Dahleez Ke Paar - 10 in Hindi Fiction Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | दहलीज़ के पार - 10

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दहलीज़ के पार - 10

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(10)

आशुतोष की अनुमति मिलने के पश्चात्‌ गरिमा निश्चिन्त हो गयी थी। उसने अगले ही दिन प्रभा को बुलाने के लिए प्रयास करना आरम्भ कर दिया। सयोगवश एक दिन पश्चात्‌ ही पुष्पा उससे मिलने आ पहुँची। पुष्पा के माध्यम से गरिमा ने प्रभा को सदेश भिजवाया कि वे उससे मिलना चाहती है और आग्रह किया कि वे मिलने के लिए शीघ्र ही आ जाए। पुष्पा का सदेश पाकर प्रभा तुरन्त नही आ सकी, गरिमा को तीन—चार दिन तक उसके आने की प्रतीक्षा करनी पड़ी किन्तु तीन—चार दिन पश्चात्‌ जब प्रभा आयी, तो गरिमा के लिए अनेक सकारात्मक सभावनाएँ अपने साथ लेकर आयी। प्रभा उस दिन गरिमा के पढ़ने के लिए कई पुस्तक लेकर आयी थी। उसने बताया कि वह इन पुस्तको को अपने कॉलेज के पुस्तकालय से लेकर आयी है। अभी परीक्षा निकट होने के कारण वह अपने विषय की तैयारी कर रही है, इसलिए इन पुस्तको को पढ़ने मे असमर्थ है, लेकिन भविष्य मे वह इन्हे अवसर मिलते ही अवश्य ही पढ़ेगी।

प्रभा के मुख से उसकी परीक्षा निकट होने का प्रसग सुनकर गरिमा कुछ क्षणो के उदास हो गयी। प्रभा ने गरिमा की उदासी देखकर उसकी उदासी का कारण जानना चाहा। गरिमा ने पहले तो उसका आग्रह टाल दिया और प्रसग बदलने का प्रयास करने लगी, किन्तु प्रभा अपनी बात पकड़कर बैठ गयी। उसने पुनः आग्रह किया कि वे उस कारण को जानना चाहती है, जिससे उसकी परीक्षा की तैयारी के प्रसग को सुनकर गरिमा उदास हो गयी थी। इस बार गरिमा प्रभा के आग्रह को अस्वीकार नही कर सकी। उसने प्रभा को बताया कि वह भी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती थी। वह उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बड़ा करना चाहती थी, किन्तु एक दुर्घटना ने उसके जीवन की आकाक्षा को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। उसने बताया कि वे विज्ञान विषय मे रुचि रखती थी और जिस समय वह दुर्घटना का शिकार हुई थी, उस समय वह विज्ञान वर्ग की शिक्षा प्राप्त कर रही थी। चूँकि अपने सपने को पूरा करने का एक मार्ग उसके लिए बन्द हो चुका था, इसलिए उसने विद्वानो के समाज—सम्बन्धी विचारो का अनौपचारिक अध्ययन करना आरम्भ कर दिया, ताकि वह अपने सपने को आकार प्रदान कर सके। प्रभा के पूछने पर गरिमा ने उस दुर्घटना का भी पूरा वृतान्त उसको यथातथ्य सुना दिया कि किस प्रकार पुरुष की विकृत मानसिकता ने एक लड़की का उच्च लक्ष्य प्राप्त करने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था और किस प्रकार समाज की प्रताड़नाओ से डरकर उसके परिवार ने उसके साथ घटित घटनाओ को ऐसे भुला दिया जैसे कि उनकी बेटी के साथ कोई अप्रिय घटना घटी ही नही थी। गरिमा ने रुँधे हुए गले से प्रभा को बताया था कि जब वह कई बार लगातार उस दुष्कर्मी की घृणित दूषित मनोवृत्ति का शिकार हो चुकी थी, तब भी उसके परिवार के मन—मस्तिष्क मे उस अमानवीय दुष्कृत्य को अजाम देने वाले को दण्ड दिलाने की दृढ़ता नही थी। उसके परिवार को तब भी बस बेटी के विवाह की चिन्ता थी, जबकि वह बेटी उस समय विवाह करने की किचित मानसिक दशा मे नही थी।

गरिमा का वृतान्त सुनकर प्रभा मौन हो गयी। कुछ क्षण मौन रहकर उसने बताया कि वह भी विज्ञान विषय से पढ़ाई करना चाहती थी, किन्तु गाँव मे विज्ञान विषय से पढ़ने की सुविधा नही थी, इसलिए यह सभव न हो सका। विज्ञान की पढ़ाई करने के लिए कॉलेज मे नियमित रूप से जाना पड़ता है, तभी अच्छा परिणाम मिल सकता है। कक्षाओ मे नियमित उपस्थिति सभव नही थी, तो परीक्षा का मनोनुकूल परिणाम भी असभव था। विषम परिस्थितियो के कारण नियमित उपस्थिति के मार्ग मे अनेकानेक बाधाएँ थी— प्रतिदिन शहर मे जाने के लिए जहाँ खर्च बढ़ जाता है, वही गाँव की लड़की के चरित्र पर लाछन लगता है कि लड़की शहर मे पढ़ने के लिए नही जाती है, अपने यारो से मिलने के लिए जाती है। दूसरी ओर कॉलिज का वातावरण अत्यन्त दूषित हो जाने के कारण किसी भी लड़की के लिए अपनी सुरक्षा करना बहुत कठिन हो गया है। प्रभा का भाई अथर्व एक साथ इतनी सारी कठिनाईयो का वहन करने मे समर्थ नही था, इसलिए अतिम परिस्थितियो पर पूर्णरूपेण विचार—विमर्श करने के पश्चात्‌ पूरे परिवार का अतिम निर्णय यही था कि प्रभा शहर के कॉलेज मे प्रवेश लेकर घर पर रहकर अध्ययन करेगी। जब परीक्षाएँ निकट आएँगी, तब सप्ताह मे एक—दो बार कॉलेज जाकर अपने सहपाठियो तथा प्राध्यापको से मार्गदर्शन प्राप्त करेगी और अपने कठोर परिश्रम से कक्षा मे अच्छे अक प्राप्त कर सफलता का झडा गाड़ेगी। प्रभा ने गरिमा को बताया कि वह बी.ए . की परीक्षा अच्छे अको से उत्तीर्ण करके आइ. ए. एस. की परीक्षा के लिए तैयारी करना चाहती है और इसकी तैयारी कराने के लिए भाई तथा माँ बहुत उत्साहित है। उसे विश्वास है कि अपने परिवार के सहयोग से तथा प्रोत्साहन से वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे अवश्य सफल होगी।

प्रभा की शिक्षा—सम्बन्धी योजना तथा उसकी शिक्षा के प्रति परिवार सकारात्मक दृष्टिकोण, प्रोत्साहन और सहयोग के विषय मे सुनकर गरिमा मौन हो गयी। उसके चेहरे पर पुनः उदासी छा गयी। प्रभा की आरभिक बातो से उसको सन्तोष हुआ था कि वह अकेली लड़की नही है, जिसे अपने सपने पूरे नही होने का कष्ट सहना पड़ता है, बल्कि प्रभा भी उसी कष्ट को सहन कर रही है, जिसे वह जीत चुकी है। किन्तु, प्रभा की पूरी बात सुनकर गरिमा को ज्ञात हुआ कि प्रभा का परिवार उसको सपने दिखाता भी है और उन्हे मूर्तरूप प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील भी है। गरिमा को किन्ही विचारो मे खोयी हुई तथा चेहरे पर उदासी का भाव देखकर प्रभा ने पूछ ही लिया—

भाभी जी, क्या हुआ है कि आप उदास होकर विचाराे मे खो गई ?

कुछ नही हुआ ! प्रभा, मै सोच रही थी, काश ! मेरा परिवार भी तुम्हारे परिवार जैसा होता ! पर, मेरा भाग्य ऐसा उज्जवल नही है ! गरिमा ने अपने भाग्य पर उदास होकर प्रभा के भाग्य को सराहा, तो अनायास ही प्रभा कह उठी—

भाभी जी, जैसे घर पर रहकर मै अपनी पढ़ाई कर रही हूँ, ऐसे ही आप भी कर सकती है। इसमे सौभाग्य और दुर्भाग्य का प्रश्न कहाँ आता है ! मै जानती हूँ कि आशुतोष भैया आपकी शिक्षा पूरी करने मे पूरा—पूरा सहयोग करेगे। बस, आपकी इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए !

तुम्हे लगता है कि वे मुझे मेरी शिक्षा को आगे बढ़ाने की अनुमति देगे ?

अवश्य देगे ! भाभी, मुझे लगता ही नही है, पूरा विश्वास है कि भैया आपकी शिक्षा आगे बढ़ाने की अनुमति ही नही देगे, आपको यथासम्भव सहयोग भी देगे !

परन्तु, प्रभा, उनके पास इतना समय नही है कि वे मेरा....!

भाभी, यह काम आप मुझ पर छोड़ दीजिए ! इसकी चिन्ता आप मत कीजिए ! आप बस भैया से अनुमति ले लीजिए ! कॉलिज से परीक्षा—फॉर्म लाना, जमा करना तथा अन्य सम्बन्धित सूचनाएँ लाकर देने का काम मै करूँगी !

प्रभा की प्रेरणा से तथा उसके सुझाव से गरिमा का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था कि जैसे कि गर्मियो की तपती धूप के समान उसके परिवार तथा समाज के नकारात्मक निराशावादी रवैये की तपन से झुलसे हुए उसके सपनो को प्रभा के प्रोत्साहन तथा सहयोग के आश्वासन के रूप मे बारिश की प्रथम रिमझिम बूँदो ने नवजीवन प्रदान किया हो। गरिमा की प्रसन्नता देखकर प्रभा को एक विचित्र प्रकार के अभूतपूर्व सुख की अनुभूति हो रही थी कि उसके थोड़े—से शब्दो ने एक स्त्री को नयी दिशा दी है ; निराशा को आशा मे परिवर्तित कर दिया है और विषमताओ से घिरी स्त्री के स्वााभिमान को साहस के साथ जाग्रत होने की परिस्थिति सृजित की है। गरिमा के साथ भेट करने का सकारात्मक परिणाम प्रभा के हृदय मे उत्साह भर रहा था। वह चाहती थी कि उसके साथ अधिकाधिक समय व्यतीत करे, किन्तु यह सम्भव नही था। अपने घर जाकर उसको अपनी परीक्षा की तैयारी करनी थी, इसलिए गरिमा के घर मे बैठकर अधिक समय व्यतीत करना तर्कसगत नही था। उसने प्रसन्नचित्‌ गरिमा से अपनी परीक्षा के निकट होने की बात कहकर अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहा कि कि वह अपने घर जाना चाहती है, शीघ्र ही उससे मिलने के लिए पुनः आयेगी। वैसे तो, गरिमा चाहती थी कि प्रभा कुछ समय और उसके साथ बिताये, परन्तु वह जानती थी कि परीक्षा का समय निकट है, इसलिए उसका अधिक समय निरर्थक बातो मे व्यय नही होना चाहिए। सभी बातो पर विचार करके गरिमा ने प्रभा को जाने की अनुमति दे दी और उससे वचन लिया कि वह भविष्य मे भी उसके साथ भेट करती रहेगी ! प्रभा ने भविष्य मे आते रहने का वचन देकर जाने से पहले गरिमा से कहा कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी भी व्यक्ति के पास केवल एक मार्ग नही होता है, बल्कि अनेकानेक मार्ग होते है। एक मार्ग अवरुद्ध होने पर वह दूसरा मार्ग अपनाने के लिए, दूसरा मार्ग अवरुद्ध हो जाने पर, तीसरे मार्ग पर चलने के लिए स्वतन्त्र होता है। परन्तु वह इन मागोर् को तभी खोज पाता है, जब वह अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठावान और दृढ़प्रतिज्ञ होता है। यदि ऐसा होता है, तो आशा के आलोक के समक्ष निराशा की छाया अस्तित्वविहीन हो जाती है।

गरिमा के साथ प्रथम भेट मे प्रभा ने उसको कहा था कि वह शृगार करके, कलाई—भर चूडियाँ पहनकर रहा करे। प्रभा की साज—शृगार की मनोवृत्ति को देखकर गरिमा ने उसको एक सामान्य लड़की समझा था और स्वय को विशेष समझकर उस दिन से आज तक वह प्रभा को स्वय की अपेक्षा कमतर मानती रही थी। अपनी इसी भ्रामक धारणा के वशीभूत आज तक वह प्रभा को बोलने का अवसर दिये बिना प्रासगिक विषयो पर उसके समक्ष स्वय ही बोलती रहती थी। प्रभा सदैव मौन बैठकर गरिमा के विचारो को, उसके द्वारा दिये गए उद्धरणो को ऐसे सुनती थी, जैसे कक्षा मे बैठकर अध्यापक का व्याख्यान सुन रही हो। आज पहली बार गरिमा को अनुभव हुआ था कि प्रभा उसकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान, प्रतिभाशाली तथा सघर्षशील व्यक्तित्व वाली है, जो विषम और प्रतिकूल परिस्थितियो मे भी धैर्य धारण करके अपने लिए यथोचित मार्ग बना लेती है। कष्टाे और विपत्तियो से घबराकर अपने लक्ष्य से नही भटकती। प्रभा के सापेक्ष वह स्वय को आज बौना अनुभव कर रही थी, फिर भी उसके मस्तिष्क मे एक प्रश्न बार—बार उठ रहा था कि प्रभा के साथ हुई प्रथम भेट मे वह उसके व्यक्तित्व को परखने मे विफल कैसे हुई थी प्रथम भेट मे ही नही, उसके बाद भी वह एक—दो बार घर पर आ चुकी थी, तब भी वह उसके अन्दर की सघर्षशील, लक्ष्य के प्रति दृढ़ और जाग्रत लड़की को वह क्यो नही पहचान सकी थी ? अपने मस्तिष्क मे उठने वाले प्रश्न को वह प्रकट नही करना चाहती थी, किन्तु न चाहते हुए भी वह प्रश्न उसके होठो पर आ ही गया। उसने सहज भाव से प्रभा से पूछा—

प्रभा, मै यह समझ नही पा रही हूँ कि तुम जैसी लड़की भी मुझे यह क्यो कहती है कि मुझे सज—सँवरकर रहना चाहिए ? तुम्हे याद है ? तुमने हमारी प्रथम भेट के समय कुछ ऐसा कहा था ?

भाभी, मुझे सब—कुछ भली—भाँति याद है, परन्तु विश्वास कीजिए, मैने उस समय जो कुछ कहा था, गलत नही कहा था ! मेरा मत आज भी वही है, जो उस दिन था। साथ ही मै अपने मत के पक्ष मे तर्क भी दे सकती हूँ, जिसे आप सहज स्वीकार कर लेगी,

परन्तु आज नही ! मै फिर किसी दिन आकर इस विषय पर आपके साथ चर्चा करूँगी, क्योकि आपके साथ चर्चा—परिचर्चा करने मे मुझे जो आनन्द मिलता है ; सन्तोष मिलता है, वह अन्य किसी के साथ नही मिलता ! गाँव मे कोई है भी नही, जो ऐसे गभीर तथा प्रासगिक विषयो पर बात करके अपने समय का सार्थक उपयोग करके सुख का अनुभव करे।

फिर कभी आओगी ! लेकिन कब ?

एक—दो दिन बाद ! या शायद कल ही ! प्रभा शीघ्र आने का वचन देकर तेज कदमो से चलती हुई घर से निकल गयी और गरिमा प्रसन्नचित्‌ अपने बिस्तर पर बैठकर अपने भविष्य के लिए सकारात्मक सुखद कल्पना करने लगी। वह पूर्णतः आशावादी होकर शनिवार की प्रतीक्षा करने लगी। उसे आशा थी कि शनिवार मे अवश्य उसका पति आशुतोष घर लौटेगा और वह उसके समक्ष अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखेगी, तो आशुतोष उसके प्रस्ताव को सहज स्वीकृति दे देगा। न केवल स्वीकृति, बल्कि शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसका उत्साह देखकर वह पूरा—पूरा सहयोग करने का आश्वासन भी देगा। वह आशुतोष के साथ अपनी बातचीत के उस अश को बार—बार याद करने लगी, जिसमे उसके पति ने कहा था कि वर्तमान समय मे शिक्षा का, योग्यता का और धन का महत्व है, दसो—बिसो का नही। वह सोच रही थी कि शिक्षा प्राप्त करने मे रुचि होने के कारण ही आशुतोष ने प्रभा के प्रति सकारात्मक टिप्पणी की थी और उसे घर पर बुलाकर बात करने की अनुमति दी होगी। यदि शिक्षा के प्रति आशुतोष का सकारात्मक दृष्टिकोण नही होता, तो वह प्रभा को शिक्षित लड़की कहकर उसकी प्रशसा नही करता। पूर्ण सकारात्मक भावो को वहन करती हुई गरिमा का मन—मस्तिष्क आज सकारात्मक दिशा मे इतना क्रियाशील था कि उसे यह विश्वास होने लगा था कि आशुतोष का निर्णय शत—प्रतिशत उसके पक्ष मे ही होगा। गरिमा की यह सुखद कल्पना और विचार शृखला उस समय अचानक भग हो गयी, जब उसने अपनी सास की गर्जना सुनी। उसे आभास हो रहा था कि उसकी सास क्रोध से आग बबूला है और अपनी बेटी श्रुति को डाँटते हुए उससे पूछ रही है कि वह इतने समय से कहाँ थी ?

सास के क्रोध का अनुमान करके गरिमा कमरे से बाहर निकल आयी। उसने देखा कि माँ की आँखे क्रोध से लाल हो गयी है और बेटी कुछ कहने का साहस जुटाने का प्रयास कर रही है। परन्तु न तो वह अपने पक्ष मे कुछ कहने की हिम्मत कर पा रही है और न ही उसकी माँ मे इतना धैर्य था कि शान्तिपूर्वक बेटी का पक्ष सुनकर ही निर्णय ले कि वह दड की अधिकारी है या नही। बहुत कठिनाई से अटक—अटक कर श्रुति के मुख से कुछ शब्द निकले, जो उसकी माँ के इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप थे कि वह दो घटे से कहाँ थी ?—

पिरभा के घर गयी ही !

झूठ तो सोच—समज कै बोल्ले कर कम—सै—कम ! माँ ने अविश्वास से पुनः डाँटा।

सच्ची कै—री—ऊँ ! मै झूठ नी बोल—री ! मै पिरभा के घर—इ—ही ! श्रुति ने अपनी बात पर बल देते हुए गिड़गिड़ाकर कहा और माँ की प्रतिक्रिया देखने के लिए उनकी ओर देखने लगी कि उसे राहत मिलने की सभावना बन रही है या नही। जिस सभावना को श्रुति माँ की भाव—भगिमा मे ढूँढ रही थी, उसी सभावना को माँ श्रुति की आँखो मे तलाश रही थी कि उसका कथन कितना सत्य है ? उसमे इतना सत्य है या नही ? कि उसे राहत दी जा सके। माँ को श्रुति की आँखो मे झूठ दिखायी नही दिया, किन्तु उसका मन और मस्तिष्क बेटी की बात पर विश्वास करने के लिए तैयार नही था। आँखो सत्य देखकर भी अविश्वासी पक्ष चीख रहा था— यह नही हो सकता है ! श्रुति झूठ बोल रही है ! माँ की ममता को छल रही है !

अविश्वासी पक्ष जीत गया। माँ ने अपेक्षाकृत अधिक कठोर मुद्रा ग्रहण कर ली और उपेक्षापूर्ण दृष्टि से बेटी की ओर देखते ऊँचे कर्कश स्वर बोली—

प्रभा तो य्‌हाँ म्हारे घर बैठ्‌ठी ही दो—तीन घटे सै, तू व्‌हाँ उसके घर बैठकै कहा कर—री—ही ?

उसकी माँ अकेल्ली बैठ्‌ठी ही, तो उननै मै रोक ली ! कह—री—ही जितनै पिरभा आवै, इतनै बैठ जा, मेरा अकेल्ली का जी घबरावै—है ! पिरभा की माँ के कहणे सै मै व्‌ही बैठकै उसकी बाट देक्खण लगी ही, तो इतणी देर हो—गी !

इस बार श्रुति के उत्तर ने माँ की ममता पर पहले की अपेक्षा अधिक अधिकार कर लिया था। माँ अब इतनी कठोर नही रह गयी थी। उनके अविश्वास पर विश्वास हावी होने लगा था, पूरा विश्वास होना शायद अभी शेष था। बेटी के कथन की सत्यता का परीक्षण करने के उद्‌देश्य से उन्होने एक बार फिर गरजते हुए श्रुति की आँखो मे देखा और बोली— बिल्कुल सच कह—री है तू ? झूठ बोल्ली तो नाड़ काट कै दरिया मै द्‌यूँगी तुझै ! इस बात कू समज लिये ! माँ ने चेतावनी देते हुए कहा।

मै— मै— मै—बिल्कुल सच्ची कैहरी—हूँ !

तो तेरी जुबान हकला—री—क्यूँ—है ? सच्ची बोलणे वाले की जुबान हकलाये नी करती ! माँ ने पुनर्परीक्षण के उद्‌देश्य से पुनः अपना पक्ष रखा।

तम धमका—री—ही—ना ! तो मै डर—गीही ! श्रुति ने साहस करके कहा।

माँ को अब श्रुति की बात का विश्वास हो गया था कि उनकी बेटी झूठ नही बोल रही है। परन्तु गरिमा के मस्तिष्क मे प्रश्न उठने लगा था— क्या श्रुति सत्य कह रही है कि वह प्रभा की माँ के साथ बैठकर दो—तीन घटे तक बतियाती रही थी और प्रभा के लौटने की प्रतीक्षा करती रही थी। यदि उसको प्रभा से मिलना था, तो उसकी माँ ने श्रुति को अवश्य ही बता दिया होगा कि वह यहाँ पर आयी है।

गरिमा के मस्तिष्क मे यही प्रश्न बार—बार उठ रहा था, किन्तु इसका उत्तर केवल प्रभा या उसकी माँ ही दे सकती थी कि श्रुति सत्य कह रही है ? या झूठ बोल रही है ? प्रभा से उत्तर पाने के लिए उस समय तक धैर्य रखना आवश्यक था, जब तक प्रभा स्वय गरिमा से भेट न करे। धैर्य धारण करना गरिमा के लिए कठिन था। अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए वह धैर्य खोती ही जा रही थी, तभी उसे याद आया कि प्रभा कल आने का आश्वासन देकर गयी थी। शायद वह कल ही आ जाए और उसके प्रश्न का उत्तर देकर उसकी जिज्ञासा शान्त कर दे। अब उसे कल की प्रतीक्षा थी। इस आशा के साथ कि प्रभा कल अवश्य आयेगी, गरिमा के लिए प्रतीक्षा करना थोड़ा—सा आसान हो गया था। अतः उसने अपना ध्यान उस विषय से हटाकर घर के कायोर् के प्रति अपने दायित्व की ओर मोड़ दिया और घरेलू कामाे मे व्यस्त हो गयी।

सौभाग्यवश अगले दिन गरिमा को अधिक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नही पड़ी। प्रभा ने यथोचित समय पर आकर अपने वचन का मान रख लिया और गरिमा की प्रतीक्षा समाप्त हुई। प्रभा के आते ही गरिमा ने अपने प्रश्नो की झड़ी लगा दी उसका पहला प्रश्न यही था कि श्रुति पहले दिन उसके घर पर थी या नही ? और फिर, उसके घर पर नही थी, तो सभवतः कहाँ थी ? यदि उसके घर पर थी, तो दो—तीन घटो तक उसकी अनुपस्थिति मे वह वहाँ क्या करती रही थी? यह जानने के बाद भी कि प्रभा घर मे नही है, स्वय श्रुति के घर पर गयी है, वह तुरन्त लौटकर क्यो नही आयी ? क्या उसकी माँ को वास्तव मे अकेले रहकर घबराहट होती है ? आदि प्रश्न ! एक के बाद एक प्रश्न गरिमा इस प्रकार करती रही कि प्रभा को उत्तर देने का अवसर भी नही मिला। अन्त मे गरिमा के प्रश्नो का अन्त हुआ और उसने अपनी वाणी को विराम दिया, तब प्रभा ने शान्त भाव से उत्तर देते हुए बताया कि श्रुति उस दिन उसकी माँ के पास उसके घर पर थी। यह सत्य कि उसकी माँ को अकेले रहकर घबराहट होती है, किन्तु वह और उसका भाई अपनी माँ को कभी अकेले नही छोड़ते है। यह सत्य नही है कि श्रुति उसकी माँ की इच्छा से उसके घर पर रही थी, बल्कि सत्य यह है कि श्रुति अपनी इच्छा से अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए वहाँ रही थी। अपनी आवश्यकता को पूरा करने के कथन से गरिमा को एक झटका—सा लगा। वह चौक कर बोली—

आवश्यकता पूरी करने के लिए ? कैसी आवश्यकता ? गरिमा के प्रश्न को सुनकर प्रभा असमजस मे पड़ गयी कि सत्य बताये या न बताये। कुछ क्षणो तक वह किकर्तव्यविमूढ़—सी बैठी रही। तत्पश्चात्‌ कुछ क्षणोपरान्त उसके अन्तःकरण से आवाज उठी— गरिमा पर विश्वास किया जा सकता है ! उसे सब कुछ सत्य बताया जा सकता है !

अपने अन्तःकरण की आवाज को सुनकर प्रभा ने गरिमा को बताया कि उसने अपनी माँ से किसी को भी यह बताने से मना किया था कि वह गरिमा से मिलने के लिए जा रही है। इसलिए माँ ने श्रुति को भी कुछ नही बताया था। अब प्रश्न था कि श्रुति की ऐसी कौन—सी आवश्यकता थी ? जिसे पूरा करने के लिए वह उसके घर पर दो—तीन घटे तक बैठी रही थी। गरिमा ने बताया कि श्रुति और वह बचपन की सहेली है। आठवी कक्षा तक दोनो सहपाठी भी रही थी। आठवी कक्षा के बाद श्रुति की शिक्षा बन्द हो गयी। उसका परिवार लड़कियो को पढ़ाना अनावश्यक और अनुचित मानता था। श्रुति की माँ के विचारो मे आठवी तक की शिक्षा पर्याप्त है ।अब उनकी बेटी को केवल घर केे काम सीखने चाहिये और माँ का हाथ बँटाना चाहिए। इससे अधिक शिक्षा पाकर लड़की बिगड़ जायेगी ; ससुराल मे निर्वाह नही कर पायेगी और लड़का ढूँढने मे भी कठिनाई आयेगी। श्रुति का परिवार जवान बेटी को दूसरे गाँव पढ़ने के लिए भेजने के पक्ष मे नही था। किन्तु, प्रभा का परिवार चाहता था कि उनकी बेटी पढ़—लिख कर अपने परिवार का नाम इतिहास के पन्नो पर स्वर्णिम अक्षरो से अकित करे। अपने लक्ष्य को पाने के लिए शिक्षा आवश्यक है, इसलिए प्रभा के पिता अपनी बेटी को शिक्षा प्राप्ति के लिए दूसरे पड़ोसी गाँव मे भेजने के लिए सहमत थे। गाँव की अकेली लड़की प्रभा ही थी, जो नौवी कक्षा मे प्रवेश लेकर पढ़ने लिए दूसरे गाँव मे जाती थी। प्रतिदिन पिता या भाई का उसके साथ जाना सभव नही था, इसलिए वह प्रायः अकेली ही जाती थी। गाँव से लड़के तो बहुत जाते थे, किन्तु लड़की वह अकेली ही थी। अथर्व उस समय सातवी कक्षा मे गाँव मे ही पढ़ता था। दो वर्ष बाद जब प्रभा ग्यारहवी कक्षा की पढ़ाई कर रही थी, तब अथर्व ने नौवी कक्षा मे प्रवेश लिया था। अथर्व विज्ञान विषय की पढ़ाई करना चाहता था, जबकि प्रभा जिस विद्यालय मे पढ़ती थी, उसमे विज्ञान विषय नही था, इसलिए उस वर्ष भी भाई उसके साथ नही जा सका।

लड़को के विद्यालय मे पढ़ने के लिए प्रभा अकेली दूसरे गाँव मे जाती थी, इस विषय पर गाँव मे कई तरह की बाते की जाती थी, जो उसके चरित्र को सदेह के घेरे मे लाती थी। किन्तु अपने परिवार का प्रोत्साहन और सहयोग प्रभा के लिए सबसे महत्वपूर्ण था। अपने परिवार का विश्वास उसे बाधाओ को पार करने की शक्ति देता था, जिससे वह सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे सफल तथा बाधाओ पर विजयी होती आयी थी।

अपनी सहपाठी को आगे बढ़ते हुए देखकर श्रुति को ईर्ष्या होती थी। अपनी ईर्ष्या को प्रकट करने के लिए वह प्रायः गाँव की अन्य स्त्रियो की शैली मे ही बात करती थी और प्रभा पर लाछन लगाती थी, परन्तु ऐसा वह अधिक समय तक नही कर पायी। धीरे—धीरे उसका व्यवहार सामान्य हो गया और वह उसके घर आने—जाने लगी तथा उसको अपने घर बुलाने लगी। एक दिन, जब प्रभा बी. ए. की कक्षा उत्तीर्ण करके एम.ए. की पढ़ाई कर रही थी, श्रुति अचानक उसके घर पहुँच गयी। प्रभा को पढ़ाई करते देखकर उसने प्रश्न किया कि कि वह विद्यालय नही जाती है, तो पढ़ाई क्यो कर रही है। प्रभा ने श्रुति को बताया कि वह घर मे रहकर ही पढ़ाई करती है, परीक्षा देने के लिए शहर के कॉलेज मे जाती है। शहर गाँव से बहुत दूर है, इसलिए प्रतिदिन जाना वहाँ सभव नही है, फिर भी वह अपनी शिक्षा अधूरी नही छोड़ना चाहती है। प्रभा की बात सुनकर श्रुति की भी इच्छा हुई कि वह भी अपनी शिक्षा पूरी करे। उसने बातो ही बातो मे पूछा कि क्या वह अब अपनी शिक्षा पुनः आरम्भ कर सकती है ?

प्रभा ने श्रुति को बताया कि वह अब भी अपनी शिक्षा पुनः आरम्भ कर सकती है। ऐसे छात्रो के लिए जो नियमित विद्यालय नही जा सकते है, उनके लिए ओपन स्कूल खुले हुए है। परन्तु इस विषय मे उसे अधिक जानकारी नही है कि उनमे कब प्रवेश होता है और ऐसे स्कूल कहाँ—कहाँ स्थित है। इस विषय मे विस्तार से जानकारी लेने के लिए अथर्व की सहायता लेना उचित रहेगा। वह नियमित रूप से शहर मे पढ़ने के लिए जाता है, उसे ओपन स्कूल के सम्बन्ध जानकारी लाने मे कोई भी कठिनाई नही होगी। प्रभा से श्रुति सहमत हो गयी और उसने अथर्व से कहा कि वह ओपन स्कूल मे उसका प्रवेश करा दे। अपनी बहन की अनुमति से अथर्व ने श्रुति की शिक्षा मे सहयोग करना स्वीकार कर लिया। उसके लिए यह कार्य कठिन नही था, परन्तु उसको भय था कि श्रुति के परिवार वालो पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। फिर भी, अथर्व ने श्रुति का प्रवेश करा दिया और श्रुति ने अपनी पढ़ाई आरम्भ कर दी। उसके परिवार वालो को इस विषय मे कुछ पता न चल जाए, इसलिए वह सदैव प्रभा के घर बैठकर अध्ययन करती थी और वही पर अपनी अध्ययन—सामग्री रखती थी। उसे गरिमा के साथ प्रभा का मैत्री—भाव अच्छा नही लगता था। उसे भय था कि कही प्रभा उसका सच गरिमा को न बता दे। इसीलिए वह गरिमा के साथ प्रभा की प्रथम भेट के दिन नाराज हो गयी थी और क्रोध के आवेश मे उसके साथ झगड़ा भी किया था, परन्तु अगले ही सप्ताह उसको अपनी पढ़ाई मे होने वाले नुकसान का अनुभव होने लगा था, इसलिए उसने प्रभा के घर पर जाकर अपनी गलती मान ली और पुनः अपना अध्ययन पूर्ववत्‌ आरम्भ कर दिया।

पिछले दिन भी, जबकि प्रभा श्रुति के घर गरिमा के साथ थी और श्रुति प्रभा के घर पर बैठकर अध्ययन कर रही थी। श्रुति ने प्रभा के घर से लौटकर, जो कुछ माँ को बताया, वह सब कुछ सत्य था। उसने केवल एक बात छिपायी थी कि वह प्रभा के घर पर क्यो थी? क्या कर रही थी ? श्रुति के विषय मे सारी बाते बताने के बाद प्रभा ने गरिमा से निवेदन किया कि वह श्रुति की शिक्षा के विषय मे परिवार को न बताये, क्योकि ऐसा करने पर न केवल श्रुति की पढ़ाई बन्द हो जायेगी, बल्कि प्रभा के परिवार को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है, विशेषकर अथर्व और प्रभा को।

गरिमा ने प्रभा को वचन दिया कि वह ऐसा कुछ भी नही करेगी, जिससे प्रभा के परिवार पर जरा—सा भी सकट आये। प्रभा को वचन देने के बाद भी गरिमा सोच रही थी कि आशुतोष प्रभा को शिक्षित कहकर उसकी प्रशसा करता है, तो अपनी बहन की शिक्षा का विरोध कैसे कर सकता है ? अपने इस प्रश्न को वह प्रभा के समक्ष प्रकट करना उचित नही समझती थी, इसलिए उसने निश्चय किया कि श्रुति की शिक्षा के विषय मे परिवार वालो का मत जानना ही अधिक उचित रहेगा। परिवार का मत जानने—पूछने के लिए यह आवश्यक था कि गरिमा अपनी सास से इस सदर्भ मे बात करे। गरिमा मे इतना साहस नही था, इसलिए वह दूसरा मार्ग खोजने लगी, जिससे कि वह श्रुति की शिक्षा के विषय मे परिवार का मत जान सके। तभी अचानक उसे एक उपाय सूझा, क्यो न वह इस विषय मे आशुतोष से बात करके देखे ! उसके मन—मस्तिष्क ने एकमत से उसके उपाय का समर्थन कर दिया। अब गरिमा का चित्‌ शान्त और सतुष्ट था। श्रुति के विषय मे बाते करते—करते प्रभा और गरिमा अब ऊब चुकी थी, अब उन दोनो के हृदय मे एक साथ अपनी बातो के विषय—परिवर्तन की इच्छा होने लगी। दोनो ने अनायास ही एक स्वर मे कहा— छोड़ो अब इस विषय को, कुछ और बाते करते है !

बातचीत का विषय बदलते हुए गरिमा ने प्रभा को स्मरण कराते हुए कहा कि पिछले दिन वह अपने घर लौटने से पूर्व एक विषय निश्चित करके गयी थी, जिस पर चर्चा करने के लिए आज आयी है। प्रभा को याद आया कि पिछले दिन उनकी चर्चा साज—शृगार पर आकर बन्द हो गयी थी, इसलिए आज उसी पर अपने—अपने विचार व्यक्त किये जाने चाहिये। प्रभा कुछ सोचते हुए क्षण—भर के लिए मौन हो गयी, तभी गरिमा ने कहा—

प्रभा कल तुमने मेरे प्रश्न को हवा मे उड़ा दिया था, पर आज तुम्हे बताना पड़ेगा कि तुमने मुझे यह क्यो कहा था कि सजी—सँवरी बहू ही घर की लक्ष्मी होती है और पति भी...!

गरिमा का प्रश्न सुनकर भी प्रभा अविचलित भाव से चुप बैठी रही। गरिमा निर्निमेष उसकी ओर देखती हुई उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी। कुछ क्षणो तक मौन रहने के पश्चात्‌ प्रभा ने शान्त—भाव से कहना आरम्भ किया— भाभी जी ! आप पानी मे रहकर मगरमच्छ से बैर ना करे, मेरा यह विचार है ! मेरा आशय है कि एक स्त्री, जो दिन—भर परिश्रम करने के पश्चात्‌ भी भर—पेट भेजन के लिए परिवार वालो पर निर्भर करती है, वह उसी परिवार के प्रति विद्रोह करेगी, तो जीवन—यापन कैसे करेगी ? वह भी तब, जब उसका साथ देने वाला कोई न हो ! न मायके वाले, न समाज !

मै अपने परिवार के प्रति विद्रोह नही कर रही हूँ ! गरिमा ने मायूस होकर कहा।

— आप रूढ़ियो के प्रति विद्रोह कर रही है, जो निरर्थक, अप्रासगिक तथा जीवन की गति को अवरुद्ध कर रही है ! लेकिन इन रूढ़ियो का पोषण भी तो ये परिवार और समाज ही कर रहे है। परिवार जानता है कि रूढ़ियो के माध्यम से स्त्रियो को नियत्रण मे रखा जा सकता है, इसलिए सस्कृति के सरक्षण के नाम पर रूढ़ियो की जजीर को सरक्षण देने वाला समाज रूढ़ियो को आसानी से नही तोड़ने देता है। रूढ़ियो को तोड़ने के लिए चूड़ियाँ पहनना बन्द करने से पहले अपने विचारो को विस्तार देना तथा आर्थिक रूप से स्वावलम्बन प्राप्त करना आवश्यक है। जब आप आर्थिक दृष्टि से आत्म—निर्भर हो जाएँगी, तब आप अपने विचारो के अनुरूप जीवन—यापन कर सकती है ; तब आप उन प्रतिबन्धो की सीमाआे को लाँघ सकती है जो समाज ने एक स्त्री पर लगाये है ; तब उन विशेषणो का त्याग करने की शक्ति तुम्हारे अन्दर होगी, जिनसे समाज ने तुम्हे अबला बनाया है ! यदि आप मुक्त होकर आकाश मे उड़ने की दृढ़—शक्ति रखती है, तो ये चूड़ियाँ और पाजेब आपकी उड़ान को नही रोक सकती ! किन्तु, यदि आपके मन—मस्तिष्क मे यह इच्छा ही नही है कि आप स्वतन्त्रतापूर्वक उड़कर आकाश की ऊँचाइयो को छूने के लिए पुरुषार्थ करे, इसके विपरीत आप चाहती है कि स्वर्ण—पिजरे मे बैठकर बिना पुरुषार्थ किये आपको जीवन की सुख—सुविधाएँ मिल जाएँ, तब आप न रूढ़ियो को तोड़ सकती है, न अबला और कामिनी जैसे विशेषणो से मुक्त हो सकती है। वैसे भी, स्त्रियो के कामिनी विशेषण मे भी वह शक्ति है, जिसका उपयोग करके कुछ स्त्रियाँ पुरुषो पर सदैव से नियन्त्रण स्थापित करती आयी है, परन्तु उन स्त्रियो ने अपने साज—शृगार को अपनी दुर्बलता नही, शक्ति बनाकर अपना लक्ष्य प्राप्त किया है। ऐसी स्त्रियो का ध्यान सदैव अपने लक्ष्य पर रहता है। यह अलग बात है कि वे प्रायः उच्च—उदात्त लक्ष्य को धारण करने वाली नही होती है।

प्रभा ने अपनी धारणा को स्पष्ट करने के लिए अपने समाज की अनेक घटनाएँ बतायी कि जब कोई स्त्री कभी अपनी भाव—भगिमा और सौन्दर्य से पुरुष के मन—मस्तिष्क पर नियन्त्रण करके पुरुष को अपनी उँगली पर नचाने की उपाधि पाती है, तो इस उपाधि को प्राप्त करके भी वह स्त्री अपनी शक्ति का उपयोग मात्र कुछ गहने—कपड़े जुटाने मे अथवा अपने आस—पास रहने वाली अन्य स्त्रियो के साथ द्वेष—भाव बढ़ाने मे ही करती है। इससे अधिक सोचने की और करने की उनमे क्षमता ही नही होती, क्योकि बचपन से ही उनकी चुनाव करने की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करके उनका कार्यक्षेत्र घर की दहलीज के अन्दर सीमित कर दिया गया था। काश ! उन्हे अपनी रुचि और क्षमताओ के अनुसार अपने जीवन मे कुछ भी अच्छा करने की स्वतन्त्रता के साथ—साथ अपनी प्रतिभा का विकास करने के लिए अनुकूल वातावरण मिलता, तो उनकी मानसिकता भी कार्यक्षेत्र के विस्तार के साथ—साथ उन्नति करने की दिशा मे विकसित होती।

प्रभा और गरिमा ने परस्पर चर्चा मे इस बात को सहज स्वीकार किया कि उनके समाज मे स्त्रियो का एक बड़ा भाग ऐसा है, जिनके ऊपर सज—सँवरकर रहने का बिल्कुल भी दबाव नही है। ऐसी स्त्रियो के पास सजने—सँवरने के लिए वस्त्राभूषण भी पर्याप्त मात्रा मे नही होते है, क्योकि उनके परिवार की आर्थिक दशा इतनी सुदृढ़ नही होती है कि वे बहुमूल्य गहने—कपड़े मे कठोर परिश्रम से अर्जित धन का अपव्यय करे। उन स्त्रियो के परिवार मे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओ को पूरा करने का प्रयत्न प्रमुख रहता है, फिर भी उनका मन—मस्तिष्क उनकी आर्थिक—सामाजिक—सास्कृतिक अवस्था के अनुरूप शृगार के उपकरणो मे विचरण करता है। उनका मन—मस्तिष्क अपने परिवार को उस तग स्थिति से मुक्त कराने की, अपनी भावी पीढ़ी को सुशिक्षा प्रदान करके उन्नति करने की दिशा मे विचरण नही करता है। उन स्त्रियो की शृगारिक—मानसिकता के पीछे उनका परिवार मुख्य होता है। परिवार मे बच्चो को सोचने—विचारने की जो दिशा दी जाती है, बच्चो का मस्तिष्क उसी दिशा मे क्रियाशील हो जाता है, बच्चा लड़का हो अथवा लड़की हो ! परम्परागत समाजो के सभी परिवारो मे प्रायः बेटी के लिए यह निश्चित कर दिया जाता है कि वे रसोईघर के कायोेर् मे अपनी माँ का हाथ बँटाने के साथ—साथ कढ़ाई—बुनाई—सिलाई आदि क्षेत्रो मे अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकती है, परन्तु घर के अन्दर रहकर। घर के बाहर या गाँव के बाहर या शहर मे रहने वाले परिवारो की लड़कियो के लिए अपने शहर से बाहर जाना पूर्णतया वर्जित होता है। इतना ही नही घर के अन्दर भी लड़कियो को खान—पान मे सयम रखना, त्याग—तपस्या करना तथा परिवार के पुरुषो के नियन्त्रण मे रहना सिखाया जाता है। इसके विपरीत, उन्ही परिवारो मे बेटो के लिए घर से, गाँव—शहर से बाहर जाने पर कोई प्रतिबन्ध नही होता है। उन्हे उनके शारीरिक—मानसिक—सामाजिक विकास के लिए समुचित अवसर वातावरण प्रदान किया जाता है, ताकि उनका सर्वागीण विकास हो सके। बेटो को सन्तुलित—पौष्टिक भोजन के साथ—साथ घर मे उपलब्ध सभी सुख—सुविधाओ का उपभोग करने की छूट तथा अपनी बहन—बेटियो पर नियन्त्रण रखने का सस्कार दिया जाता है। ऐसे पारिवारिक—सामाजिक—परिवेश मे पली—बढ़ी लड़कियो से यह आशा करना कि वे अपने परिवार—समाज और राष्ट्र की बड़ी—बड़ी चुनौतियो—समस्याओ के विषय मे सोचे तथा उनके समाधान मे उनका सार्थक योगदान दे, यह एक खोखला और भद्‌दा मजाक नही है, तो क्या है ?

अपनी चर्चा—परिचर्चा के अन्त मे प्रभा ने कहा कि समाज द्वारा स्त्रियो के लिए खीची गयी सीमा रेखा से निकलने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक स्त्री आर्थिक रूप से आत्म—निर्भर हो और अपने जीवन के लिए उच्च लक्ष्य निर्धारित करे। परिवार के छोटे—छोटे झगड़ो तथा द्वेष—भाव मे अपने समय को व्यर्थ न गँवाये। ऐसा करके वह अपने लक्ष्य से भटक सकती है, जो उसकी स्वतन्त्रता मे बाधक होगा। प्रभा ने अब स्पष्ट रूप से गरिमा के प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक समझकर कहा— भाभी जी, आप उन शृखलाओ को तोड़ना चाहती है, जिनमे स्त्री सदियो से जकड़ी हुई है, तो उसके लिए सबसे पहले शक्ति अर्जित करना आवश्यक है। आप सर्वप्रथम अपनी शिक्षा पूरी करो और स्वय को आर्थिक रूप से स्वावलबी बनाओ। तब आप न केवल स्वय को उन सीमाओ से बाहर निकाल सकोगी, बल्कि अपनी जैसी अन्य अनगिनत स्त्रियो के लिए उनकी मुक्ति का एक मार्ग खोल दोगी ! इसके विपरीत यदि आप चूड़ी—बिन्दी जैसे छोटे—छोटे विषयो पर उलझती रही, तो शायद आप अपने लक्ष्य से भटक जाओगी और अपने विचारो के अनुरूप कभी कुछ बड़ा नही कर पाओगी !

प्रभा की बातो से गरिमा मे एक नयी चेतना का उन्मेष हुआ था। एक ओर उसमे अपनी शिक्षा पूरी करने की लगन लग गयी थी, तो दूसरी ओर अपने परिवार के साथ सामजस्य करने की प्रेरणा भी उसे मिली थी। उसे अनुभव हो रहा था कि जिस प्रकार एक छोटे—से पौधे को वृक्ष बनने के लिए अपनी शक्ति के साथ—साथ धरती से पोषण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार उसको भी अपनी क्षमता के अनुरूप आगे बढ़ने के लिए तथा अपनी क्षमताओ का विकास करने के लिए परिवार के सहयोग की अपेक्षा है। परिवार मे भी विशेषतः अपने पति आशुतोष के सहयोग की ! आशुतोष से उसको पूरी आशा थी कि उसकी शिक्षा को आगे बढ़ाने मे उसके पति का यथावश्यक समर्थन तथा सहयोग मिल जाएगा, किन्तु उसको भय था कि परिवार ने यदि उसकी शिक्षा को आगे बढ़ाने मे किसी प्रकार की अड़चन डाली, तो उसका पति कदापि उसको आगे पढ़ने की अनुमति प्रदान नही करेगा, सहयोग तो दूर की बात है। अपने इसी तर्क—वितर्क मे समय कैसे बीत गया और कब शनिवार की शाम आ गयी, गरिमा को पता ही नही चला।

आशुतोष से मिलने पर गरिमा ने उसे बताया कि दो—तीन दिन पूर्व प्रभा उनके घर पर आयी थी। उसने लम्बे समय तक बातचीत करते हुए प्रभा की शिक्षा, शिक्षा प्राप्त करने के साथ—साथ आइ.ए.एस की परीक्षा की तैयारी तथा उसकी भविष्य की योजनाओ के बारे मे विस्तार से रोचक शैली से आशुतोष को बताया, तो आशुतोष ने मुस्कराकर कहा—

सीधी—सीधी मुद्‌दे पर आ जाओ और अपने मतलब की बात कहो ! अपना सारा समय हम दूसरो की बाते करने मे बितायेगे, तो हम अपनी बात कब करेगे !

ठीक है, अब मै मुद्‌दे पर आकर अपने मतलब की बात करती हूँ, लेकिन आप भी वादा करो कि मेरा निवेदन स्वीकार कर लोगे ! गरिमा ने मन्द—मन्द मुस्कराते हुए आग्रहपूर्वक कहा और आशा से पति की ओर देखने लगी।

कौन—सा निवेदन ?

आशुतोष के प्रश्न से गरिमा को जैसे प्रोत्साहन मिल गया था। उसने अत्यत विनम्र और सयत भाषा मे आशुतोष को अपना आशय समझाया कि वह अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाना चाहती है और इसमे उसकी सहमति के साथ—साथ सहयोग चाहती है। गरिमा का निवेदन सुनकर आशुतोष असमजस मे पड़ गया। उसे समझ नही आया कि वह क्या कहे ? उसने सोचा भी नही था कि उसकी पत्नी औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का आग्रह कर सकती है, वह भी उस स्थिति मे जबकि उसके पिता ने उसकी शिक्षा अधूरी छुड़वाकर उसके विवाह और उसके गृहस्थ—जीवन को प्राथमिकता दी थी। कुछ क्षणो तक वह मौन रहकर गरिमा की ओर देखता रहा, जैसे उसका निवेदन अत्यत बचकाना था, जिसे स्वीकार नही किया जा सकता था। आशुतोष का मौन कुछ क्षणोपरात टूटा, तो उसे स्वय ऐसा लग रहा था कि वह अपनी पत्नी की आशा और विश्वास को तोड़ने जा रहा है। उसने हँसते हुए कहा—

मजाक बन्द करके काम की बात कर कुछ !

मै मजाक नही कर रही हूँ ! मै वास्तव मे अपनी शिक्षा पूरी करना चाहती हूँ और इस बात को पूरी गम्भीरता से कह रही हूँ ! गम्भीर होकर गरिमा ने अपनी बात पर बल देते हुए कहा। लेकिन आशुतोष की मुद्रा मे कोई परिवर्तन नही आया।

गरिमा सोचने मे और करने मे बहुत अन्तर होता है ! तुम अक्सर ऐसे सपने क्यो देखती हो, जिन्हे साकार नही कर सकती हो! और याद रखो, सपने, सपने ही होते है, चाहे वे नीद मे देखे जाएँ या जागकर देखे जाएँ।

लेकिन, सपने साकार भी तो किये जा सकते है ! मै अपने सपने को साकार करना चाहती हूँ ! मुझे बस आपकी सहमति चाहिए, और कुछ नही !

मेरी सहमति तो तुम्हे मिल जाएगी, पर घर का इतना काम है तुम्हारे ऊपर! इस सबके साथ तुम पढ़ाई कब और कैसे कर पाओगी ! काम छोड़कर पढ़ना तुम्हारे लिए सभव नही है। प्रभा की बात और है, उसका अभी विवाह नही हुआ है, अभी तक उसके कधो पर परिवार का दायित्व नही आया है, इसलिए वह अपनी पढ़ाई निरन्तर और भली प्रकार कर सकती है ! परन्तु, तुम ! मुझे नही लगता कि तुम ऐसा कर सकती हो !

मैने कहा है ना, मै सबकुछ कर सकती हूँ, केवल तुम्हारी सहमति चाहती हूँ ! यदि तुम मेरा फार्म—वार्म भरवाने मे और मेरी पढ़ाई पूरी कराने मे अपना समय खर्च नही कर सकते, तो प्रभा मेरी सहायता कर सकती है ! या मै अपने पिता के घर जाकर अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए प्राइवेट फार्म भर दूँगी ! प्राइवेट पढ़ाई करुँगी, तो घर का काम भी हो जाएगा, मेरी पढ़ाई भी हो जाएगी!

यदि तुम घर के प्रति अपने दायित्वो का निवाह करते हुए अपनी शिक्षा पूरी करना चाहती हो, तो मुझे कोई आपत्ति नही है। लेकिन परिवार वाले तुम्हारी शिक्षा के विषय मे तुम्हारे पक्ष का समर्थन करेगे, मुझे इसमे सन्देह है !

परिवार के विरोध के चलते तो पढ़ाई करना कठिन हो जायेगा!

तुम अपना फार्म भरने के लिए और परीक्षा देने के लिए अपने पिताजी के घर चली जाना ! न किसी को तुम्हारी पढ़ाई के बारे मे पता चलेगा, न ही कोई विरोध होगा !

ठीक है !

वैसे, तुम अपनी पढ़ाई के लिए प्रभा की सहायता भी ले सकती हो ! यह अलग बात है कि माँ को इस सब के विषय मे पता चला तो उनका पारा चढ़ जाएगा कि घर का काम छोड़कर पढ़ाई के लिए गिरे हुए खानदान की लड़की को सिर पर बिठा रखा है। माँ गुस्से मे होकर प्रभा के ऊपर आरोप लगाएँगी कि वह उनकी बहू बरगलाकर गलत राह पर ले जा रही है ! पर चलो, जो होगा देखा जाएगा ! जब ओखली मे सिर डाल दिया, तो मूसल से कैसा डर!

अपने पति आशुतोष के प्रति गरिमा की आशा और उसका विश्वास बहुत कुछ ध्वस्त हो गया था, जब उसे आशुतोष से नकारात्मक उत्तर मिला था कि वह अब अपनी शिक्षा को आगे नही बढ़ा सकती है। परन्तु अब उसको इस बात का सन्तोष था कि कम—से—कम आशुतोष ने उसे उसके पिता के जाकर प्राइवेट परीक्षा का फॉर्म भरने की तथा परीक्षा देने की अनुमति तो दे ही दी। अब वह निश्चिन्त होकर अपनी आगे की शिक्षा प्राप्त कर सकेगी। अपने मायकेे मे जाकर परीक्षा देने के चलते ससुराल वालो के विरोध की सभावना भी नही रहेगी। अपने सकारात्मक दृष्टिकोण से गरिमा ने अपने पति के नकारात्मक उत्तर को भी अब सकारात्मक रूप दे दिया था।

अपनी आगे की शिक्षा के लिए आशुतोष की सहमति पाकर गरिमा बहुत प्रसन्न थी। अगले दिन प्रातः उठकर उसने ईश्वर का धन्यवाद किया और आशुतोष से कहा कि अपने कीमती समय मे से थोड़ा—सा समय निकालकर वह उसके लिए बी.ए. प्रथम वर्ष के पाठ्‌यक्रम के अनुसार पुस्तक ले आये। आशुतोष पहले तो ना—नुकर करता रहा, किन्तु गरिमा की लगन देखकर उसने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। आशुतोष ने गरिमा को यह भी सुझाव दिया कि जब तक वह उसके लिए पुस्तके नही लाएगा, तब तक प्रभा से पुस्तक लेना उचित रहेगा। गरिमा को पति का सुझाव उपयुक्त लगा। उसने आशुतोष से कहा कि यदि प्रभा से उसे अपनी आवश्यकतानुसार अध्ययन—सामग्री मिल सकी, तो वह नयी पुस्तके नही मँगायेगी।

सोमवार की सुबह से ही प्रभा को यह जानने की उत्सुकता हो रही थी कि गरिमा की आगे की शिक्षा के प्रस्ताव पर आशुतोष की क्या प्रतिक्रिया रही है। बड़ी कठिनता से उसने बेचैन होकर दोपहर तक का समय गुजारा था। दोपहर होते—होते उसका धैर्य छूटने लगा था, तो वह बड़ी फुर्ती से अपना कार्य सम्पन्न करके गरिमा से भेट करने के लिए आयी। गरिमा के घर आकर भी उससे भेट कर पाना आसान नही था, क्योकि गरिमा तक पहुँचने के लिए उसे श्रुति तथा उसकी माँ का पहरा पार करना नितान्त आवश्यक था। उधर, गरिमा को यह अनुमान नही था कि प्रभा दोपहर के समय भी आ सकती है। आज से पहले वह सदैव दोपहर के बाद अपराह्‌न तीन—चार बजे ही आती रही थी, इसलिए, गरिमा अपने घर का सारा काम सम्पन्न करके अपने कमरे मे बैठकर अध्ययन करने लगी थी। यद्यपि आज अध्ययन करने मे उसका चित्‌ सन्तुष्ट नही था, क्योकि कि वे बी.ए.के पाठ्‌यक्रमानुसार अपने विषय की पुस्तके पढ़ना चाहती थी, फिर भी अपने विषय की पुस्तको के अभाव मे वह उस पुस्तक को पढ़ रही थी, जो उसे प्रभा ने लाकर दी थी।

प्रभा को श्रुति तथा उसकी माँ से बात करते हुए लगभग एक घटा बीत चुका था। प्रभा बाते भले ही श्रुति तथा उसकी माँ से कर रही थी, परन्तु उसका चित्‌ गरिमा से बाते करने के लिए व्याकुल था और दृष्टि उसे खोजती हुई घर के चारो कानो की यात्राा करके निराश होकर बार—बार वापिस लौट आती थी। जब एक घटा से अधिक समय बीत गया, तब प्रभा ने सकोच करते हुए श्रुति से पूछ ही लिया— श्रुति, आज भाभी दिखाई नही दे रही है घर मे, कही बाहर गयी है ?

प्रभा का प्रश्न श्रुति तथा उसके माँ मे हृदय मे तीर की भाँति चुभा था। वे उसको गरिमा से मिलने के लिए स्पष्ट शब्दो मे मना करना चाहती थी । वे सोचती थी कि ऐसा कोई बहाना मिल जाए, जिससे गरिमा और प्रभा के बीच की घनिष्ठता को उनकी दूरी मे बदला जा सके। अपनी भावनाओ को कार्यरूप मे परिणत करने का कोई साधन उन्हे अब तक नही मिल सका था, इसलिए उनके अन्तः की कटुता अपने चरम पर थी। उसी कटुता को व्यक्त करते हुए श्रुति ने प्रभा के प्रश्न का उत्तर दिया अपने प्रश्न के रूप मे। ऐसे प्रश्न के रूप मे जो प्रभा को भी उसी प्रकार चुभ जाए, जिस प्रकार प्रभा का प्रश्न उन्हे चुभा था—

तू य्‌हाँ म्हारे सै मिलण आयी—ऐ या भाब्बी सै ?

श्रुति का प्रश्न सुनकर प्रभा निरुत्तर हो गयी और आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगी। श्रुति की माँ ने उसकी दशा को भाँपकर यह सोचते हुए कि अपने घर आने वाले का अपमान नही करना चाहिए, श्रुति को डाँट दिया और प्रभा से कहा— आज तो महाराणी सबेरी काम निबटा कै सबेरी—ई अपणे कोठ्‌ठे मै जाकै बड़गी—ई ! अब तो जिस दिण आसू आवै अर जिस दिण जावै, मतबल सुनीच्चर अर सुम्मार कू तो इसका सारा दिण कोठ्‌ठे मैई कटै ऐ ! राम जाणै भित्तर—ई—भित्तर का करती रहवै सारे दिण यू अकेल्ली !

श्रुति तथा उसकी माँ के तेवर देखकर प्रभा का साहस नही हुआ कि वह दुबारा गरिमा से भेट की अपनी इच्छा प्रकट कर सके और उन्हे बता सके कि आज वह वास्तव मे गरिमा से मिलने के लिए ही आयी थी। लगभग डेढ़ घटा बीत जाने पर भी जब गरिमा अपने कमरे से नही निकली और श्रुति की दृष्टि भी उसके प्रति टेढ़ी हो रही थी, तब निराश होकर उसने निश्चय किया कि अब यहाँ बैठकर अपने बहुमूल्य समय का अपव्यय करना उचित नही है, तुरन्त प्रस्थान करना ही बेहतर है। अपने निश्चय के अनुरूप प्रभा चलने के लिए खड़ी हुई ही थी, तभी गरिमा अपने कमरे से निकलकर बाहर आयी। प्रभा पर दृष्टि पड़ते ही गरिमा प्रसन्नता से चहक उठी— प्रभा, तुम कब आयी ? मै सुबह से तुम्हे याद कर रही थी, पर यह नही पता था कि तुम याद करते ही आ जाओगी।

मुझे तो यहाँ बैठे हुए एक घटे से अधिक हो गया है। आप कमरे मे से ही नही निकली, तो कैसे पता चलता कि कौन आया है! प्रभा ने उलहना देते हुए कहा, पर श्रुति तथा उसकी माँ के भय से वह अपनी प्रसन्नता प्रकट नही कर सकी। गरिमा समझ गयी थी कि प्रभा श्रुति के साथ बैठने के लिए विवश थी, क्योकि उसमे इतना साहस नही था उनके घर की बहू से वह उनकी सहमति के बिना मिल सके। कुछ क्षणो तक वह वहाँ खड़ी होकर परिस्थिति का अध्ययन करती रही। तदुपरात वह क्रमशः अपनी सास, श्रुति तथा प्रभा की ओर देखती हुई बोली—

इतनी देर से बैठी थी, तो एक आवाज देकर मुझे भी बुला लिया होता ! गरिमा की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ कहने की आवश्यकता न समझते हुए श्रुति ने तथा उसकी माँ ने उपेक्षा से दृष्टि फेर ली। प्रभा ने इस आशय से गरिमा की ओर देखा, जैसे कह रही थी कि उसे इतना अधिकार नही था। गरिमा ने एक—एक करके तीनो का आशय भली प्रकार समझ लिया था। अपनी सास—ननद की उपेक्षापूर्ण दृष्टि से उसको अपने पक्ष मे खड़े होने का बल मिल गया था। यदि वह उनकी उपेक्षापूर्ण दृष्टि से आहत नही होती, तो उनके विरुद्ध जाने का साहस वह कभी नही कर पाती। उसने साहस करके, परन्तु अत्यत सहज ढग से प्रभा को सम्बोधित करके कहा—

प्रभा ! मै तुम्हे कुछ बताना चाहती थी, इसलिए सुबह से ही तुम्हे याद कर रही थी। चलो ! थोड़ी देर के लिए अन्दर मेरे कमरे मे चलकर बैठते है। वहाँ पर बैठकर बहुत—सी महत्वपूर्ण बाते करेगे ! गरिमा का सकेत पाकर प्रभा उठकर उसके साथ उसके कमरे की ओर चल दी। कमरे मे पहुँचकर गरिमा ने प्रभा को बिठाते हुए सर्वप्रथम उसको यह बताया कि आशुतोष को इस विषय मे कोई आपत्ति नही है कि उसकी पत्नी शिक्षा को आगे बढ़ाना चाहती है।

लेकिन ! अपनी बात बताते हुए ‘लेकिन' कहकर गरिमा क्षण—भर के लिए मौन हो गयी। गरिमा के मौन से प्रभा के हृदय की धड़कने बढ़ गयी और वह ‘लेकिन' से आगे की बात सुनने के लिए बेचैन हो गयी। उसने अधीर होकर कहा—

लेकिन क्या ?

लेकिन उन्होने स्पष्ट कह दिया है कि अपनी आगे की शिक्षा मै यहाँ पर रहकर नही कर सकती हूँ ! परीक्षा—फॉर्म भरने के लिए तथा परीक्षा देने के लिए मुझे अपने पिता के घर जाना होगा ! उन्ही के सहयोग से मुझे अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाना पड़ेगा !

आप अपने परीक्षा—फॉर्म से लेकर परीक्षा देने तक अपने पिता या भाई का सहयोग लेने की बात कह रही है, तो भैया की आपत्ति—अनापत्ति का प्रश्न कहाँ उठता है।

नही, प्रभा ! आशुतोष की आपत्ति—अनापत्ति का महत्व तब तक बना रहेगा, जब तक मै इनकी पत्नी हूँ ! यदि मै इनकी आपत्ति के बाद भी अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने का दुस्साहस करूँगी, तो मुझे मायके से सहयोग मिलना सभव नही है। मायके से सहयोग की सभावना तभी की जा सकती है, जबकि मै आशुतोष की सहमति से अपनी शिक्षा पूरी करूँगी।

गरिमा ने अपनी पारिवारिक मनःस्थिति विस्तारपूर्वक प्रभा को बतायी। प्रभा आज अपने जीवन मे पहली बार इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक सोच रही थी कि किस प्रकार एक लड़की शिक्षा प्राप्त करना चाहती है, किन्तु अपनी इस चाहत को यथार्थरूप देने के लिए उसको अवर्णनीय सघर्ष करने पड़ते हैै ! पहले उसका विवाह सम्पन्न कराने की शीघ्रता रहती है, मानो उसके जीवन का लक्ष्य यही है। विवाह करने के पश्चात्‌ उसको ससुराल वालो की अधीनता मे छोड़कर यह घोषणा कर दी जाती है कि उनकी अनुमति के बिना यदि उसने कोई भी कार्य—व्यवहार किया, तो मायके से उसे किसी प्रकार का सहयेग नही मिलेगा। प्रभा केे परिवार की मनःस्थिति इससे भिन्न थी। उसके पिता और भाई उसको शिक्षा दिलाने के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार सहयोग करते थे, मार्गदर्शन करते थे तथा उसको प्रोत्साहित भी करते थे। उसका परिवार तब तक उसका विवाह—सम्पन्न नही करना चाहता था, जब तक कि वह उच्च—शिक्षा प्राप्त करके अपना लक्ष्य प्राप्त नही कर लेती और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नही बन जाती। कुछ क्षणो तक वह अपने ही विचारो मे खोयी रही। कुछ क्षणोपरान्त अपनी विचार—यात्रा पर विराम लगाकर वह प्रेरक मुद्रा मे गरिमा से बोली—

जो भी हो, आपका उद्‌देश्य है अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाना! अपने इस उद्‌देश्य को पूरा करने मे आपके समक्ष अब कोई बाधा नही है। आप मुझसे किस सहयोग की अपेक्षा रखती है, बताइये ! मै हर प्रकार से आपको सहयोग देने के लिए आज भी तैयार हूँ और सदैव तैयार रहूँगी !

प्रभा, तुम्हारी प्रेरणा से ही तो मैने बी.ए. करने का निश्चय किया है। अपने निश्चय को पूरा करने के लिए मुझे पग—पग पर तुम्हारी सहायता की अपेक्षा रहेगी ! तुम्हारे सहयोग के अभाव मे अपने लक्ष्य को प्राप्त करना मेरे लिए बहुत कठिन हो जाएगा, शायद असम्भव भी !

आप मुझे आज्ञा दीजिए, मुझे क्या करना है ! पाठ्‌यक्रमानुसार मेरे लिए अध्ययन—सामग्री की व्यवस्था करना

और प्राइवेट परीक्षा—फॉर्म कब भरे जाएँगे, इस विषय मे पता करके उचित समय पर मुझे सूचना देना, ये दोनो काम तुम्ही कर सकती हो !

ठीक है, भाभी जी! मै इन दानो कायोर् का दायित्व अपने ऊपर लेती हूँ ! अपने दायित्वाे के निर्वाह मे मै आपको शिकायत का अवसर नही दूँगी ! आप मुझे उन विषयो के नाम बताइये, जिन्हे आप बी.ए. मे पढ़ना चाहती है !

जो विषय तुमने पढ़े है, मै भी उन्ही विषयो मे बी.ए. कर लूँगी !

तो ठीक है, उन विषयो की पुस्तके मेरे घर पर रखी हुई है। मै कल ही आपको वे सभी पुस्तके दे दूँगी, जो मेरे पास है। परीक्षा—फॉर्म तो अभी कई माह पश्चात्‌ भरे जाएँगे ! अभी तो पिछले सत्र की परीक्षा भी नही हुई है !

परीक्षा—फॉर्म तथा अध्ययन सामग्री की व्यवस्था का दायित्व प्रभा ने ले लिया था, गरिमा इस बात से बहुत प्रसन्न थी। अगले दिन प्रभा कई पुस्तके लेकर उसके पास आयी। पाठ्‌यक्रम से सम्बन्धित पुस्तको के साथ वह कुछ पत्रिकाएँ भी लायी थी, जिनमे उसके लेख और कहानियाँ प्रकाशित हुए थे। उसने गरिमा को बताया कि यदि गरिमा भी कुछ लिखकर भेजना चाहे, तो वह उसका लेख प्रकाशित करा सकती है, क्योकि इन सभी पत्रिकाओ के सम्पादको के साथ उसके एक मित्र की माता के अच्छे सम्बन्ध है। वैसे, जबसे उसके लेखो को इन पत्रिकाओ मे जगह मिली है, तब से सम्पादक स्वय उससे भी इतने प्रभावित है कि वे हर माह लिखने के लिए आग्रह करते रहते है।

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