Kanto se khinch kar ye aanchal - 4 in Hindi Short Stories by Rita Gupta books and stories PDF | काँटों से खींच कर ये आँचल - 4

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 4

काँटों से खींच कर ये आँचल

रीता गुप्ता

अध्याय चार

कार में सारे रास्तें उसे अपनी बाहों में ही मैं भरी रही, मेरी गोद उसके अश्रुओं से सिक्त होते रहें. घर पहुँचते पहुँचते वह बहुत रों चुकी थी और शायद कई दिनों से उसके मन में काई लगी रिश्तों की सड़ांध, ढेर लगा संकुचित पड़ी थी जो दृग-द्वार से विदा लेने को उत्सुक थीं. घर पहुँचते-पहुँचते उसका पुलकित हो मुस्कुराना उसके पापा और मुझे दोनों को राहत दे गया. मैं अब उसके साथ ही लग गयी, मुझे उसका सानिद्ध्य और व्यक्तित्व बड़ा ही शालीन और प्रभावशाली लग रहा था. दूसरे दिन देर तक सोती रही, सोने से पहले उसने मुझे बताया था कि वह कितनी रातों से सो नहीं पाई है क्यूंकि रवीश बच्चा हो इस खातिर उसकी इच्छा के विरुद्ध लगातार हिंसक शारीरिक- प्रताड़ना पर उतारू हो गया था. अपने शरीर के कई हिस्से उसने मेरे सामने उघाड़ रविश की जुल्मों से परिचय कराया. सुबह नाश्तें के टेबल पर जब उसने टिकिया-छोले और पकौड़ियाँ देखीं, तो मैंने देखा उसके नयन फिर छलक रहें थें. मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर उसने कहा,

“मैं आपको क्या कहूँ ? उम्र से आप सहेलीं हैं पर ....”, उसका गला रूंध गया.

“ना सहेलियां तो तुम्हारी बहुत होंगी मैं सिर्फ तुम्हारी माँ हूँ”, मैंने उसके प्लेट में चटनी डालते हुए कहा.

“जानती हैं मेरी माँ को मेरे पापा बिलकुल पसंद नहीं थें शायद हमदोनों भाई-बहन से भी इसलिए उन्हें लगाव नहीं था. जब से होश संभाला था उन्हें हमेशा उस महेश अंकल के ही साथ प्यार से बातें करतें सुना था. मैंने आज तक उनकी बनाई कोई डिश खाई ही नहीं है”, दीक्षा फिर उदास हुए जा रही थी.

“दीक्षा सुनो ना, मुझे अक्षित से मिलना है. क्या तुम मुझे कोटा ले कर चलोगी? अभी वह बारहवीं में है उसे अभी परिवार के सहयोग और विश्वास की अत्यंत आवश्यकता है”. मैंने पूछा. अभी तक मुझे उसने देखा भी नहीं था और मैं नहीं चाहती थी जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर उसकी पढ़ाई और करियर पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ें मेरे लिए मन में चल रहे किसी दुर्भावना से.

अगले दो दिनों में हम कोटा पहुँच चुके थे. दीक्षा ने तो मुझे स्वीकार कर लिया था अब अक्षित मुझे अपना लें तो मुझे अपनी सार्थकता पर थोड़ी विश्वास हो. मुझे अंदर से इनकी माँ, सुलभा पर तरस आ रहा था कि अभागी ने बच्चों से अधिक किसी और को तरजीह दिया जीवन में. सच माता कुमाता भी हो सकती है. पर एक विमाता ऐसे कैसे सोच सकती है, जाने क्या मजबूरियाँ थी उसकी. यूं विचारों में तल्लीन हम अक्षित के हॉस्टल पहुँच चुके थे. जाने अचानक मुझे देख उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ये सोच मैं ने दीक्षा को कहा कि वह उसे ले होटल में ही आये जहाँ हम ठहरें हैं. फोटो में मैंने जैसा देखा था उससे भी और लंबा सा छरहरा और मासूम सा लगा मुझे. चेहरा कुछ उतरा हुआ भी था. मुझे एक औपचारिक नमस्ते कर अपने स्कूल बैग सहित एक तरफ चुपचाप बैठ गया. मैंने दीक्षा से इशारों में पूछा, तो उसने संकेत दिया कि इसका मूड ऑफ है पर आप कारण नहीं हैं. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मैंने ही बर्फ थोड़ा,

“बेटा तुम्हारी तैयारी कैसी चल रही है? कोचिंग वाले ठीक से समझातें तो हैं ?”

इतना सुनना था कि बिफर पड़ा,

“खुद तो उन्हें आता नहीं है और चलें हैं मुझे डांटने. ‘आंटी’, आज बॉटनी वाले सर ने कहा कि मेरा कुछ नहीं होने वाला और मैं अपने पापा का सिर्फ पैसा बर्बाद कर रहा हूँ”.

मैंने थैले से गुलाबजामुन का डिब्बा खोला और उसकी तरफ बढाते हुए कहा,

“पहले खाओ फिर देखतें हैं सर ने किस टॉपिक पर तुम्हे ऐसा कहा”, बच्चा अब सब भूल गुलाबजामुन पर टूटा पड़ा था. हॉस्टल में रहने वाला तिस पर बढ़ता लड़का भूख तो बहुत लगती ही होगी. तब तक मैं उसके बैग को खोल उसकी कापियां पलटने लगीं, देखा आज टेस्ट में उसे बेहद कम मार्क्स आयें थें. पर मुझे सुखद आश्चर्य ये हुआ कि मुझे सब कुछ याद था और पूरे कांसेप्ट क्लियर थे मेरे. अभी कुछ महीनों पहले तक तो लाइब्रेरी बंद होने तक मैं दीमक बन यही सब तो चाटा करती थी. जब दरवाजा बंद हो जाता तो कुछ देर खड़ी हिम्मत जुटाती नर्क द्वार पार करने की.

अचानक उस नर्क की स्मृति ने मुझे मेरे वर्तमान के पलों की अहमियत जता दिया. सामने बैठे आपस में हंसी मज़ाक करतें गुत्थम-गुत्था होते युवा समवयी और ‘मैं’.

क्या छोड़ कर आई थी? कुछ नहीं

कौन था मेरा? कोई नहीं

अतीत का कोई धागा जो मुझे कहीं खींचे? कहीं नहीं

फिर जो समक्ष है वही सत्य है और जो जिम्मेदारियां हैं वहीँ सुखद है. इनसब के बीच मेरी उम्र कोई मायने नहीं रखती. जन्म से रिश्तों की क्षुधातुर ‘मैं’ मेरे समक्ष तो अब छप्पन भोग थाली है, अब छक कर रिश्तों को जियूंगी.

उस दिन शाम को मैं अक्षित को ले होटल के कमरें में देर रात तक टेस्ट के प्रश्नोत्तर पर चर्चा करती रही. विगत जीवन में मैंने कभी शिक्षक बनने का स्वप्न देखा था, आज मानों साकार हो रहा था. अक्षित मुझसे पूछता जा रहा था और मैं अपने ज्ञान पिटारे को खोल उसकी क्षुधा शांत करती जा रही थी. सिर्फ वनस्पति विज्ञान ही क्यूँ मेरी पकड़ तो रसायन और जीव विज्ञान पर भी थी. देर रात जब दीक्षा बगल के बिस्तर पर गहरी नींद में सोयी हुई थी, अक्षित अचानक मेरा हाथ पकड़ कर बोला,

“अरे यार! तुस्सी बड़े ग्रेट हो जी. तुम्हें तो हमारे सर लोगो से ज्यादा नॉलेज है. ऐसा करो तुम यहीं रह जाओ न, तुम्हारे साथ मैं रहा तो इस मेडिकल एंट्रेंस नाम की परीक्षा यूं चुटकियों में पार कर जाउंगा. ग्रेट हो जी तुम तो......”. अक्षित बोले जा रहा था और मैं एक राहत की सांस. तभी दीक्षा उठ बैठी,

“अक्षित कैसे बोल रहे हो ? ये क्या दोस्त हैं तुम्हारी?”

“तो तो .. आंटी, हाँ आंटी अब ठीक ना?” अक्षित ने मुझे देखते हुए कहा.

“मुझे माँ बोलो, मैं तुमदोनो की माँ ही हूँ. मुझे ख़ुशी होगी सुन कर”, मैंने उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा.

***