Hawao se aage - 17 in Hindi Fiction Stories by Rajani Morwal books and stories PDF | हवाओं से आगे - 17

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हवाओं से आगे - 17

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

सूत का बंधन

(भाग 2)

“अच्छा... तो दिन में कितनी दफ़ा आप लोग मुझे फ़ोन करके मुझसे मेरे बारे में पूछते हो ? क्या कोई ये जानना भी जरूरी समझता है कि दिन भर में मैं कितना रोयी, कितना सोयी या मैंने खाना समय पर खाया कि नहीं | और ये किसे मालूम की जो दवाइयाँ मेरी जीवन रेखाएँ बन चुकी हैं, क्या मैं उन्हें समय पर गटकती हूँ ?”

“सिर्फ ये सवालात महत्वपूर्ण नहीं होते किसी की कद्र को जताने के लिए | हम सब घर लौटते ही क्या सबसे पहले तुम्हें ही नहीं पुकारते ?”

“हाँ... पुकारते हो सब मुझे ही, पर अपनी-अपनी ज़रूरतों के लिए, ना कि मुझसे मेरे बारे में पूछने के लिए|”

“उफ़्फ़... तुम भी न कभी-कभी बिलकुल अनप्रिडिक्टेबल हो जाती हो |” पहले-पहल विपिन ऐसे मौक़ों पर एकाध बार समझाने की कोशिश करते थे किन्तु बच्चे अमूमन ऐसे मौक़ों पर इसे बड़ों का मसला समझकर चुप ही रहते थे | उनके टुकुर-टुकुर ताकते चेहरों में सुरेखा अपने लिए चिंता की रेखाएँ तलाशना चाहती थी | वह एक ढाढ़स भरी निगाह की तलाश में अक्सर और भी अधिक निराश हो जाया करती थी | अब तो बच्चों के कद भी सुरेखा के कंधों तक पहुँचने लगे थे | वे चाहते तो बढ़कर माँ के सीने में आसानी से समा सकते थे | क्या ये फासले भी इन बड़े शहरों की देन हैं या बदलती संस्कृति का असर ? जो भी है इस बदलाव के असर से हर घर प्रभावित हो रहा था | चारदीवारी से लेकर नींव तक में दरारें स्पष्ट दिखाई देने लगी हैं अब तो | “हे गंगा मैया ! ये मेरा भ्रम ही हो |” वह बालकनी से लहरों की तरफ हाथ जोड़कर बुदबुदा देती थी |

“माँ वह मरीन ड्राइव है आपकी गंगा मैया नहीं |” बच्चे उस पर हँसते तो वह खीज उठती थी |

“पानी तो पानी है चाहे नदिया का हो या समुद्र का, हमारे लिए वह पूजनीय ही है |”

“हाँ सो तो है बस गंगा मैया का पानी मीठा होता है और समुद्र का खारा |”

“बस यही तो फ़र्क है गाँवों के संस्कार और इन शहरों के आधुनिक विचारों में, जो अब हमारी संस्कृति में भी उतर आया है |” सुरेखा सिसक उठती थी |

“कम ऑन मॉम ! आप कब तक अपने गाँव को याद करती रहोगी ? अब यहाँ रहना है तो यहीं खुश रहो न |”

“ठीक है भैया ! अब यहीं खुश हैं हम भी |” सुरेखा “भैया” शब्द पर कुछ अधिक ही स्ट्रैस देती और रुआंसी हो उठती थी |

विपिन ने उस रोज़ जल्दी घर लौटने को कहा था | सुरेखा जानती थी वह शाम तक भूल भी गया होगा कि सुरेखा को राखियाँ खरीदने जाना है | रक्षाबंधन में कुछ ही दिन बचे थे | विपिन भूल गया था या काम की अति व्यस्तता उसे घर को भुलाने पर मजबूर कर दिया हो पर फिलहाल तो सुरेखा चिढ़ रही थी | वह बेमन से खिड़की पर जा लगी थी | बेतहाशा हुई बारिश से खिड़की के शीशे दूधिया हो उठे थे | उसने खिड़की पूरी खोल दी | गीली हवा के साथ बहकर आई एक ठंडी बयार ने उसे भीतर तक कंपकंपा दिया | उसने घबराकर खिड़की के पल्ले अधखुले कर दिए | बाहर स्ट्रीट लाइट्स की रोशनी में टैक्सियों की कतार दिखाई दे रही थी,एम एच 01 बीबी 2141.

उफ़्फ़ इनकी वजह से सड़क भरी ही रहती है, प्रदूषण फैलाते हैं सो अलग | कीड़े-मकोड़े की तरह बसर करते हैं फिर भी न जाने बड़े शहरों का मोह क्यूँ नहीं छूटता इनसे ? छोटे-छोटे शहरों से आकर फूटपाथ पर पड़े रहना मंजूर है किन्तु अपने घर की सूखी रोटी खाकर आँगन में बिछी खाट पर सुकून की नींद इन्हें नहीं सुहाती ?

मुंबई के मौसम का कुछ पता नहीं चलता | पिछले दिनों तेज़ बारिश थी तो उस रोज़ कड़ाके की धूप | कई दिनों से विपिन का इंतज़ार करती-करती सुरेखा ने अकेले ही बाज़ार जाने की ठान ली थी |

“अपनी मिट्टी से दूर पड़े हो, कित्ता कमा लेते हो ?” अपनी ही रौं में सुरेखा ने उसी एम एच 01 के ड्राईवर से पूछा था- आस-पास जाना हो तो वह अक्सर उसी की टैक्सी लेती थी |

“उतना ही कि अपना गुज़ारा करके घर भी भेज देते हैं |”

“इत्ता तो वहीं पर ही कमा लीजिएगा न ?”

“नहीं न होता है मैडम उहाँ गुज़ारा तभी तो इधर का रुख किए हम |”

“हम्म ...” ठीक है सुरेखा चिढ़ जाती है | काम दो कोडी का किन्तु ईगो देखो इनका |

“मैडम आप बुरा न मानिएगा लेकिन आप भी तो उहाँ से आइके इहाँ बसी हो |” वह पान चबाते हुए चिढ़कर बोला |

“हाँ भैया सो तो हईये है |” ओहो... ये क्या मन की बात भी पढ़ लेता है, सुरेखा सकपका गई | आइंदा इसकी टैक्सी से तौबा ! वह तो अपने उधर का ही है वर्ना टैक्सियों की क्या कमी है उसे ?

“तुम जा सकते हो | मुझे देर लगेगी | मैं लौटते में दूसरी टैक्सी ले लूँगी |” सुरेखा ने उससे पीछा छुड़ाने की गरज से कहा पर उसने जैसे सुना ही नहीं और चबड़-चबड़कर पान खाने लगा था | विपिन होता तो कहता-

“गजब के ढीठ होते हैं ये गरीब लोग भी |”

“ढीठ नहीं होते, जीविका का प्रश्न इन्हें ऐसा बना देता है |”

“सही कहती हो, द टफ़ेस्ट सर्रवाइव्स” हर बात के अंत में अपने ही तर्कों से सही या गलत का फैसला कर देना विपिन की आदत है |

सुरेखा ने उस रोज़ जी भरकर खरीददारी करने की ठानी थी | उसने गाँव भेजने के लिए राखियाँ खरीदी | बचपन में सिक्कों वाली राखी बड़े भैया जिद करके बंधवाते थे फिर उसके एक-एक सिक्के से दोनों भाई-बहन कई दिनों तक बर्फ के गोले और कुल्फ़ियों का मज़ा लिया करते थे | उसने दुकान पर रखी सिक्कों वाली राखी को स्नेह से हाथ में लिया और फिर एक रुद्राक्ष वाली राखी भैया के लिए पसंद कर ली | कुछ और राखियाँ घर के बड़े-बूढ़ों, भौजाइयों और बच्चों के लिए भी उसने खरीद ली | भेजना तो बहुत कुछ होता है पर मन को मसोसना भी इन बड़े शहरों ने ही सिखाया है | लिफाफे में प्रेमपगी दो पंक्तियों के साथ सिर्फ़ राखी ही भेज पाती है | अगर स्वयं जाती तो फल-मेवे, कपड़े, मिठाइयाँ और उपहार भी ले जाती पर घटते-बढ़ते ब्लड-प्रेशर के चलते आए दिन चक्कर आते रहते हैं सो बरसों से चिट्ठियों के भरोसे ही स्नेह भिजवा दिया करती है | मन दुखी और उदास हो आया था ऊपर से तेज़ बरसती धूप | उसने पर्स में छाता टटोला किन्तु खाली हथेली ही बाहर लौट आई थी | हलक सूखापन उतर आया था सो उसने पास ही के दुकान से नारियल पानी पीने का मन बनाया |

न जाने उसने वह नारियल पानी पिया भी था या नहीं ? उसे बस इतना ही याद था कि वह बैठने के लिए किसी जगह की तलाश कर रही थी | उस पर भयंकर चक्कर हावी हो गए थे और उसने अपनी आँखें खोली तब उसने अपने-आपको अस्पताल के बिस्तर पर पाया था | उसकी नज़रों के सामने कई साय एक साथ लहराए थे | धुंधली आँखों से उसने देखा कि विपिन के अलावा तीन जोड़ी आँखें उसे एकटक घूर रही थीं |

“कमाल करती हो सुरेखा, इस तरह अकेले निकल पड़ी ?”

“माँ हमसे भी तो बोल सकती थीं तुम, अगर पापा बिज़ी थे |” बच्चों की पनीली आँखें और विपिन का चिंतातुर स्वर उसे भीतर तक भेद गया था |

“फिलहाल तो हमें मिलकर इनका शुक्रिया अदा करना चाहिए | उस दिन अगर ये तुम्हारा इंतज़ार न करते तो कौन उस भीड़ में तुम्हें पहचानता ? हमें तो अंदेशा भी नहीं होता कि तुम कहाँ हो ?” विपिन ने उस तीसरी जोड़ी आँखों की तरफ मेरा ध्यान खींचा था |

“कौन हैं ये ? ये तो एम एच 01 ....?” सुरेखा इससे आगे कुछ कहती कि उसे नींद ने घेर लिया था या शायद दवाइयों का असर था | अगले कई दिनों तक वह उस तीसरी जोड़ी आँखों को खोजती रही थी | विपिन ने बताया कि वह ड्राईवर हर रोज़ आता है किन्तु बाहर से ही सुरेखा की खोज-खबर लेकर लौट जाता है |”

उसे अपनी रोज़ी-रोटी भी तो कमानी है न आख़िर |

“सच है... मैंने उन्हें गलत समझा था” सुरेखा का मन भर आया |

“किसे ?”

“इन बड़े शहरों में घर संकुचित हो सकते हैं पर इंसानियत के दिल अब भी बड़े हैं | रक्षाबंधन कौनसी तारीख को है ?”

सुरेखा तुम यहाँ पिछले 10 दिनों से भर्ती हो और खुशी की बात यह है कि कल तुम्हें छुट्टी मिल रही है | कल ही रक्षाबंधन है | यानिकी कल तुम अपने घर में हम सब के साथ त्योहार मनाओगी | सुरेखा ने अगले दिन खीर-पूड़ी बनाई थी और वे तमाम व्यंजन भी जो विपिन और बच्चों को पसंद थे और सबसे ख़ुशी की बात तो ये थी कि इन सभी कार्यों में विपिन और बच्चों ने उसका भरपूर साथ दिया था | विपिन ने उसे यह कहकर और भी ज्यादा आश्वस्ति प्रदान की थी कि उसने तमाम राखियाँ अपने गंतव्य तक समय से पहुँचा दी थी |

उस रोज़ सुरेखा ने मंदिर में रखे कच्चे सूत के धागों की कई-कई लड़ियाँ आपस में पिरोकर एक और राखी बनाई थी जिसे उसने एम एच 01 के ड्राईवर भैया के हाथों में बड़े स्नेह से बांध दी थी | सच ही कहा है किसी ने- “स्नेह का बंधन यदि स्वार्थहीन व सच्चा हो तो कच्चे सूत के धागों से भी टिका रहता है |”

***