Sanvednao ke swar : ek drashti - 6 in Hindi Poems by Manoj kumar shukla books and stories PDF | संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 6

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संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 6

संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि

(6)

सबसे कठिन बुढ़ापा.....

जीवन जीना कठिन कहें तो,

सबसे कठिन बुढ़ापा ।

हाथ पैर कब लगें काँपनें,

कब छा जाये कुहासा ।

मात-पिता, दादा-दादी सब,

खिड़की ड्योढ़ी झाँकें ।

नाराजी की मिले पंजीरी,

हॅंसी खुशी वे फाँके ।

अपनों से अपनापन पाने,

भरते जब - तब आहें ।

बेटे-नाती, नत-बहुओं से,

सुख के दो पल चाहें ।

नित संध्या की बेला में वे,

डगमग आयें - जायें ।

मन्दिर- चौखट माथा टेकें,

सबकी खैर मनायें ।

वर्तमान के लिए बेचारे,

विगत काल बिसरा दें ।

सोने के पहले ही वे तो,

सबकी भोर सजा दें ।

रूखा- सूखा भोजन करके,

धीमी बानी बोलें ।

देर रात जब नींद न आवे,

यादों के सॅंग होलें ।

जब वे मुखड़ा-उखड़ा देखें,

खुद बैचेन हो जायें ।

बातों को वे घुमा-फिरा के,

मन का दुख पढ़ जायें ।

***

हर मन को ढाँढस देने में,

सदा रहे हैं आगे ।

घर में उनको देख के विपदा,

उल्टे पैर ही भागे ।

यौवन बाद बुढ़ापा सबको,

निश्चित ही है आना ।

यही सोच कर जीना हम को,

व्यर्थ न पीछे पछताना ।

***

कुल्हड़ संस्कृति

कुल्हड़ में

चाय पीने का मजा ही

कुछ और होता है,

चूँकि वह

अपनी ही माटी से

बना होता है ।

चाय की हर चुस्कियों में

अपनी माटी की

सौंधी-सौंधी खुशबू

जब बिखर जाती है,

तो अपने गाँव की

आर्थिक खुशहाली

लहलहाती नजर आती है ।

और मुन्ना कुम्हार के

उदास चेहरे में

मुस्कान बिखर जाती है ।

मेरे दोस्त, सचमुच

इस कुल्हड़ संस्कृति में

हमारे गांधी की

आत्मा बसती है ।

जो हमारे देश के

गाँवों की तरक्की का

इतिहास रचती है ।

इसलिए दोस्त,

कुल्हड़ में

चाय पीने का

मजा ही कुछ और होता है ।

चूँकि वह अपने देश की

माटी से बना होता है ।

***

मेघ मल्हार

दौड़ती हुई ट्रेन से

निहार रहा हूँ - मैं,

सावन की तेज

फुहारों के बीच

बरसते हुए बादलों को ।

जो धरती की प्यास

बुझाने आतुर हैं ।

बाहर देख रहा हूँ,

दौड़ते हुए नगरों गाँवों

गलियों,चैराहों

नदियों,मैदानों

जंगलों और पहाड़ों को

जो ब्यूटी पार्लर से निकले

नव जवानों की तरह

मस्ती में झूमते

नजर आ रहे हैं।

आम, जामुन,

और नीम के वृक्षों ने

मानो अभी-अभी

कंघी करके

अपना रूप सॅंवारा हो ।

बबूल के असंख्य झाड़

किसी हिप्पियों की तरह

डांस करते

नजर आ रहे हैं।

बरगद और पीपल के

विशालकाय वृक्ष

साधु-सन्यासीयों जैसे

धूनी रमाए

दिखाई दे रहे हैं ।

वह गुलमोहर का झाड़

मानों इशारों से

आने वाली हरियाली के

किस्से सुना रहा है ।

आकाश में दौड़ते मेघ

कड़कड़ाती बिजली के संग

सुर में सुर मिलाकर

मेघ मल्हार का राग

अलाप रहे हैं ।

और सभी को बरबस

अपनी ओर लुभा रहे हैं ।

***

अनजानी गलियों में भईया.....

अनजानी गलियों में भईया,

तुम कैसे भरमा गये ।

जाम हलाहल पी के तुम तो,

जंगल में बिलमा गये ।

नशा नसावे घर आँगन खों,

देहरी भी शरमावे ।

पुरा -पड़ोसी सब घर- वारे,

सहमें से घबरावें ।

रातन नींद सबई की जावे,

खुशहाली मुख मोड़े ।

घर में बदहाली घुस जावे,

भूखे पेट ही सोवें ।

तन-मन रोग अनेकों पाले,

तन बूढ़े - सा काँपे ।

जीवन की यह श्वाँस ना जाने,

कब रूठे कब जावे ।

जबई होश आ जावे भईया,

तबई समझ लो नीको ।

गिरवे के पहले ही सम्हलो,

ऐसो जीनो सीखो ।

जो बीत गओ सो बीत गओ,

अब बीती बात बिसारो ।

हँसी-खुशी से जीवन सारो,

हिल - मिल सबई गुजारो ।

***

संझा बिरिया जब-जब होवे.....

संझा बिरिया जब -जब होवे, घर की याद सतावे ।

खड़ी द्वार पर राह निहारे, दुल्हनियाँ मुस्कावे ।

ताँबे के गड़ुआ में पानी, भर कर महरी लावे ।

मुँह धुलवावे पैर पखारे, तन-मन तब खिल जावे ।

गरम-गरम सौंधी रोटी से, घर अँगना महकावे ।

भूखे-पेट में चूहे दौंड़ें, मन खावे अकुलावे ।

दाल-भात भाजी की खुशबू, मन खों बहुतई भावे ।

छौंक शुद्ध घी के लगते ही, व्याकुलता बढ़ जावे ।

किलकारी नन्हों की सुनके, मुख-मिश्री घुल जावे ।

दिन भर की मेहनत से भैया, चित्त शांत हो जावे ।

ढोलक और मंजीरे सॅंग, जब स्वर लहरी लहरावे ।

मन का मोर खुशी के मारे, झूम - झूम कर नाचे ।

रोजई राह निहारे बिस्तर, सुख की नींद सुलावे ।

श्याम सलोने सुन्दर सपने, अँखियन में छा जावें ।

कानों में नूपुर की रुन-झुन, खुशियाँ बन हरषावें ।

चूड़ी खनके गलबहियों में, खुसुर -पुसुर बतियावें ।

पहर तीसरा जैसई गुजरे, चिड़ियाँ हाट सजावें ।

गेसू की मादक खुशबू सॅंग, अॅंगिया भी शरमावे ।

अलसाई सी सुबह उठावे, सूरज की अरुणाई ।

भोर हुई - अब उठ रे भैया, न्योतो देवन आई ।

चलो चलें करमन खों करिबे, श्रम की बूँद बहावें ।

खेतों में हर तरह की फसलें, रोपें और उगावें ।

मेहनत कर खलिहान को भरने, खूबई फसल उगावें ।

खुशहाली से मोरे भैया, अपनो देश सजावें ।

***

गुलिस्ताँ की हर कली.....

गुलिस्ताँ की हर कली, जब फूल बनती है ।

तब फिजा में नूर की, कायनात बसती है ।

नूर की किलकारियों की, हम कद्र करते हैं ।

हम चमन के बागवां, हिफाजत भी करते हैं ।

फलसफा अखनूर का, हमको नहीं आता ।

सरहदी नफरत बढ़े, यह नहीं भाता ।

दिल की हर गहराई में, हम उतरना चाहते हैं ।

इंसानियत के आईने का, दायरा पहचानते हैं ।

हम दिलों के मेल में, हैं सदा विश्वास रखते ।

दोस्ती का हाथ देकर, दुश्मनी में ना बदलते ।

बस यही एक चाह में, ‘बस’ चली थी हमसफर ।

रेल की छुक-छुक से गॅूंजी, थी यहाँ की हर डगर ।

इस अमन की राह में, यूँ ही चलेगा सिलसिला ।

खुद जियो और जीने दो, इक यही है फलसफा ।

नूर की किलकारियाँ, इतिहास को बनाएँगी ।

आने वाली पीढ़ियाँ भी, नेह में बंध जाएँगी ।

***

संत शिरोमणि धूनी वाले दादा जी पर दोहे

साँईं खेड़ा ग्राम में, प्रकट हुये थे आप ।

कष्ट निवारण के लिये, धाये थे जगताप ।।

आस्था और अनास्था, में उलझा इंसान ।

श्रद्धा औ विश्वास से, मिलते हैं भगवान ।।

मैं कैसे गु़रु वंदना, करूँ कृपा निधान ।

मैं अज्ञानी जगत में, हूँ बिल्कुल नादान ।।

राह दिखाएँ नाथ अब, आप पकड़ कर हाथ ।

जीवन है मंझधार में, पार कराओ नाथ ।।

आप चलें आगे सदा, पीछे चलूँ मैं साथ ।

जब भी गिरने मैं लगूँ, थामे मेरा हाथ ।।

दादा जी के धाम में, सकल मनोरथ होंय ।

खाली हाथ न जा सकें, काज सिद्ध सब होंय ।।

दादा के दरबार में, भक्त नवाबें शीश ।

श्रद्धा से जो माँग लें, दादा दें आशीष ।।

दादा की धूनी जले, जलें सभी के पाप ।

दया रहे उनकी सदा, हर लें सारे ताप ।।

राह कठिन है आज की, भटका है यह देश ।

सच्ची राह दिखाइये, बदलेगा परिवेश ।।

दादा केशवानंद जी, हम भक्तों की चाह ।

सब पर अपनी दया कर, हर लो उनकी आह ।।

***

कैसी है यह राजनीति.....

कैसी है यह राजनीति,

कुछ समझ नहीं है आती ।

अस्तित्व राम के होने पर,

यह उँगली आज उठाती ।

राम राज्य का वादा करके,

सिंहासन पा जाती ।

सत्ता मिलते ही अपना ये,

गिरगिट रूप दिखाती ।

राजघाट में जो सोये हैं,

राष्ट्र पिता वे गांधी ।

चिर निद्रा में लीन हुये तब,

राम ही निकली वाणी ।

जीवन सबका क्षण भंगुर है,

कल की कोई न जाने ?

राम अमर हैं अब भी जग में,

बौना मन क्या जाने ?

कितने आये बिदा हो गये,

राम नहीं पर बन पाये ।

सेतु समुद्रम जैसा दुर्गम,

काम नहीं वे कर पाये ।

उत्तर से दक्षिण को जोड़ा,

पूरब से पश्चिम को ।

ऊॅंच-नीच का भेद मिटाकर,

जोड़ा सबके मन को ।

भारत की पावन धरती में,

युगों से गूँज रही गाथा ।

आदर्शों मर्यादाओं में,

झुका हुआ सबका माथा ।

राम बन गए विश्व धरोहर,

माथे का चन्दन बनकर ।

राम राष्ट्र का गौरव वंदन,

और विश्व का जन गण मन।

***

अतीत की खिड़की में निहारती माँ

अपने अतीत में

निहारती माँ

आज परेशान है-

अपने हाथ और पैर से

जिसके बल पर वह

घर आँगन को बुहारकर

साफ सुथरा कर देती थी ।

और फिर नहा धोकर

आँगन के किनारे बने

मंदिर की घंटियाँ

रोज सुबह – शाम

बजाती थी ।

हाथ जोड़कर भगवान से

दुआ माँगती थी ।

और सूर्य को अर्ध्य देकर

सबके मंगल की

कामना करती थी ।

फिर वह इन्हीं हाथों से

आटा गॅूंथ कर

गरम तवे पर

सबको गरम रोटियाँ

खिलाने आतुर रहती थी ।

‘‘सदैव अतिथि देवो भव ’’

की परम्परा का

निर्वाह करने वाली माँ

आज लाचार है,

उन्हीं हाथों और पैरों से

जो आज बेजान हैं,

निष्क्रिय हैं ।

और वह बेबस है ।

माँ देख रही है,

उस अतीत को

और अपने

इस वर्तमान को ।

सचमुच आज

उसके अतीत से

वर्तमान परास्त है ।

तभी तो आज भी उसे

अपने अतीत पर

गर्व है, नाज है ।

***

सभ्यता -संस्कृति - भाषा

आगरा में विदेशों से

लोग आते हैं,

शाहजहाँ मुमताज के

तराने गुनगुनाते हैं ।

भला मैं भी क्यों चूकता ?

एक नहीं, अनेक बार गया ।

मुगल वंशजों ने

सैकड़ों साल भारत को

अपनी भुजाओं में

समेटा था,

यमुना नदी के किनारे

श्वेत-धवल संगमरमर की

शिलाओं से

मुमताज की याद में

ताजमहल को

बड़ी खूबसूरती से

सजाया था,सँवारा था ।

ताज की दीवालों पर

उसने कुछ मजमून भी

तराशा था ।

उस दिन एक विदेशी ने

मुझे हिन्दुस्तानी समझ

वह पढ़ने को कहा था ।

तब उस दिन पहली बार

मेरी आँखें

उस भाषा पर जा लगी थीं ।

सचमुच मुझे निरूत्तर देख

वह मेरी अज्ञानता

पर हॅंसा था ।

मुझे नहीं पता,

भारत में कितने -

अरबी,फारसी के

ज्ञाता होंगे ?

मैंने फिर बाबर से लेकर

शाहजहाँ के इतिहास को

टटोला था ।

वर्षों हिन्दुस्तान में

रहने के बाद भी

वह नहीं भुला पाया था,

अपनी सभ्यता संस्कृति

और भाषा को ।

पर ओह हम सब भूल गए !

और आजादी के

वर्षों बाद भी

आज पाश्चात्य संस्कृति के

उस मोह जाल में

बुरी तरह उलझ गए ।

***