तीसरी आँख
कुसुम भट्ट
हमारे बीच युगों की धुंध थी.....
पृथ्वी के इस छोर पर मैं हूँ, दूसरे छोर पर सिगरेट का धुआं उड़ाता वह, पश्चिम में अस्त होने को अकुलाता मेरी उंगली पर टंगा सूरज... मुझे उम्मीद है कल फिर उदय होगा। उस पहाड़ी पर जो मेरे पीठ पीछे है तब मेरा चेहरा स्वतः उधर घूम जाएगा... सूरज के सात रंग इसकी किरणों का जाल इस महीन रोशनी में लिपटी धुंध को चीरकर देख रही हूँ...।
‘‘हाँ यही तो...।’’
कल मैंने अंधेरे एकांत में अपनी इस दुनिया को लानत भेजी थी...
जिसका जवाब इस नीले पानी को, स्क्रीन पर उभर रहा है - ओ डरी हुई लड़की! दुनिया तो खूबसूरत है, उस इंद्रधनुष की तरह... दो छोरों को मिलाता सप्तवर्णीं इंद्रधनुष वाकई। ‘‘यहाँ से कोई रास्ता जाना है...?’’ अपने भीतर किवाड़ पर दस्तक देती हुई पूछती हूँ। पांव उस पगडंडी पर उतरने लगते हैं। आकाश के उस छोर से उठता इंद्रधनुष यहाँ गिर रहा है। इसके सातों रंग झलक रहे हैं मेरे इर्द-गिर्द पूरे शबाब में! रंगों से खेलने की मेरी अकुलाती इच्छा, जिस पर दुनिया की आँख है। वही दुनिया जो चेहरा विहीन है। वही दुनिया जिसका चेहरा खोजने में भटकती रही जंगल... जंगल... पहाड़... नदी... सरोवर... कालखंड से परे आदम गुफाओं मंे... हे राम! कहाँ कहाँ! ‘‘कुछ मिला?’’ किसी ने पूछा है।
‘‘नहीं... मैं खुद भी खो गई हूँ और खुद को खोजने इस अथाह समुद्र की नीली जलराशि में उतरना चाहती हूँ इसमें मेरे आँसुओं का नमक भी होगा?’’ उससे पूछती हूँ, धुएं के बीच उसका चेहरा हलके-हलके कांपता है... मैं पानी की शांत कोलाहल की अकुलाती इच्छाओं को सहलाती हूँ, जिस पर बड़े-बड़े बाँध बनाए गए हैं।
सांवली शाम का सौंदर्य! विराट नीली आभा में पंछियो का उत्सव... वह वहाँ खोज रहा होगा मुझे। मेरा वहाँ होना इस वक्त उसकी कामना है। काश! मेरे पंखों मंे इतनी हवा हो कि आकाश पथ पर मेरा मुक्त संचरण हो... उसका अनकहा मुझे दिख रहा है... उसके चेहरे पर पवित्र किस्म की रोशनी है। शाम जैसा संवलाया चेहरा रोशनी के उजास से भर गया है।
‘‘तुम सिगरेट फेंक क्यों नहीं देते?’’ मैं उससे कहती हूँ बेआवाज।
‘‘कहीं आग लग गई तो...?’’ उसने भी आँखों से ही कहा। उसकी आँखों के जुगनू मेरे मन की निचली सतह पर आकर बैठने लगे। भीतर कहीं देहरी पर गोया कोई अचानक दिया जला गया। सदियों से जमा अंधेरा चिथड़ा होने लगा।
‘‘आग अकारण नहीं लगती।’’ मेरे होठों पर चुप्पी है। किसी तीसरी आवाज ने पुल बनाना आरंभ कर दिया आवाजाही का पुल। अभी तक तो शब्द तैरते हुए आ रहे थे... मशक्कत करते हुए। कहीं अथाह पानी में डूब न जाएं। उसके इर्द-गिर्द कागजों का ढेर है उनमें बैठे शब्द रोते-चीखते कभी गोली दागते तो कभी अनायास हंसते-खिलखिलाते इस कोने से उसे कोने तक दौड़ रहे हैं, जिसके भीतर पूरी पृथ्वी समाई है। बीच की जगह पूरी पृथ्वी उफ्फ। ठहरी है यहाँ समूची दुनिया। बेतहाशा चीख रहे, गरियाते, छटपटाते ये बौने शब्द, इनकी परछाइयाँ भी मीलों दूर तक फैली।- ‘‘दुनिया शब्दों और आवाजों के मेले से अधिक क्या है बोला?’’ किसी ने बीच में आकर रहा है अभी-अभी। ‘‘आवाज जो खतरनाक किस्म की चालाकी से कब किसका कत्ल कर दे पता नहीं।’’ जो चिड़िया का चेहरा लगाए दिख रही है असल में वह चीता है घात लगाने को तैयार...।
कोलम्बस का बेड़ा धूम रहा है... नई दुनिया का दरवाजा खुलेगा इसी भ्रम में- मेरी देह पर लिपटी हरे रंग की शिफान साड़ी है, जिसका महीन पल्लू उड़ रहा है उकसा चेहरा सहलाने... उसकी आँख मेरी आत्मा पर खुलने लगी है... मैं एक पेड़ में तब्दील हो गई हूँ। मेरे भीतर से अनगिनत कोंपलें फूटने लगी हैं... धीरे-धीरे मैं छतनार वृक्ष हो जाऊँगी... जिसकी टहनियों पर असंख्य पंछी और अन्य जीव बसेला कर सकेंगे। अभी उसकी हथेली पर बैठी गौरैया मेरी टहनी पर बसेरा करती आसमान में छलांग लगाएगी अलस्सुबह, गाढ़े धुएं के बीच उसकी आँख में बैठा जुगनू मेरी अंधेरी राह को रोशनी से भरने लगा है। अंधेरे में मुझे अनगिनत ठोकरें लगती हैं शायद इसलिए...। ‘‘आखिर लंगड़ाती हुइ कब तक चलती?’’ किसी ने फिर सवाल दागा है।
‘‘किसने सोख लिया था मेरे हिस्से का हवा पानी?’’ मैं समय से पूछ रही थी जो काल के गाल में समा चुका था, जब सपने एक मुट्ठी सुख लेकर भविष्य को सहलाने आ रहे थे। आँख खुलते ही पत्थरों से टकरा-टकराकर चूर-चूर हो रहे थे। ‘रेत की नदी में ठिठकी नाव नई दुनिया का पता कैसे बताती जहाँ रात के बाद सूरज की रोशनी धरती पर पड़ती है, जहाँ चिड़ियों के चहचहाने की आवाज से दिन शुरू होता है, जहाँ पानी की नदी होती है, जहाँ हवा के पंख आकाश की उड़ान भरने हेतु पंचतत्वों की काया मे उतरते हैं, जहाँ कोई भय नहीं होता, जहाँ जीवन रस से भरा किलोल करता है और जहाँ पथरीली जमीन नहीं, गीली मिट्टी होती है कि एक बीज डाला और खिलने लगा फूल। मैं युगों से पूछ रही थी और मेरे शब्द जाने कहाँ गिर रहे थे किसी दलदल मंे जहाँ बैठा मगरमच्छ खा रहा था मेरी इच्छाएं... स्वप्न-सुख जीवन खिलती कोंपल...। किसका श्राप था मुझे...? मैंने काली अंधेरी रात में तड़फ-तड़फ कर आकाश में चमकते सप्तऋषियों से भी पूछा था, परन्तु उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। धूल-धुंध में मेरे शब्द गायब हुए होंगे। उन तक पहुँच ही नहीं पाए।
‘‘मैं क्यों हूँ? कोई बताएगा मुझे?’’ तड़क कर फिर पहाड़ों से पूछा, पानी के अथाह सैलाब से पूछा, यहाँ इतना पानी और मैं रेत में छटपटाती मछली। बिन पानी सब सून, मेरा होना एक जड़ तत्थर की तरह। कहो न ऐ पेड़, क्यों? मेरे भीतर असंख्य चीखें भरती गईं, इतिहास से आती हुई चीखें... हमारे हिस्से का जल जीवन कहाँ है? क्या मैं एक पत्थर थी जिसे तुमने जब चाहा उठाकर फेंक दिया। हर जगह यह कांच टूटा, महल हो या मंदिर!’ मेरे भीतर के पहाड़ दरकने लगे। पानी प्रलय लाने की कगार पर पहुँच रहा था। कल तक वह अजनबी था, आवारा... गुस्ताख... मवाली... लफंगा जाने क्या-क्या। जिसकी आंखें भेदने पर उतारू थीं मन की सात-सात परतें...
आज की बात कुछ और है...
मेरी आत्मा में धंसी वह तीसरी आंख....तलहटी से नया शिशु सूर्य उदय होने लगा है... उसकी झिलमिलाती रोशनी से छंटने लगी है धूल-धुंध...। एक अंतहीन काली रात के बाद जब भी सुबह हो... जागना है...
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