BHARAT film review in Hindi Film Reviews by Mayur Patel books and stories PDF | ‘भारत’ फिल्म रिव्यूः कमजोर कडी ‘कहानी’

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‘भारत’ फिल्म रिव्यूः कमजोर कडी ‘कहानी’

सुपरस्टार सलमान खान की लेटेस्ट ‘ईद’ रिलिज ‘भारत’ की सबसे बडी प्रोब्लेम है उसकी कहानी जो की बहोत ही फैली-चौडी है. साल 1947 से लेकर 2010 तक का भारत देश का इतिहास यहां दिखाया गया है. दिखाया गया है की देश-दुनिया में उस समय के दौरान घटी घटनाएं एवं उथलपुथल से फिल्म के मुख्य किरदार ‘भारत’ के जीवन में कैसे कैसे मोड आते है. 1947 के विभाजन की त्रासदी के दौर में छोटे भारत का परिवार बीछड जाता है. स्टेशन मास्टर पिता (जैकी श्रॉफ) और छोटी बहन पाकिस्तान में ही लापता हो जाते है. लाहोर छोड कर दिल्ली जा बसे भारत का बचपन संघर्ष में बीतता है. मां (सोनाली कुलकर्णी) और दो छोटे भाई-बहन का खयाल रखने का पिता को दिया वचन निभाते हुए भारत बडा होता है और एक सर्कर में जोखिमभरी नौकरी कर लेता है. कुछ समय बाद तेल के कूंए में काम करके पैसे कमाने के लिए वो मिडल इस्ट चला जाता है. वहां उसको कुमुद (केटरिना कैफ) से प्यार हो जाता है. वहां से इन्डिया बापिस आके वो मर्चन्ट नेवी में जोइन हो जाता है. और आखिर में वो भारतीय रेलवे में नौकरी पाने में कामियाब हो जाता है. इस लम्म्म्मबे सफर में बचपन का साथी विलायती खान (सुनील ग्रोवर) भारत का सुख-दुःख में साथ निभाता है.

इतने विस्तृत फलक में फैली कहानी में दिखाने के लिए बहोत कुछ है. घटनाएं एक के बाद एक घटती रहेती है, लेकिन तकरीबन कुछ भी एसा नहीं होता जो दिल को छू जाए. ‘गदर’ जैसी फिल्मों में 1947 के दंगे काफी अरसकारक ढंग से दिखाए गए है. यहां भी 1947 के पार्टिशन के दृश्य है लेकिन इतने कमजोर है की दर्शक के दिल में कोई संवेदना जगा नहीं पाते. न तो सर्कस का जलवा काम करता है न ही तेल के कुएं की दुर्घटना कोई टेन्शन बढा पाती है. एक्शन का क्वोटा पूरा करने के लिये सलमान मौत के कुएं में मोटरसाइकिल भी चलाते है और समुद्री लूटेरों का मुकाबला भी करते है... अफसोस की एक भी सीन रोमांचक नहीं लगता. बंटवारे के वक्त भारत-पाकिस्तान के बिछड़े हुए लोगों को मिलाने की पहल का ट्रेक हो या फिर आधुनिकता के नाम पर दुकानों को तोड़कर मॉल बनाने का विषय हो, ‘भारत’ में सब कुछ एक सीधी रेखा में चलता जाता है. बिलकुल फ्लेट!!! यहां कलाकार बिछडते है, दुखी होते है, रोते है, लेकिन उनके इमोशन दर्शकों को छू ही नहीं पाते. फिल्म के किरदार और दर्शक के बीच में वो कनेक्शन बनता ही नहीं.

फिल्म में सलमान को 70 साल के वुजुर्ग के रूप में दिखाया गया है लेकिन वो किसी एन्गल से 70 साल के नहीं लगते. यार, 70 साल का आदमी चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, जिम-अखाडा कर ले, उसकी बॉडी-लैंग्वेज में कहीं तो ढीला-ढालापन आ ही जाता है. पर सलमान की हीरो इमेज को एनकेश करने के चक्कर में ईस वास्तविकता को नजरअंदाज किया गया है. ठीक एसा ही केटरिना का भी है. वो भी बूढी होने के बावजूद बूढी कतई नहीं लगती. पूरी फिल्म में सलमान का गेटअप एसा है की एक सेकन्ड के लिए भी वो 1970 या 1980 के दशक के नहीं लगते. न तो उनके बाल उस जमाने के है न तो कपडे. बाकी के कलाकारों का भी यही हाल है. कोई केरेक्टर कभी कभी उस जमाने के जैसा दिखता है तो कोई आज के जमाने के जैसा.

अभिनय की बात करें तो सलमान ने बहोत महेनत की है अच्छी एक्टिंग करने की, लेकिन वो कोशिश पूरी तरह से रंग नहीं ला पाई. उन्होंने अपने टिपिकल ‘दबंग’ अंदाज से हटकर कुछ नया करना चाहा, पर उन्हें कामियाबी नहीं मीली. इस रोल के लिए आमिर खान या फिर रितिक रोशन जैसे ज्यादा बहेतर एक्टर की जरूरत थी. सलमान अपनी मर्यादित अभिनय-प्रतिभा के चलते एक हद से उपर नहीं उठ पाते. केटरिना कैफ को अपनी काबिलियत के हिसाब से अच्छा रोल मिला है, और उन्होंने उसे ठीकठाक से निभाया है.(ये पात्र देखकर लगता है की अच्छा किया जो प्रियंका चोपरा ने ये फिल्म छोड दी. प्रियंका जैसी दमदार अभिनेत्री को ऐसी भूमिका करनी भी नहीं चाहिए.) कर्ली हेर में केटरिना काफी खूबसूरत लगीं. सुनिल ग्रोवर को काफी लम्बा रोल मिला है और उन्होंने इस का भरपूर फायदा उठाया है. हांलांकी उनके खाते में और ज्यादा अच्छे डायलोग्स होने चाहिए थे. इस फिल्म में उन्होंने जो किया है उससे कहीं ज्यादा वहेतर काम वो टीवी पर कर चूके है. सलमान-केट और सलमान-सुनिल के बीच की केमिस्ट्री सराहनीय है. सहायक भूमिका में जैकी श्रॉफ, तबु, सोनाली कुलकर्णी, दिशा पटणी, नोरा फतेही, कुमुद मिश्रा जैसे अदाकार है परंतु उनके पात्रालेखन इतने साधारण है की एक भी कलाकार अपनी छाप नहीं छोड पाता. कोमिक लगे एसी कई परिस्थितियां फिल्म में पेदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन कमजोर राइटिंग की वजह से डायलोग्स फूटते ही नहीं. एक भी सीन या सिच्युएशन एसा नहीं है जहां दर्शक खुलकर, ठहाके लगाकर हंस सके. कहीं कहीं सुनिल ग्रोवर और एकाद-दो जगहों पर सतीष कौशिक, ब्रिजेन्द्र काला और आशिफ शैख हंसाने में कामियाब होते है. बाकी सब… अमा, छोडो यार.

फिल्म के गानों के बारे कुछ ना ही कहे तो बहेतर है. संगीत, गानों की लिखावट, कोस्च्युम्स, हेर-स्टाइल, कोरियोग्राफी… कुछ भी 60-70-80 के दशक का नहीं लगता. ‘स्लो मोशन’ और ‘चाशनी’ ये दो गाने पर्दे पर फिर भी देख सकते है, बाकी के गाने दिमाग पकाते है. फिल्म के सिर्फ दो प्रभावशाली पहेलू है. एक, आर्ट डिरेक्शन और दूसरा, सिनेमेटोग्राफी.

कोरिया की ब्लोकबस्टर फिल्म ‘ओड टु माय फादर’ से प्रेरित ‘भारत’ का विषय एसा है की एक यादगार कोमेडी-इमोशनल-ड्रामा फिल्म बन सके लेकिन कमजोर कहानी/पटकथा/संवाद और औसत से निर्देशन ने सारा मजा किरकिरा कर दिया. देशभक्ति का जो हलका-फूल्का डॉज दिया गया है वो भी कारगर नहीं है. फिल्म में सब कुछ अच्छा करने की कोशिश तो बहोत की गई है परंतु वो सारी महेनत सिर्फ कोशिश ही बन कर रह गई है. फाइनल रिजल्ट इतना दमदार नहीं है और इसका एक कारण फिल्म की लंबाई भी है. एडिटिंग थोडी चुस्त होतीं तो शायद बात बन सकती थी. शायद…

इस कच्ची-पक्की ‘भारत’ को दूर से ही नमस्कार कीजिएगा. समय और पैसा दोनों बचेगा. 5 में से 2 स्टार्स.