Contractor - 4 in Hindi Short Stories by Arpan Kumar books and stories PDF | कांट्रैक्टर - 4

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कांट्रैक्टर - 4

कांट्रैक्टर

अर्पण कुमार

(4)

राकेश हल्का सा मुस्कुराता हुआ चुप ही रहा। वह कुछ संकोच में भी आ रहा था। चरणजीत ने बिकास की बात को पूरी शिद्दत से आगे बढ़ाते हुए और पहले राकेश एवं बाद में बिकास चटर्जी की ओर देखते हुए कहा, "आप बिल्कुल दुरुस्त कह रहे हैं दादा। सोलह आना सच। एकदम किसी खरे सोने के माफ़िक।"

राकेश ने अपनी प्रशंसा के लंबे होते चले जाते पुल को ज़रा ठहराव देने के उद्देश्य से ठिठोली करता हुए कहा, "बिकास जी और चरणजीत जी, ज़्यादा मीठा ठीक नहीं है। हमलोग सुबह से लेकर देर शाम तक यहाँ ऑफिस में बैठे रहते हैं। इतना मीठा स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।"

तीनों ने ज़ोरदार ठहाके लगाए। तभी बिकास ने कैंटीन ब्यॉय को तीन कप चाय लाने के लिए कहा। चरणजीत और राकेश बिकास की सीट के आगे रखी कुर्सियों पर बैठ गए और इधर-उधर की चर्चा के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी को लेकर बात शुरू हो गई। राकेश ने अबतक प्राप्त प्रतिभागियों के बारे में बताते हुए पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा रखी, "देखिए, इस ऑफिस के लगभग सभी स्टॉफ सदस्यों से मेरी बात हो गई है। अधिक से अधिक लोग सपरिवार इस कार्यक्रम में पहुँचें, इसे मैं स्वयं मॉनीटर कर रहा हूँ। वो जो नीचे दो टावर के बीच खुली जगह है, कार्यक्रम वहीं पर होगा। लिफ्ट के बगल से हम उसके भीतर जाते हैं। वहीं पर दोनों तरफ़ केले के दो स्तंभ खड़ा करके और उनसे पतली रस्सी को बाँधकर उस पर आम्रपत्रों को लटकाकर हम एक सुरुचिपूर्ण प्रवेशद्वार बनाएँगे। हमारे दो स्टॉफ सदस्य सुशोभिता मै'म और गगनजीत सिंह की बेटियाँ नीचे प्रवेश द्वार पर खड़ी रहेंगी और हरेक आगंतुक को गुलाब की एक-एक कली देंगी। फिर सभी अंदर जाएँगें। सभी के लिए सफ़ेद रंग के कवर के साथ लगी गद्देदार कुर्सियाँ होंगी। सामने मंच सजा होगा, जिसके पीछे सफ़ेद रंग के पर्दे होंगे। मंच की लंबाई-चौड़ाई हमने ठीक-ठाक रखी है, ताकि हमारे जो स्टॉफ सदस्य या उनके बच्चे कोई नृत्य प्रस्तुत करना चाहें या कोई लघु-नाटिका करना चाहें तो वे आराम से परफॉर्म कर सकें। मंच के एक कोने पर स्टैंडिंग रहेगा, जिसपर कुछ रखकर हमारे साथी कोई कविता, प्रहसन या कुछ और रुचिकर मैटर सुना सकेंगे। 'कराउके' भी किराया पर मँगवा लिया है, ताकि हमारे गायक साथियों को गाने में सुविधा हो। पीछे टँगे सफेद पर्दे पर हमारी कंपनी का बैनर लगा होगा। पुरस्कार वितरण भी स्टेज पर ही होगा, ताकि इन छायाचित्रों में बैनर स्पष्ट रूप से आ सके। जो स्टेज बनेगा, उससे लगे दोनों किनारों पर ऊँचाई से व्हाइट कलर के दो हेडमास्टलैंप होंगे। साथ में एक तरफ़ डिस्को-लाइट की भी पूरी व्यवस्था होगी। छोटे बच्चों के मनोरंजन के लिए हवाभरे गद्देदार उछलनेवाले कुशन भी होंगे।..."

"अरे दादा, इतना कुछ अरेंजमेंट। मान गए बॉस।" चश्मे के पीछे की अपनी दोनों आँखों को और बड़ा करते हुए बिकास ने राकेश को बीच में ही टोका।

"अरे बंधु, बहुत हो गया। आपने तो ख़ूब व्यवस्था की है। अच्छा यह बताइए कि खाने के मेनू में क्या-क्या है?" इस बार हँसते हुए चरणजीत ने पूछा।

अब तक कैंटीन ब्यॉय ने लाकर चाय रख दी थी। चाय के सीप का आनंद लेते हुए राकेश ने आगे कहना जारी रखा, “मेनू की ज़िम्मेदारी हरिकिशन सर के ज़िम्मे है। अब वे जैसा करवाएँ।”

चरणजीत को भी इस ऑफिस में कार्य करते काफ़ी समय हो गया था। वे भी यहाँ की राजनीति से भलीभाँति परिचित थे। छूटते ही कहा, "लो, तब तो कल्याण ही हो गया। कार्यक्रम की तैयारी आसमान पर तो खाने की व्यवस्था ज़मीन पर। इतना अंतर हो जाएगा दोनों में।” कुछ उचटते हुए चरणजीत ने अपनी बात समाप्त की।

राकेश गंभीर बना रहा , ”चरणजीत जी, वे कुछ भी हों, हैं तो हमारे यहाँ एच.आर. के हेड ही न!...”

राकेश की बात को बीच में ही काटते हुए बिकास ने कहना शुरू किया, ”यही तो रोना है। इस झक्की और निगेटिव आदमी को जाने किसने हमारा एच.आर. हेड बना दिया। पहले स्टॉफ के बिल जहाँ एक-से दो दिन में निकल जाते थे, वहीं अब दो-दो सप्ताह तक कुछ नहीं होता। इस आदमी ने पूरे एच.आर. सेक्शन को किसी सड़े हुए तालाब में मानो तब्दील कर दिया है। यह पूरा मैकेनिकल आदमी है। बस खानापूर्ति के लिए साहब के पास जाएगा और कुछ-कुछ डिस्कश करके वह काम टीसीएस को दे देगा। इसको क्वालिटी के लिए कोई 'पेन' लेना ही नहीं है और ना ही इसके लिए औरों की राय का कोई महत्व है। इसके लिए बस दो लोग इमपॉर्टेंट हैं। एक साहब और दूसरा टीसीएस। हमलोगों के सैंकड़ों के बिल में भी दस कमियाँ निकालेगा, वहीं टीसीएस के हजारों के बिल बिना कोई चूँ-चपड़ किए पास करेगा।”

तभी चरणजीत पुनः चर्चा में कूदा, “ दो नहीं दादा, तीन लोग। साहब, टीसीएस और यह ख़ुद।”

चरणजीत ने जिस गंभीर तरीके से यह बात कही, राकेश और बिकाश दोनों ठठाकर हँस पड़े। पीछे से चरणजीत भी।

चाय का अंतिम सीप लेते हुए राकेश ने कुछ गंभीरतापूर्वक कहना शुरू किया, “ जो भी हो यार, कुछ तो ज़िम्मेदारी उन्हें भी देनी होगी। जीएम सर ने सोचकर ही तो यह फ़ैसला लिया होगा”।

चरणजीत और बिकास रहस्यमयी अंदाज में मुस्कुरा दिए।

अब तक चाय समाप्त हो गयी थी। सभी अपनी-अपनी डेस्क पर चले गए।

...

टीसीएस राव मूल रूप से आंध्रप्रदेश के गुंटुर जिले के थे मगर उनके जन्म के कुछेक महीने बाद ही उनके पिता रायपुर में आ बसे थे। शहर के अंतिम छोर पर स्थित यदुनंदन नगर में उन्होंने एक छोटे मकान की बरसाती किराए पर ले ली। उस मुहल्ले से कोई दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित बाइपास के एक किनारे साइकिल पार्ट्स और पंक्चर ठीक करने की एक छोटी सी दुकान भी किसी तरह करके उन्होंने किराए पर ले ली। संयोग अच्छा रहा कि साइकिल की उनकी दुकान कम ही समय में ठीक-ठाक चल पड़ी। बालक टीसीएस स्कूल के एक नगर-निगम स्कूल में पढ़ाई करता था और पढ़ाई समाप्त करके दुकान पर आ जाया करता था। पिता का हाथ बँटाता और धंधे का हुनर भी सीखता। उसका मन जल्दी ही पढ़ाई से उचट गया। किसी तरह पिता के भय से उसने आठवीं तक पढ़ाई की, मगर दम्मे के मरीज उसके पिता अचानक एक दिन खाँसते-खाँसते इस दुनिया से विदा हो गए। इकलौते बेटे टीसीएस के ऊपर विपत्ति का पहाड़ गिर पड़ा। उससे छोटी दो बहनें थीं, जिन्हें पढ़ाना-लिखाना, जिनका लालन-पालन करना और जिनकी शादी करनी थी। टीसीएस ने पिता की दुकान सँभाली और साइकिल की मरम्मत करना, उसके टायर के पंक्चर ठीक करना जैसे काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे बालक टीसीएस किशोर होता गया और मौके को भाँप लेने की अपनी हुनर से कुछेक ही वर्षों में उसने मोटरसाइकिल का काम भी करना आरंभ कर दिया। मोटरसाइकिल की सर्विसिंग, क्लीनिंग़, उसके टायरों में हवा भारना आदि। काम निकलते ही उसने अपने मुहल्ले के कुछ और लड़कों को भी काम पर रखना शुरू कर दिया। जो मोटरसाइकिल उसके पास ठीक होने के लिए आते, उन्हें ठीक करने के बाद वह किसी हीरो जैसे उसपर सवार हो हवा से बातें करने लगना लगता। उसकी इसी अदा पर मुहल्ले की एक लड़की गौरी विश्वकर्मा ने उसे अपना दिल दे दिया। वह टीसीएस के पड़ोस में ही रहती थी। नहीं, टीसीएस उनके पड़ोस में रहता था। अबतक टीसीएस किराए का मकान छोड़कर अपने घर में रहने लगा था। वहीं पर दोनों का प्यार हुआ। दोनों के परिवार की जाति, संस्कृति और आर्थिक हैसियत भिन्न थी, मगर अपनी बेटी की खातिर गौरी के माता-पिता अंतत: मान गए थे। टीसीएस का परिवार इस शादी के लिए पहले से ही तैयार था। बाहर से आए टीसीएस के परिवार को इस स्थानीय गठबंधन से कुछ लाभ ही हुआ। टीसीएस शुरू से मेहनती था और काफ़ी कम उम्र में बाज़ार में आ जाने के कारण उसके भीतर का संकोच टूट गया था। वह अंदर से दृढ़ हो गया था। उसे हर हाल में बड़ा आदमी बनना था और इसके लिए उसने धीरे-धीरे करके कई उल्टे-सीधे काम करने शुरू कर दिए। और फिर किसी तरह जब एन.आई.सी.एल. जैसी बड़ी कंपनी में उसका प्रवेश हुआ तो कमीशनबाजी के बल पर धीरे-धीरे वे ऊपर उठते चले गए। संयोग ऐसा था कि वर्ष 2000 में जब छत्तीसगढ़ समेत कुल तीन राज्यों का निर्माण हुआ, तब यहाँ छत्तीसगढ़ में भी एक साथ कई चीज़ें बदलनी शुरू हुईं। अब तक अलग-थलग माने जाते शहरों का महत्व बढ़ा। सत्ता, राजनीति और प्रशासन के बीच कई नई संधियाँ निर्मित हुईं। कई नए समीकरण बनने शुरू हुए। उस समय कई सरकारी दफ्तर, सरकारी-निजी कंपनियाँ धड़ल्ले से या कहें कुछ हड़बड़ी में रायपुर में खुलीं। ऐसे में उनके ऑफिस से लेकर निवास तक कई तरह के काम निकलने लगे। ऐसे में कुछ तेज़-तर्रार लोगों ने अपने लिए भी मौके तलाशे। टीसीएस भी तबतक अपने व्यवासाय में जम चुके थे, मगर उन्हें लगा कि सिर्फ़ एक दुकान से घर तो चलाया जा सकता है, घर को भरा नहीं जा सकता है। सो, झूठ-सच करके उन्होंने कई दिशाओं में हाथ-पाँव मारे। तब रायपुर में जमीन कुछ सस्ती थी और यही कोई सात-आठ लाख में उन्होंने लगभग चार हजार वर्ग फीट ज़मीन ली और उसपर एक साथ तीन मंज़िलें ठोक दीं। व्यावसायिक बुद्धि से लैस राव ने अपने घर को हॉस्टल के रूप में ढाल दिया। उसे जिस बीमा कंपनी का काम मिला, वहीं आनेवाले कई नए स्टॉफ को उन्होंने अपने घर में टिकाना शुरू किया। धीरे-धीरे उनकी ज़रूरत के हिसाब से अपने घर ही में लाउंड्री वाले, साफ-सफाई वाले और रसोइए को भी रखना शुरू किया। एन.आई.सी.एल. का रायपुर में राज्य स्तरीय कार्यालय खुला तो उसकी साफ-सफाई, एसी संस्थापन, जेनरेटर, कैंटीन आदि के अलग-अलग टेंडर निकाले गए। उस समय के कार्यालय प्रमुख संजीव घोष से टीसीएस की ख़ूब छनने लगी थी। रात में दोनों हमप्याला भी होने लगे थे। संजीव घोष ने शादी नहीं की थी मगर बड़े ऐय्याश क़िस्म के अधिकारी थे। मांस-मदिरा से उनका रोज़ का नाता था। और नशे के बाद वे बहकने लगते थे। टीसीएस के होस्टल की कोई-न-कोई महिला कर्मचारी चौबीस घंटॆ उनकी सेवा में तैनात रहती थी। उन्हें टीसीएस की ओर से अलग से और पैसे दिए जाते थे। संजीव घोष की टीसीएस ने ख़ूब सेवा की और बदले में अलग-अलग फर्मों के नाम से एन.आई.सी.एल. के अधिकाधिक टेंडर अपने पाले में झपटते चले गए। हालत यह हो गई कि प्रदेश मुख़यालय रायपुर सहित प्रदेश की सभी शाखाओं में एक ही ठेकेदार टीसीएस राव के जेनरेटर लगे हुए थे। पूरे सूबे में उनका दबदबा था। धीरे-धीरे उन्होंने अपने पाँव और अधिक फैला लिए थे। और यही क्रम कोई पंद्रह सालों से अनवरत जारी था। नए आनेवाले बड़े अफसर से पुराने अफसर द्वारा टीसीएस के बारे में टिप्स मिल जाया करते थे। यहाँ तक कि उस बीमा कंपनी का प्रदेश-मुखिया भी उनकी बातों में ज्यादा टाँग नहीं अड़ाता था। हाँ, उनकी सेवा-पानी में वे कोई कसर नहीं छोड़ते थे। हमेशा लकदक सफ़ेद क्रीच कुर्ते-पायजामे में लैस राव को अपने साँवले शरीर से कुछ अधिक ही प्यार था। वे हमेशा उसे चमकाकर रखना चाहते थे। उनका व्यवहार बड़ा शालीन था और किसी को उनके वैभव का अंदाज़ा नहीं हो पाता था। उनका काम सही से चलता रहे, उनकी व्यावसायिक बुद्धि को बस इसी से लेना-देना था। अपने होस्टल की उन्हीं महिलाओं से इस कंपनी की साफ-सफाई कराने लगे। एन.आई.सी.एल. की ओर से जो पैसे मिलते थे, वे सीधे उनके खाते में जाते थे। मगर वह उनसे अपने पूरे हॉस्टल की भी साफ-सफाई करवाता था। उसके पास दस से अधिक ऐसी महिलाएँ थीं। टीसीएस चाहते थे कि एन.आई.सी.एल. के स्टॉफ सदस्य उसकी सफाई-कर्मियों से ज़्यादा बात न किया करें। जाने कब कौन उसके ख़िलाफ़ क्या उगल दे।

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