भरोसा अभी कायम है
“किसी गिरोह की दुश्मनी तुम्हे इस बात पर आमादा न कर दे कि इन्साफ से फिर जाओ...इंसाफ करो अगर अल्लाह की रज़ा चाहते हो ....."
छोटी मस्जिद से निकली लाउडस्पीकर की आवाज़ पूरे इलाके की फिज़ा में घुल रही है! लोगों के कान अजान पर लगे हैं! नमाज-ए-जुहल का वक्त हो चला है! कुछ देर बाद गलियों से, घरों से निकल कर लोग मस्जिद की ओर बढ़ते नजर आयेंगे! ठीक उसी समय सरकारी स्कूल की छुट्टी का समय होगा! ये सड़क नन्हे-मुन्ने बच्चों की किलकारियों और चहल-पहल से यूँ गुलज़ार हो जाएगी जैसे पंद्रह अगस्त पर आसमान रंग-बिरंगी पतंगों की उड़ानों से भरा और खुशदिल दिखाई पड़ता है!
ये कॉलोनी के ठीक बीच से गुजरती सड़क है जो छोटी मस्जिद पर जाकर दोराहे में तब्दील हो जाती है! ये मस्जिद छोटी मस्जिद इसीलिए कहलाती है कि इससे कोई पांच सौ मीटर की दूरी पर मेन रोड पर बड़ी मस्जिद भी मौजूद है! बड़ी और विशाल, जिसका गुम्बद और ऊँची मीनारें उसके नाम की तस्दीक करती मालूम होती है!
तो छोटी मस्जिद की ओर जाती इस सड़क के दोनों ही तरफ रिहायशी फ्लैट्स बने हुए हैं! डी डी ए के इन फ्लैट्स के नीचे की मंजिलों के बाहरी हिस्से दुकानों में बदल गए थे! उन्हीं में से एक दुकान में पत्थर की स्लैब के काउंटर के पीछे महेश भाई खड़े हैं! महेश भाई यानि महेश गुप्ता, इस खानदानी दुकान के मुखिया! उम्र कब की उस दहलीज को पार कर चुकी है जहाँ सरकारी मुलाजिम रिटायर घोषित कर दिए जाते हैं! दरम्याना कद, सांवली रंगत जो वक्त और अनुभवों की भट्टी में कुंदन-सी पककर गहरी हो चली है, इकहरा बदन जो उम्र के दबाव में आकर कुछ झुकने लगा है पर जिसकी फुर्ती देखकर ही उस शख्स के मेहनतकश होने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है! कान और सिर के पीछे बचे हुए थोड़े-से खिचड़ी बाल हैं जो चुगली कर रहे हैं कि कभी जहाँ बहारें थीं, आज वीराना है! महेश भाई के हाथों में इस समय बिजली की तेज़ी है और सामने ग्राहकों की कभी न छंटने वाली भीड़ है!
"महेश भाई, ये लीजिये पर्चा और तुरंत सामान भिजवा दीजिए! बस फौरन से पेश्तर! हाँ! आप तो जानते हैं आसिफ भाई को! कब से हलकान हुए जा रहे हैं!"
महेश भाई के हिसाब करते हाथ ठिठके, पेन को कान पर टांकते हुए, उन्होंने नाक पर टिके चश्मे के ऊपर से आवाज़ की दिशा में देखा तो सामने हाथ में बड़ा सा पर्चा लिए साजिद खड़ा था!
"किस रोज़ है वलीमा?" हाथ में रखे नोट गिनते हुए महेश ने पूछा!
"बस महेश भाई, आते जुम्मे को है! अरे कार्ड नहीं देखा आपने भाई?"
"देखा था भाई, भूल जाता हूँ! पर आज तो मंगल है! जुम्मे को दो रोज़ बाकी हैं! आसिफ़ मियां से कहियेगा, सामान आज शाम अज़ान के वक़्त तक पहुँच जाएगा! बिल्कुल फ़िक्र न करें! मेरे घर की बात है!" महेश भाई ने मुस्कुराते हुए कहा!
"महेश भाई, आपके रहते फ़िक्र का क्या काम! बस मसाले एक बार आपके हाथ से निकल जाएँ, अल्लाह कसम, जायका दुगुना हो जाता है!" इस बात पर वहां मौजूद सभी लोग हंस दिए, सहमति ने सबके चेहरों पर चमक जगा दी! ये सच था, दुकान से कोई भी सामान लो, पर मसाला तो महेश भाई के हाथ से ही चाहिए था सबको! बड़े-बुजुर्ग तक कहते थे, बड़ी बरकत है महेश के हाथ में, न कम न ज्यादा, बस जितना जरूरी, उतना मसाला होता है महेश का!
पास खड़े उनके छोटे भाई मनोज के हाथों में पर्चा थमाकर साजिद चला गया! साजिद के जाते ही महेश भाई के हाथों में फिर तेज़ी आ गई! रोज की तरह दुकान पर ग्राहकों की भीड़ लगी थी! किराने की उस बड़ी-सी दुकान में महेश, छोटा भाई मनोज और दो नौकर, सबके सब लगे हुए थे ग्राहकों की मांग पूरी करने में! तो भी भीड़ थी कि कम नहीं होती थी और फरमाइशों का क्या कहना, वे तो हर ओर से उमड़ी चली आती थीं! ऊपरवाला गवाह है, दम लेने को फुर्सत नहीं थी! एक तरफ थोक के सामान के तकाजे थे तो दूसरी तरफ सामानों के पर्चे थे और इसी बीच छोटे-छोटे रिटेल के ग्राहक थे जो शोर मचाये रहते!
"महेश भाई, एक किलो पंचमेल दाल देना! और सालन का मसाला भी!"
"महेश भाई, पांच किलो बिरयानी वाले चावल देना! वोही, खुश्बू वाले, जो बड़े अब्बू ले जाते हैं!"
"महेश भाई, दस किलो मटन के लिए मसाला बना दीजिये!"
"ऐ महेश भाई, पहले मेरा पर्चा देख लीजिये ना, कब से खड़ी हूँ! अम्मी नाराज़ हुईं तो मेरी खैर नहीं! हाँ नई तो ....." अदीबा ने रोनी सूरत बनाकर शिकायत की तो मुस्कुराते हुए महेश भाई ने तुरंत पर्चा लेकर मनोज को थमा दिया!
अब सामान कोई भी दे मनोज या हाथ बंटाने को दुकान पर रखा कोई नौकर पर ग्राहकों की जबान महेश भाई, महेश भाई कहते सूखती न थी! सबके जगत भाई थे महेश भाई! वक़्त अपनी रफ्तार से चल रहा था और उनके हाथ अपनी से! पर एक पल की भी फुर्सत नहीं मिलती थी! घड़ी ने दोपहर के दो बजाये तो छोटे भाई मनोज ने इशारा किया! ये दुकान बढाने का वक्त था! पिछले कुछ सालों से वे दोपहर दो घंटे दुकान बंद रखने लगे थे ताकि देह को कुछ आराम, कुछ सुकून मिल सके!
उस दिन दुकान बढ़ाते समय मनोज के हाथ ठिठक गये! महेश भाई ने उसकी परेशान नज़र का पीछा किया तो पाया, उसकी नजर सामने सडक पार खुली दो दुकानों पर थी! ये दुकानें चंद रोज़ पहले ही खुली थीं। एक तो बस उनकी दुकान के सामने ही थी, अब्दुल्ला जनरल स्टोर और एक उससे कुछ आगे रईस मियां ने अपने आवारा साहबजादे को खुलवाकर दी थी!
"भाईसाहब, मैंने सोचा है दुकान दोपहर में बंद न किया करें!" मनोज ने रोटी का टुकड़ा तोड़ते हुए कहा!
"देख भाई, तेरी चिंता समझ रहा हूँ मैं, पर देख ऊपरवाला है जब तक, और जब तक हाथ सलामत, कोई चिंता नहीं! एक छोड़ दस दुकानें खुल जाए, हमें कोई टोटा नहीं! लो थोड़ी भिन्डी और लो, बढ़िया बनी है! और ये दाल तो छोटी ने क्या बढ़िया बनाई है! भई वाह....."
"पर भाई साहब, वक्त ठीक नहीं है...भरोसा उठते देर नहीं लगती! एक बार ग्राहक का मन बदला नहीं कि ....." महेश भाई ने कंधे पर हाथ रखा तो मनोज चुपचाप खाना खाने लगा हालाँकि उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें हलकी न हो सकी और ये महेश भाई की अनुभवी आँखों से छिपा न था! वे कुछ क्षण उसके चेहरे की बदलती रंगत देखते रहे! उसकी चिंता का रंग वे जानते, समझते थे! अभी पिछले हफ्ते ही बता रहा था कि पास में कर्मपुरा में डी डी ए के फ्लैट मिल रहे हैं! मौके की जगह है अगर वहां शिफ्ट हो जाएँ तो दुकान भी पास रहेगी! बस दस मिनट का रास्ता है!
खाना खाकर वे कुछ देर अपने बिस्तर पर लेटकर सुस्ता रहे थे पर नींद आँखों से कोसों दूर थी!
"वक्त ठीक नहीं हैं"......
"वक़्त ठीक नहीं है......."
ये जुमला एक दिन पिताजी के मुंह से सुना था! सन 92 की एक सर्द शाम थी! भरा जाड़ा था, उन दिनों दिसम्बर काफी ठंडा हुआ करता था दिल्ली में! सर्दी धीरे धीरे बढती जा रही थी! पूरा देश एक अलग ही रंग में रंग था! चहुँ ओर रथयात्रा की धूम थी! देश था कि राममय हुआ जाता था! महेश भाई का बचपन गंगा-जमुनी तहज़ीब के साए में गुज़रा था! खूब समझते थे इस सियासती उठा-पठक को! उनके लिए रोजी ही भगवान थी! ये तमाम बातें उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी! पैंतीस बरस पहले बड़ी मेहनत से दुकान जमाई थी इस कॉलोनी में बाप बेटे ने! पूरी मुस्लिम कॉलोनी में किराने की कई दुकानें खुली और बंद हो गई! पर महेश ने अपनी ईमानदारी, मेहनत और काबलियत के दम पर जो साख कमाई थी वो उसकी दुकान की कमाई से कहीं ज्यादा थी! फिर छुटपन से ही पुरानी दिल्ली की दुकानों पर हासिल किये तजुर्बे ने कभी धोखा न दिया। पिताजी के कंधे झुक गये थे पर हौंसला ताजादम था! आँखों की बीनाई कमजोर हो चली थी पर तजुर्बे की रोशनी के इजाफे ने कारोबार को खूब सहारा दिया! उनके काम का सिक्का जम गया था! दुकान खूब चल निकली थी! सब बढिया चल रहा था, उन्हें उनकी मेहनत और लगन का फल भरपूर मिल रहा था!
इन बीते बरसों में लगा ही नहीं कि कहीं बाहर से आकर बसे थे! उन दिनों सस्ती जमीन की तलाश थी उन्हें अपनी दुकान के लिए पर पाई-पाई कर जोड़ी जमा पूंजी पूरी नहीं पड़ रही थी! उनकी पहचान के कुछ मुस्लिम भाई यहाँ आकर बसे थे! उन्हीं में से किसी ने रास्ता दिखाया! इस अल्पसंख्यक कॉलोनी में ये जगह उन्हे पैसे और मसालों के काम दोनों के लिहाज़ से मुफीद लगी थी! इतना पैसा नहीं था कि घर और दुकान दोनों अलग-अलग खरीद लेते तो वहीँ दुकान के पीछे के हिस्से में रिहाइश जमा ली! फिर पिताजी और दस बरस के मनोज के अलावा उनका था भी कौन! कहते हैं दिल्ली में सब बाहर से आन बसे हैं पर उनके पिताजी ने भी जब होश संभाला तो खुद को पुरानी दिल्ली के कमरे में पाया था! वे दिल्ली के थे और दिल्ली उनकी!
पिताजी से मसालों के गुर ही नहीं सीखे थे महेश भाई ने, तमीज़, तहजीब, नेकसीरती और ज़बान में गुड़ सी मिठास भी विरसे में पाई थी! यहाँ आते ही शाकिर मियां से इतना अपनापा कायम हो गया कि ईद और दिवाली दोनों घरों में साथ-साथ मनने लगी! उन्हें आज भी याद है कि इस घर में किसी औरत की गैर-मौजूदगी को अपने खुशमिजाज़ वजूद से भर दिया था शबाना भाभी ने! फिर अपने साथ ढेर-सी आशंकाओं और सवालों के साथ सुषमा जब दुल्हन बन इस छोटे से घर में आई थी तो बहन बनकर उसका खैरमकदम भी उन्होंने ही किया था! जल्द ही दोनों में सगी बहनों-सी जमने लगी थी! उसी साल शाकिर मियां का जानलेवा एक्सीडेंट हुआ तो महेश भाई ने तन-मन-धन से मदद की! दुकान पिताजी को सौंप न सिर्फ घर से हॉस्पिटल भाग- दौड़ की बल्कि जरूरत पड़ने पर अपना खून देने के लिए बेझिझक हाथ आगे कर दिया था! आज लगता है कितनी जल्दी बीत गया वह वक़्त!
समय की किताब के वरक पलटे तो उसी शाम पर जाकर रुके। तहलका मच गया था! अयोध्या में गिरी गाज की धमक से पूरा मोहल्ला थर्रा गया था! आसपास कोई हिन्दू घर नहीं था! दो-चार सरदारों के घर थे कुछ दूरी पर जो चौरासी के ताज़ा घाव अपने सीने में लिये एक बवंडर से गुजरी जिन्दगी जी रहे थे! उनके जख्म अभी इतने हरे थे कि बुरे वक़्त के लिए फिर से कतई तैयार नहीं थे जो कुछ बरस पहले उन्हें छूकर निकला था! कुछ उस बुरे वक़्त की चपेट में आकर मोने बन गये थे और ये लोग भी सहमे हुए चुपचाप तमाशा देख रहे थे कि देखें ऊंट किस करवट बैठता है! हर आहट उनके सीने को सिहरा जाती थी! हिन्दुओं के घर यूँ भी वहां नामचारे को थे! जो एक-दो थे उनके घरों पर एकाएक ताले झूलने लगे!
उस रात दुकान बंद कर, घर में भी अँधेरा कर दिया था पिताजी ने! सुषमा ने रो-रोकर एक ही रट लगा रखी थी, "देखिये न…. लोग कह रहे हैं, कुछ भी हो सकता है। मैं कहती हूँ निकल चलिये यहां से।"
जब पति ने समझाने की कोशिश की कि उसका जाना नामुमकिन है तो हारकर वह कुछ पल ख़ामोशी में डूबी, उसके चेहरे पर कुछ बेबसी के भाव उभरे जो धीरे-धीरे सख्त होते चले गये और उसने फैसला सुना दिया,
"ठीक है.....मुझे मेरे मायके छोड़ आइये जी..." नन्हे सुमित और मीनू को चिपटाए एक डरी हुई, बेबस माँ का दिल कुछ ऐसे सिहर रहा था जैसे आंधी के थपेड़े में डाल पर टिका एक पत्ता सिहर रहा हो!
पिताजी जो सारा दृश्य अपनी बूढी, अनुभवी आंखों से निहार रहे थे, उन्होंने भी महेश के कंधे पर हाथ रखकर फैसलेकुन लहजे में कह दिया, "वक्त ठीक नहीं है बेटा, कल क्या हो कुछ भरोसा नहीं! यूँ जान हथेली पर रखकर बहू-बच्चों को किस्मत पर नहीं छोड़ा जा सकता!"
दिल पर पत्थर रखकर अँधेरे में ही पिछवाड़े से निकलकर एक ही ऑटो में पिताजी, सुषमा, बच्चों और मनोज को अपनी ससुराल भेज दिया था महेश भाई ने! वे खुद जाने को कतई राज़ी न हुए! बड़ी मेहनत से तिनका तिनका जोड़कर सब जमाया था, जैसे चिड़िया अपना घोंसला जमाती है! अभी पिछले हफ्ते ही तो जमा-पूंजी इकट्ठी कर नया माल भरा था दुकान में! जिस घर-कारोबार में जान बसी थी उसे किसके भरोसे छोड़ जाते! रोज़ नई अफवाह सर उठाती थी। जिसकी काली छाँव में पूरी कॉलोनी सिहर उठती!
वक्त सचमुच ठीक नहीं था! देश में कोहराम मच गया था! देश के कई हिस्सों में दंगे हो रहे थे! भीषण मारकाट की खबरें आ रही थीं! दहशत दबे पांव पूरी कॉलोनी में गश्त लगा रही थी! दिनभर के सन्नाटे के बीच अख़बार और टीवी यहाँ वहां संवेदनशील स्थिति होने के दावे करते रहे, कर्फ्यू की पूर्व घोषणाएं होती रही, यहाँ वहां चौपाले ज़माने की इज़ाज़त नहीं थी! जहाँ चार लोग जमते पुलिस आ धमकती पर मंत्रणायें जैसे-तैसे जारी रही! यहाँ वहां से छनकर आती खबरें हवा में ऐसे घूम रही थीं जैसे अँधेरे के साम्राज्य के कायम होने पर चमगादड़ें चीखती इधर उधर घूमती हैं! जाने इन रक्तपिपासु चमगादड़ों को किसके खून की प्यास थी!
उस दिन टीवी पर खबरें देखते हुए सिहर गये थे महेश भाई! दंगों की हर खबर हथौड़े सी बज रही थी उनके दिलो-दिमाग पर! समझ नहीं पा रहे थे इस जहरीली हवा का रुख इस ओर हुआ तो क्या करेंगे! शाकिर भाई की सलाह पर अगले कुछ दिन उन्होंने दुकान बंद रखी! घर के बाहर ताला लगवा दिया! शकीर मियां और शबाना भाभी ने न तो दो वक्त खाने की कमी न होने दी और न हिम्मत बढ़ाने में कंजूसी की! उनके साथ और सहारे ने बहुत तसल्ली दी पर महेश भाई को सुकून कहाँ? अजीब सी वहशत का साया था जैसे किसी अजाब की गिरफ्त में साँसे ले रहे थे! रात भर अँधेरे को घूरते हुए ऊंघा करते! जो कभी भूले-भटके आँख पहर भर को लगती तो ख्वाब में कभी दंगाइयों की नंगी तलवारें दिखतीं तो कभी धू-धू कर जलता अपना घर-संसार नज़र आता! होश फ़ाख्ता हो जाते इस दर्दनाक मंजर को देखकर! नींद में चीख उठते और बैठे-बैठे कंपकपी चढ़ आती! चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगतीं! कमबख्त कैसी घड़ी आई थी, यकीन जिन्न बन किसी पेड़ पर जा टंगा था और तसल्ली किसी ताक पर जा बैठी थी! इतना डर, इतना अकेलापन कभी महसूस नहीं किया था महेश भाई ने!
सन चौरासी का प्रेत कब्र में करवट बदलने लगा था! वो विध्वंस भूले नहीं थे वे पर उस दौरान उनके इलाके में दहशत को घुसने की इज़ाज़त नहीं मिल पाई थी! खुद वे परमजीत और बलविंदर भाई को तसल्ली और मदद दोनों देते रहे थे! पिताजी से बंटवारे की कहानियां सुनी थीं, अब लगता था, वे नाम बदल फिर सामने आने वाली हैं!
ऐसी ही एक सुबह शकीर मियां ने उन्हें नीमबेहोशी में बडबडाते देखा! रजाई के अंदर भी सूखते पत्ते से कांप रहे थे! चेहरा सुर्ख था और माथा था कि तंदूर हो गया था!
"साहिरा के अब्बू, सुषमा भाभी को फोन मत कीजिये! नाहक जी हलकान किये रहेंगी! अभी उनका आना भी ठीक नहीं! फिर हम तो हैं न जी ....." उनके लिए काढ़ा बनाती शबाना बी ने अपने शौहर को राय दी तो वे सिर हिलाकर रह गये! जानते थे बीमारी का इलाज है पर दहशत के तले दबे आदमी को क्या इलाज दिया जाए! उसका मरहम तो वक़्त के पास है न! ये और बात है कि वक़्त की करवट से वे खुद भी कम खौफज़दा न थे!
पूरे दो दिन, दो रातें उनकी दवादारू की दोनों मियां बीबी ने! शाकिर मियां तपते माथे पर पट्टियाँ बदलते, कुरान की आयतें दोहराते रहते और शबाना बी ने उन्हें हर दुआ में याद रखा! मौलवी साहब से पढ़वाकर ताबीज़ तक बांधा उनकी बाजू में! तीसरे रोज़ सहर की नमाज़ के बाद मोहन भाई का माथा छुआ तो देखा बुखार उतर गया था! शाम तक तबियत कुछ दुरुस्त मालूम हुई! दलिया चखने से पहले शकीर मियाँ की तरफ सवालिया निगाह से देखते महेश भाई को तसल्ली हुई जब उन्होंने कंधे पर हाथ रख सिर हिलाया कि सब खैरियत से है! ये आश्वस्ति दुनिया की हर दुआ और दवा से ऊपर थी उस रोज मोहन भाई के लिए! उन्हें महसूस हुआ इस तसल्ली ने उन्हें संजीवनी छुआ दी हो! लग रहा था मानों एक हाहाकारी तूफान से लड़ते रहे हों इतने दिन से! घर में फोन नहीं था पर नान-गली के नुक्कड़ पर लगे बूथ से फ़ोन कर पिताजी और सुषमा भाभी को भी खैरियत की इत्तिला कर दी थी शकीर मियां ने!
छोटी मस्जिद के मौलवी साहब अक्सर कहते हैं, "वक़्त के पांव में चक्के लगे हैं! जब हमें लगता है कि अल्लाह, ये कट नहीं रहा वो उस वक़्त भी उसी रफ़्तार से चला करता है, बस हमारी गिनती ही मंद पड़ जाती है! वक़्त का चक्का न रुका है कभी, ओ' न कभी रुकेगा! इसकी तासीर है, कैसा भी हो अच्छा या बुरा, बीतेगा जरुर!" फिर तलवार की धार पार टंगा वो मुश्किल वक़्त भी किसी तरह बीता! यकीन जड़ें जमाता रहा और फिर जिस रोज महेश भाई ने दुकान खोली, पूरा मोहल्ला टूट पड़ा!
"ऐ महेश मियां, तुमने हद कर दी!!! अमां कहाँ थे इतने रोज से?? कमबख्त बिरयानी मसाला खत्म हो गया था! उस रोज समधी खाने पर आये थे! लालकिले वाला मसाला कहीं नहीं मिला! खुदा कसम, जुबान तरस गई जायके को! इमरान की अम्मी बस चावल उबालकर दे देती है, हुंह!"
मोहल्ले के लठैत बन्ने मियां ने शिकायतकुन लहजे में पुकारा, "अरे महेश भाई, आपने सोचा भी कैसे कि आप हमारे बीच महफूज नहीं! आप हमारी जान हैं भाई! कोई हाथ तो लगाए आपको, मेरी लाश पर से होकर जाना होगा! बेफिक्र रहिये और कमाल करते हैं आप भी! इस उम्र में चचाजान को कहाँ भेज दिया! भाभीजान और बच्चों को बुला भेजिए! अमां आप दुकान संभालें, कहिये तो मैं लेकर आऊँ?"
अपनेपन की इस बरसात में भीग रहे थे महेश भाई! अभी कुछ पहले ही तो बोरियों के लदान को लेकर कुछ तू-तू-मैं-मैं हो गई थी बन्ने मियां और मनोज के बीच और आज वही बन्ने मियां .....! आँखों से बरसते आंसुओं पर जब काबू न हो सका तो महेश भाई फूट-फूटकर रो पड़े! सारा डर, इतने दिनों की दहशत, सारी घुटन सब आँखों के रास्ते बांध तोड़कर बह निकले! जाने कितने हाथों ने संभाला, कितनों ने गले लगाया, कितनों ने कसमें दीं और कितनों ने झाड पिलाई! उस एक दौर ने एक पल नहीं लगा वे कभी भी अकेले होंगे! हंसते-मुस्कुराते तकाजों ने हांक लगाई तो पनीली आँखें भी मुस्कुरा दीं! कांपते हाथ एक लम्हा रुके और फिर चल पड़े, उसी रफ़्तार से! अगले दिन परिवार भी वापिस आ गया, लगा जैसे सोया वक़्त एक जम्हाई लेकर जागा और चल पड़ा अपनी रफ़्तार से....
टिक - टिक - टिक - टिक - टिक - टिक !
कहते हैं तारीख खुद को दोहराती है! फिर इसके कई बरस बाद, फिर हवा में जहर फैला, फिर सियासदानों की चांदी हुई! फिर मारकाट, दहशत, कर्फ्यू जैसे शब्द अक्सर खबरों में जगह बनाते रहे, बस जगह बदलती रहीं! कभी मुम्बई तो कभी गोधरा, कभी गुजरात तो कभी अलीगढ, मेरठ, मुरादाबाद, मुजफ्फरपुर.... शहर-गाँव हैवानियत के नंगे नाच से सिहरते रहे, धर्म के झंडे तले इंसानियत दम तोडती रही पर महेश भाई की दुकान तभी बंद हुई जब पिताजी का इन्तकाल हुआ था ! उनकी अंतिम यात्रा में अर्थी के पीछे सैकड़ों की भीड़ में सारे चेहरे उनके अपने थे! उन्हें वे उनकी पोशाकों या लहज़े से नहीं, उनके चेहरों पर झलकते अपनेपन के नमक और आँखों में जमे अफ़सोस से पहचानते रहे!
शाकिर मियाँ बेटे के पास दुबई चले गए! जाने से पहले अपना घर महेश भाई को बेच गए कि वे कहीं भी रहें उनका एक घर हमेशा हिंदुस्तान में महफूज़ रहेगा, उनके भाई के पास! दस बरस जब पहले जब मनोज की शादी हुई तो उस साथ वाले हिस्से को गोदाम में बदलकर पिछले सारे हिस्से में रिहाइश का पक्का इन्तजाम कर दिया महेश भाई ने, जहाँ दोनों भाइयों ने अपनी गृहस्थी जमा ली थी! पिछले साल छत पर भी एक पोर्शन बना लिया कि कल सुमित और मनोज के बेटे वहां अपनी दुनिया बसायेंगे!
रिश्तेदारों ने, सम्बन्धियों ने बहुत समझाया, "भई दुकान तो ठीक है रोज़ी रोटी है पर रिहाइश वहां क्यों! अपनों में आकर रहो!" पर यहां कौन पराया था, सब अपने ही थे। कोई चचा है, कोई भाई, कोई बहन तो कोई भाभी और वे सबके महेश भाई! उनके चेहरों पर लिखी इबारत में जो अपनापा झलकता है वो कहाँ मयस्सर होगा! खुद उन्होंने भी कब किसी से अलग समझा अपने को! जब कभी किसी को जरूरत हुई तन-मन-धन से इस अपनापे को, इससे जुड़े तमाम रिश्तों को निभाते रहे थे महेश भाई! फुरकान को कपड़ों के बिज़नस में घाटा हुआ या इमरान की बीवी का ऑपरेशन था, आधी रात को मदद की थी रुपयों से महेश भाई ने और मनोज-सुमित को पीछे भेजा! और मीनू की शादी में उनका ब्लड प्रेशर कितना बढ़ गया था! पूरे दो दिन अस्पताल में रहे थे! मनोज, फुरकान, इमरान सबने मिलकर संभाला! कब, कैसे, कहाँ, क्या हो रहा है उन्हें तो खबर तक नहीं हुई! होश आया और घर लौटे तो बेटी की जयमाल हो रही थी! उसी दिन तय कर लिया कि जीना यहाँ, मरना यहाँ! कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान ये सब कागजों में दर्ज जानकारी भर थी, धर्म ने यहाँ कोई लकीर नहीं खींची थी कि उन्हें अलगाया जा सके! वे अलग थे महज इसीलिए कि वे मस्जिद में नहीं मंदिर में जाते थे कि उनका नाम मुनव्वर नहीं महेश था?
आज इतने बरस बाद मुल्क की आबोहवा बदल रही है! लोगों का यकीन डांवाडोल हो रहा है! रोज नई नई बातें हवा में तैरने लगती है! उनकी बू से नावाकिफ नहीं महेश भाई!
"सुना नहीं, पिछले साल एक आदमी को अफवाह के नाम पर पीट पीटकर जान ले ली गई! आपको क्या लगता है भाईसाहब वे चुप बैठेंगे? नहीं जी, नई हुकुमत पर भरोसा करते लोगों का भरोसा इंसानियत पर से कब उठ जाये, इसकी क्या गारंटी है! आप क्या अख़बार नहीं पढ़ते? नहीं जानते कि क्या हो रहा है दुनिया में! भाईसाहब कभी तो, किसी दिन तो सब्र का बांध टूटेगा न? इधर से भी और उधर से भी! बाहर से सब शांत लगता है पर अंदर जो दूरियां पैदा हो रही हैं वो कम नहीं होंगी, उनमें रोज इजाफा होगा! अभी वक़्त रहते समझ लीजिये इस फर्क को!" उस दिन सुमित का रिश्ता करने आये बंसल जी समझा रहे थे!
आज जब मनोज ने चेताया तो महेश भाई मुस्कुरा दिए! लगा जैसे पिताजी का अंदेशा मनोज के चेहरे पर आ जमा है! एक उम्र बीत गई है तारीख के इन झटकों को झेलते पर जानते थे रास्ता कहीं और नहीं, इन्ही के ठीक बीच से होकर गुजरता, है! हर हादसे ने उन्हें कुछ और मजबूत बनाया था! सही है वक़्त बदल रहा, आबोहवा बदल रही है, पर कब नहीं बदली थी ये आबोहवा! इस मुल्क की तकदीर है ये आबोहवा! पर कितना भी बदले इंसानियत पर उनका भरोसा बुरे से बुरे वक्त में डगमगाया जरूर पर कभी टूटा नहीं और आज भी मोहन भाई को अपने इसी भरोसे पर भरोसा था! और अब भरोसे के साथ रहने की आदत पड़ गई थी उन्हें, कोई मजबूरी नहीं! इसी भरोसे के साथ जिन्दगी सुकून से गुजरी अब इसके बिना रहना मुमकिन नहीं! ये कायम है और रहेगा! मनोज भी देर सबेर इसे अपना बना लेगा! एक बार इससे दोस्ती हुई तो तमाम अंदेशों से मुक्त हो जाएगा! और वे जानते हैं वह दिन भी जरूर आएगा! आनेवाली तारीख में वे इस भरोसे को मनोज और सुमित की आँखों में देखना चाहते हैं!
घड़ी पर नजर गई तो देखा पांच बज गए थे! एक भरपूर अंगड़ाई के बाद उन्होंने साइड की तिपाई से चश्मा उठाकर लगाया, चप्पलें पहनी और बाहर निकल गए! मनोज के कमरे के आगे से गुजरते हुए सोचा उसे जगाएं फिर, कुछ सोचकर चले आए! दुकान का शटर उठाते हुए एकाएक बराबर से दो हाथ सहारे को आ लगे तो देखा मनोज मुस्कुरा रहा था, "वाह भाईसाहब, मुझे सोता ही छोड़ आए!"
एक तेज़ आवाज़ के साथ शटर उठा और दोनों भाई हंस दिए...…
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