के बीच की खुसुर-पुसुर से उसे आभास हो चुका था कि ये सब उसकी सहूलियतों के लिए नहीं था,

“ये सारा सामान महरी को दे देना, ये चली जाए तब” चाची ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा था,

“और खाट का क्या करेंगे छोटी ?” ये अतुल की माँ थीं,

“इसीलिए तो खाट रखी है, निवाड़ धोकर दुबारा बुनवा लेंगें, या न हो तो पुरानी निवाड़ फेंक ही देना”

ज़ाहिदा का मन घबरा उठा था, उसने कमरे की कुंडी लगाकर हरे कपड़े में लिपटी कुरान निकालकर पढ़ना शुरू किया ही था कि झटके से अतुल भीतर प्रवेश कर गया था,

“ये क्या कर रही हो तुम ?”

“मन की तसल्ली के लिए पढ़ रही हूँ, होने वाले बच्चे पर पाक असर पड़ता है”

“और जो माँ ने देख लिया तो ?”

“तो तुम हो न उन्हें मना लेना, मैं भी तो यहाँ छुआछूत सहन कर रही हूँ, ये देखो मेरा कमरा, क्या ये सब तुम्हें रेसिज्म नहीं लगता ?”

“तुम भी न हर बात को खींचने लगी हो?”

“मैं... इस कमरे का मुआयना कर लो फिर दुहराओ अपनी बात”

“जब तुमने माँ की सौंपी हुई रामायण नहीं पढ़ी तो फिर तुम कुरान क्यों पढ़ने बैठ गयी ? आख़िर रामायण पढ़ने से भी तो होने वाले बच्चे पर उतना ही अच्छा असर पड़ता जितना तुम अभी मुझे कुरान के एवज में समझा रही थी”

“उफ्फ...ये तो अति हो रही है अतुल, तुम तो दिक् पर उतर आए”

“मैंने मना तो नहीं किया था, वह देखो मैंने उस आले में लाल कपडे में सहेजकर रामायण रख ली है मैंने, वैसी ही जैसी तुम्हारी माँ सौंप गई थीं | कुरान शरीफ़ मैं बचपन से पढ़ती आई हूँ इसीलिए सोचा पहले ये पढ़ लूँ फिर जब तुम आओगे तो तुमसे कहूँगी कि तुम मुझे रामायण सुना दो, क्योंकि तुम रामायण से ज्यादा वाकिफ़ हो, ठीक उसी तरह जैसे मैं कुरान से, ये कम्फर्ट ज़ोन का मसला है इसे ईगो मत बनाओ”

“हम हर बात का मुद्दा न बनाएँ तो बेहतर होगा वर्ना हम सुलह-सफ़ाई ही देते रहेंगे” अतुल उसके करीब बैठते हुए बोला था, उसके व्यथित स्वर में ज़ाहिदा की पलकों की ख़ामोश नमी भी चुपचाप जा मिली थी, काफी देर तक वे बिना कुछ कहे यूँ ही बैठे रहे थे, मसला दोनों के ही समझ के बाहर था |

अगले रोज़ दोनों ही अपने बारहवीं मंजिला इमारत के आख़िरी मकान में आ बसे थे, ज़ाहिदा साथ में वह खाट भी ले आई थी, सोचा था महरी को देने से उचित तो ये रहेगा कि वह स्वयं ही उसका पूर्ण उपयोग कर ले, बच्चा होने के पश्चात उसके अपने घर की औरतों को देखा था | खाट के नीचे यहाँ गर्म ईंटों की भरी तगारी रखकर उसकी धुएँ से जच्चा की देह की सिकाई करने से शरीर में गर्माहट बनी रहती है |

उस रोज़ दोनों अपने घर में थे, कॉफी का मग लिए कितने दिनों बाद वे देर रात तक तक किसी न किसी बात पर हँसते ही रहे थे | एक सुकून उन दोनों के साथ-साथ उस घर में भी उपजने लगा था | ज़ाहिदा को आश्वस्त करते हुए अतुल ने उसे संबल दिया था,

“चिंता न करो मैं हूँ न, मैं संभाल लूँगा तुम्हें”

“तुम जचगी के काम-काज क्या जानों ? हम कोई कामवाली या नर्स रख लेंगें”

“जच्चा बना सकता हूँ तो जचगी संभाल भी सकता हूँ समझी” अतुल की शरारतें कितने दिनों बाद फिर से लौटी थीं ज़ाहिदा उसे अपने में समेट लेना चाहती थी | अगली सुबह ज़ाहिदा देर से सोकर उठी थी, अतुल रसोई में खटर-पटर कर रहा था वह समझ गयी थी कि अतुल चाय बना रहा होगा | वह अपने दो कमरों के छोटे से फ्लैट की बालकनी में चली आई थी, सुनहरी धुप से उसके तन-मन में फ़ैली पिछली सारी उदासी दूर होने लगी थी, अतुल दो कप चाय लिए वहीं चला आया था,

“ज़ाहिदा देखो तो तुम्हारे न रहने से तुलसा जी का पौधा मुरझा-सा गया है ठीक मेरी तरह”

“चलो हटो अटेंशन सीकर” उनकी हँसी से मानों मौसम में भी सकारात्मक असर होने लगा था, मंद-मंद हवा चलने लगी थी, पोधे भी झूमने लगे थे, ज़ाहिदा ने चाय ख़त्म करके खुरपी उठा ली थी, उसने तुलसा जी में पानी डाला और साथ ही अन्य गमलों की गुड़ाई-रुपाई करने लग गयी थी, उसको व्यस्त देख अतुल रसोई में चल दिया था | वह कूकर में चावल चढ़ा आया था, जानता जो था कि ज़ाहिदा को ऐसे दिनों में बिरयानी खूब भाने लगी थी | माँ के पास उसने शाकाहारी खाने के अलावा कभी किसी और खाने का नाम भी नहीं लिया था |

“अच्छा ज़ाहिदा नाम सोच लिया ?”

“महक... कैसा है ?”

“तुम्हें कैसे पता कि लड़की ही होगी ?” अतुल ने उत्सुकता भरा सवाल किया था, उसके सवाल में पहली बार पिता बनने वाले पुरुष की जिज्ञासा थी,

“लड़का हुआ तो आज़ाद रखेंगे ज़ाहिदा, क्यों कैसा रहेगा ये नाम ‘आज़ाद’ ......जिसे हर धर्म से ऊपर उठकर आज़ादी से सोचने-समझने की छूट होगी, है न ज़ाहिदा ?”

“तो क्या लड़की को नहीं होनी चाहिए यही सब...बेफिक्रियाँ, आज़ादियाँ और ख्वाहिशें ? जो बेलगाम हों किन्तु पतनशील हरगिज़ नहीं, ठीक लड़कों को भी ऐसा ही होना चाहिए”

“अरे-अरे तुम स्त्री-विमर्श में जाने लगी हो” ज़ाहिदा को तार्किक होते देख अतुल बोला था,

“नहीं यार ऐसा कुछ नहीं है, लड़की भी अपने विचारों से इस घर, समाज, दुनिया में अपनी महक फैलाएगी, बदलाव तो वह भी लाएगी पर उसका तरीका आज़ाद से अलग होगा, वह कमज़ोर नहीं होगी किन्तु प्रकृति ने लड़कियों को जो शारीरिक तौर से पुरुषों से जुदा बनाया है उसको भी तो नकारा नहीं जा सकता” इस बार ज़ाहिदा एक माँ और स्त्री की तरह सोचकर बोली थी | वह जानती है कि वह एन.जी.ओ. में चाहे लाख स्त्रियों के मसलों पर आवाज़ बुलंद कर ले पर बेसिक फर्क को नकारा नहीं जा सकता वर्ना इस विकासशील मुल्क में तो क्या किसी अन्य विकसित मुल्क में भी ऐसे किसी एन.जी.ओ की आवश्यकता भला क्योंकर होती ?

“हम्म... चलो सोचेंगे” अतुल ने बस उसी दिन से हर बात के दो पहलु देखना शुरू कर दिया था शायद जिससे ज़ाहिदा और अतुल स्वयं भी अनभिज्ञ था | जिस बीज को उस रोज़ बातों ही बातों में एक नाम की बहस के बीच उन दोनों ने अनजाने में ही बो दिया था वह बीज बरसों-बरस में पल्लवित होकर वृक्ष बन चुका था |

ज़ाहिदा बगीचे के कोने में पड़ी उस बेंच पर आ बैठी थी, बेंच के दायीं ओर वाले हिस्से पर अधिकतर अँधेरा रहता था, एक गहन उदासी फैलाता हुआ अँधेरा तो उसके मन पर भी हावी था इन दिनों | वातावरण की ख़ामोशी उसके तन पर भी अपना प्रभाव डाल रही थी, वह कुछ और बुझी-सी होने लगी थी | नीरव सन्नाटा बिखरा पड़ा था, ज़ाहिदा वहाँ अक्सर ही आ बैठती है, दिन में तो उस बगीचे में खासी चहल-पहल होती है किन्तु शाम ढलने के साथ-साथ बगीचे में एक अजीब प्रकार की अनमयस्कता और उदासी उतरने लगती है जो कि लगभग-लगभग पिछली पतझड़ की ही मानिंद निहायत थकन और ऊब से भरी थी | वह अनमनी-सी वहाँ आ तो बैठी थी किन्तु अब आगे क्या करना है ये बात उसके दिमाग में कतई नहीं था |

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