संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि
(5)
कविता मेरे सॅंग ही रहना.....
कविता मेरे सॅंग ही रहना,
अंतिम साथ निभाना ।
जहाँ-जहाँ मैं जाऊॅं कविते,
वहाँ - वहाँ तुम आना ।
अन्तर्मन की गहराई में,
गहरी डूब लगाना ।
सदगुण देख न तू भरमाना,
दुर्गुण भी बतलाना ।
जब मैं बहकूँ तो ओ कविते,
मुझको तू समझाना ।
पथ से विचलित हो जाऊॅं तो,
पंथ मुझे दिखलाना ।
बोझिल मन जब हुआ हमारा,
तू ही बनी सहारा ।
दुख में जब डूबा मन मेरा,
तुमने उसे उबारा ।
मेरे सोये मन को जगाकर,
कर्मठ मुझे बनाना ।
न्याय धर्म और सत्य डगर पर,
चलना मुझे सिखाना ।
***
विरहन की पीड़ा को.....
विरहन की पीड़ा को, कौन बाँच पाएगा ।
पनघट का सूनापन, किसके मन भाएगा ।।
जग का यह बंधन जब, मन को न बाँध सका ।
तन का बैरागी पन, साथ क्या निभाएगा ।।
दिल को जब कैद रखा, तन की सलाखों में ।
चंचल मन अश्वों को, कौन रोक पाएगा ।।
भावना बेहाल जब, रो रही सिसक- सिसक ।
प्रेम की सिन्दूरी पर, कौन न मिट जाएगा ।।
तनहा जब बैठे हों, स्मृति के आँगन में ।
स्वर्णिम अतीतों को, कौन भुला पाएगा ।।
दिल की किताबों में, प्रेम भरी कविता हो ।
विरही मन प्रेमी तब, गीत क्यों न गाएगा ।।
सुगंध बनके बह रही हो, प्यार की बयार जब ।
बँधने भुजपाशों में, कौन न ललचाएगा ।।
विरहन की पीड़ा को, कौन बाँच पाएगा ।
पनघट का सूनापन, किसके मन भाएगा ।।
***
तुलसी तेरे घर आँगन में.....
तुलसी तेरे घर आँगन में,
लगी - लगी मुरझाये ।
केक्टस् की चाहत में अब तो,
नागफनी मुस्काये ।
हर जन-मन में मचल रही है,
राम राज्य की अभिलाषा ।
राम कहाँ जन्मेगा युग में,
लगी हुई सबकी आशा ।
राजनीति के दल-दल में जो,
कमल सरीखा खिलता है ।
वह युग का मनमोहक प्यारा,
राज दुलारा बनता है ।
सोने की लंका ने जब -जब,
जन -मन को भरमाया है ।
तब - तब रावण सत्ता के,
सिंहासन पर चढ़ आया है ।
आदर्शों, मर्यादाओं की,
जो खींची लक्ष्मण रेखा ।
जब-जब पार किया इस जग ने,
संकट बढ़े सभी ने देखा ।
मिले राम को हनुमान तो,
सीता खोज सफल होगी ।
दानव वृत्ति अंत तब होगी,
सत्य न्याय की जय होगी ।
बुरे कर्म का बुरा नतीजा,
चाहे पंडित ज्ञानी हो ।
सत्य धर्म ही अमर रहेगा,
चाहे क्यों न दशानन हो ।
नेह बड़ा होता है जग में,
प्रेम का कोई मोल नहीं ।
सबरी के जूठे बेरों से,
बढ़ कर कोई और नहीं ।
ऊॅंच - नीच की दीवारों को,
हमने ही तो बनाया है ।
उसने तो बस हाड़ मांस का,
मानव एक बनाया है ।
राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न,
जैसे शिष्य रहेंगे ।
द्रोणाचार्य,बशिष्ठ आदि सब,
युग - युग पुजते रहेंगे ।
पत्नी मिले उर्मिला सरीखी,
लक्ष्मण कर्तव्य निबाहेगा ।
संयम त्याग बंधुत्व प्रेम का,
ध्वजा सदा लहराएगा ।
मर्यादित, अनुशासित जीवन,
सफल राष्ट्र की कुँजी है ।
प्रगति एकता शांति सुखों की,
सुदृढ़ शक्ति युत पूँजी है ।
हित चिंतक राजा जब होगा,
प्रजा साँस सुख की लेगी ।
स्वार्थ मोह में लिप्त रहा तो,
प्रजा दुखों को झेलेगी ।
तुलसी ने जो ज्ञान दिया है,
मंदिर मे ही सजा आये ।
सोने की लंका में फिर से,
अपने को भरमा आये ।
तुलसी तेरे घर आँगन में,
लगी - लगी मुरझाये ।
केक्ट्स की चाहत में,
अब तो नागफनी मुस्काये ।।
***
सुख-दुख जब धूप-छाँव .....
सुख-दुख जब धूप-छाँव, चिन्ता है क्यों ?
जीवन संघर्षों से, डरता है क्यों ?
जीवन में धूप और, छाँव है भली ।
खुली- खुली नभ की, चैपाल है सही ।
वृक्षों के आँचल की, हवा है भली,
मस्ती में झूमती है, हर गली-गली ।
हैं, काली - घटाएँ, बरसती जहाँ,
हरी - भरी रहती है, धरती वहाँ ।
चारों दिशाओं में, है झूमती बहार,
कोयल की गॅूंजती है, मोहक पुकार ।
तन मन जब भींजता, तो खिलती कचनार,
हॅंसी - खुशी गाता है, जीवन मल्हार ।
संघषों से प्यार, जिसने किया,
मानव से भगवान, बनकर जिया ।
मीरा ने प्याला, हलाहल पिया,
सूरदास अँधियारा, पी कर जिया ।
कर्म से जुलाहा, कबीरा बना,
ईसा भी सूली पर, चढ़ कर बना ।
तुलसी की मानस का, वन्दन हुआ,
घर - घर के माथे का, चन्दन हुआ ।
***
अंगारों से मत खेलो तुम .....
अंगारों से मत खेलो तुम,
झुलस गए पछताओगे ।
अपने कंधों पर अपनों की,
कितनी लाश उठाओगे ।
जितनी लड़ी लड़ाई तुमने,
हर युद्धों में हार गए ।
अपने हाथों से पैंरों पर,
स्वयं कुल्हाड़ी मार गए ।
काश्मीर के मुद्दे में ही,
कब तक तुम भरमाओगे ।
उग्रवाद, आतंकवाद से,
कब तक तुम डरवाओगे ।
हमने तुम्हें शरीफ समझ कर,
दिल से गले लगाया था ।
बस की राह तुम्हें आने का,
न्यौता भी भिजवाया था ।
किया मित्र विश्वासघात,
नापाक इरादा जान गया ।
तेरी काली करतूतों से,
सारा जग पहचान गया ।
बॅंगला देश के इतिहास को,
क्या फिर से दोहराओगे ?
अपनी नादानी से फिर क्या,
अपनी नाक कटाओगे ?
जनता के श्रम की पूँजी को,
युद्धों में लुटवाओगे ?
द्वेश भाव भर जन-मानस में,
क्या शरीफ कहलाओगे ?
संघर्षों की इस धरती ने,
वीरों का इतिहास गढ़ा है ।
राम, कृष्ण गौतम,गांधी का,
कण-कण में विश्वास बसा है।
गरम लहू से वीर सिपाही,
जमी बर्फ पिघलाएंगे ।
कारगिल की दुर्गम घाटी में,
राष्ट्र ध्वजा फहराएँगे ।
***
युद्ध की वो चुनौती हमें दे रहे .....
युद्ध की वो चुनौती हमें दे रहे,
हम भी देखेगें कितना गुरूर है भरे ।
हम तो शांति चितेरे रहे हैं सदा,
वक्त आने पर सीमा में जी भर लड़े ।
हम तो कहते रहे हैं युगों से यही,
आदमी - आदमी से लड़े न कभी ।
प्रेम से ही रहें इस धरा में सभी,
दिल किसी का भी दुखने न पाए कभी ।
हमनें वेदों पुराणों की गाईं ऋचा,
सूफी संतों ने है भाई चारा गढ़ा ।
बुद्ध की वाणी ने जग को अमृत दिया,
औ अहिंसा का हमने वरण है किया ।
हमने जीते कलिंग से अनेकों किले,
तब अहिंसा का उपदेश जग को दिया ।
विश्व – शांति के पथ पर निरंतर चले,
विश्व - बन्धुत्व का ही जलाया दिया ।
राम के राज्य का हमने स्वागत किया,
कृष्ण की गीता का हमने वंदन किया।
हमने सिर पर उठाईं कुराने शरीफ,
बाईबिल की इबारत में हुए हैं शरीक ।
जब भुजाएँ तुम्हारी फड़कने लगे,
युद्ध का ही जब उन्माद छाने लगे ।
अतीत दर्पण में झाँकना घड़ी दो घड़ी,
भूल जाओगे,लड़ने की सब हेकड़ी ।
राणा सांगा ने घावों को झेला यहाँ,
थे शिवाजी व छत्रसाल से योद्धा यहाँ ।
भामाशाहों की कोई कमी न यहाँ,
आँधियाँ बनके पोरस लड़े हैं यहाँ ।
माँ के गर्भों में अभिमन्यु बनते यहाँ,
नारियाँ भी समर में सुसज्जित यहाँ ।
शूरवीरों की आरतियाँ सजतीं यहाँ,
गर्दनें भी गद्दारों की कटती यहाँ ।
गुरुगोविंद ने लालों को कटवा दिया,
देश पर न कभी संकट आने दिया ।
कसमें खातें हैं उनको निभाते हैं हम,
मौत को भी गले से लगाते हैं हम ।
राष्ट्र भक्ति की भावना दिलों में भरी,
भारत माता की मूरत हर मन में बसी।
उनसे कह दो न कारगिल बनाएँ कभी,
वरना मौत भी माँगे मिलेगी नहीं ।
***
इस जगत में एक जीवन .....
इस जगत में एक जीवन, मैं भी जीना चाहता हूँ,
जिंदगी में कुछ अधूरे, पृष्ठ लिखना चाहता हूँ ।
देखता हॅूं सत्ता के अब, सब गलियारे तंग हैं,
आँखों में पट्टी चढ़ी, और हर दरवाजे बंद हैं ।
स्वार्थ से आकंठ डूबे, हर दिलों में दम्भ है,
आचरण की लेखनी से, हर सफे बदरंग हैं ।
आजादी की वह चाह जाने, कैसे अनबुझ रह गयी,
देश की रुसवाइयाँ, कानों में कुछ-कुछ कह गयीं ।
क्या यही जीवन की भाषा, अनुच्छेदों में गढ़ी थी?
लोकतंत्री यंत्रणा की, बुनियादें क्या ये रखी थी?
कुर्बानियाँ दी थीं जिन्होंने, उनके सपने ढह गये,
कल्पनाओं के क्षितिज से, सब परिन्दे उड़ गये ।
कितने लोगों की कराहें, और आहें सह सकोगे,
भक्ति सेवा की संदूकें, और कितनी भरते रहोगे ।
विषमताओं की दीवारें, अनगिनत हैं बन गयीं,
अट्टालिकाएँ शोषकों की, जानें कितनी तन गयीं ।
क्राँति की लेकर मशालें, तोड़ना मैं चाहता हूँ,
इस प्रलय की हर दिशा को, मोड़ना मैं चाहता हूँ ।
इस जगत में एक जीवन, मैं भी जीना चाहता हूँ,
जिंदगी में कुछ अधूरे, पृष्ठ लिखना चाहता हूँ ।
इस तिमिर में एक दीपक, मैं भी बनना चाहता हूँ,
दीप बनकर इस जगत में, आलोक करना चाहता हूँ ।
***
मौन के मकान बन गये.....
मौन के मकान बन गये,
दिल के द्वार तंग हो गये ।
कहने को अनेकों लोग हैं,
फिर भी हम अकेले रह गये।
सोच कर चले थे हम कभी,
प्रेम की डगर में हम सभी ।
दिन गुजारेंगे हॅंसी –खुशी,
ना करेंगे रंजो -गम कभी ।
चाँद ने कहा था सोच मत,
चाँदनी को हम मनायेंगे ।
हर अमां की स्याह रात को,
गीतों की शमा जलायेंगे ।
खिड़कियाँ अनेकों थी मगर,
खोलकर न उनको रख सके।
मेहरूम रोशनी से हम हुये,
खुद कसूरवार हो गये ।
***
चाँद आज आसमां में .....
चाँद आज आसमां में, शोखियाँ दिखा रहा,
चाँदनी के साथ - साथ, प्रेम गीत गा रहा ।
समीर संग रोशनी का, मस्त नृत्य चल रहा,
संगीत का प्रत्येक वाद्य, -वादियों में बज रहा ।
तूलिका ने रंग सब, छिटक दिए इधर- उधर,
प्रकृति को निहार कर, नेत्र हो गए अमर ।
बाहुपाश कल्पना से, प्रेमी मन बहक रहा,
गीत और संगीत से, उदास दिल बहल रहा ।
आँखों में विनोद सा, परिहास -हास दिख रहा,
नयनों की कोरों से, चितवन चकोर विहॅंस रहा ।
सांसों में फिर नेह का, विश्वास सा है जग रहा,
तन के कोने- कोने में, मधुमास है समा रहा ।
तन्हाईयों में यादों का, फिर गुदगुदाना चल रहा,
मन का मोर नाच-नाच,सपनों सा है छल रहा ।
प्यार का अगाध सिंधु़, -ज्वार सा उछल रहा,
आज सीमा लांघने को, मन भी है मचल रहा ।
इन्द्रियाँ दशों –दिशाएँ, तृप्ति को ललक रहीं,
प्यार की प्रखर तरंग, स्पर्श को मचल रही ।
पूर्णिमा दमक उठी, चमक उठी है यह धरा,
चंद्रमा की चाँदनी से, सज गयी वसुन्धरा ।
वैरागी का विरक्त मन, डोलता सा दिख रहा,
विरह की आग ताप से, ज्वाल बन धधक रहा ।
प्रीत की धरा में मीत, प्रेम गीत गा रहा,
साधना की शक्ति से, आसक्ति को जगा रहा ।
कालिमा को काट कर, उजियारे को फैला रहा,
प्रकाश का संदेश सारे, जग को देता जा रहा ।
बिखेर कर सोलह कलाएँ, चन्द्रमा मुस्करा रहा,
अमरत्व का वह पान सारे, विश्व को करा रहा ।
चाँद आज आसमां में, शोखियाँ दिखा रहा,
चांदनी के साथ-साथ प्रेम गीत गा रहा ...... ।
***