कक्षा छह में मुझे पहली बार पॉकेट मनी यानी जेब खर्च मिलना शुरू हुआ। जेब खर्च के नाम पे 1996 में रोजाना एक रुपया बुरा नहीं था। मैं शायद दुनिया का पहला ऐसा बच्चा रहा हूं जो इस लालच में स्कूल जाया करता था कि सुबह सुबह पापा एक रुपए देंगे। पर परेशानी संडे यानी रविवार को होती थी क्यों कि उस दिन कुछ नही मिलता था। पापा बोलते थे आज तो छुट्टी रहती है पैसे का क्या करोगे। घर पे माँ से कुछ अच्छा बनवा लिया करो। मैंने सोंचा अच्छे के चक्कर मे बैंगन की सब्ज़ी ही खानी पड़ेगी इसलिए मैंने कभी ये खतरा कभी नही लिया। मैं शायद वो पहला बच्चा भी रहा जो एक रुपये के चक्कर मे संडे को भी स्कूल जाने को तैयार हो जाये।
रोज़ स्कूल जाता और छुट्टी होने पे सबसे बड़ा ये काम होता कि इस एक रुपये में ऐसा क्या ख़रीद लू जो सबसे मजेदार हो। उस एक रुपये की कीमत आज अनमोल है क्योंकि वैसे बहुत सारे एक रुपये हमारे पास है लेकिन वो बचपन नही है।
बहुत सोंचने के बाद मैंने फैसला लिया कि एक खाने वाली ऐसी चीज है जो बहुत देर तक चलती है, मिलती भी बहुत से फ्लेवर्स में है और सबसे बड़ी बात वो स्टाइलिश भी बहुत है। लोग उसको खाके कूल लगते है और फुलाक़े सुपर कूल।
मेरा फैसला था च्युइंग गम खाने का। अब में रोज़ स्कूल से छुट्टी में बाहर निकलते ही एक च्युइंग गम लेता और मस्त चबाता और स्टाइल में फुलाता हुआ घर को आता। कभी वाइट वाला कभी पिंक वाला और कभी ग्रीन वाला। पर उन सबमे मेरा पसंदीदा था रेड वाला। रोज़ रेड च्युइंग गम खाते हुए कभी बोर नही हुआ। उसका फ्लेवर सबसे अच्छा था।
पर च्युइंग गम खाने में परेशानी भी है। मुँह में डालने के दस मिनट के बाद वो बिल्कुल फिका हो जाता है और फिर सिर्फ भैंस की तरह चबाते रहो चबाते रहो चबाते रहो। कुछ दिन तो स्कूल के टेस्ट से ज्यादा बड़ा और कठिन इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना था कि च्युइंग गम को कम से कम दो घंटे कैसे चलाया जाए। बहुत सोंचा बहुत सोंचा और ये क्या मेरे शातिर दिमाग मे आईडिया आ गया।
एक दिन मैंने च्युइंग गम खाया और खाते ही घर पहुंच गया और मुझे पता चला कि आज तो घर मे मटर पनीर बना है। मेरी खुशी का ठिकाना नही था मैंने जल्दी से कपड़े बदले हाथ धोये और खाना खाने बैठ गया। जैसे ही माँ ने मुझे च्युइंग गम खाते देखा वो बोली," अरे, च्युइंग गम तो थूंक दो महाराज या पनीर के साथ ये भी खाओगे"।
अब लो टेंशन हो गयी, पनीर खाता हूं तो च्युइंग गम बेकार च्युइंग गम खाता हूं तो पनीर का क्या होगा। मैं उसे थूंकने के बहाने बाहर निकला और च्युइंग गम को मुँह से निकाल के छत पे छाँव में रख आया और फिर वापिस आ गया। माँ से बोला कि थूंक आया और मस्त पनीर का मज़ा लेने लगा। खाना खाने के बाद माँ ने थोड़ी सी चीनी दी और बोला लो मिर्च लग गयी होगी थोड़ी सी चीनी खालो। मैं चीनी लेके छत पर गया और वहाँ देखा मेरी खाई हुई च्युइंग गम पड़ी हुई है। मैंने उसको उठाया और उसको खोल कर उसमें चीनी डाली और फिर से मुँह में डाल ली।
खाते ही मैंने बोला- ये तो सही है यार पनीर के मज़े भी हो गए और च्युइंग गम भी खराब नही हुई। चीनी डालके स्वाद भी वापिस आ गया। अपने लाखो के सवाल का जवाब पाके मुझे ऐसा लगा जैसे बोर्ड की परीक्षा में टॉप कर लिया हो। कॉन्फिडेंस ऊपर हो गया बिल्कुल ऊपर।
अब मैं ये काम रोज़ करने लगा। च्युइंग गम खाता और मिठास कम होती मैं किचन में जाके चीनी लाता और च्युइंग गम के बीच मे डालके फिर खा लेता। फिर मिठास कम होती फिर यही करता। इस तरह दो बजे खाई हुई च्युइंग गम मैं शाम छह बजे तक चलाता। ये करके ऐसा लगता जैसे जिंदगी की रौनक़ फिर लौट आयी है खुशियां फिर लौट आयी है।
करीब दो महीने तक ये सिलसिला रोज़ ही चलता रहा। मैं च्युइंग गम तब तक खाता जब तक उसकी जान न निकल जाए और वो खुद बाहर आके थूंक देने के लिए हाथ जोड़के गुज़ारिश न करने लगे।
एक दिन पनीर कांड फिर से हो गया। माँ ने पनीर बनाया और मैंने लाल वाला च्युइंग गम खाया हुआ था। माँ ने थूंकने को बोला मैं च्युइंग छत पर रख के आया। पनीर खाया और फिर बाद में जाके चीनी मिलाके च्युइंग गम फिर से खाया।
खाते खाते मैदान में पहुंच गया। वहाँ मेरा बड़ा भाई पहले से ही बैठा हुआ था। फिर हम दोनों साथ मे बैठ गए। थोड़ी देर बैठने के बाद मैंने हमेशा की तरह च्युइंग गम फुलाया। फुला हुआ च्युइंग गम देख के भाई बोला," आज तूने सफेद वाली च्युइंग गम खाई क्या" मैंने बोला," नही ,क्यों क्या हुआ"। वो बोला, "कुछ नहीं पर तेरा वाला आज लाल नही सफेद दिख रहा है" । यह सुनके मैं हैरान हुआ और मैंने अपनी च्युइंग गम बाहर निकली और वो सच मे सफेद थी। मैं बहुत हैरान हुआ और सोंचने लगा। इतने में मेरे भाई ने पूंछा," क्या तुम भी अपना च्युइंग गम छत पे रख के आते हो" मैंने पूंछा, तुम भी मतलब, और कौन रख के आता है?" भाई बोला, "अरे गधे मैं और कौन"। फिर उसने अपनी च्युइंग गम निकाली और मैंने देखा कि उसकी वाली रेड थी और मेरी वाली सफेद। यानी हमारी खाई हुई च्युइंग गम बदल गयी थी।
हम दोनों ने वही पे उल्टियां करनी शुरू कर दी। दौड़ के घर गए मुँह धोया और कसम खायी की फिर कभी ज़िन्दगी में च्युइंग गम तो नही खाएंगे और कभी खाई भी तो निकाल के दोबारा तो बिल्कुल नहीं खाएंगे।
आज भी जब च्युइंग गम देखते है तो वो बचपन की शरारतें याद आती है। मैं तो ये चाहूंगा कि आज के बाद जब आप भी किसी को च्युइंग गम खाते देखे या खुद भी खाए तो इस छोटी सी कहानी को याद न करें क्योंकि अगर आपने की तो फिर आप च्युइंग गम खा नहीं पाएंगे।
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कोशिश की है आपको नटखट और शैतानी से भरे बचपन की याद दिलाने की जब एक रुपया भी कम न था क्योंकि तब बचपन था अब तो एक लाख भी कम है क्योंकि अब बचपन नही हैं।
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---------देव