Mister Hamida in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | मिस्टर हमीदा

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मिस्टर हमीदा

मिस्टर हमीदा

रशीद ने पहली मर्तबा उस को बस स्टैंड पर देखा जहां वो शैड के नीचे खड़ी बस का इंतिज़ार कर रही थी रशीद ने जब उसे देखा तो वो एक लहज़े के लिए हैरत में गुम होगया इस से क़ब्ल उस ने कोई ऐसी लड़की नहीं देखी थी जिस के चेहरे पर मर्दों की मानिंद दाढ़ी और मोंछें हूँ।

पहले रशीद ने सोचा कि शायद उस की निगाहों ने ग़लती की है। औरत के चेहरे पर बाल कैसे उग सकते हैं। पर जब उस ने ग़ौर से देखा तो उस लड़की ने बाक़ायदा शैव कर रखी थी और सरमई ग़ुबार उस के गालों और होंटों पर मौजूद था

रशीद ने समझा कि शायद हिजड़ा हो, मगर नहीं वो हिजड़ा नहीं थी। इस लिए कि उस में हिजड़ों की सी मस्नूई निस्वानियत के कोई आसार नहीं थे। वो मुकम्मल औरत थी नाक नक़्शा बहुत अच्छा था कूल्हे चौड़े चकले कमर पतली सीना जवानी से भरपूर बाज़ू सुडौल ग़र्ज़ की उस के जिस्म का हर उज़ू अपनी जगह पर निस्वानियत का उम्दा नमूना था।

एक सिर्फ़ उस की दाढ़ी और मोंछों ने सब कुछ ग़ारत कर दिया था रशीद सोचने लगा क़ुदरत की ये क्या सितम ज़रीफ़ी है कि एक अच्छी भली नौ-जवान ख़ूबसूरत लड़की को बदनुमा बना दिया।

रशीद के दिमाग़ में कई खयाल ऊपर तले आए और वो बौखला गया। वो सोचता था

“क्या इस लड़की की ज़िंदगी अजीरन हो के नहीं रह गई!”

“सुबह उठ कर जब उसे उस्तरा पकड़ कर शैव करना पड़ती होगी तो उसे क्या महसूस होता होगा क्या उस वक़्त इस के जी में झुँझला कर इंतिक़ामी ख़्वाहिश पैदा न होती होगी कि वो घस-खदे की तरह अपने गाल और होंट छील डाले।”

“एक औरत के लिए ये कितना बड़ा अज़ाब है कि ख़ार पुश्त की मानिंद उस के गालों पर दूसरे रोज़ नुकीले बाल उग आएं”

“अगर मर्दों के मानिंद औरतों के भी दाढ़ी मोंछ उगती तो कोई हर्ज नहीं था पर यहां अज़ल से औरतें इन बालों से बेनयाज़ ही रही हैं ”

“जहां तक में समझता हूँ औरतों के चेहरे पर बालों का होना कोई मायूब चीज़ नहीं लेकिन मुसीबत तो ये है कि हम लोग ये देखने के आदी नहीं ”

“सिन्फ़-ए-नाज़ुक, आख़िर सिन्फ़-ए-नाज़ुक है इस में शक नहीं उस लड़की में निस्वानियत के तमाम जौहर मौजूद हैं फिर ये दाढ़ी मोंछ किस लिए उग आई है नज़र बेटो के तौर पर उस की कोई तशरीह-ओ-तौज़ीह तो होनी चाहिए बे-कार मैं एक ख़ूबसूरत शैय को भोंडा बना दिया ये कहाँ की शराफ़त है!”

“अब ऐसी लड़की से शादी कौन करेगा जो हर रोज़ सुबह सवेरे उठ कर, उस्तरा हाथ में पकड़ कर शैव कर रही हो।”

“ये लड़की मोंछें न मूंडे और उन्हें बढ़ा ले तो क्या उस से ख़ौफ़ नहीं आएगा आप बे-होश न हों। लेकिन चंद लमहात के लिए आप के होश-ओ-हवास ज़रूर जवाब दे जाऐंगे आप अपने होंटों पर उंगलियां फेरींगे जहां मोंछें मुंडी होंगी मगर आप की सिन्फ़-ए-मुक़ाबिल अपनी मोंछों को थूक दे रही होगी ”

बस आगई वो लड़की उस में सवार हो कर चली गई रशीद को भी एसी बस से जाना था लेकिन वो अपने ख़यालों में इस क़दर ग़र्क़ था कि उस को बस की आमद का पता चला न उस के जाने का।

थोड़ी देर के बाद जब वो लड़की को एक नज़र और देखने के लिए पलटा तो वो मौजूद नहीं थी। उस का ज़ेहन इस क़दर मुज़्तरिब था कि उस ने अपना काम मुल्तवी कर दिया और घर चला आया। अपने कमरे में बिस्तर पर लेट कर उस ने मज़ीद सोच बिचार शुरू कर दी। उस को उस लड़की पर बहुत तरस आरहा था बार बार क़ुदरत की बे-रहमी पर लानतें भेजता था कि उस ने क्यों निस्वानियत के इतने अच्छे और ख़ूबसूरत नमूने को ख़ुद ही बना कर उस पर स्याही का लेप कर दिया आख़िर इस में क्या मस्लिहत थी अब इस शक्ल में उस से शादी कौन करेगा क़ुदरत ने क्या उस के लिए कोई ऐसा मर्द पैदा कर रखा है जो उसे क़बूल करलेगा लेकिन वो सोचता कि क़ुदरत इतनी दूर अंदेश नहीं हो सकती

उस की बहन आई दोपहर हो चुकी थी उस ने रशीद से कहा

“भाई जान चलिए खाना खा लीजिए ”

रशीद ने उस की तरफ़ ग़ौर से देखा और उस को यूं महसूस हुआ कि उस के चेहरे पर भी बाल हैं

“सलीमा ”

“जी ”

“कुछ नहीं लेकिन नहीं ठहरो क्या तुम्हारी मोंछें हैं ”

“सलीमा झेंप गई।

“जी हाँ बाल उगते हैं ”

रशीद ने उस से पूछा तो “मेरा मतलब है तुम्हें उलझन नहीं होती इन बालों से?”

सलीमा ने और ज़्यादा झेंप कर जवाब दिया : “होती है भाई जान!”

“तो उन्हें तुम कैसे साफ़ करती हो ब्लेड से!”

“जी नहीं एक चीज़ है जिसे बेबी टच कहते हैं उस को थोड़ी देर होंटों पर घिसना पड़ता है ”

“तो बाल उड़ जाते हैं!”

“उड़ते वड़ते ख़ाक भी नहीं दूसरे तीसरे रोज़ फिर नमूदार हो जाते हैं बड़ी मुसीबत है बाअज़ औक़ात तो आँखों में आँसू आ जाते हैं।”

“वो क्यों ”

सलीमा ने दर्दनाक लहजा में जवाब दिया:

“तकलीफ़ होती है बहुत जब बाल उखड़ते हैं तो छींकें आती हैं और छींकों के साथ आँखों में पानी उतर आता है मालूम नहीं अल्लाह मियां मुझे किन गुनाहों की सज़ा दे रहा है ”

रशीद ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद अपनी बहन से पूछा “तुम्हारी किसी और सहेली की भी दाढ़ी और मोंछें हैं ”

“मोंछें तो कई लड़कियों की देखी हैं पर दाढ़ी मैंने कभी किसी औरत के चेहरे पर नहीं देखी एक दो बाल ठोढ़ी पर देखने में आए हैं जो वो मोचने या हाथ से उखाड़ फेंकती हैं ये आप ने कैसी गुफ़्तुगू आज शुरू कर दी चलिए खाना खा लीजिए ”

रशीद ने कुछ देर सोचा।

“नहीं मैं आज खाना नहीं खाऊंगा मेरा मेदा ठीक नहीं है रशीद को यूं महसूस होता था कि उस ने बालों की पुडिंग खाई है जो हज़म होने में ही नहीं आती उस के सारे जिस्म पर तेज़ तेज़ नुकीले बाल यूं रेंग रहे थे जैसे ख़ारदार च्यूंटियां।

जब सलीमा चली गई तो रशीद ने फिर सोचना शुरू कर दिया लेकिन सोचने से क्या हो सकता था उस लड़की के चेहरे के बाल तो दूर नहीं हो सकते थे। इस अम्र का रशीद को कामिल यक़ीन था लेकिन फिर भी वो सोचे चला जा रहा था जैसे वो कोई बहुत बड़ा मुअम्मा हल कर रहा है।

रशीद को दाख़िले की दरख़्वास्त देना थी उस ने बी ए का इम्तिहान रावलपिंडी से पास किया था। अब वो चाहता था कि लाहौर में किसी कॉलिज में दाख़िल हो जाये और एम ए की डिग्री हासिल कर के आला तालीम के लिए इंग्लिस्तान चला जाये जहां उस के वालिद प्राइमरी कौंसल में प्रैक्टिस करते थे।

उस रोज़ मोंछों और दाढ़ी वाली लड़की के बाइस न जा सका। दूसरे रोज़ वो बस के बजाय तांगे में गया उस ने चूँकि बी ए का इम्तिहान बड़े अच्छे नंबरों पर पास किया था इस लिए उसे दाख़िले में कोई दिक्कत महसूस न हुई। वो दाढ़ी मोंछों वाली लड़की अब रशीद के दिल-ओ-दिमाग़ से क़रीब क़रीब महव हो चुकी थी लेकिन एक दिन उस ने उस को कॉलिज में देखा लड़के उस का मज़ाक़ उड़ा रहे थे।

एक ने आवाज़ा कसा:

“मिस्टर हमीदा ”

दूसरे ने कहा

“एक टिकट में दो मज़े हैं औरत की औरत और मर्द का मर्द ”

तीसरे ने क़हक़हा लगाया:

“अजाइब घर में रखना चाहिए था ऐसी शख़्सियत को ”

और वो बे-चारी ख़फ़ीफ़ हो रही थी उस की पेशानी पसीने से तर थी रशीद को उस पर बहुत तरस आया उस के जी में आई कि आगे बढ़ कर उन तमाम लड़कों का सर फोड़ दे जो उस का मज़ाक़ उड़ा रहे थे। मगर वो किसी मस्लिहत की बिना पर ख़ामोश रहा

जब लड़के चले गए और उस लड़की ने अपने दोपट्टे से आँखों में उमडे हुए आँसू ख़ुश्क किए तो वो जुर्रत से काम लेकर उस के पास गया और बड़े मुलाइम लहजे में इस से मुख़ातब हुआ:

“आप यहां किस क्लास में पढ़ती हैं ”

इस ने तंग आकर कहा:

“क्या आप भी मेरा मज़ाक़ उड़ाने आए हैं ”

रशीद ने अपना लहजा और मुलाइम कर दिया “जी नहीं आप मुझे अपना दोस्त यक़ीन किजीए ”

उस ने, जिस का नाम हमीदा था नफ़रत की निगाहों से रशीद को देखा

“मुझे किसी दोस्त की ज़रूरत नहीं ”

“ये आप की ज़्यादती है हर शख़्स को दोस्त और हमदर्द की ज़रूरत होती है मैं इस वक़्त मुनासिब नहीं समझता कि आप के मुज़्तरिब दिमाग़ को अपनी बातों से और ज़्यादा मुज़्तरिब कर दूं वैसे मैं आप से फिर दरख़्वास्त करता हूँ कि आप मुझे अपना दोस्त यक़ीन कीजिए।”

ये कह कर रशीद चला गया।

इस के बाद मुतअद्दिद मर्तबा उस ने हमीदा को देखा जो बी ए में पढ़ती थी। सारे कॉलिज में उस की दाढ़ी मोंछों के चर्चे थे लेकिन ऐसा मालूम होता था जैसे वो लड़कों की आवाज़ा-बाज़ी की आदी हो चुकी है। मेरा ख़याल है कि अब उस ने ये महसूस करना शुरू कर दिया था कि उस के चेहरे पर कोई बाल नहीं है।

वो होस्टल में रहती थी। एक दफ़ा वो शदीद तौर पर बीमार होगई दस पंद्रह दिन तक बिस्तर में लेटना पड़ा रशीद ने कई बार इरादा किया कि वो उस की बीमार-पुर्सी के लिए जाये मगर उस को ये ख़तरा लाहिक़ था कि वो मुश्तइल हो जाएगी क्योंकि उसे किसी की हमदर्दी पसंद न थी।

वो चाहती थी कि उस की कश्ती, टूटी फूटी, जैसी भी है उसे उस के सिवा और कोई खेने वाला न हो लेकिन एक दिन मजबूर हो कर उस ने चपरासी के हाथ एक रुक़ा रशीद के नाम भेजा जिस में ये चंद अल्फ़ाज़ मर्क़ूम थे:

“रशीद साहिब!

में बीमार हूँ क्या आप चंद लम्हात के लिए मेरे कमरे में तशरीफ़ ला सकते हैं । ममनून-ओ-मुतशक़्क़िर होंगी

हमीदा”

रशीद ये रुका मिलते ही होस्टल में गया बड़ी मुश्किलों से हमीदा का कमरा तलाश क्या अंदर दाख़िल हुआ तो उस ने पहले ये समझा कि कोई मर्द जिस ने कई दिनों से शैव नहीं की कम्बल ओढ़े लेटा है मगर उस ने अपना रद्द-ए-अमल ज़ाहिर न होने दिया।

चारपाई के साथ ही कुर्सी पड़ी थी । रशीद इस पर बैठ गया

हमीदा मुस्कुराई।

“मैंने आप को इस लिए तकलीफ़ दी है कि मुझे बुख़ार के बाइस बहुत नक़ाहत होगई है और शैव नहीं कर सकी क्या आप मेरे लिए ये ज़हमत बर्दाश्त कर सकेंगे ”

रशीद ने कमरे में इधर उधर देखा शैव का सामान खिड़की की सिल पर मौजूद था।

टीन में गर्म पानी ला कर इस ने हमीदा के चेहरे के बाल नरम किए, साबुन मला। अच्छी तरह झाग पैदा की और फिर पाँच मिनट के अंदर अंदर शैव बना डाली।

फिर तोलिए से उस का चेहरा ख़ुश्क किया और शैव का सामान साफ़ करने के बाद वहीं रख दिया जहां से उस ने उठाया था।

हमीदा ने अपना नहीफ़ हाथ गालों पर फेरा और फिर रशीद से कहा।

“शुक्रिया ”

अब दोनों एक दूसरे के दोस्त होगए।

रशीद ने एम ए और हमीदा ने बी ए पास कर लिया रशीद को फ़ौरन बहुत अच्छी मुलाज़मत मिल गई।

अब वो एक नहीं रोज़ाना दो शैव बनाता था|