काँटों से खींच कर ये आँचल
रीता गुप्ता
अध्याय पांच
बैठा रहा गुमसुम सा बहुत देर तक, भोला मासूम सा सर झुकाए. बहुत देर बाद सर उठाया तो कहा,
“एक बार मैंने महेश अंकल के सामने अपनी मम्मा को, ‘मम्मा’ बोल दिया था तो वह बहुत नाराज हुईं थीं.....”.
अचानक याद आ गयी अपनी वो चचेरी बहन जो मुझसे सीधे मुहं बात नहीं करती थी. उसे भी ऐसे ही एक दिन पढ़ा रही थी कि चाचीजी ने आ कर किताब फ़ेंक दिया और कहा कि
“खबरदार जो इस अभागी के साथ दुबारा सर जोड़े बैठे देखा”. आंसू मेरे भी टपक पड़े उन दोनों के साथ.
“जाने दो बेटा होगीं कुछ उनकी मजबूरियाँ. माफ़ करों उन्हें और भूल जाओ. पर अब तो मैं ही तुम्हारी माँ हूँ और बोलो मुझे ‘माँ’ मेरे भी कान तरस रहें हैं ये सुनने”.
दुसरे दिन सुबह सुबह अक्षित अपने हॉस्टल लौट गया था. मैं बाथरूम जाने को उठी ही थी कि मुझे जोरों से चक्कर आ गयी. आँख खुली तो देखा दीक्षा के साथ एक डॉक्टर बैठे हें हैं जो उसे कुछ टेस्ट्स कराने बोल रहें थें. अगले तीन दिनों तक हम उसी होटल में ठहरें रहें और दीक्षा मेरी सारी टेस्ट्स वहीँ कोटा में करवाती रही. दीक्षा के पापा भी इस बीच आ चुके थें. अक्षित स्कूल के बाद हर दिन आ जाता और देर रात तक मुझसे पढ़ते रहता. वह बार बार मुझसे नहीं लौटने की जिद्द कर रहा था क्यूंकि उसके मुताबिक मैं उसके कोचिंग के अध्यापकों से कहीं बेहतर समझाती और पढ़ाती हूँ. दीक्षा के पति के फोन आने शुरू हो गए थें, परन्तु तेवर तो वहीँ थें. अब वह धमकियां दे रहा था कि यदि वह वापस नहीं लौटी तो उसे गंभीर परिणाम झेलने होंगे. दीक्षा अपनी परेशानियों में अधीर हो गुमसुम सी रहने लगी थी.
उस दिन मेरे टेस्ट्स के रिपोर्ट आ गए थें. इनकी गंभीर भाव-भंगिमा मुझे डरा रही थी. चेहरें के बदलते भावों को जज्ब कर इन्होने मुझे कहा,
“अनुभा तुम्हारे लिए खुश खबरी है, तुम माँ बनने वाली हो”.
“क्या आपके लिए नहीं?”, अपनी अंदाजा को डॉक्टरी रिपोर्ट्स से सच होता देख मैंने पूछा.
“तुम देख रही हो मेरे पहले से ही दो युवा बच्चें हैं, तिस पर दोनों की परेशानियां चल रहीं. इनसब के बीच .... मेरा फिर से बाप बनना क्या शोभा देगा? मैंने तो भरसक चाहा था कि ये नौबत ना आये, पर चलो जब शादी किया है तो बच्चे भी होंगे”. कहते हुए ये कमरे से बाहर निकल गए.
सच कहा जाये तो मुझे भी कुछ खास अनुभूति नहीं हुई थी, मैं भी दिल से इस स्थिति को टालना ही चाह रही थी. जो सुख मुझे दीक्षा और अक्षित के सानिध्य में मिल रहा था कहीं इस के आने से उसमें बाधा न पड़ जाये. फिर भी मन का एक कोना तो झंकृत हो चुका था एक नन्हे मुन्ने की आहट से ही. मैंने खिड़की से झाँका देखा ये होटल की लॉन में हैरान-परेशान हो सिगरेट पर सिगरेट फूँक रहें थें, इनकी विवशता मैं बाखूबी भांप रही थी. मैंने इन्हें कभी सिगरेट पीते नहीं देखा था. इस बीच दीक्षा और अक्षित भी स्तिथि को समझ चुके थें. दोनों ही उठ कर कमरे से बाहर चले गएँ थें.
मैंने अपने पेट पर हाथ फिराया, एक नवीन स्पंदन एक नयी अनुभूति से मन सराबोर हो उठा. उफ़! क्या करूँ बच्चा? तुम्हारे आने से शायद जीवन की जटिलताएं बढ़ जाएँगी. पर पर ...मेरी प्राथमिकतायें कुछ और हैं. तुम एक अनचाहे-बिनबुलाये आगत हो. अभी मैं ख़ुशी और सोच के भंवर में डूब-उतरा ही रही थी कि दीक्षा की सिसकियों ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.
“रविश तुम ऐसा कैसे कर सकतें हो? तुम अपनी माँ को समझाओं, मैं अपना इलाज़ ही करवा रहीं हूँ. मुझे थोड़ा वक़्त दो.....”, दीक्षा फोन पकड़ रविश से कह रही थी.
भावनाओं का एक बड़ा सा समंदर पास से हो कर गुजर गया. ऊँची ऊँची ज्वार, भाटे में बदल लौटते वक़्त सीप-मोतियों के ढेर किनारों पर अलंकृत कर जा चुके थें. मैं हमेशा ईश्वर से अपने होने का मकसद पूछती रहती थी. अपनी बेमकसद जिन्दगी के अनसुलझे सिरे अब मुझे सुलझते दिखते महसूस हुए. मैंने आवाज दे अक्षित को कहा कि अपने पापा और दीदी को बुला लें. मैंने मन कड़ा कर एक प्रस्ताव उनके बीच रख दिया. बात ही कुछ ऐसी थी कि सब सन्नाटें की गिरफ्त में आ गएँ.
“हाहा, ये तो बड़ा ही मजेदार है यार, तुस्सी तो जादू की छड़ी हो”, सर्वप्रथम अक्षित की ही प्रतिक्रिया आई. फिर किसी को कुछ ना कहने की शपथ लेता वह उछलते-कूदते अपने हॉस्टल लौट गया.
उसके पापा मुझे अभी भी विस्फारित नयनों से देखते हुए सोच में डूबे हुए थे. अविश्वास की परतें उनकी आँखों में स्पष्ट लक्षित था. दीक्षा का चेहरा अभी तक आंसुओं से सिक्त था. तलाक की बात उठा रविश ने उस पर गहरा वार किया था. शायद वह कुछ सोचने समझने की भी अवस्था में नहीं थी. मैंने दीक्षा को पास बिठाया और उसका हाथ अपने पेट पर रखते हुए कहा,
“ये आज से तुम्हारा बच्चा हुआ”.
“परन्तु रिश्तें में तो ये भाई या बहन ही होगा मेरा....”
“मैंने एक कहानी पढ़ी थी जब अपनी बिन ब्याही बेटी की औलाद को एक माँ ने अपनी औलाद बता दुनिया के सामने उसे जन्म देने का स्वांग किया था. हम भी कुछ ऐसा ही करेंगे. बेहद सावधानी पूर्वक ताकि तुम्हारे ससुराल वालों को शक ना हो”. मैंने कहा.
“क्या ये संभव है?”, बाप-बेटी दोनों ने एक साथ पूछा तो मेरी हंसी निकल गयी. माहौल अब हल्का हो चला था. दीक्षा की आँखों में एक चमक आ गयी थी.
“अनुभा तुम सिर्फ उम्र से छोटी हो, परिपक्वता तो तुममें सुलभा से कई गुणा ज्यादा है”, कहते हुए ये दूसरे कमरे में चलें गएँ. मैंने देखा सिगरेट की डिब्बी यहीं छूट गयी थी.
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