My own city in Hindi Motivational Stories by Manjeet Singh Gauhar books and stories PDF | मेरा अपना शहर

Featured Books
Categories
Share

मेरा अपना शहर

इस पूरे विश्व में बहुत सारे देश हैं। और फिर उन देशों में ना जाने कितने सारे राज्य हैं, और उन राज्यों में ना जाने कितने ही सारे शहर हैं।
इसी तरह इस विश्व का एक छोटा-सा देश भारत, उसमें एक बड़ा-सा राज्य महाराष्ट्र, और उसमें एक छोटा-सा शहर मुबंई है। जहाँ मेरा जन्म हुआ है।
मेरा शहर सचमुच बहुत ही ज़्यादा ख़ूबसूरत है। यहाँ तरह-तरह की आकर्षक चीज़ें हैं जो इस शहर की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगाती हैं। जिनमें से कुछ ख़ास ये हैं- गेट वे अॉफ़ इडिंया, छत्रपति शिवाजी टर्मिनल, मरीन ड्राइव, जुहू बीच, अमबानी हाउस, वोरीबली सी लिन्क, ताज़ होटल,  हाज़ी अली दरगाह, सिद्धिविनायक मंदिर, माउंट मैरी चर्च, संजय गांधी नेशनल पार्क, फ़िल्म सिटी....।
मेरा शहर मुबंई ऐसा शहर है, जहाँ हर कोई आना चाहता है। मेरे शहर में ऐसा जादू कि जो एक बार यहाँ आ जाता है, वो फिर कभी यहाँ से जाना नही चाहता।
मेरे शहर मुबंई में हर कोई अपने सपने लेकर आता है और मेरा शहर हर किसी को अपने सपनों को पूरा करना मौका देता है।
यहाँ किसी के सपने पलभर में पूरे हो जाते हैं और किसी को कई दशक लग जाते हैं। इसीलिए बहुत लोग इसे मायावी नगरी भी बोलतें हैं।
.
शहर के बारे तो मैने बहुत कुछ बता दिया। अब थोडा कहानी पर नज़र डालते हैं:-
दरअसल जैसे हर व्यक्ति सोचता है कि उसकी कर्मभूमि उसकी जन्मभूमि से अलग हो। वैसा ही मैं भी सोचता था, कि अपने शहर से अलग किसी और शहर में जाकर काम करूं।
मैने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने ही शहर मुबंई में   की थी। मैने सत्रह वर्ष उम्र में ही बारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। और फिर उसके बाद घर वालों के लाख मना करने पर भी मैं दिल्ली नौकरी करने आ गया।
ये बात सोचकर मैं भी बहुत बार परेशान हुआ कि पूरे हिन्दूस्तान के लोग तो वहाँ मेरे शहर मुबंई में नौकरी की तलाश में जातें हैं और मैं अपने शहर को छोड़कर यहाँ दूसरे शहरों में भटक रहा हूँ।
पर फिर ये सोचकर मन को हलका कर लेता था कि जब दूसरे शहरों के लोग मेरे शहर में आकर नौकरी, व्यापार कर सकते हैं तो मैं उनके शहरों में क्यों नही कर सकता।
मुझे दिल्ली में बहुत समय हो गया था लेकिन ना तो मुझे कोई नौकरी मिली और ना ही मैं व्यापार चलाने में कामयाब रहा। मैं कुछ दिन और वहाँ रूका रहा कि कोई नौकरी मिल जाए। लेकिन फिर   भी कोई परिणाम नही निकला। मतलब कि कोई नौकरी नही मिली। और इसलिए मैंने दिल्ली में रहना छोड़ दिया और बैंगलोर आकर रहने लगा।
यहाँ भी काफ़ी समय बिता दिया, लेकिन कुछ ज़्यादा अच्छा हुआ नही। और यहाँ से भी मुझे निराश होकर लौटना पडा।
और फिर बैंगलोर छोड़ गुजरात  चला गया। वहाँ जाकर भी वैसा कुछ नही मिला जैसा मुझे चाहिए था। और इसी तरह मैं भारत के लगभग हर शहर में अपनी क़िस्मत आज़मा चुका था। लेकिन हाथ कुछ नही लगा सिवाय अफ़सोस करने के, कि मैं अपने इतने ख़ूबसूरत शहर को जिसने ना जाने कितने लाख लोगों की क़िस्मत चमकाई है, उस स्वर्ग को छोड़कर यहाँ इन शहरों में दर-दर की ठोकरें खा रहा हूँ।
सभी जगह से निराशा लेकर जब मैं अपने शहर में पहुँचा तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि ना जाने कितने समय से ये मेरा अपना शहर मेरे लौटने का इन्तज़ार कर रहा हो।
अब चूंकि रूपये-पैसे क़रीब-क़रीब मुझसे  ख़त्म हो चुके थे। क्योंकि मैने हर शहर में सिर्फ़ खर्च किया, कमाया कुछ भी नही था। लेकिन मुझे जगह-जगह घूमने से बहुत कुछ चीज़े नई सीखने  को मिली थीं। जैसे- सभी शहरों के खाने में से थोडा-थोडा बदलाव करके मैने एक नई चीज़ बनानी सीखी, जिसे अब लोग बड़ा पाव के नाम से जानते हैं।
मैने अपने शहर मुबंई में सबसे पहले बड़ा पाव का एक ठेला लगाया। थोडे समय बाद मेरी दुकानदारी   बहुत बढ़ गयी, और देखते ही देखते अब वो मेरा छोटा-सा ठेला एक बहुत बड़ी दुकान में तवदील हो    गया। उसी ठेले और बड़ा पाव के पैसे से मैने एक इमारत बनवायी। जो आज पूरे हिन्दूस्तान में  "द ओवरॉय होटल अॉफ़ मुबंई" के नाम से प्रशिद्ध है।
और मैं जिसने हिन्दूस्तान के हर शहर में दर-दर की ठोकरें खायीं,  उसका परिचय पूरी दुनिया से कराया। और मुझे इतना ज़्यादा क़ाबिल शख़्स बनाया कि हर कोई मुझसे मिलना चाहता है।
..
ऐसा है मेरा अपना शहर "मुबंई-MUMBAI".....।।

मंजीत सिंह गौहर