Him Sparsh - 83 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 83

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हिम स्पर्श - 83

83

प्रतीक्षा समाप्त हुई। डॉक्टर गिब्सन शस्त्रक्रिया कक्ष से बाहर आए। सभी की अधीर आँखें डॉक्टर की तरफ घूमी, अनेक प्रश्नार्थ लेकर।

वफ़ाई के मन में विचार चल रहे थे, वह स्वयं से बातें करने लगी।

मैं कोई अधीरता नहीं दिखाउंगी। कोई उत्सुकता नहीं दिखाउंगी। मैं अपने वचन का पालन करूंगी। मुझे डॉक्टर की आँखों के संकेत को पढ़ना होगा। मैं उसकी आँखों में देखती हूँ।

डॉक्टर की आँखें भावशून्य क्यों है? उसमें कोई संकेत क्यों नहीं है? अथवा कोई संकेत है भी तो मैं उसे क्यों पढ़ नहीं पाती? मुझे यह आँखें दुविधा में डाल रही है। कोई संकेत दो मुझे डॉक्टर। मैं अब इतनी सबल हो चुकी हूँ कि कोई भी संकेत से विचलित नहीं हो सकती। डॉक्टर, तुम संकेत दो। दो, कुछ तो संकेत दो।

नहीं। मैं कोई प्रश्न नहीं करूंगी। कुछ भी नहीं पूछूँगी। समय स्वयं मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर देगा। मैं उस उचित समय की प्रतीक्षा करूंगी। जीत, मेरे अनेकों बार पूछने पर भी तुमने मुझे तुम्हारे रहस्यों को नहीं बताया था। मुझे धैर्य रखना तुमने ही तो सिखाया है। मैं धैर्य रखूंगी, मैं इतना तो साहस रखती ही हूँ। है ना जीत?

शस्त्रक्रिया सम्पन्न हो चुकी थी। याना तथा विक्टर अपने सामान को समेटने लगे। डॉक्टर सूप हाथ में लिये गुफा से बाहर चले गए। दूर सुदूर अंधकार में विलीन हो रहे पहाड़ों को देखने लगे। कोई गहन विचार में खो गए। उसके हाथ में रहा सूप ठंडा हो गया।

“डॉक्टर, आपने सूप नहीं पिया।“ जोगन के शब्दों ने डॉक्टर की विचार यात्रा को भंग किया।

“जी।“ डॉक्टर ने सूप के प्याले को अपने गालों से लगाया।“ यह सूप तो हिम से भी अधिक शीतल हो गया।“

“मुझे दो। मैं दूसरा सूप देती हूँ।“ जोगन ने कहा।

“नहीं, रहने दो।“ डॉक्टर अभी भी क्षितिज में किसी बिन्दु को देख रहे थे।

“क्यों? गरम सूप यहीं है। मैं लाती हूँ आपके लिये।“

“इस सूप की भांति, हो सकता है, मैं दूसरे सूप को भी पीना भूल जाऊँ।“

“क्या बात है कि आप किसी गहन विचार में डूबे हुए हो? जीत कुशल तो है ना?” जोगन के प्रश्न को सुनकर डॉक्टर जोगन की तरफ मुड़े।

"जोगन, यह प्रश्न तो वफ़ाई को पूछना था। मुझे तो यह अपेक्षा थी कि वफ़ाई यह सब पूछेगी। मुझे कक्ष से बाहर आते देख वह अधीर हो जाएगी। जीत के विषय में अनेक प्रश्न पूछने लगेगी। मुझे विचलित कर देगी।“

“तो?”

“सदैव मैंने देखा है कि कक्ष से मेरे बाहर आते ही मुझे असंख्य प्रश्नों का सामना करना पड़ता है।“

“तब आप क्या करते हो?”

“मैं शस्त्रक्रिया सम्पन्न होते ही कुछ समय मौन हो जाता हूँ। मन ही मन मैं उन प्रश्नों का सर्जन करता हूँ जो प्रश्न मेरे बाहर निकलते ही मुझे पूछे जाने हैं। मैं उन प्रश्नों का उत्तर भी तैयार कर लेता हूँ। जब सभी प्रश्नों के उत्तर मुझे मिल जाते हैं तभी ही मैं कक्ष से बाहर आता हूँ।“

“तो डॉक्टर, आज भी आपने ऐसा ही किया होगा?”

“हाँ। मैंने अनेक प्रश्न तथा उनके उत्तर तैयार कर लिये थे। मैं उन सभी प्रश्नों की अपेक्षा लिये जब कक्ष से बाहर आया तब वफ़ाई मेरे सामने ही थी। मैंने जान बूझकर उससे दृष्टि नहीं मिलाई। मैंने उसे अनदेखा ही कर दिया था। मुझे अपेक्षा थी कि वह मेरे पीछे पीछे भागती आएगी। मेरे हाथों को पकड़ लेगी। मुझ पर प्रश्नों की वर्षा कर देगी। वह अधीर हो जाएगी, विचलित हो जाएगी, रोने लगेगी, क्रोध भी करेगी, अंतत: टूट जाएगी।“

“किन्तु वफ़ाई ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।“

“हाँ, जोगन। आप ही कहो, कोई इतना स्वस्थ कैसे रह सकता है?”

“स्वस्थ तो मैं भी नहीं हूँ। समय के इतने लंबे काल से मैं इन पहाड़ियों में रहकर मैं तपस्या कर रही हूँ। मैं एक जोगन हूँ जो प्रत्येक वेदना तथा संवेदना से अलिप्त होती है। किन्तु मैं भी इतनी स्वस्थ नहीं हूँ।“

“मैंने भी मेरी दादी से योग सीखा है किंतु मैं भी इतना स्वस्थ नहीं हूँ। मैं भी विचलित हूँ। इस छोकरी में कोई तो बात है जो उसे इतनी स्वस्थ रख पा रही है।“

“मुझे तो लगता है वफ़ाई से अधिक आप विचलित हो।“

“जोगन, यह डॉक्टरों वाली बात है। जब भी कोई डॉक्टर अपने रोगी का उपचार करता है तो वह उससे भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है। डॉक्टर भी उसकी वेदना को अनुभव करने लगता है। उस वेदना ही हमारे अंदर संवेदना जगाती है। उसके आधार पर हम स्वयं को ढालते हैं।“

“वह कैसे?”

“जैसे रोगी कोई अज्ञात व्यक्ति नहीं हो किन्तु वह परिवार का सदस्य हो। जब हम रोगी को हमारे परिवार का सदस्य मानने लगते हैं तब हम हमारा सब कुछ उसके उपचार में समर्पित कर देते हैं। हम भी उसके साथ विचलित होने लगते हैं। इससे उपचार में गति आती है।“

“किन्तु वफ़ाई तो पूर्ण रूप से स्थिर है, धैर्य से भरी है। दूर दिख रहे इन पहाड़ों की भांति अचल है, अडग है। ऐसा क्यों होगा डॉक्टर?”

“जोगन, यही तो चिंता का विषय है। मैंने ऐसा होते हुए पहले कभी नहीं देखा। हमें उसके पास जाना होगा। उससे बात करनी होगी। यदि वफ़ाई ने अपनी संवेदना खो दी तो?” डॉक्टर ने सूप का प्याला नीचे रखा और अंदर की तरफ भागे। जोगन भी।

वफ़ाई अभी भी स्थिर सी थी। वह शस्त्रक्रिया कक्ष को अनिमेष देख रही थी। जैसे उसे उस बंध कक्ष से किसी के बाहर आने की प्रतीक्षा हो। कक्ष का द्वार भी पहाड़ों की भांति स्थिर था, अचल था। उस कक्ष से कोई बाहर नहीं आ रहा था।

जोगन ने वफ़ाई के मस्तिष्क पर हाथ रखा। वफ़ाई किसी स्वप्न से जागी हो ऐसे मुड़ी। उसकी आँखें शून्य से भरी थी। जोगन को देखते ही वह उससे लिपट गई। जोगन उसके केश में हाथ फेरने लगी। स्पर्श ने अपना काम कर दिया। दो चार क्षणों के पश्चात वफ़ाई के सभी बाँध टूट गए, बिखर गए। वह मुक्त आक्रंद करने लगी। जोगन ने उसे अपने आँचल में छुपा लिया। उसे रोने दिया। जोगन की छाती से जन्मे संवेदन वफ़ाई के अंदर प्रवाहित होने लगे। वफ़ाई शांत हो गई।

जोगन ने डॉक्टर की तरफ देखा, वफ़ाई ने भी।

डॉक्टर के मुख पर आभा थी, अधरों पर स्मित था, आँखों में बादल थे, गालों पर कुछ बिन्दु थे।

“वफ़ाई, मैं कल आ रहा हूँ प्रदर्शनी देखने।“ डॉक्टर ने कहा।

“और जीत?” वफ़ाई ने पूछा।

“छत्तीस घंटे, सिर्फ छत्तीस घंटे।“ डॉक्टर ने कहा और चले गए।

वफ़ाई तथा जोगन के मन में कोई प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहा।

वफ़ाई रातभर जागती रही।

ईश्वर, अल्लाह, गोड। कितने नाम है तेरे? मुझे तेरे नाम से कोई संबंध नहीं। मुझे मेरे काम से संबंध है। तुम मेरा एक काम कर दो, बस। काम तो तुम जानते ही हो। हाँ, वही। तुम करोगे न?

अनेकों बार वफ़ाई इन शब्दों को बोलती रही।

मुझे विश्वास है कि तुम मेरी बात सुन रहे हो। किन्तु मैं यह बार बार इसलिए कह रही हूँ कि कहीं तुम्हें नींद आ गई तो तुम मेरी बात भूल जाओगे। आज ना तो मैं सोनेवाली हूँ ना तुम्हें सोने दूँगी। तुम्हें भी तो समझ आए कि किसी के लिए रात्रि भर जागते रहना क्या होता है?